Globalization and Hindi : हिंदी विश्व भाषा की ओर - वैश्वीकरण और हिंदी भाषा

Dr. Mulla Adam Ali
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Globalization and Hindi Language

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वैश्वीकरण और हिंदी भाषा

'वैश्वीकरण' से स्थूल तात्पर्य है कि सम्पूर्ण विश्व में स्थित मानव जाति का अपने क्षेत्र, जाति, धर्म, संस्कृति तथा राष्ट्र के सीमित दायरे से निकल कर 'विश्वमानव' के रूप में विस्तार । इस रूप में वैश्वीकरण एक राजनैतिक सामाजिक चेतना है। वैश्वीकरण को 'विश्ववाद' भी कहा जा सकता है। इसमें अपनी मातृभूमि की सभी विभिन्नताओं के साथ 'मातृभूमि और धरती माता' के साथ जुड़ाव संभव माना गया है। भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुंबकम् को एक आदर्श माना था। विभिन्न भेदा-भेद को त्याग कर सम्पूर्ण मनुष्य जाति परस्पर बंधुभाव रखकर सब के साथ अपनी उन्नति के लिए उद्युक्त हो तो विश्व एक परिवार की तरह होगा । वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण के समर्थक भी यही कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति और सूचना क्रांति के परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण विश्व एक 'ग्राम' बन गया है। विश्व में रहनेवाला कोई व्यक्ति, कोई समाज और कोई देश अब पृथक नहीं रह सकता। विश्व के एक कोने में घटित छोटी-से-छोटी घटना का असर विश्व के दूसरे कोने में बैठे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र पर होता है । इसीलिए विश्व की एक साझी जीवनचर्या का आरंभ वर्तमान समय की पहचान है। एक तरह से मानवता का विस्तार वैश्वीकरण है।

'वैश्वीकरण' का आदर्श रूप भले ही मोहक हो, लेकिन उसका यथार्थ रूप वह नहीं है। आज वैश्वीकरण 'नवपूँजीवाद' का मोहक नामकरण मात्र है । इसीलिए यह वैश्वीकरण मानवता का विस्तार नहीं, नवपूँजीवादी साम्राज्यवाद है। वैश्वीकरण से तात्पर्य आर्थिक उदारीकरण तथा निजीकरण है। आर्थिक सुधार, सांस्कृतिक पुनरुत्थान, उदारीकरण आदि ऐसे सकारात्मक शब्द हैं, जो विश्व के नये विधान की पैरवी में बार-बार इस्तेमाल हो रहे हैं। इन शब्दों से लगातार यह अहसास दिलाया जाता है कि वैश्वीकरण एक जरूरी आर्थिक उदारीकरण से सीधा तात्पर्य है 'मुक्त बाजार' मुक्त अर्थव्यवस्था, स्वतंत्र अर्थ-व्यवस्था। यहाँ स्वतंत्रता का अर्थ बाजार की स्वतंत्रता से है। बाजार पर अंकुश जितने कम होंगे, आर्थिक निर्णय उतने ही बेहतर होंगे, क्योंकि स्वतंत्रता हर व्यक्ति को यह अवसर देती है कि वह अपने सर्वोत्तम हित में फसला कर सकें। मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था पर चलकर अमेरिका तथा अन्य देशों ने सम्पन्नता हासिल की है। इसीलिए अन्य देशों को भी लगता है, अमेरिका की राह पर चल कर ही सम्पन्नता प्राप्त की जा सकती है।

