प्रेमचंद का सनातन ग्रामांचल

Dr. Mulla Adam Ali
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Stories on the Village by Premchand

Stories on the Village by Premchand

सनातन ग्रामांचल और प्रेमचंद : 31 जुलाई प्रेमचंद जन्मदिन विशेष आलेख पढ़े कथा सम्राट के साहित्य में सनातन ग्रामांचल के बारे में। कलम के जादूगर प्रेमचंद का ग्रामांचल साहित्य, सनातन ग्रामांचल और हिंदी साहित्य।

मुंशी प्रेमचन्द का सनातन ग्रामांचल

भौतिक विज्ञान के चरमोत्कर्ष की बीसवीं शताब्दी में व्यापक परिवर्तन की जो तीव्रगतिक लहर आई है, उससे भारतीय गाँव यद्यपि आमूल-चूल प्रभावित हुए ह, तथापि प्रेमचन्द ने अपनी कृतियों में ऐसे सांस्कृतिक सनातन गाँव का भी स्पर्श किया जो आज, भी उसी एकरस ताजगी के साथ हमें आकर्षित करता है। 'गोदान' का आरम्भ ही सांस्कृतिक ग्राम-चित्र से हुआ है। होरी बैलां को सानी-पानी देकर धनियाँ से यह कहता हुआ दृष्टिगोचर होता है कि गोबर को ऊख गोड़ने के लिए भेज देना तथा इसके बाद वह जमींदार के यहाँ हाजिरी बजाने जाने के लिए लाठी माँगता है। यह एक ऐसा चल चित्र है जिसमें सनातन गाँव अपनी मूलभूत विशेषताओं के साथ झाँक रहा है। ये विशेषताएँ ही प्रेमचन्द की प्रकृति हैं। तलवर्ती कृषक जीवन का अभावग्रस्त रूप एक ओर जहाँ विद्रूप जैसा लगता ह तो दूसरी ओर एक बहुत ही मोहक सांस्कृतिक गाँव उस गरीबी के भीतर से झाँकता हुआ दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचन्द इस प्रकार के दृश्यों को प्रस्तुत करने में अपनी सहानुभूति और संवेदना को चित्रण की सूक्ष्मता में डुबोकर जो चित्र प्रस्तुत करते हैं वह बहुत ही हृदयावजक होता है।

प्रस्तुत है एक ऐसा ही चित्र-

'माघ के दिन थे। मघावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़े की रात, दूसरे माघ की वर्षा। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपनी मडैया में लेटा हुआ था। वह चाहता था कि शीत को भूल जाए और सो रहे। लेकिन तार-तार कंबल और फटी मिर्जई, शीत के झोंके से गीली पुआल, इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस नहीं था। आज तंबाकू भी नहीं मिली कि उसी में मन बहलता। बेवाय फटे पैरों को पेट में डाल, हाथों को जाँघों में दबा और कंबल में मुँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था।'

इस प्रकार के चित्रों द्वारा प्रेमचन्द अपनी अनुभूतियों की गहराई और जीवन-सत्य क साक्षात्कार की प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। कृषक संस्कृति में गरीबी का सहचर्य मुख्य तथ्य है। प्रेमचन्द को ज्ञात है कि ग्राम-संस्कृति का उज्जवल पक्ष कहाँ है और उसे वे समय-समय पर बराबर प्रस्तुत करते चलते हैं। उक्त मटर अगोरने में घर के बाहर का चित्र है। अब एक घर के भीतर का चित्र देखा जाए। प्रेमचन्द ने होरी की पुत्री सोना के घर का चित्रण किया है-

"एक कोने में तुलसी का चबूतरा है। दूसरी ओर जुआर के ठेठों के कई बोझ दीवार से लगाकर रखे गए हैं। बीच में पुआल के गहे हैं। समीप ही ओखल है, जिसके पास कूटा हुआ धान पहा है। खपरैल पर लौकी की बेल चढ़ी हुई है और कई लौकियाँ ऊपर चमक रही है। दूसरी ओर एक ओसारी में गाय बंधी है।'

प्रेमचन्द ने इस चित्र को तुलसी के चबूतरे से प्रारम्भ किया और गाय पर समाप्त किया। चीच के उपकरण भी भरपूर लोक-जीवन की आहट देते ह। कथाकार अच्छी तरह अपनी कला को निखार देने के लिए 'गोदान' में उस प्रकरण को ही केन्द्र बनाता है जो गोधन से जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति और लोक-संस्कृति दोनों में गो-सेवा एक महत्वपूर्ण आचार है। प्रस्तुत कृति का आरम्भ ही गाय की इच्छा से होता है। जमींदार के यहाँ जाते हुए रास्ते में होरी सोचता है कि 'भगवान कहीं गौ से बरखा कर दे और डाँडो भी सुधांते से रहे तो एक गाय जरूर लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। गऊ से ही तो द्वार की शोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जाएँ तो क्या कहना ? न जाने कब यह साध पूरी होगी? कब वह शुभ दिन आवेगा?'

