प्रेमचंद : गाँव से 'विश्वग्राम' की अन्तर्यात्रा

Dr. Mulla Adam Ali
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Munshi Premchand Jayanti Special

Munshi Premchand Jayanti Special

31 July Premchand Jayanti Special : आज प्रेमचंद का जन्मदिन है, उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी ले समीप लमही गांव में हुआ था, बचपन का नाम धनपतराय श्रीवास्तव था, मानसरोवर आठ खंडों में प्रेमचंद की 300 से अधिक कहानियां संकलित हैं। एक दर्जन उपन्यास लिख चुके हैं प्रेमचंद, गोदान, गबन, निर्मला, सेवासदन, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, मंगलसूत्र आदि प्रमुख हैं। तो चलिए आज जानते हैं गांव से विश्व ग्राम की अंतर्यात्रा प्रेमचंद की।

मुंशी प्रेमचन्द : गाँव से 'विश्वग्राम' की अन्तर्यात्रा

प्रेमचन्द को आनने, समझने, परखने और मूल्यांकित करने की जिज्ञासा हर पाठक, लेखक, शोधार्थी एवं आलोचक में एक नई दृष्टि व सोच के साथ उमड़ती रही है। उनके साहित्य को बौद्धिक एवं समीक्षात्मक दूरबीनों से खंगाला गया तो कथाकार के रूप में उन्हें कई नामों से संज्ञापित भी किया गया। 'सोजे वतन' की जब्ती पर हमीरपुर के तत्कालीन कलेक्टर ने मुगलकाल का संदर्भ देते हुए प्रेमचन्द को जो धमकी दी थी, वह प्रतिकूल नियति के रूप में एक साये की तरह सदा पीछा करती रही। लेकिन एक गाँव में पैदा हुए, पले और बड़े हुए प्रेमचन्द की रीढ़ और कलम में असीम ताकत थी। शायद यही कारण था कि हर कष्ट, दुःख, शोषण, मजबूरी, अभाव आदि उनसे टकराकर हार मान लेते थे। कहने का प्रयोजन यह कि प्रेमचन्द का मनोवैज्ञानिक एवं सृजनात्मक पक्ष फौलादी था।

यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है कि प्रेमचन्द गाँव से इसलिए नहीं जुड़े थे कि वे गाँव में पैदा हुए थे। सब यह है कि वे तो बहुत गहरे स्तर पर गाँव से जुड़े हुए थे। उन्होंने 1931 में लिखा था- "गाँव का शांत जीवन मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग है। "प्रेमचन्द किसानों के बारे में जिम्मेदारी भी महसूस करते थे और उनके प्रति बौद्धिक तथा भावात्मक लगाव भी रखते थे। इसलिए उन्होंने ग्रामीण जीवन को अपनी रचनाशीलता का केन्द्र बनाया। शहर को गाँव का शोषण करने वाला मानते हुए वे सहजता से आवर्गीकरण करते हैं। धीरे-धीरे इन्होंने पहचाना कि देश में शोषण का एक व्यापक तंत्र है। गाँव में शोषण का एक छोर है तो शहरों में दूसरा छोर है। ऐसे ही शोषण के तमाम छोरों को प्रेमचन्द ने खुली आँखों से देखा था। उन्होंने सामंती व्यवस्था की रुचियों, उसके शौकों, पुरानी व्यवस्था के अवशेषों, किसानों के भाग्यवाद और समझौतावाद से भी साक्षात्कार किया था। प्रेमचन्द ने किसानों की कमजोरियों की आलोचना की तो उन्हें इनके प्रति सचेत भी किया। इसी वजह से आरंभ के दिनों के प्रेमचन्द एक कहानीकार तथा बाद में एक उपन्यासकार एक के बीच अंतर होते हुए भी उनकी रचनाशीलता में बराबर व्यापकता एवं गहराई देखने को मिलती है। वे गाँव की जिंदगी, प्रकृति, संस्कृति और विकृति सभी ओर ध्यान देते हैं तथा साथ ही वास्तविकताओं और संघर्ष का चित्रण करते हैं।