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विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा प्रस्तावित उदारीकरण कार्यक्रमों में स्थिरीकरण और ढाँचागत समायोजन पर बल दिया गया है। स्थिरीकरण के चरण में सलाह दी गयी है। कि सरकार अपना राजकोषिय घाटा कम करें। ढाँचागत समायोजन में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था का खुलापन देशी उद्योगों के मामले में सरकारी नियंत्रणों को समाप्त किया जाए तथा विदेशी निवेश के लिए दरवाजा खोला जाए। सार्वजनिक क्षेत्रों को घटाकर निजी क्षेत्रों का दायरा बढ़ाया जाए। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि 'आर्थिक क्षेत्र' सरकार की अपेक्षा 'पूँजीपतियों' के निर्देश के अनुसार चलें। इस तरह वैश्वीकरण को 'बाजारीकरण' के रूप में ही देखा जा सकता है। वैश्वीकरण में मानवता का विस्तार नहीं पूँजी विशेषकर पश्चिमी पूँजी-का विस्तार के रूप में ही देखा जा सकता है। इसीलिए आज वैश्वीकरण पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका के आर्थिक साम्राजीकरण की नीति है। अमेरिका के एक पूर्व विदेश मंत्री डॉ. हेनरी किसिंगर ने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट रूप में कहा था- "भूमंडलीकरण वस्तुतः अमेरिकी दबदबे का ही पर्यायवाची है। यह स्वाभाविक ही है कि दुनिया के देश अमेरिका की उपलब्धियों को देखते हुए उसका अनुसरण करें। अमेरिका ने अकूत धन अर्जित किया है, पूँजी की उपलब्धता बढ़ाई है, नवीन प्रौद्योगिकी विकसित की है और अनगिनत प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए बाजार बनाया है। फलतः वह पूर्ण रोजगार, लगातार बढ़ती वास्तविक मजदूरी, उत्तरोत्तर वर्धमान उत्पादकता, मुद्रास्फीती की निम्नदर, अधिकाधिक समृद्धि और निरन्तर आर्थिक संमृद्धि की ओर बढ़ रहा है। जिस प्रकार भूमंडलीकरण का पिछला दौर ब्रिटिश नेतृत्व में चला था उसी प्रकार वर्तमान दौर के लिए अमेरिकी नेतृत्व अपरिहार्य है। संसार को अमरीकी विचारों, मूल्यों और जीवन-शैली को अपनाना ही पड़ेगा, उसके सामने कोई अन्य विकल्प नहीं।" (आलोचना, जुलाई-सितम्बर - 2003, पृ. 165.)

भारत के लिए वैश्वीकरण मूलतः एक आर्थिक आक्रमण तो है ही साथ में सांस्कृतिक आक्रमण भी है। एक अमेरिकी पत्रकार टामस एल. फ्रिडमन ने कहा ह ""भूमंडलीकरण की अपनी प्रमुख संस्कृति है, जिस कारण उसकी प्रवृत्ति समरूप बनने की है। सांस्कृतिक दृष्टि से कहें तो, पूर्णतया न सही मुख्यतः भूमंडलीकरण का अर्थ अमरिकीकरण - बिग मम्स से मिकी माउस तक का विश्वस्तर में प्रसार करना है ।" (वही, पृ. 165 ) इस तरह वैश्वीकरण सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को भी जन्म दे रहा है। विश्व बाजार के साथ एक नयी उपभोक्ता संस्कृति का प्रचार-प्रसार बड़ी तीव्र गति से हो रहा है, जिसका सीधा प्रभाव अपने देश की संस्कृति, समाज और भाषा तथा साहित्य पर देखा जा सकता है।

वैश्वीकरण और भारतीय भाषाएँ :