इसी चिन्तन के बीच प्रेमचन्द होरी को भोला से मिला देते हैं और उसकी गायों को देखकर होरी की संचित इच्छा एक बार फिर फड़क उठती है। वह कहता है- 'धन्य है तुम्हारा जीवन कि इतनी गउओं की सेवा करते हो। हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, कितनी लज्जा की बात है।' इसके पश्चात् होरी भोला की कबरी गाय को पूँछ से मक्खियाँ भगाते, सिर हिलाते, मस्तानी मंद गति से झूमते जाते अत्यन्त अभिलषित आँखों से देखता है, उसके मन में एक हूक-सी उठती है- 'कैसा वह शुभ दिन होगा जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बंधेगी।' आगे चलकर यह शुभ दिन आता भी है। होरी का परिवार खुशियों में डूब जाता है। होरी कहता है, 'आज मेरे मन की बहुत बड़ी लालसा पूरी हो गई।' किन्तु धनिया कहती है कि, 'गाय के आने का आनन्द तो तब है जब उसका पौरा भी अच्छा हो।' उसकी आशंका सही निकली। प्रेमचन्द का ग्रामांचल ऐसा नहीं है जहाँ गरीबों की इच्छा पूरी होती है। होरी के घर गाय आई और गाय चली भी गई। गाय के मरने पर प्रेमचन्द लिखते हैं- 'होरी के घर में भोजन नहीं पका, न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया।'

ग्राम-जीवन को प्रेमचन्द ने सिधाई, सरलता, अभावग्रस्तता और धर्मभीरुता के बीच परखने का जो प्रयास किया है उसमें किसान का चित्र अत्यन्त साफ-साफ उभरा हुआ दृष्टिगोचर होता है। किसान की प्रकृति का प्रेमचन्द से बड़ा कोई पारखी नहीं है। होरी अन्तरंग और बहिरंग दोनों की दृष्टि से सच्चा किसान है। वह निश्छल है। प्रेमचन्द कहते हैं- 'होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही नहीं था।' होरी सहिष्णु भी था, प्रेमचन्द साक्षी हैं- 'होरी की कृषक प्रवृत्ति झगड़े से भागती थी। चार बाते सुनकर गम खा जाना इससे अच्छा था कि आपस में तनाजा हों।' इसी प्रकार कृषि-संस्कृति में बैल एक महत्त्वपूर्ण संस्था है तथा किसान का जीवन ही बैल केन्द्रित होता है। प्रेमचन्द निष्कर्ष निकालते हैं-'कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जाएँ तो उसके दोनों हाथ कट जाते हैं।'

किसान अपने इन्हीं बैलों की भाँति जीवन-भर खटता है। प्रेमचन्द से अधिक अच्छी ताह इसे कौन जान सकता है ? उन्होंने लिखा है- 'किसान और किसान के बैल, इनको बमराज ही पेंशन दें तो मिलें।'

किसान की अभिशप्त नियति एक युग सत्य है जिसका उ‌द्घाटन 'गोदान' में बहुत विस्तृत्त पैमाने पर हुआ है। किन्तु प्रेमचन्द का ग्रामांचल जहाँ अभाव और दरिद्रता में बाहर से उखड़ा हुआ है वहाँ भीतर से भावों की प्राणवान रसधारा अभी सूखती हुई नहीं प्रतीत हो रही है। फिर भी उसके भीतर जिस परिमाण में 'भाई का भाव धनीभूत है उसे देखते हुए लगता है कि धरती-पुत्र किसान के जीवन की जड़े भावनाओं की बहुत गहराई में जमी हुई हैं। गाय आने पर होरी सोचता है कि 'कल यही गाय दूध देने लगेगी तो क्या वह भाइयों के घर दूध नहीं भेजेगा ? भाइयों से अलग हो गया तो क्या हुआ!'

