मुक्तकों से सजा एक प्रबंधकाव्य: सुरबाला

Dr. Mulla Adam Ali
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पुस्तक का नाम: सुरबाला (मुक्तक संग्रह)
लेखक: अशोक श्रीवास्तव' कुमुद'
प्रकाशक: नवकिरण प्रकाशन, बस्ती (उत्तरप्रदेश)
                7355309428.,

ISBN 9789391863012
पेपर बैक -₹ १८०/
हार्ड कवर -₹ २५०/
भूमिका - लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव।

मुक्तकों से सजा एक प्रबंधकाव्य :सुरबाला 

प्रयागराज निवासी साहित्यकार आदरणीय श्री अशोक श्रीवास्तव 'कुमुद' जी की नई काव्यकृति 'सुरबाला 'अपनी नव्य शैली ,अप्रतिम प्रस्तुति और विभिन्न संश्लिष्ट शैलियों का निमज्जन प्रस्तुत करती है ।कवि शायद स्वयम् अनभिज्ञ (सायास ही सही )हैं कि उन्होने एक प्रबंधकाव्य की रचनाकर डाली है भले पुस्तक पर लिखा हो 'मुक्तक संग्रह '। बेशक यह मुक्तकों का ही संकलन है ,लेकिन कई ठोस कारण हैं जो इसे प्रबंध काव्य सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है । सारे मुक्तक सुसम्बद्ध हैं तथा अनुक्रमित होते हुए एक निश्चित घटना क्रम को इंगित करते हैं ।इसमें नायिका है और नायक भी । इस कृति के कुल चौदह अध्याय या प्रभाग हैं जोकि सर्ग- योजना को पूर्ण कर रहे हैं । प्रमुखतः श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है । मुक्तक शैली में प्रबंधकाव्य लिखकर कवि ने एक नाविन्य का सूत्रपात किया ।अतएव वे बधाई के पात्र हैं ।

लेखक
अशोक श्रीवास्तव' कुमुद'

        सुरबाला की काव्ययोजना बहुत संश्लिष्ट है ।ककुभ छंद में रचित कुल २०० मुक्तकों का अद्भुत संग्रह प्रथम दृष्टया बच्चन जी की मधुशाला की याद दिलाता है ।लेकिन मधुशाला में कथा क्रम नहीं है बल्कि उसमें कवि के विचार और जीवन दर्शन का अभिव्यक्तिकरण हुआ है । कविवर कुमुद की 'सुरबाला' में भी जीवन-दर्शन है और रहस्यवाद भी लेकिन इसमें कथानक की उपस्थति इसे मधुशाला से अलग करती है ।'मधुशाला' जहाँ इहलोक के आनंद का गायन करती है वही' सुरबाला ' इहलोक से ऊपर उठकर और परलोक से भी ऊपर गमनकर शिवत्व का गायन प्रस्तुत करती है ।इस प्रकार यह मधुशाला की परंपरा से संबंधित नहीं पर शायद छंद (ककुभ) की प्रेरणा कवि ने मधुशाला से लिया है ।

              'सुरबाला ' का कथाक्रम विलक्षण है । ईश्वर बडे मनोयोग अथवा चलती हुई भाषा में कहें तो बडी फुर्सत से स्वप्नसुंदरी सुरबाला को रचते हैं तथा लोगों के सपनों में राज करने का आशीष दे डालते हैं । फिर क्या ? उस अपूर्व नवयौवना सुंदरी का जादू पूरी दुनिया में हवा की भाँति फैल जाता है ।सभी उसे पाना चाहते हैं ।हवाएँ उसे चूमने को आकुल होती हैं तथा सागर उसे बाहों में भरने के लिए मचल उठता है ।चांद , सितारे और घटाएँ उसे छिपछिपकर देखतीं हैं तथा उसके रूपसुधा का पान करती हैं । वह जवाँ दिलों की धड़कन बन जाती है। योगी -भोगी से लेकर गबरू धाकड़ तक उसकी मोहिनी के गुलाम हो जाते हैं । लेकिन सभी मन मसोसकर रह जाते हैं । सुरबाला भी अपने मनोनुकूल युवक को पाना चाहती है जो कि धीर -वीर और गंभीर हो ।जिसमें सुरबाला के प्रति स्नेह और सम्मान के अतिरिक्त मानवता भी कूटकूटकर भरी हो । जो कमजोरों के हक के लिए लड़ पडे ,ऐसे युवक को वो अपने ह्रदय में बसाना चाहती है । उसे लम्पट -हरजाई भौंरे पसंद नहीं । वह प्रेम की खातिर तलवार की धार पर चलनेवाले युवक को तलाशना चाहती है ।

           व्याकुलमना उस रूपसी को एक दिन अपने प्रियतम की प्राप्ति हो ही जाती है ।फिर तो आशीकी का सौरभ तन मन और जीवन को सुरभित करने लगता है । दोनों संयोग के अनेक अविस्मरणीय पल भोगते हैं-

