प्रेमचंद के उपन्यास : समाज का आईना

Dr. Mulla Adam Ali
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Premchand's Novels : Mirror of Society

Premchand's Novels: Mirror of Society

मुंशी प्रेमचंद का साहित्य समाज का दर्पण है : साहित्यकारों के उद्देश्य में प्रेमचंद कहते है कि साहित्य केवल पाठकों के मनोरंजन के लिए ही नहीं बल्कि उनको यथार्थ का अवबोध करना भी है, समाज में व्याप्त कुरुतियों को उजागर करना है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है। प्रेमचंद ने अपने सम्पूर्ण लेखन में कहानियां और उपन्यास के माध्यम से ज्यादातर नारी समस्या, किसान जीवन, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जातिभेद, छुआछूत आदि जैसे विषयों पर लिखा है इसलिए प्रेमचंद के साहित्य को केवल साहित्य न रहकर समाज का दर्पण कहा जाता है।

मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यास : समाज का आइना

साहित्य सृजन फूलों की सेज नहीं काँटों की राह है। जो राह से कॉंटे बीनने की चाह और बल रखकर पूरी निष्ठा व समर्पण से आगे बढ़ता है उसके लिए प्रेरणाएँ व प्रोत्साहन रूपी फल स्वमेव मिलते चले जाते हैं। आइना व्यक्ति की आकृति ज्यों की त्यों दिखाता है, कई बार थोड़ी और संवार कर भी। परन्तु कई बार आकृति विकृत भी हो जाती है तो कई बार आइने पर धूल जमी रहने पर गुम भी। कलम के जादूगर प्रेमचन्द ने समाज की आकृति गुम रहीं होने दी, बल्कि कल्पना, आदर्श व यथार्थ से संवार कर अपने साहित्य में प्रस्तुत कर दी है। मानवतावाद की विश्वजनीन भावनाओं में विश्वास रखने वाले हृदय प्रेम से व्याकुल व व्यथित होकर अपनी भावना में आनंद की संभावना कर सकता है। यह भावना व्याकुलता में शीतलता का संचार करती है और कई बार विषाद में आह्लाद भर देती है। रचनाकार जो कुछ भी सृजित करता है उसके मूल में उसके चित्त का लालित्य और चेतना को साथ-साथ एक विशेष प्रकार की सौन्दर्यानुभूति रहती है। रचनाकार साधारण कथन में विशेष कथनपरक सौन्दर्य की सृष्टि की ओर अग्रसर होता है। रचनाकार कलाकार होता है जब वह साहित्य का सृजन करता है तो वह वस्तु के रूप में समाज में व्याप्त हर संभव विषम परिस्थितियों को अपने कथ्य का आधार बनाता है।

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास साहित्य में परंपराओं को नवीन साँचे में ढालकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। लेखक का उपन्यास साहित्य संस्कृति, अर्थ, दर्शन, धर्म और समाज का मिला जुला रूप प्रस्तुत करता है। प्रेमचन्द के उपन्यासों को देखकर उनके सूक्ष्म मानसिक घरातल का पता चलता है। मानव के मन में कई भाव एक साथ पलते हैं और समय आने पर जागृत होकर उसे संवेदनाशील बनाते हैं तब मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार की चेतना जागृत होती है और यही चेतना रचनाकार को सृजन हेतु प्रेरित करती है। समाज का चित्रण कई रचनाकारों में अपने उपन्यासों में किया है किन्तु समाज को एक विशेष अर्थ देने का कार्य प्रेमचन्द ने किया है। हिन्दी उपन्यास में समाज के यथार्थ रूप का चित्रण इन्हीं के युग से प्रारंभ हुआ। प्रेमचन्द केवल समाज की विकृतियों का तटस्थ होकर वर्णन करना ही रचनाकार का उद्देश्य नहीं मानते थे बल्कि उनका यह मानना था कि समाज कि वर्तमान दशा में जो कुछ अच्छा और विकासशील हो उसके वर्णन के साथ-साथ घृणित और त्याज्य का निराकरण भी किया जाये। हर साहित्यकार कहीं न कहीं सुधारवादी दृष्टिकोण से प्रभावित होता है उसके पीछे उसकी मानवतावादी और आदर्शवादी दृष्टि होती है। प्रेमचन्द इससे अलग नहीं थे उन्होंने सदैव मिथ्यावाद और अन्याय पर सत्य और न्याय के विजय की कल्पना की। समय बदलने के साथ-साथ प्रेमचन्द आदर्श से सामाजिक यथार्थ की ओर उन्मुख होते गये। जीवन के अनेकानेक कटु अनुभवों ने उन्हें आदर्शों के खोखलेपन से अवगत करा दिया और उन्हें ऐसा लगा कि उत्कृष्ट औपन्यासिक सृजन के लिए यथार्थ जीवन का अध्ययन, अवलोकन तथा विश्लेषण आवश्यक है। मानव मनोविज्ञान यह बताता है कि चोट खाकर ही व्यक्ति का मानसिक परिवर्तन होता है। प्रेमचन्द का आदर्श से यथार्थ की ओर मुड़ना उनके मानसिक परिवर्तन का परिणाम था जिसकी परिणति गोदान में देखी जा सकती है। प्रेमचन्द परिवर्तनशील परिस्थितियों और विचारधाराओं से प्रेरणा पाकर अपनी कला को साँचे में ढालते चले आये जिसके फलस्वरूप उनके उपन्यास सामाज का आइना दशति नज़र आते हैं। उनके उपन्यासों के कई पात्र आदर्शवादी होने के साथ-साथ जीवन की उदात्त भावना से परिपूर्ण दिखाई देते हैं किन्तु ये पात्र प्रेमचन्द के लिए समाज चित्रण के उपकरण मात्र रहे हैं।