होरी के इन शब्दों में गाँव की आत्मा निहित है। जिस दिन गाय को विष दिया गया था उस दिन होरी का भाई हीरा उसके कऊड़ से आग ले गया था। वह आग लेने आया था। इस जरा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। वह सोच रहा था कि 'गाँव में और भी तो कऊड़े हैं; कहीं से आग मिल सकती थी। हीरा उसके कऊड़ से आग ले रहा है तो अपना ही समझकर तो।'

प्रेमचन्द ने ग्राम-जीवन के मेरुदण्ड भाईंपन के भाव को बहुत गहराई से चित्रित किया है। गाय मरने पर थानेदार आता है और उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होने को होती है तो होरी की साँस ऊपर-नीचे होने लगती है। वह कहता है, 'उसके देखते यह तलाशी नहीं हो पाएगी।' जब हीरा घर से भाग जाता है और स्पष्ट हो जाता है कि उसी ने विष दिया था तो भी होरी भाईपन निबाहता जाता है। सोचता है कि झुनिया को कोई कष्ट हुआ तो दुनिया उसी पर हँसेगी। वह उसकी खेती करता है। खेत की रखवाली करता है क्योंकि वह किसान है। मर्यादावादी किसान है। खेती उसकी मर्यादा का मेरुदण्ड है। होरी की दृष्टि में जो खेती में मरजाद है वह बसी कारण से है कि उसमें एक प्रकार की नैतिकता का भाव है। यह नैतिकता उस समय भी बनी रहती है जब किसान चिगड़कर मजदूर हो जाता है। होरी आपना दर्शन, शब्दों में प्रस्तुत करता है--'मजदूर बन जाता है तो किसान हो जाता है, किसान बिगड़ जाता है तो मजदूर बन जाता है।'

इस बनने-बिगड़ने की प्रतिक्रिया में जो चीज प्रेमचन्द के गाँव में स्थिर रहती है यह चीज नैतिकता। गाँव की नैतिकता का एक निराला ढंग है। यह गाँव की नैतिकता ही है कि होरी गाय लेने के सन्दर्भ में भोला से कहता है कि 'किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेते में जो पाप है वही इस समय तुम्हारी गाय लेने में है। क्योंकि होरी ने यह जान लिया कि भूसे के अभाव में भोला गाय दे रहा है। वहाँ पर किसान की नैतिकता गाय के लोभ से अधिक भूसे द्वारा उसकी सहायता कर देने के पक्ष में पड़ती है। यह गाँव की नैतिकता का ही प्रभाव है कि गोबर झुनिया को घर में लाकर रखने से डरता है। बिरादरी का झंझट है, सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा।

दूसरी ओर यह गाँव की नैतिकता ही है कि झुनिया के घर आ जाने पर होरी कहता है, बेटी, डर मत ! जैसे तू भोला की बेटी है वैसे ही मेरी बेटी है। यह गाँव की नैतिकता ही है कि एक मामूली जैसा आदमी कोदई अपनी स्त्री को पीटता हुआ गोबर से कहता है कि 'यह चाहती है कि माँ से अलग हो जाऊँ, अपनी माँ से ?'

प्रेमचन्द के ग्रामीण किसान नैतिकता और धर्म से इस प्रकार प्रभावित हैं कि लगभग इस प्रवृत्ति ने भीरुता का रूप धारण कर लिया है। होरी स्वयं स्पष्टतः धर्मभीरु है। प्रेमचन्द ने एक ओर धर्म को शासक की भाँति चित्रित किया है तो दूसरी ओर शोषक की तरह। धर्म- शोषण बेलारी गाँव में जिस संस्था के द्वारा होता है उसका नाम है पुरोहित। प्रेमचन्द ने उसकी वास्तविकता को अत्यन्त यथार्थपरक कला के साथ उघाड़कर रख दिया है। गाय मर जाती है तो पुरोहित दातादीन कहते हैं, 'पुलिस कुछ करे या न करे, धर्म तो बिना दण्ड दिए न रहेगा।' वास्तव में यह धर्म दोहरे प्रभाव वाला है। वह एक ओर शोषण करता है और दूसरी ओर उस व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होता है। होरी का बैल जब भोला खोल ले गया तो पूरे गाँव की प्रतिष्ठा बचाने के लिए गाँव के प्रमुख लोग उस बैल को छीनने के लिए दौड़े। ठोक मौके पर होरी ने कह दिया कि 'मैंने इनके धर्म पर छोड़ दिया था और जब धर्म की बात आ गई तो कोई क्या कहे?