 पिया निहार सोती सजनी 

अंग अंग महके बाला। 

कभी सहलाए कटि किंकिणी

कभी अधर वेणी माला।। 

          ====

जज्बातों की रात जवाँ हो

मदहोशी में सुरबाला। 

प्रेम समर्पण को हो तत्पर

सजन पाश में सुरबाला।। 

  लेकिन मिलन के दिन लम्बे नहीं चलते। अमीर खूसरो ने ठीक लिखा है -शबाने हिज्रा दराज चूँ जुल्फ व रोज वसलत चूँ उम्र कोताह (विरह की रात इतनी लम्बी है मानो वो जुल्फ हो, मिलन का दिन इतना छोटा है कि मानो वो उम्र हो) । सुरबाला का प्रियतम नौकरी की वजह से कहीं दूर चला जाता है और वही की दुनिया में रम जाता है । उसे सुरबाला की याद रहती है फिरती वह लौट नहीं पाता। अपने ग़म को भूलने के लिए वह अनेक कृत्रिम यत्न करता है। मधुशाला तक दस्तक देता है। फिर भी दोनों का पुनर्मिलन नहीं होता। सुरबाला राह देखते देखते थक जाती है -उसकी आँखें पथरा जाती है -

रूह पुकारे बहुत दूर से 

रुंधते स्वर में आ जाओ। 

कहीं न कोई सुने सदाऐं

राह देखती सुरबाला।

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तनहाई की ये खामोशी 

चीर रही उर सुरबाला।

यादों की बजती शहनाई 

आह भरे जब सुरबाला।। 

          प्रियतम की प्रतीक्षा में सुरबाला सारी उम्र गुजार देती है। उसकी कंचन काया -उसका यौवन सबकुछ समय के साथ स्याह पड़ जाता है। एकनिष्ठ प्रेम करती है फिरभी प्रारब्ध लेख का नहीं मिटता। मिलन कभी नहीं होता। फिर कहानी' यू-टर्न'लेती है। सुरबाला में आध्यात्मिक जागरण होता है। वह वैराग्य को प्राप्त होकर ईशपरायणा हो जाती है। वह ईश्वर के चरणों में स्वयम् को समर्पित करने को सन्नद्ध हो जाती है। यही पर इस प्रबंध का समापन होता है।

           यह कथानक कामायनी से तुलनीय है। कामायनी का नायक मनु भी अंत में वैराग्य को प्राप्त होता है। लेकिन वहाँ उसका मार्गदर्शन श्रद्धा करती है जबकि सुरबाला का वैराग्य स्वाभाविक है -कुछ हदतक उम्र की ढलान का सहज मानसिक रुझान। कवि कुमुद की यह कृति रहस्यवाद से भी आप्लावित है। सुरबाला खुद ही एक रहस्य लगती है। प्रेमजन्य रहस्यमय पात्र हे सुरबाला। यह सूफियों के रहस्य सा नहीं। लेकिन इस तरह की रुमानी कहानी कुछ कुछ पारसी परंपरा का अनुकरण है। पद्मावत की नागमती का वियोग सुरबाला के वियोग से तुलनीय है। लेकिन पद्मावत में नागमती के साथ न्याय नहीं हुआ, अंत में 'नागमती यह दुनिया धंधा' कहकर उसके एकनिष्ठ प्रेम को कठघरे पर खड़ा कर दिया गया है। लेकिन सुरबाला के साथ कवि ने न्याय किया है। वह आद्योपांत सुरबाला के पक्ष में खडा नजर आता है। इस कृति कुछ कुछ रूपक शैली का भी प्रयोग है। सुरबाला एक प्रतीक पात्र है। वह नारीमात्र की प्रतीक है। कवि ने अंत में कहा भी है कि' घर घर बसती सुरबाला '। कवि ने अपने कथ्य में स्वीकारा हैकि इसमें नारीमन की विभिन्न मनोदशाओं में संवेदनाओं के उतार -चढाव को अभिव्यक्त किया गया है ।इस तरह से सुरबाला नारीमन की प्रतीक बन जाती है। 

         अनेक काव्यशैलीगत संभावनाओं के 

बावजूद सुरबाला मूलतः श्रृंगार विषयक काव्य ही है। नायिका की सुंदरता के वर्णन और प्रणयजन्य हावभाव के चित्रण में कवि का जितना मन रमा है उतना वैराग्य के वर्णन में नहीं। यह शायद नायिका पर कवि के अपने भक्तिभाव और संस्कारों का आरोपण है। बहुत सारे समीक्षक इस वैराग्य पर अनेक प्रश्न उठा सकते हैं। ऐसे प्रसंग के वांछित होने पर भी संदेह कर सकते हैं। लेकिन कवि की उद्भावना ही उसका सत्यापन है।

             इस कृति पर काफी कुछ लिखा और कहा जाएगा। नायिका बहुत पुराने युग की है। उसके बीसवीं सदी का होने में भी संदेह है वरना वह अपने प्रियतम को टेलीफून तो कर ही सकती थी। कवि इतना न्याय तो कर ही सकता था। वो भी तब जब वह स्वयम् टेक्नोक्रेट है और विजनेस मैनेजमेंट में भी निष्णात। ऐसे अनेकों सवाल उठेंगै। लेकिन इनसे इस कृति पर कोई आँच नहीं आएगी। इसने अपना स्थान सेक्योर कर लिया है। 

      इस रसपूर्ण कृति के शिल्प पर भी काफी कुछ लिखा जा सकता है। छंद में कसावट है। भाषा में तत्सम और तद्भव के साथ साथ फारसी के शब्द रोचक लगते हैं। आज के दौर में प्रेम को व्यक्त करने में फारसीदाँ शब्द बहुतायत में मिल जाते हैं। बॉलीवुड ने भी कुछ योगदान दिया है। पर सारे शब्द बोधगम्य हैं। ये हिंदी की ग्राह्यशक्ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। 

         यह मुक्तकात्मक प्रबंध काव्य भूरिशः लोकप्रिय हो, ऐसी मेरी शुभकामना है।

समीक्षा- दिव्येन्दु त्रिपाठी

दिव्येन्दु त्रिपाठी

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