प्रेमचंद की कालजयिता एवं प्रासंगिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Premchand ki Kaljayita Evam Prasangikta

Premchand ki Kaljayita Evam Prasangikta

विश्व विख्यात कालजयी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद : आज 31 जुलाई कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद जयंती है, उनके जन्मदिन पर विशेष कालजयी साहित्यकार प्रेमचंद की प्रासंगिकता के बारे में जानकारी इस लेख से प्राप्त करेंगे। हिन्दी के महान साहित्यकार प्रेमचंद जन्मशती पर विशेष आलेख पढ़े और साझा करें।

मुंशी प्रेमचंद की कालजयिता एवं प्रासंगिकता

प्रेमचन्द जी एक कालजयी एवं सच्चे अर्थ में 'कलम के सिपाही' हैं, यदि उनके संबंध में यह कहें कि उनकी कलम जादू का काम करती थी तो यह उनके संबंध में कोई बहुत बड़ी जात न होगी। प्रेमचन्द जी की प्रत्येक रचना में सभ्यता के प्रवर्तकों के पहले कदमों की चाप सनाई देती है। यदि उनकी रचनाओं को बारीकी से अवलोकन करें तो उसमें सामूहिक जीवन मंपूर्ण स्थायी, दृढ़ और अमर जीवन का संचार मिलता है। अपने समय की सामाजिक वास्तविकताओं को प्रस्तुत करने में प्रेमचन्द की दृष्टि और पद्धति आज के लेखक के लिए भी प्रासंगिक है। वैचारिक रूप से प्रेमचन्द आदर्शवादी थे और कभी-कभार उनका गाँधीवादी दृष्टिकोण उन सामाजिक अंतर्विरोधों को हल करने की उनकी दृष्टि को धुंधला कर देता था, जिनके प्रति वे गहरे रूप में सजग थे। यह आदर्शवादी समाधान बहुत कुछ उस कहानी की सह था जिसमें हृदय परिवर्तन के बाद शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इस तरह का आदर्श बंकिम चन्द्र चटर्जी, रवीन्द्र टैगोर, शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय और दूसरे लेखकों ने धौदुनिया के सामने उजागर नहीं किया। यह कहकर इन लेखकों की गरिमा को चोट पहुंचाना हमारा प्रयोजन नहीं है। समय सापेक्ष इन लेखकों का अपना विशेष महत्व है। प्रेमचन्द जी की गद्य रचनाएँ हिन्दुस्तान के कथा लेखन (गल्प लेखन) में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का सूचक है क्योंकि उनकी रचनाएँ सर्वव्यापकता, लक्ष्य विस्तार, आवेश और दृढ़ता को समाहित किए हुए हैं।

प्रेमचन्द एक सामाजिक कलाकार है, क्योंकि आपका साहित्य युग को प्रतिबिम्बित करता है। प्रेमचन्द या सामान्यतः किसी भी साहित्यकार या कलाकार के व्यक्तित्व को समझने के लिए मुख्यतः तीन पहलुओं को ध्यान में रखना होगा-युग चेतना, मन के संस्कार और जीवन की परिस्थितियाँ। इन्हीं तीनों उपादानों से साहित्यकार का व्यक्तित्व संवरता है। एक और प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर साहित्यिक परम्पराओं का भी पड़ता है। प्रेमचन्द के साहित्य का पूरा ताना-बाना इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है।

प्रेमचन्द जी ने अपने समय में देखा था कि किस प्रकार बेचारे दीन-हीन किसानों को उनके खेतों और झोपड़ियों से बेदखल कर दिया जाता था, कैसे कारिन्दे, महाजन और पुलिस के सिपाही उनका रक्त चूस रहे थे, कैसे दिन-दिन भर कठिन परिश्रम करने वाले किसानों को अपने परिश्रम के बदले में मारपीट, अभिशाप और भूखे पेट से रहने का पुरस्कार मिलता है। यह प्रेमचन्द के युग का वह यथार्थ है, जो सामंत शाही के विरुद्ध एक जन आंदोलन करने वाले नायक की बाट जोह रहा था। यह सच है कि प्रेमचन्द जी ने तत्कालीन समाज के लम्बरदारों को देखा एवं इनके साथ आन्तरिक सामाजिक संघर्ष को महसूस किया था जो अपनी यथार्थवादी दृष्टि के कारण हर वर्ग के असली स्वरूप और उसकी समस्याओं का सही विश्लेषण कर सकें।

कहानी-जगत में प्रेमचन्द का आगमन एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का सूचक बनकर हुआ। उपदेशात्मकता व्यवहार बरात् की सच्चाई बन गई, काल्पनिकता ने यथार्थ का परिधान ओढ़ा और घटना बाहुल्य चरित्र-प्रधानता की शरण में जा बैठा। इन अर्थों में प्रेमचन्द की कहानियाँ जीवन-संदर्भों से जुड़ती चली गईं और परिणामतः इसने जीवन- सौन्दर्य का साक्षात्कार किया। इस प्रकार कहानी को घटना-चक्र से बाहर निकालकर आन्तरिक भावना और अनुभूति-पटल पर आख्यायित करने वाले कथाकारों में प्रेमचन्द अग्र पाक्तेय हैं। प्रेमचन्द स्वीकार करते हैं कि सबसे उत्तम कथा वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित हो। वह व्यावहारिक सिद्धान्त को ही अधिक वरीयता प्रदान करते हैं। प्रेमचन्द जी ने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर व्यवहार जगत में व्यवहृत मनोगुंथियों के उद्घाटन में ही इसे स्वीकार किया है। एक उदाहरण से वे स्पष्ट करते हैं कि 'साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा से दुखी होना, बुरे आदमी के अंदर छिपे देवत्व का उद्घाटन, विपत्ति की भीषण दशाओं में धैर्यवान बनकर संघर्षरत बने रहना और एक ही घटना या दुर्घटना से भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्यों का भिन्न-भिन्न प्रभाव पाना आदि तथ्य आदि मनोवैज्ञानिक सत्य हैं। ऐसा और इन जैसी भावनाओं के क्रियात्मक रूपान्तरण को प्रदर्शित करना ही प्रेमचन्द की मनोवैज्ञानिकता है और इसके प्रतिपादन में कथा सम्राट ने निश्चय ही सफलता पाई है।