गाँव का समर्थ व्यक्ति धर्म की आड़ में शोषण करता है और गाँव का गरीब होरी धर्म को अनुशासन या मर्यादा मानकर शोषित होता चला जाता है। प्रेमचन्द छोटे-से-छोटे अवसर पर इस आड़े आ जाते धर्म को पहचानने में नहीं चूकते हैं। एक स्थान पर सत्यनारायण की डॉ. रामविलास शर्मा भी सूरदास जैसे कर्मयोगी की इस स्थित प्रज्ञता को 'भारतीय संस्कृति की सबसे मूल्यवान वस्तु' मानते हैं।' ('प्रेमचन्द और उनका युग', तीसरा संस्करण, 1965, पृष्ठ 168)

प्रेमचन्द अपने उपन्यासों तथा कहानियों में व्यक्ति के संस्कार, नैतिक मूल्य, पवित्र आचरण, मानवीय गुणों को भी महत्व देते हैं। 'रंगभूमि' का सूरदास नैतिक एवं मानवीय मूल्यों का प्रतिरूप है। 'नमक का दारोगा' कहानी में दारोगा लालच के बावजूद नैतिकता और कर्तव्य पर डटा रहता है। 'गोदान' के होरी में सात्विक अनुभवों तथा संस्कारनिष्ठ नैतिक आदशों का प्रतिफलन हुआ है। 'रानी सारन्धा' कहानी की सारन्धा में अद्भुत बलिदान, साहस और धर्म-रक्षा की प्रवृत्ति है। सेवा तो उनकी कई रचनाओं में है। प्रेमचन्द अपने पात्रों का परिष्कार करते हैं, उनका हृदय-परिवर्तन करके उन्हें अच्छा मनुष्य बनने का अवसर देते हैं। समाज-सुधार तथा देश की स्वतन्त्रता के लिए क्रियाशील उनके अनेक पात्र इसी कारण अपने युग के नायक बन जाते हैं।

प्रेमचन्द में समन्वय की दृष्टि थी। वे गांधी के समान हिन्दू-मुसलमान तथा हिन्दी में मुस्लिम जीवन की कई कहानियाँ लिखीं और कई स्थानों पर लिखा कि हिन्दी-उर्दू का समन्वय करना चाहते थे। उन्होंने इसी कारण उर्दू में हिन्दू जीवन की तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य सम्भव नहीं है। इसी प्रकार हिन्दी-उर्दू की एकता के लिए उन्होंने 'हिन्दुस्तानी' का समर्थन किया। वे वर्ग-भेद के विरोधी थे, परन्तु वर्ग-संघर्ष को उन्होंने अपनाया नहीं। इसके लिए उन्होंने 'प्रेमाश्रम' उपन्यास के पात्रों के हृदय-परिवर्तन का मार्ग अपनाकर विभिन्न वर्गों में सामरस्य उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। इसी प्रकार उन्होंने यथार्थ और आदर्श का समन्वय करके 'आदर्शोन्मुख यथार्थवाद' के सिद्धान्त की स्थापना की।

भारतीय संस्कृति परिवार निष्ठ है। परिवार व्यक्ति और समाज दोनों का केन्द्र है और संस्कृति के विकास का आधार भी। प्रेमचन्द परिवार के ही नहीं भारत की संयुक्त परिवार प्रणाली के प्रबल समर्थक हैं। 'बड़े घर की बेटी' कहानी में आनन्दी घर को तोड़ती नहीं जोड़ती है। सन् 1929 में प्रकाशित कहानी 'अलग्योझा' में परिवार के टूटने का दुष्परिणाम तथा पुनः एक होने का सुखद परिणाम दिखाया गया है। 'गोदान' के होरी परिवार में जब तक उसके भाई हीरा तथा शोभा साथ रहते हैं तो घर में सम्पन्नता रहती है और अलग होने पर घर में केवल एक ही समय रोटी बनती है। 'गोदान' में ही प्रो. मेहता कहता है कि हमारा जीवन हमारा घर है, यही हमारी सृष्टि होती है।('गोदान', पृष्ठ 320) और मालती कहती है कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग, बलिदान का बहुत बड़ा महत्व है। (गोदान, पृष्ठ 151)  प्रेमचन्द ने 'आमत' अर्थात् 'सतीत्व' को हिन्दुस्तानी तहजीब की आत्मा (प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, खण्ड-1, पृष्ठ 311 5) कहा है। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने 'विवाह विच्छेद' का समर्थन नहीं किया, क्योंकि उनके विचार में 'तलाक' से हानि होने की हो अधिक सम्भावना है। (गोदान, पृष्ठ 312) प्रेमचन्द अपनी परिवार निष्ठा के कारण ही पश्चिम की नाही की स्वच्छन्दता, स्वतन्त्रता तथा विलासिता की कटु आलोचना करते हुए प्रो. मेहता के शब्दों में कहते हैं कि हमारी माताओं का आदर्श कभी ऐसी स्वच्छन्दता तथा विलास नहीं हो सकता। वे सदैव सेवा के अधिकार से गृहस्थी का संचालन करती रही हैं। (गोदान, पृष्ठ 15) जहाँ तक 'वर्णाश्रम' व्यवस्था के कर्म पर आधारित होने का सम्बन्ध है, प्रेमचन्द ने उसका विरोध नहीं किया, किन्तु जन्म और जाति के आधार पर कुछ जातियों को नीच तथा अछूत मानने के वे कट्टर विरोधी थे। इस समस्या के समाधान में वे महात्मा गांधी के साथ हैं। प्रेमचन्द समता के समर्थक हैं और जाति के आधार पर भेदभाव को मनुष्यता का कलंक मानते हैं।