एक परिपक्व कोण से देखा जाए तो प्रेमचन्द स्वाधीनता आंदोलन के कलम के सिपाही ये। उन्होंने हल की नोक से जमीन को उद्वेलित होते देखा था और स्याही की चंद बूंदों से लोगों को आंदोलित होते पाया था। इसीलिए वे किसानों और गाँवों को स्वाधीनता आंदोलन की रीढ़ समझते थे। ये किसानों को जगाकर स्वाधीनता आंदोलन को व्यापक बना रहे थे। प्रेमचन्द ने स्वाधीनता का प्रयोग सदैव एक बड़े अर्थ में लिया। वे अच्छी तरह से जानते थे कि यह देश अंग्रेजों का गुलाम है और यहाँ गुलामों के भी गुलाम हैं। उन्होंने सामंती व्यवस्था को एक तरह से भीतरी अवस्था की गुलामी ही माना। ये जान चुके थे कि उपनिवेशवाद में किसानों की दशा कैदियों की तरह है। देश की आजादी, भीतरी सामंतवाद, किसानों की मुक्ति, सामंती रुढ़ियाँ आदि प्रेमचन्द को सोने नहीं देती थीं। यही वजह थी कि उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन को व्यापक संदर्भों में रखा और मौका मिलते ही उपनिवेशवाद विमर्श का विरोध भी किया। ताज्जुब नहीं कि अपनी विविध एवं व्यापक रचना दृष्टि से प्रेमचन्द ने अपने लेखन के माध्यम से कथा साहित्य को गाँवों से जोड़ दिया। उनके अंदर तो एक तपता तनाव रहता था और शुरू से अंत तक यह तनाव उनमें रहा है। 'प्रेमाश्रम' से चलते-चलते 'गोदान' तक आते-आते यह तनाव दिखाई देता है। दिलचस्प है कि इस तनाव का समाधान भी नहीं हो पाया। गाँव का भीषण यथार्थ उन्हें बराबर कुचेड़ता रहा। हाँ, एक आकर्षण गाँधी का जरूर था। क्योंकि वे आदर्श गाँव की बात करते थे। लेकिन प्रेमचन्द में गाँव के यथार्थ के प्रति संवेदना है। 'प्रेमाश्रम' में आकर्षण प्रबल है, हृदय परिवर्तन है। 'गोदान' में आदर्श तो बना रहा है, लेकिन यथार्थ प्रगाढ़ होता चला गया। यू तो 1919 में 'पुराना जमाना नया जमाना' में भी प्रेमचन्द किसानों एवं जमींदारों के बारे में बातें करते दिखाई देते हैं। उन्हें पुराने जमींदारों से आशा भी है, लेकिन नए जमीदारों से कोई उम्मीद नहीं है। 'प्रेमाश्रम' में समानता के नाम पर आश्रम बनता है, लेकिन समानता गायब है। 'गोदान' तक आते-आते पुराने किसानों की निराशा की घुंघ बराबर छाई रहती है। सच तो यह है कि गाँव के जीवन के प्रति जो आकर्षण और दिल को दहलाने वाला यथार्थ प्रेमचन्द को परेशान करता रहता था, उन्हें इसका कोई भी समाधान नहीं मिला।

प्रेमचन्द ने गाँवों में जाकर आत्मा की खोज की और इस तरह गाँव उनकी रचनाधर्मिता की पृष्ठभूमि बन गए। उनका उद्देश्य था संघर्ष को उभारना और ऐसे पात्रों को सृजित करना जो संघर्षशील हों। इसीलिए उनके स्त्री पात्र भी संघर्षरत विखाई देते हैं। ग्रामीण स्वियों में कुछ करने की बलबती इच्छा पैदा हो गई है और वे अब जागरुक हैं। इस उदात्त संदर्भ में प्रेमचन्द ग्रामीण जीवन के चित्रकार है तो ग्रामीण परिवेश के संघर्ष के प्रणेता भी हैं। 'रंगभूमि' का सूरदास हारता नहीं, झुकता नहीं, टूटता नहीं, चल्कि जीतता है। उससे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता था। यक़ीनन उसकी चेतना जनता की अपराजेयता का प्रतीक है। 'गोदान' में यही चेतना चरम शिखर पर है। निराशा का भाव हुँढने पर भी नहीं मिलेगा। यदि 'गोदान' में से होरी अनुच्छेद को निकाल दिया जाए यो उपन्यास की जान निकाली जाएगी।

'भारतीयता' से ही प्रेमचन्द को आस्था मिली थी, क्योंकि 'भारतीयता' अपने आप में एक भारतीय मूल्य है। उनके समय में भी गाँव बदलते रहें, क्योंकि परिवर्तन हो रहे थे। प्रेमचन्द इन तमाम परिवर्तनों को बड़े ध्यान से देख रहे थे। उनकी नजर एक हद तक गाँधी से भी आगे बी। वे जानते थे कि जब तक गाँव के लोगों की चेतना नहीं जागती, तब तक गाँवों का भला होने वाला नहीं है। वे यह भी गहराई से समझते थे कि सभी आंदोलन सतही हैं। इसीलिए उनके किसी गाँव में आंदोलन नहीं है। 'ठाकुर का कुआँ' आज भी मौजूद है। पानी के मामले में आज भी समाज, यहाँ तक कि राज्य भी, उदारवादी नहीं है। मार्के की एक बात यह भी है के शोषण, अभावों, प्रतिकूलताओं और कठिनाइयाँ के बावजूद प्रेमचन्द का कोई किसान आत्महत्या नहीं करता है।