दुनिया भर में बड़े-बड़े समाजशास्त्री यह कहते हैं, कि किसी भी जाति या राष्ट्र की विरासत और उसकी सर्जनात्मकता को बचाये रखने के लिए उसकी अपनी देशी भाषाओं को महत्त्व देना जरूरी है। वर्तमान वैश्वीकरण का चेहरा ही कुछ ऐसा है कि वह 'अर्थतत्त्व' से राष्ट्र, संस्कृति और भाषा सभी को बूरी तरह से तहस-नहस कर रहा है। वैश्वीकरण की भाषा अंग्रेजी मानी जा रही है, क्योंकि अंग्रेजी को हम पहले ही 'विश्वभाषा' मान चुके हैं। हमारे संविधान ने 'अंग्रेजी' को देश की सम्पर्क भाषा और राजभाषा का सिंहासन पहले ही प्रदान किया था। अब ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाओं को क्या भविष्य हो सकता है। आजादी के बाद अपने देश में 'अंग्रेजी' को सुनियोजित रूप में हर कार्य में प्रायोजित करने का प्रयास किया गया है। राजभाषा के रूप में कार्यालयों और शिक्षा माध्यम के रूप में वह उत्तरोत्तर अनिबंध रूप में बढ़ रही है। देश के हर क्षेत्र में मातृभाषा में शिक्षा देनेवाली शिक्षा संस्थाएँ सरकारी अनुदान के बावजूद बदहाली के कगार पर है और अंग्रेजी माध्यमों की शिक्षा संस्था आर्थिक अनुदान के बिना भी सम्पन्न' और 'समृद्ध' बन रहीं है। महाराष्ट्र राज्य सरकार ने पहली कक्षा से अंग्रेजी शिक्षा अनिवार्य कर दी है । कुल मिलाकर वैश्वीकरण में पाश्चात्य नयी उपभोक्ता संस्कृति और उसकी संवाहक अंग्रेजी 'प्रतिष्ठित' हो चुकी है। इसीलिए कई लोग कह रहे हैं कि वैश्वीकरण के दौर में अंग्रेजी 'के आक्रमण से देशी भाषाएँ कमजोर हो रही हैं, कई भाषाएँ तो जल्द ही लुप्त हो जाएगी। इसीलिए आवश्यक है कि देशी 'भाषाओं को मात्र बचाना नहीं है, बल्कि उन्हें इतने सक्षम करना होगा कि नयी व्यवस्था में भी अपने सांस्कृतिक महत्त्व के साथ ही अन्य भाषिक प्रकार्यों में भी सशक्त हो।

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वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी :

भारत बहुभाषी देश है। सन 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में 179 भाषाएँ एवं 544 स्थानीय भाषा थीं। सन 1961 और 1971 की जनगणनाओं में मातृभाषा के रूप में 1652 भाषाओं की गणना की थी। यदि हम स्थानीय और क्षेत्र विशेष की भाषाओं को छोड़ भी दें तो भाषाओं की संख्या 22 हैं, जिसके अंतर्गत देश की लगभग 90 प्रतिशत जनता आ जाती है। प्रारंभ में हमारे संविधान में 14 भाषाओं को स्वीकार किया गया था - असमी, बंगला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, तामिल, तेलुगु, संस्कृत एवं उर्दू । बाद में सिंधी भाषा को भी संविधान में सम्मिलित कर लिया गया। अतः संख्या 15 हो गयी। अगस्त 1992 में हुए 71 वें संविधान संशोधन के अनुसार कोंकणी, मणिपुरी तथा नेपाली को सम्मिलित किया गया। सन 2003 में 92 वें संविधान संशोधन द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संस्थाली को आठवी अनुसूची में स्थान देने से प्रादेशिक भाषाओं की संख्या 22 हो गयी। भाषा की विविधता भारतीय समाज की विलक्षणता है। ये भाषाएँ अपने-अपने क्षेत्र में अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ प्रयुक्त होती रही हैं और अपने क्षेत्र के बाहर के भाषा क्षेत्र के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग होता रहा है। भाषागत टकराव की कोई स्थिति नहीं थी। लेकिन अंग्रेज यहाँ आये और सुनियोजित ढंग से देशी भाषाओं को दरकिनार कर 'अंग्रेजी' और 'अंग्रेजीयत' के प्रचार-प्रसार का प्रबंध किया। भाषा की विविधता और आपसी सहयोग की जड़े धीरे-धीरे शिथिल होने लगी। ब्रिटन के नेतृत्व में हुए प्रथम भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण - प्रक्रिया में मेकॉले ने जो प्रयास किये उसके परिणाम स्वरूप देखने में तो लोग भारतीय लगने लगे लेकिन मन- मस्तिष्क अंग्रेजीयत में ढल चुका हुआ। अपने समाज, धर्म और संस्कृति से कटे ये लोग मानसिक रूप में अंग्रेज और अंग्रेजीयत के पूरे गुलाम बने थे। स्वतंत्रता के बाद भी एक वर्ग उन्हीं संस्कारों को लेकर जीता रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ दिन 'देशी-चेतना' की चिनगारियाँ दिखाई पड़ी थी, लेकिन सन 1990 के बाद धीरे-धीरे फलेते अमेरिकी भूमंडलीकरण ने फिर एक बार 'देशी - चिनगारियों' को राख में तब्दिल करने के देशी प्रयासों को हवा मिली। आज के भूमंडलीकरण का जमाना कम्प्यूटर, इंटरनेट और बाजार तंत्र का है और इनकी भाषा अंग्रेजी है। इसलिए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि हिन्दी के स्थान पर अब 'अंग्रेजी' देश की एकमात्र सम्पर्क भाषा बन जाएगी। लेकिन निराश होने की आवश्कता नहीं है। चंद अंग्रेज दाँ भले ही कुछ कहें, हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है। अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए भाषा और संस्कृति को सक्षम बनाना ही है। सब से पहले इस गलतफहमी से हमें बाहर आना है कि वैश्वीकरण के, बाजारवाद के इस नये दौर में अंग्रेजी के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। हम सब जानकार भी अनजान बने हुए हैं कि विश्व के अनेक समृद्ध देशों में सारा कामकाज अंग्रेजी में न होकर उसकी अपनी राष्ट्रीय भाषा में ही होता है। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ अंग्रेजी अनुवाद का सहारा लिया जाता है। 'चीन' का उदाहरण इस संबंध में बड़ा सटिक है। वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा की व्यवसाय, संचार माध्यम, विज्ञान तथा तकनीकी, तथा राजभाषा के रूप में विकास की नयी संभावनाएँ हैं। उसे इस तरह स्पष्ट किया जा सकता है।