प्रेमचन्द साहित्य में प्रकृति-प्रेम तथा उत्सव-प्रियता के उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचन्द गाँव में पैदा हुए थे, गाँव में ही रहना चाहते थे तथा गाँव में ही उनकी मरने की इच्छा थी। गाँव उनकी आत्मा में बसता था। इस प्रकार उनका प्रकृति से जुड़ान स्वाभाविक था। 'गोदान' का प्रो. मेहता 'प्रकृति का पुजारी' है और 'मनुष्य को भी उसके प्राकृतिक रूप' में ही देखना चाहता है। वह मालती के साथ झाऊ के जंगल में प्रकृति के स्पर्श से नया जीवन अनुभव करता है। उत्सव प्रियता तथा अतिधि-सत्कार के तो अनेक उदाहरण उनके कथा-साहित्य में मिल जाते हैं उन्होंने होली, जन्माष्टमी, तीज, दशहरा, दीपावली आदि त्यौहारों, शिव, हनुमान, इन्द्र आदि देवताओं की पूजा, गंगा एवं यमुना स्नान तथा बद्रीनाथ, अयोध्या, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा का कई कहानियों तथा उपन्यासों में वर्णन किया है। अतिथि सत्कार के संबंध में उन्होंने 'ममता' कहानी में लिखा है, "अतिथि सत्कार प एक पवित्र धर्म है।" ('मानसरोवर' भाग-5, पृष्ठ 270) इसी कहानी में उन्होंने लिखा है कि अतिथि सत्कार भारत वर्ष का एक प्रधान गुण है और इसके अभाव में हिन्दू जाति लज्जा अपमान और मृत्यु का दिन देखेगी।

इस प्रकार प्रेमचन्द ने अपने कथा-साहित्य में भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया तथा उसमें आई कुछ बुराइयों की आलोचना भी की, लेकिन भारतीय संस्कृति के मान- उत्थान और लोक-कल्याण की दृष्टि को आधार बनाकर रखा। प्रेमचन्द ने मुस्लिम संस्कृति एवं सभ्यता पर 'फातिहा', 'जिहाद', 'वज्रपात', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'लैला', 'ईदगाह' जैसे कहानियाँ तथा 'कर्बला' जैसा नाटक लिखा और उसके श्रेष्ठ तत्त्वों को पाठकों के सम्मुख रखा, लेकिन पश्चिमी संस्कृति की भौतिकता, ईर्ष्या, ऐश्वर्य, विलास, स्वार्थपरता आदि के वे विरोधी थे और भारत के लिए उन्हें घातक मानते थे। प्रेमचन्द अपने रचनाकाल में, इस प्रकार, तीनों संस्कृतियों को देख-परख रहे थे और मनुष्य तथा मनुष्य समाज के लिए जो भी कल्याणकारी है, उसे स्वीकार करते हुए स्वराज की कामना कर रहे थे। निश्चय ही उनकी जीवन-दृष्टि में भारतीय संस्कृति तथा भारतीयता ही सबसे अधिक स्वीकार्य थी, जिसे वे बराबर आधुनिक बनाते हुए मनुष्य के अस्तित्व एवं कल्याण के लिए उपयोगी तथा सार्थक बनाते रहे।

- डॉ. विवेकी राय

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