कथाकार बलराम के भीतर का आलोचक : बीएल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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kathakar Balram Ke Bhitar Ka Alochak : B.L.. Achha

कथाकार बलराम के भीतर का आलोचक

बी. एल. आच्छा

    यों तो हर सर्जक के भीतर एक आलोचक निगाह जमाये रहता है। बाध्य करता है भावलिपि के अनुरूप शब्दलिपि गढ़‌ने के लिए। मगर आलोचक और आलोचना के मानदण्ड कुछ अलग होते हैं। कई बार सर्जक के भीतर का आलोचक इतना आत्ममुग्ध रहता है कि वह अपने वैयक्तिक से अन्यथाकरण नहीं कर पाता। कई बार विचारधाराओं से इतना पुता-लिपटा होता है कि अपने स्व को प्रतिबद्धता के नाम पर स्वाहा कर देता है। कई बार अपने अनुभूत से न गुजरकर देखे हुए से कल्पित होता है, तो उसमे अंतड़ियां और प्राण उतने रच-बस नहीं पाते। फिर जीवन मूल्यों की टकराहट भी न्याय की अपनी अपनी बैंच बना लेते हैं कि बाड़े और दल आमने-सामने।

     लेकिन बलराम के भीतर जो आलोचक पैठा हुआ है, उसकी सजगता के आधार जरा अलग है। सृजन की गंगोत्री में ही जैनेन्द्र कुमार, ऐसे उगे हुए हैं कि कक्षा में ही विषय को छोड़कर उनकी कहानियों को पढ़ते हैं। और शिक्षक को बेबाकी से सच कह देते हैं। फिर जो साहित्यिक पत्रकारिता का संपादक है, वह इतने कच्चे-पक्के से गुजरता है कि मूल्यांकन और चयन के आधार बनने लगते हैं। पर साहित्यिक पत्रकारिता की टेबल इतना जल्दी पिण्ड नहीं छोड़ती। वह बाध्य करती है अपने समय के प्रख्यात रचनाकारों को, पूर्ववर्ती रचनाकारों को; जिन्होंने उस विधा और वैचारिक-विश्व को जीया है और कथा-बंध दिया है। बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। साहित्यिक या सामान्य पत्रकारिता में भी अभिव्यक्ति का लोकतंत्र इतना मजबूत नहीं होता कि किसी बात को खरी- खरी सुनाकर स्वीकार या रद्द किया जा सके।और पदांकन- पदोन्नति के लिए ठकुरसुहाती के बोल भी अपना काम करते हैं। मगर सच के लिए दबंगई दिखाती या आंखें तरेरती हुई मुद्राएँ भी संघर्षो की कथा से परहेज नहीं करतीं। इतनी सारी रचनाओं, विश्व के रचनाकारों और वैचारिक दुनिया की पुस्तकों से रूबरू होते हुए भीतर का आलोचक तो पकता ही है। और यह पका हुआ आलोचक राष्ट्रीय - प्रान्तीय पुरस्कारों में चयन होने की - प्रक्रिया में अपने वाजिब मुद्दे उठाये तो सृजन की बेहतरी के तर्क भी अपने मूल्यमान गढ़ने के लिए उतना ही उत्तरदायी। और इतने जलसों, समारोहों, सृजनात्मक अनुष्ठानों में बहस - मुबाहिसे भीतर के आलोचक, तुलनात्मक विवेचक, मूल्यों से रूबरू विमर्शक और शिल्प चेतना के मूल्यांकन के बगैर तो फूट ही नहीं सकते।

     बलराम कथाकार हैं, आत्मकथात्मक संस्मरणकार हैं, साहित्यिक पत्रकारिता के हस्ताक्षर हैं। पर इन सबके भीतर पैदा एक आलोचक बेबाकी से अपनी बात कहे बगैर नहीं रह पाता। हालांकि यह आलोचक हिन्दी की शास्त्रीय आलोचना से दूर है, प्राध्यापकीय विवेचनाओं से भी उतना ही निस्संग। पर सब तरफ से इतनी सारी चीजों से गुजरकर डिडक्टिव हो जाता है - "कोई रचनाकार अपनी किसी कृति की व्याख्या करते दिखे तो समझो कि उस रचना के सृजन में उससे कोई चूक रह गयी है। और यदि रचना- प्रक्रिया के बारे में बताए तो समझो कि उसका वक्तव्य अधूरा है, जिसे पूरेपन में व्यक्त करना लगभग असंभव है। "यह अकेली धुरी नहीं है। क्योंकि एक बेहद संपन्न पाठक हैं बलराम।' माफ करना यार'पुस्तक भले ही संस्मरणात्मक आत्मकथा हो, पर यह आत्मकथा इतने लेखकों, विदेशी नामवर लेखकों, अनेक विधाओं के लेखकों और उनकी हरतरह की टकराहटों से इतनी अनुगूँज पैदा करती है कि अन्ततः सच्चा पाठक अपने ही स्वानुभूत को ही कसौटी बना लेता है। यहीं बलराम का आलोचनात्मक विवेक एक खुली वैचारिक पाठकीयता से सराबोर नजर आता है।