(1) उद्योग व्यापार और हिन्दी : 

हिन्दी का सही इतिहास देखा जाए तो वह राजाश्रय की अपेक्षा जनाश्रय में पला बढ़ा है। स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेज राज में हिन्दी सरकार की भाषा नहीं थी, व्यापार की भाषा थी। आज के वैश्वीकरण के दौर में भी हिन्दी- व्यापार की भाषा के रूप में ही अधिक प्रचलित है। यद्यपि हमारे यहाँ व्यावसायिक लाभप्रदता और भाषा के आपसी संबंधों को गहराई से देखा नहीं जाता, लेकिन व्यापारी इन संबंधों को जानते हैं। 100 करोड़ आबादीवाले इस देश में लगभग 70 करोड़ लोग जिस भाषा को समझते और बोल सकते हैं, उस भाषा को वह कैसे नजर अंदाज करेगा ? उसे व्यापार दो प्रतिशत अंग्रेजी जाननेवाले तथाकथित उच्चे लोगों से नहीं बल्कि 70 प्रतिशत हिन्दी बोलनेवाले आम लोगों से भी करना है। भाषा उसके लिए 'प्रतिष्ठा' का नहीं व्यापार का माध्यम होता है। कोई भी निजी कम्पनी चाहे वह अमेरिका की हो या इंग्लैंड की उसे उस भाषा को अनदेखा करके नहीं चल सकता, जिसको देश की बहुसंख्यक जनता समझती है। प्रभावशाली संप्रेषणप्रणाली आधुनिक कारपोरेट जगत का एक अनिवार्य हिस्सा है। देश की बहुसंख्य जनता जिस भाषा को समझती है, वह निश्चय ही किसी भी व्यापारिक गतिविधि का अनिवार्य तौर पर एक भीतरी अंग बनेगी और वह व्यापार की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों को स्पर्श करेगी। इस दृष्टि से देखें तो अर्थव्यवस्था की बदलती हुई स्थितियों में, आनेवाले दिनों में हिन्दी की एक व्यावसायिक भाषा के रूप में लोकप्रियता बढ़ना असंदिग्ध है। इसीलिए आवश्यक है हिन्दी को उद्योग व्यवसाय - की विभिन्न प्रयुक्ति के अनुरूप विकसित करने के प्रयास हो तथा नयी पीढ़ि को इस तरह की भाषा प्रयुक्ति के लिए प्रशिक्षित करने के प्रयास हो।

2) संचार माध्यम और हिन्दी : 