प्रेमचन्द के उपन्यासों की लंबी परंपरा रही है जिसमें दो तरह के उपन्यास देखे जा सकते हैं। उन्होंने उर्दू में उपन्यास लिखे जिनका रूपांतरण हुआ और दूसरे उन्होंने हिन्दी में मौलिक उपन्यासों की रचना की। असरारे-माआविद (देवस्थान रहस्य) में कथावस्तु धार्मिक होते हुए भी सामाजिक है। इसमें लेखक ने नारी की दुखद स्थिति और उसकी परतंत्रता की ओर संकेत किया है। अपने दूसरे उपन्यास हमखुर्मा-ओ-हमसवाब (प्रेमा) में मध्यमवर्गीय परिवार की कथा है जो सुधारवादी आंदोलनों से प्रभावित होकर लिखी गई। तीसरे उपन्यास रूठीरानी में ऐतिहासिक कथ्य है। इसमें बहुविवाह की समस्याओं तथा शासन में होने वाले षड्यंत्रों की ओर संकेत है। जलवा-ए-ईसार (वरदान) में देशभक्ति से ओत-प्रेत कथा ली गई है। इसके साथ ही ग्रमीणों की समस्याओं, अंधविश्वासों को लेखक ने इसमें चित्रित किया है। हिन्दी में उनके उपन्यासों की परंपरा लंबी है।

सेवासदन में उन्होंने वेश्या समस्या, दहेज प्रथा आदि को उठाया है और यह दर्शाया है कि नारी जीवन की प्रतारणा का और भयंकर रूप तब दिखाई देता है जब शांत, समर्पणशील शांता की बारात केवल इसलिए वापस चली जाती है क्योंकि, वह ऐसे पिता की बेटी है जो घूसखोरी के अपराध में जेल काटते हैं। यह उपन्यास समाज सेवा के आदर्श का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करता है। प्रेमाश्रम में भूमि समस्या को उठाते हुए किसानों और जमींदारों के संघर्ष का आइना दिखाया है। इसमें एक ओर किसानों के शोषण और उत्पीड़न की कथा है तो दूसरी ओर उनमें जागृति और विद्रोह की गूंज भी सुनाई देती है। इसमें अंग्रेजी शासन के पलने वाले जमींदारों द्वारा भारतीय किसानों पर किये जाने वाले अत्याचार का खुला बिएठा है।

रंगभूमि में लेखक ने भारतीय सामाजिक जीवन की अनेक समस्याओं को प्रस्तुत किया है। इसमे पूँजीवादी व्यवस्था, औद्योगीकरण, साम्राज्यवाद में पिसती भारतीय जनता, स्वरीय एवं ग्रामीण समाज व्यवस्था का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया गया है। प्रेमचन्द कहते हैं- "भारत में अंधे आदमियों के लिए नाम और काम की जरूरत नहीं होती।" वह राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित एक ऐसा उपन्यास है जिसमे न्यायनिष्ठा, परोपकार, उदारता जैसे गुणों को अपने में समाहित किये सूरदास का चरित्र अनायास ही पाठकों का मन अपनी ओर खींचता है। कायाकल्प उपन्यास में एक ओर सामाजिक समस्याएँ हैं तो दूसरी और रहस्य ओर आध्यात्मिकता के समावेश ने उपन्यास को पठनीय बना दिया है। इसमें लेखक ने वासना की चिर अतृप्ति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है, कायाकल्प की कथा तीन भागों में बँटी दिखाई देती है। एक में सांप्रदायिक समस्याएँ तो दूसरे में सामंतों द्वारा किसानों एवं मजदूरों के शोषण के चित्र उकेरे गये हैं तो तीसरे में रनिवासों के भोगविलास का यथार्थ चित्रण किया गया है।