        इतनी पुस्तकें तो मैंने लम्बे प्राध्यापकीय जीवन मे भी नहीं पढ़ीं, जितनी कि बलराम की इस आत्मकथात्मक पुस्तक में विवेचित हैं। अब इतने -इतने लेखक और पुस्तकें,देश-विदेश की विचारधाराओं के परिदृश्य आत्मकथा में शामिल हो जाएँ, तो आत्मकथा कहाँ रह पाती है? बल्कि अपने समकाल को आत्मकथा में संजोती हुई एक समृद्ध पाठकीय आलोचना का ऐसा अध्याय रच जाती है, जो साहित्यिक सरोकारों वाली आत्मकथा के साथ आलोचना के मानदंडों को भी समृद्ध करती है। जैनेन्द्र अज्ञेय से लेकर चित्रा मुद्‌गल -ओम थानवी तक, नामवर से लेकर परमानन्द श्रीवास्तव तक, शमशेर से लेकर कन्हैयालाल नंदन तक, बच्चन से लेकर संधू करमाकर की आत्मकथा तक। धर्मयुगीन पत्रकारिता से लेकर प्रभाष जोशी- राजेन्द्र माथुर तक। तसलीमा नसरीन से लेकर कन्नड़ के उपन्यासकार भैरप्पा तक।इतना ही नहीं अल्बेयर कामू-लोठार लुत्से- फ्रैंज काफ़्का से लेकर रमेशचन्द्र शाह तक। और बात केवल पाठकीयता की नहीं है। उनका समय, वैचारिक निवेश, वैयक्तिक संघर्ष, विचारधाराएँ और विश्व- युद्ध ,दर्शन और उनके अंतर्विरोध, गुटीयता और खेमेबाजियाँ, पुरस्कार और उपेक्षा इन सबके भीतर से गुजरते हुए शताधिक लेखकों की अनेक विविधवर्णी पुस्तकों पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ बलराम के सुपठित आलोचक से बहुत कुछ कहलवा देती हैं। इनमें विधागत वैचारिकता भी है, विमर्शों के अंतर्विरोध भी हैं, लेखकीय गुटों की टकराहटें भी हैं, पुरस्कारों के अंतर्जाल भी हैं, पत्रकारिता के संस्थानों की आंतरिक राजनीति भी है। पर इन सारे पहाड़ी रास्तों से खलखलाते हुए वे बेबाक स्थापनाएँ कर जाते हैं।

            ऐसे सुपठित के सामने जब विचारधाराओं की गुटीय प्रतिबद्धता अंतर्विरोधों के पाट रचती है, तो बलराम सीधे सीधे कह जाते हैं-" लेकिन अनुभवों से हमने यह भी जाना कि एक सीमा के बाद क्या तो वामपंथ और क्या दक्षिण पंथ दोनों ही मनुष्य को पार्टी- रोबोट में बदल देते हैं!" पर वे उस धुरी पर आने का मशविरा दिये बगैर नहीं रहते - "विचार और विचारधाराओं की भिन्नता के बावजूद साहित्यकारों को एक दूसरे के साथ बैठना और संवाद जरूर करते रहना चाहिए। इसका लाभ यह होता है कि प्रगतिशीलता और कलात्मकता एक दूसरे के विरोधी होकर खड़े नहीं होते।" सच तो यह है कि विचारधाराएँ बलराम के लिए तटबंध नहीं बनाती। उनका सहदय आलोचक उस ताप को आँकता है, जो रचनाओं में मानवीय संवेदन का पक्षधर होता है। विवशताओं में भी उजास देता है। अपने सर्वाधिक पठित से उसको तौलता है।