प्रेमचन्द की अधिकतर कहानियां ग्रामीण परिवेश से संबंध रखती हैं, जहाँ जीवन की स्पष्ट स्वच्छंदता दिखाई पड़ती है। वास्तविकता यह है कि जिस देश के अस्सी प्रतिशत मनुष्य गाँवों में रहते हो, तो उसके साहित्य में ग्राम्य जीवन ही प्रधान रूप से चित्रित होना स्वाभाविक है। 'हिन्दी की आदर्श कहानियों नाम से प्रेमचन्द के बारे में किसी लेखक ने लिखा है कि-प्रेमचन्द एक साथ ही आदर्श और यथार्थ को लेकर चलते हैं क्योंकि वे विषय विवेचन में एकदम यथार्थवादी हैं, लेकिन साहित्य की सोद्देश्यत्ता में विश्वास करने के कारण वे एकान्त यथार्थवादी नहीं हो पाते वे यथार्थ को किसी कुशल सर्जन की भांति चीर-फाड़कर रखने के बाद, निदान के लिए औषधि-निर्देय करते चलते हैं। अन्याय, अत्याचार, शोषण और ऐसे ही अन्य 'अमाननीय' तत्वों के प्रति अब उनका मन अधिक सजग हो गया था, और वे यथार्थ की आदर्श में परिणति दिखाने का मोह छोड़ चुके थे, लेकिन यह मनोरचना अभी उतनी उग्र नहीं बन पायी डी, जितनी आगे चलकर 'मंगलसूत्र' में दिखती है।

हिन्दी औपन्यासिक संसार में प्रेमचन्द प्रथम उपन्यासकार हैं जिनकी दृष्टि साहित्य के द्वारा सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देने की रही है। उन्होंने यद्यपि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और नीतिक अचेतना में अपने रचना-संसार को पल्लवित किया लेकिन मानव-जीवन के उत्कर्ष को उच्चस्थ-शिखर तक पहुंचाने में नैतिक उत्थान और आदर्शधर्मिता की सहायता भी खूब ली है। वहीं दूसरी ओर प्रेमचन्द मानवीय जीवन-व्यापारों का चित्रण ही साहित्य का फल स्वीकार करते हैं। प्रेमचन्द ने प्रथमतः अपने उपन्यासों के द्वारा पराधीनता, जमीदारों, पूँजीपतियों और सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसानों पर हो रहे अत्याचार और शोषण, निर्धनता, अशिक्षा, अन्धविश्वास, दहेज की कुप्रथा, नारियों की स्थितियों का व्योरेबार वर्णन, वेश्याओं, विधवाओं, विवाहों, साम्प्रदायिक द्वेषों, मध्यम वर्ग की कुंठाओं का वर्णन प्रेमचन्द ने गणितीय ढंग से न कर मानसिक धरातल पर किया है। उदाहरण स्वरूप मध्यम वर्गीय जीवन त्रासदी का चित्रण गबन और निर्मला में है तो हरिजनों की समस्या और पूँजीवाद के बढ़ते उद्योग धन्धों के कारण बदलते ग्रामीण जीवन की झांकी हमें कर्मभूमि और रंगभूमि में सहन ही उपलब्ध है। विधवा विवाह की समस्या प्रतिज्ञा में नजर आती है तो बेमेल विवाह के दुष्परिणाम निर्मला में कैद होते स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। देश की पराधीनता से फूटता हुआ जन सामुदायिक दर्द प्रेमचन्द की लेखनी और विचार-संघर्षणा पाकर प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन और कर्मभूमि में यत्र-तत्र सर्वत्र दीख पड़ते हैं यद्यपि प्रेमचन्द राष्ट्र प्रेम के पुजारी थे लेकिन उनकी राष्ट्रीयता में वह अभिव्यक्ति न पा सकी, जिसकी आशा उनसे थी।

निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि आदर्श और यथार्थ, घटना और अनुभूति का क्रमशः सन्तुलन प्रेमचन्द की रचनाओं में मिलता है, जिसे उनकी कंथा कृतियाँ पूर्व- प्रभावी ढंग से आलोकित हो उठती हैं क्योंकि 'गोदान' उपन्यास का अंधेरा 'सेवा सदन' को प्रकाशित करता है और कफ़न कहानी का 'पंच परमेश्वर' तक प्रेमचन्द जी सामाजिक कलाकार हैं। अस्तु, यथार्थ की भूमि पर समाज का कल्याण एवं सुख-विस्तार ही उनका मूल जीवन-दर्शन तथा उद्देश्य है। और कलम के द्वारा इस सिपाही (जादूगर) ने अपने लिए कफ़न और गोदान की व्यवस्था कर इस यथार्थ को धरातल पर भी ला दिया। इस अग्रगामी सोच के लिए वे आज भी कालजयी एवं प्रासंगिक हैं।

- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

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