संचार माध्यम, चाहे वह मुद्रित हो, श्रव्य हो या दृश्य- श्रव्य, आज अपने आप में एक व्यवसाय बन गया है और उद्योग व्यापार का एक प्रमुख माध्यम भी 'विज्ञापन' वैश्वीकरण के खुले बाजार का एक सशक्त माध्यम है। आरंभ में विज्ञापनों पर भी अंग्रेजी छाई हुई थी, लेकिन आज हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं ने उस पर कब्जा कर लिया है। विज्ञापन जगत भारतीय भाषाओं का महत्त्व समझ रहा है, हिन्दी उसमें अग्र स्थान पर है। विज्ञापन जगत के एक डायरेक्टर नवीन माथुर ने कहा भी है- "भविष्य में तमाम विज्ञापन एजेंसियों को इस बात को गहरे तौर पर समझना पड़ेगा कि लगातार मंहगे होते जा रहे विज्ञापनों के दौर में क्लायंट को पूरा प्रतिफल मिलना चाहिए। इसके लिए हिन्दी के बिना काम नहीं चल सकता।" एचटीए के वरिष्ठ क्रियेटिव डायरेक्टर जे. डी. ढोढियाल का कहना है- "गाँवों का बाजार शहरों के बाजार से तीन गुना बड़ा है, गाँवों के बाजारों को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है, वहाँ अंग्रेजी में संवाद संभव नहीं है।" व्यावसायिक दबाव विज्ञापन जगत को बदले के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यही वजह है कि हिन्दी कॉपीराइटरों की माँग बाजार में तेजी से बढ़ गयी है। यद्यपि अब तक अंग्रेजी कापीराइटरों का ही बोलबाला रहा है, हिन्दी में केवल अनुवाद होता रहा है, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। हिन्दी कॉपीराइटिंग की अच्छे दिन आने की संभावनाएँ निश्चित रूप में हैं। इसीलिए आवश्यक है कि 'विशुद्धता' का राग आलापने के बजाए हिन्दी को प्रभावी विज्ञापनों की भाषा के रूप में विकसित होने का अवसर प्रदान हो, तथा हिन्दी कापीराइटिंग को गंभीरता के साथ व्यावसायिक दृष्टि के साथ अपनाने के प्रयास हो।

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समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो तथा टी.वी. अब एक व्यवसाय बन गया है। समाचार पत्रों में आज भी अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है, लेकिन हकीकत यह है कि भारतीय भाषा और हिन्दी पत्र-पत्रिका की खपत अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं से कई गुणा अधिक है। एफ. एम. रेडिओ के रूप में रेडियो ने फिर से वापसी की है। इसकी भाषा मुख्यतः भारतीय क्षेत्रीय भाषा और हिन्दी हैं। टी.वी. जगत पर विदेशी पूँजीपतियों का मालिकाना अधिकार है। भारत के दो प्रमुख चैनल स्टार और जी.टी.वी. आरंभ में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा में कंद थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ आया कि व्यापक उपभोक्ता तक पहुँचने के लिए हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं को अपनाना आवश्यक है। आज स्टार और जी टी.वी. के प्रमुख कई चैनल हिन्दी के हैं और हर भारतीय भाषा के भी हैं। मनोरंजन, फिल्म, संगीत, खेल, समाचार तथा ज्ञान-विज्ञान से संबंधित सभी चैनल हिन्दी है। इन विभिन्न चैनलों पर प्रयुक्त हिन्दी को लेकर नाक भी सिकुड़ने का सिलसिला भी चल रहा है, लेकिन बाजार को इसकी पर्वाह नहीं होती है। कुछ साल पहले हिन्दी फिल्मों की भाषा को लेकर भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होती थी। हर तरह की भाषा प्रयुक्ति को 'मानक, साहित्यिक भाषा के मानों से तौलने की अतिवादी प्रवृत्ति समिचित नहीं होती। नयी माध्यम-विधाओं और उनकी भाषा की प्रकृति को देखकर उसके विकास में योगदान देना हमारा दायित्त्व है।'