     यही नहीं इतने सुपठित से स्वयं को अभिवर्धित या परिष्कारित करता उनका आलोचक समावेशी बना रहता है। बलराम का लेखन और जीवन बहती हुई नदी- सा है, जो चट्टानों से टकराकर भी अपना रास्ता भंवर से निकाल लेती है, फिर- फिर मंथर गति से प्रवाहित हो जाती है। ये टकराहटें चाहे विचारधारा की हों, साहित्यिक पत्रकारिता के संपादन कर्म की हों, मित्र साहित्यकारों के बीच विवाद-संवाद की हों, प्रकाशन समूह या संपादन- मंडल की क्यों न हों। मगर इन सब में न तो झुकने और न ही पूर्वाग्रह पालने की मानसिकता उनके सर्जक और आलोचक को बेलाग बनाये रखती है।

     एक और अक्स है, जो बलराम के आलोचक को किसी लेखक या समकाल के परिदृश्यों के जीवन्त घटनाचक्र से जोड़े रखता है। बरसों पहले जीवनीपरक आलोचना का भी अपना पक्ष था। पक्ष यह भी था कि रचनाएँ आखिर लेखक की मांस-पेशियों और मानसिक अंतर्विरोधों से ही गुजरकर आती हैं; तो अमूर्त ही सही उसका जीवनांश तो रचनाओं में समाया रहता है। बलराम भी आत्मकथाओं और संस्मरणों में इसे लक्षित करते हुए कहते हैं-" लेखकों की डायरियाँ एक तरफ जहाँ हमें दूसरे लेखकों के जीवन और लेखन को समझने में मददगार साबित होती हैं, वहीं खुद डायरी-लेखक के जीवन और साहित्य को खोलने की कुंजी भी वहाँ मौजूद रहती है।" यह अलग बात है कि आलोचना का एक मान यह भी है - "कथा का विश्वास करो कथाकार का नहीं"। पर वस्तुपरक आलोचना की अपनी सरहदों के बावजूद प्रतीकवादी मलार्मे का यह कथन चुंबकीय तो बन ही जाता है- "मैं उस केन्द्र में दिव्य मकड़े ( सेक्रेड-स्पाइडर) की तरह वास करता हूँ, अपनी ही चेतना द्वारा बुने हुए तारों पर टंगा हुआ, सौन्दर्य के अन्तराल में झलकते हुए रहस्यमय विन्यासों की झलक पाता हुआ।" यही नहीं अस्तित्ववादी काफ़्का के भीतर का कुहासा यह कहने के लिए बाध्य कर देता है - "थियोसॉफी मेरे समूचे वजूद को अपनी तरफ खींच रही है। मगर सबसे ज्यादा डर भी उसी से लगता है। डर यही कि यह मुझे नये संभ्रम मे न पटक दे। उससे ज्यादा बुरा मेरे साथ और क्या हो सकता है, क्योंकि मेरी जो दुर्दशा है, वह भी पूरी तरह कन्फ्यूजन (संभ्रम) की ही है।" बलराम का आलोचक इन जीवन संघर्षो की, विचारधाराओं, साहित्यकारों के आपसी पेंचों की अनदेखी भी नहीं करते, फिर भी कृति के आन्तरिक पक्ष के वैचारिक संवेदन को केन्द्रीय बना देते हैं।

        मूल्यांकन के नजरियों में भी वे आलोचकों के पक्ष-विपक्ष को पहचानते हैं।मसलन सामाजिकता, प्रगतिशीलता और कन्टेन्ट के प्रति दुराग्रह के स्तर पर तक कठोर रहने वाले ज्ञानरंजन और धुर कलावादी कृष्ण बलदेव वैद को लेकर। पर बेबाकी से बलराम कहेंगे-" नामवर सिंह भी 'पहल' का मूल्यांकन अगर विचारधारा के प्रचार-प्रसार की बजाए विशुद्ध साहित्यिक नजरिए से करेंगे तो निष्कर्ष 'पहल' और ज्ञानरंजन के विरुद्ध ही जाएँगे।" यही बात शमशेर के बारे में अज्ञेय के कथन को लेकर-" शमशेर क्रांति के कवि नहीं, प्रेम और सौंदर्य के कवि रहे। वे खुद को कबीर और जायसी की परम्परा में पाते थे।" नारी विमर्शों में वे राजेन्द्र यादव-मन्नू भंडारी प्रसंगों में नारी अस्मिता की झूठी पक्षधरता को मन्नू भंडारी के संवाद से केन्द्रीय बना देते हैं- "भविष्य में राजेन्द्र के साथ मेरी फोटो मत छापना! आखिर हम दोनों अलग अलग लेखकीय और सामाजिक हैसियत रखते हैं कि नहीं?" विचारधाराओं, व्यक्तित्वों, शिखरों और संपादकों से बेपरवाह बलराम नामवर के लिए उपर्युक्त भले ही लिख दें पर उनकी पुस्तक 'गद्यपर्व' की प्रशंसा किये बिना नहीं रहते।