निर्मला उपन्यास में मध्यवर्गीय परिवार की कारुणिक जीवनगाथा है। भारत का मध्यवर्ग एक ऐसा वर्ग है जो एक ओर स्वयं को निम्नवर्ग से जोड़ नहीं पाता और दूसरी ओर उच्चवर्ग उसे स्वयं से जुड़ने नहीं देता और उसकी स्थिति त्रिशंकु में लटके व्यक्ति-सी हो जाती है। इस उपन्यास में दहेज प्रथा और अनमेल विवाह के कारण होने वाले पारिवारिक विघटन और विनाश का चित्रण है। इस उपन्यास में लेखक का आदर्श ढलता है और यथार्थ उदित होने लगता है। गबन मध्यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं का ऐसा यथार्थ चित्र हैं जिसमें नई पीढ़ी के ढहते नैतिक मूल्यों और सिद्धान्तों को दिखाया गया है। इस उपन्यास का पूरा सौन्दर्य इसकी मनोवैज्ञानिकता में है जहाँ रमानाथ जैसे पात्र को पूरे अन्तर्द्वन्द्व के साथ प्रस्तुत किया गया है। प्रेमचन्द का यह उपन्यास इस बात की ओर संकेत करता है कि समाज में अकेला एक रमानाथ ही गबन नहीं करता बल्कि वर्तमान परिस्थितियों में ऐसे अनेक रमानाथ हैं जो गचन और भ्रष्टाचार में सिर से पाँव तक लिप्त हैं। जनता की नैतिक संपदा धीरे-धीरे ऐसे लोगों द्वारा दुरुपयोग की जा रही है।

कर्मभूमि एक ओर किसानों की लगानबंदी का आन्दोलन दर्शाता है तो दूसरी ओर अछूतों की समस्याओं को दिखाता है। इस उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन शहरी और ग्रामीण धरातल पर उठाया गया है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने नारी के उदात्त स्वरूप को चित्रित किया है। लेखक ने जीवन को युद्ध क्षेत्र के रूप में चित्रित करते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया है। गोदान लेखक की एक ऐसी कृति है जिसमें यथार्थ अपने पूरे आयामों में दृष्टिगत होता है। इसमें भारतीय किसान की करुण गाथा है तो शोषण की समस्या कम नहीं है क्योंकि, शोषण के बल पर पलने वाला शोषकवर्ग ऐसी जोंक के समान है जो विभिन्न रूपों में मरते, घुटते किसानों का खून चूसता है भले वे साहूकार, सेठ, सूदखोर, दलाल, करिदे, पटवारी, पुलिस या ब्राह्मण किसी वेश में हों। भले ही इस उपन्यास में भी लेखक गाँधीवादी आदशों से मुक्त नहीं हो पाये दिखते हैं फिर भी इसमें समाज की जैसी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है वैसी अन्यत्र नहीं। मंगलसूत्र प्रेमचन्द का ऐसा अधूरा अन्तिम उपन्यास है जिसमें सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया है। इस प्रकार प्रेमचन्द के संपूर्ण उपन्यास सामाजिक अन्याय, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार, संघर्ष आदि को दर्शाते हैं तथा कहीं-कहीं लेखक अपने मन की व्यथा को इस प्रकार व्यक्त करते हैं-कहाँ है न्याय ? कहाँ है? एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है। दूसरा आदमी दिनदहाड़े दूसरों को लूटता है, उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है। जब कोई भी रचनाकार यथार्थ के धरातल पर पहुँचकर वास्तविकताओं से दो-चार होता है तभी वह महान और असाधारण रचनाकार बन पाता है। इनके उपन्यास भारतीय समाज की विभिन्न परिस्थितियों को ही अंकित नहीं करते बल्कि समकालीन विषमताओं और समस्याओं का निरूपण भी करते हैं।

- प्रो. निर्मला एस. मौर्य

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