3) सूचना प्रौद्योगिकी और हिन्दी :

 सूचना प्रौद्योगिकी में पिछले कुछ वर्षों से क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है। आधुनिक सूचना तंत्र एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के चलते आज समूचे विश्व की दूरियाँ सीमट गयी है। इस क्षेत्र में आज भी अंग्रेजी का बोलबाला है। कम्प्यूटर और इंटरनेट का अविष्कार उन देशों में हुआ, जिनकी भाषा अंग्रेजी है। अन्यतः कम्प्यूटर इंटरनेट की अपनी भाषा है, उसे विश्व की किसी भी भाषा द्वारा संचालित किया जा सकता है। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषा में कम्प्यूटर प्रयोग के लिए कई तरह के साफ्टवेअर तैयार किये जा रहे हैं। इंटरनेट पर भी कई हिन्दी वेबसाइट विद्यमान हैं। देश में इंटरनेट अभी भी नगरों महानगरों - तक सीमित है। जब वह ग्राम कस्बों में भी फैल जाएगा तब अनिवार्य रूप में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषा भी कम्प्यूटर और इंटरनेट पर प्रतिष्ठा पा सकेगी। इस क्षेत्र में भी हिन्दी की अपार संभावनाएँ हैं।

4) विज्ञान तथा तकनीकी और हिन्दी : 

यह क्षेत्र भी अंग्रेजी के कब्जे में हैं। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में पाश्चात्य देशों का ही बोलबाला रहा है। नये-नये वैज्ञानिक अविष्कार और नयी-नयी तकनीकी पाश्चात्य देशों से आती है। इसीलिए उसके लिए अंग्रेजी ही उपयुक्त भाषा है। हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा संभव ही नहीं। लेकिन अब इस मानसिकता को बदलना होगा। विज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्र में उधार का ज्ञान और उधार की भाषा के सहारे हम दूर तक नहीं जा सकते। इस क्षेत्र में विकास के लिए भारतीय भाषा को अपनाना आवश्यक है। यद्यपि 10वीं तथा 12वीं तक की विज्ञान की शिक्षा के लिए भारतीय भाषा का प्रयोग किया जाता रहा है। पाठ्य पुस्तकें भी लिखी गयी हैं, लेकिन इस दिशा में हिन्दी के विकास की काफी संभावनाएँ हैं।

(5) राजभाषा हिन्दी :

संविधान में राजभाषा के रूप में अष्ठम सूची में शामिल 22 भाषाएँ स्वीकृत हैं। हिन्दी संघ राज्य की राजभाषा है और अंग्रेजी भी संविधान में अंग्रेजी के राजभाषा के रूप में प्रयोग के लिए आरंभिक 15 वर्षों तक की अवधि तय की गयी थी। लेकिन अब वह अनंत काल तक प्रयोग की अधिकारी बन गयी है । सरकार, प्रचार सभाओं के प्रयासों के बावजूद हिन्दी को राजभाषा का स्थान अब तक प्राप्त नहीं हो पाया है। एक बहाना हमेशा चलता रहा है कि हिन्दी में कामकाज उतना सहज और सरल नहीं बन पाता। आज कम्प्यूटर का एक नया बहाना मिल गया है। कम्प्यूटर में हिन्दी और देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए कई साफ्टवेअर बन गये हैं, लेकिन कार्यालयों में उनके प्रयोग से हिन्दी में कामकाज नहीं होता। वैश्वीकरण के इस दौर में व्यापार-व्यवसाय, जनसंचार माध्यमों में हिन्दी एक प्रमुख भाषा बन गयी है, लेकिन कार्यालयों में अंग्रेजी की मानसिकता कम नहीं हुई, बल्कि और अधिक पृष्ट होती जा रही है। अंग्रेजी को अनुवाद की भाषा और हिन्दी अनुवाद की भाषा बन गयी है। अनुवाद भी । इस कदर अटपटे कि 'राजभाषा हिन्दी' से तात्पर्य एक अटपटी, बोझिल और कृत्रिम भाषा के रूप में उपहास का विषय बन गयी है। अब हाल यह है कि अंग्रेज परस्ती में बड़े बाबू यहाँ तक कह रहे हैं - हिन्दी में सब कुछ किया जा सकता है। लेकिन राजकाज नहीं हो सकता। एक जनतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बुनियादी बात यह है कि राज जवाबदेह हो और राज जवाबदेह किसी और भाषा में नहीं हो सकता, वह तो जनभाषा में ही होगा। जनभाषा की उपेक्षा अपनी जवाबदेही की उपेक्षा है।