अंतर्विरोध व्यक्तित्व का एक खास हिस्सा है, जिसे प्रेमचन्द ने बखूबी समझा, परखा और पहचाना था। इसके बावजूद उनकी परेशानी यह रही कि नेतृत्व भी न करेगा। यह नेतृत्व बाहर से आएगा या गाँव से नेतृत्व होगा, इसे प्रेमचन्द निश्चित नहीं कर पाते हैं। अमरकांत का अपने नेतृत्व के प्रति मोह है। जेल में अमरकांत में परिवर्तन आता है। यदि बारीकी से देखा जाए तो प्रेमचन्द के यहाँ गाँव के अंदर से नेतृत्व उभरता अवश्य है, लेकिन यह उतना ज्यादा असरदार एवं विश्वसनीय नहीं बन पाता। इस प्रक्रिया में प्रेमचन्द अंत तक स्पष्ट नहीं हो पाते हैं कि गाँवों का नेतृत्व किसके हाथ में होगा। जहाँ भी वे समझौते की बात करते हैं, वहीं समझौते का आदर्शीकरण हो जाता है। इस संदर्भ में यह भी द्रष्टव्य है कि तत्कालीन सामाजिक चेतना के अंतर्विरोध काफी थे। इसी दौरान कुछ वर्गीकरण एक-दूसरे के विरोधी भी हुए। कालान्तर में विरोधी श्रेणियाँ बनती गईं और राष्ट्रवाद एक तरह से सांप्रदायिकवाद में तब्दील हो गया। लेकिन प्रेमचन्द का दृष्टिकोण प्रारंभ से ही व्यापक एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठा हुआ था। उनमें पूरे भारत के गाँवों की सामान्य तस्वीर थी। प्रेमचन्द ने कहा था- "मैं बो कुछ लिख रहा हूँ, उसका उद्देश्य देश को स्वाधीन बनाना है। साहित्य का उत्थान, राष्ट्र का उत्थान है।" जाहिर है कि प्रेमचन्द ने जो लिखा, वह पहली बार लिखा गया कालजयी लेखन था। तभी तो उनका कथा-साहित्य 1952 में दक्षिण भारत में पड़ा जाने लगा था।

मनुष्य जीवन का विद्रूप रूप जिसे प्रेमचन्द ने अपने समय में देखा था, क्या आज भी यह देखने को नहीं मिलता है। 'हस' में छपा प्रेमचन्द का 'महाजनी सभ्यता' शीर्षक अंतिम लेख क्या आज की तस्वीर नहीं है? प्रेमचन्द के समय के नेताओं का 'छोटा वर्ग' क्या आज 'बड़ा चर्ग' नहीं बन गया है? क्या 'विश्वग्राम' के निवासियों के सुख के बेर से दुख, तनाव और अंतर्विरोधों का ढेर बड़ा नहीं है। ये कुछ ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका उत्तर वातानुकूलित सम्मेलन कक्षों के मंचों से नहीं मिलेगा। इसके लिए तो गाँवों में ही जाना पड़ेगा, मार्क तुली की तर्ज पर।

इसमें भी दो राय नहीं कि 'विश्वग्राम' के वातावरण में प्रदूषण और विस्थापन एक बड़ी समस्या है, जो प्रेमचन्द के गाँव में नहीं थी। इस समस्या से निपटने के लिए हम उन देशों के ऊर्जा साधनों की नकल कर रहे हैं जिनकी जनसंख्या कम है। प्रेमचन्द के गाँव की ज़मीन नशेवादी नहीं थी। लेकिन विश्वग्राम की धरती को तमाम किस्म की खादों में नशेवादी बना दिया है, जिससे उत्पन्न उत्पादों का सीधा असर जगजाहिर है। प्रकृति की हत्या करके विश्वग्राम की आवश्कताओं को पूरा किया जा रहा है। विश्वग्राम में जो 'ब्रेन गेम' एवं 'बॉडी गेम' खेला जा रहा है, उसे प्रेमचन्द के भोले-भाले किसान नहीं समझ सकते हैं। माना कि सूचना प्रौद्योगिकी ने 'गाँवों' को आकर्षित किया है। लेकिन विज्ञान और कंप्यूटर हमारी संस्कृति को शवों में बदलने से बाज नहीं आ रहे हैं और इन शवों पर बैठकर कुछ मिलने वाला भी नहीं है। प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इन तमाम अस्वस्थ संकेतों को बिखेरा है। आज के संदर्भ में बड़ी जागरुकता से उन संकेतों के छिड़काव पर विचार करने की महती आवश्यकता है।

- डॉ. अमरसिंह वधान

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