         ये सारे अक्स बलराम को समूचे परिवेश से निरपेक्ष नहीं बनाते बल्कि इन सबके बीच जीते हुए तटस्थ बनाए रखते हैं। सृजन हो या आलोचना ,वे इस मूल मंत्र पर गड़े से लगते हैं- "छपने की चिंता किये बगैर लिखने की आदत को कमलेश्वर ने पंख दिये तो भारती ने डैनों को मजबूती। शानी ने साहित्यिक दुनिया में बेखौफ होकर जीने का मंत्र दिया, तो नंदन ने कृष्ण जैसा लचीलापन और विष्णु खरे ने जरूरी कठोरता दे दी।" इनमें भारती और विष्णु खरे से तो इनके पंगे भी रहे, पर इनकी ग्राह्यता भी अपनी जगह है। लेखकीय रिश्तों में सामूहिक या निजी प्रसंगों में वे अजितकुमार के संबंध में लिखते हैं- 'प्रगतिशील विचारधारा की ओर अजित कुमार के रुझान को वे (अज्ञेय) भली भाँति जानते थे, साथ ही यह भी कि उनकी आंतरिक प्रतिबद्धता साहित्यिक उन्मुक्तता के प्रति थी।दलगत राजनीति के प्रति नहीं। "और यहीं तक आते- आते बलराम निराला के जीवन- राग तक आते हैं-" प्रतिक्षण जीते हुए सहसा सदा के लिए सो जाना या हरदम निशेष होते हुए अचानक जी उठना।   

           कथा साहित्य के माध्यम से बलराम ने लोक जीवन के संघर्षो को जिसतरह से विश्लेषित किया है, वह लोक और इतिहास के मिलन के बहाने समाजशास्त्रीय पहलुओं को संजोता है। 'नीला चाँद और कामतानाथ के 'काल कथा' के बहाने जातीय जीवन के सामाजिक- सांस्कृतिक एवं आजादी के बाद के परिदृश्यों की गहरी पड़ताल के संकेत दिये हैं। लेकिन हिन्दी कहानी की व्यावहारिक समीक्षा "समकालीन हिन्दी कहानी' में आकार ले पाई। इन कहानियों में गांव-जवार का जीवन भी है और लोक जीवन की ग्रामीण भाषा में दृश्य चित्रांकन भी। इसमें कई दशकों के कथाकार हिन्दी कहानी की यात्रा को जितना समृद्ध बनाते हुए संकलित हुए है, उनकी समीक्षा एक सहृदय भाव के साथ हुई है। परन्तु समाजशास्त्रीय पक्षों के रागात्मक, अंतर्विरोधी और परिदृश्यों में यथार्थ को बुनते हुए।

         एक कथाकार द्वारा अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी, समकालीन पीढ़ी और मरी नवागत पीढ़ी का सहदय किन्तु तटस्थ विश्लेषण कथा-समीक्षा को व्यावहारिक मान देता है। शास्त्रीय आलोचना की लीक से हटकर जिसतरह अंतर्वस्तु की बुनावट और भाषा पर वे बात करते हैं, वह उनकी धारणाओं की अपनी सहजता है। साहित्यिक- विद्वेषों की छाया से सर्वथा अलग।विचारधाराओं की भिन्नता के बावजूद अन्तर्वस्तु की पड़ताल। अलबत्ता लेखकीय मूल्यांकन के उनके आधार हैं- - एक ही साँस में पढ़वा लेने का आकर्षण, पाठक की संवेदना को गहरे छूकर सहलाने की क्षमता, आत्म से अनात्म की दौड़ और कथाकार का बहुज्ञ होना। निश्चय ही सैद्धांतिक या प्रतिबद्धता के साँचों से हटकर बलराम की समीक्षा दृष्टि रचना- केन्द्रित होकर समाजशास्त्रीय परिदृश्यों में लोक, जीवन को लक्षित करती है। सारिका, नवभारत, रविवार, लोकायत जैसी पत्रिकाओं के संपादन सहकार से बलराम ने अपने कथा सृजन के साथ अपने आलोचक को भी भीतर में जीवंत रखा है।

- बी. एल. आच्छा

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पिन-600012
मो-9425083335

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