6) भारतीय संस्कृति और हिन्दी :

वैश्वीकरण में मात्र पश्चिमी पूँजी का ही नहीं, पश्चिमी संस्कृति का भी विस्तारीकरण हो रहा है। वैश्वीकरण का स्वरूप समरूपता का है। हमारा देश विविधता का है। यहाँ भाषा, धर्म, संस्कृति की विविधता में एकता है। इस विविधता में एकता ही भारतीयता है। इसीलिए कहा जा रहा है कि वैश्वीकरण में सबसे बड़ा खतरा भारतीय संस्कृति को है। पहले आधुनिकता के नाम पर भारतीय संस्कृति का पाश्च्यातीकरण हुआ अब वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका की उपभोक्तावादी संस्कृति से संस्कारित एक नयी सभ्यता का विकास देखा जा रहा है। संस्कृति सूक्ष्म रूप में मूल्य परक होती है और स्थूल रूप में वह समाज, साहित्य, कला, मनोरंजन और मानवीय संबंधों में व्यक्त होती है। आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के संबंध में डॉ. शंभुनाथ कहते हैं- "निस्संदेह हम लोग मार्केटिंग के युग में जी रहे हैं। वे सभी सांस्कृतिक उत्पादन पिछड़ जाएँगे, जिन्हें औद्योगिक या व्यापारिक कंपनियाँ प्रायोजित नहीं करेंगी। वह सब धरा का धरा रह जाएगा, जो 'वस्तु' में नहीं बदल पाएगा। खेलकूद, संगीत या चित्रकला की तरह साहित्य निर्माणों को न प्राचीन युगों-सा राजाश्रय मिल सकता है और न औद्योगिक व्यापारिक प्रयोजन सुलभ होंगे। विभिन्न कॉलेजों और नौजवानों के 'जाने' में घुस कर टाइम्स, एफ.एम. जैसे प्रतिष्ठान रॉक म्यूजिक को लोकप्रिय बना रहे हैं। युवक और युवतियाँ विलासोन्माद में थिरक रहे हैं। और अपने को जहरीली मस्ती में खो रहे हैं। सांस्कृतिक दुनिया में आज का संगीत धर्म के समान ही एक शक्तिशाली प्रचार है।" इस तरह उपभोक्तावादी एक नयी अंध संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो रहा है। इसके लिए टी.वी. और फिल्म सबसे प्रमुख माध्यम बन गये हैं। ऐसी विषम स्थिति में भारतीय भाषाओं को विशेष कर हिन्दी को अपना सांस्कृतिक योगदान देना है । भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। इसीलिए वह संस्कृति की रक्षक भी होती है । अतः अब समय आ गया है कि हम सचेत हो जाए।

कुलमिलाकर वैश्वीकरण ने हिन्दी के सामने कई नये द्वार खोल दिये हैं। और कुछ समस्याएँ भी उत्पन्न की है, कुछ चुनौतियाँ भी उठ खड़ी हुई है। उसका सामना करने के लिए हमें सन्नद्ध होना ही पड़ेगा, क्योंकि हिन्दी का अस्तित्व देश के राजनैतिक और सांस्कृतिक अस्तित्व के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है।

- माधव सोनटके

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विश्व भाषा के रूप में हिंदी की प्रगति, हिंदी का वैश्विक भविष्य क्या है, वैश्वीकरण और हिंदी भाषा, हिंदी का वैश्विक परिदृश्य, वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को स्पष्ट कीजिए, विश्व में हिंदी की वर्तमान स्थिति, हिन्दी भाषा की वर्तमान स्थिति और भविष्य, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की स्थिति, अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी।

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