व्यंग्य के पुरोधा परसाई जी | Harishankar Parsai

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi critic Harishankar Parsai

व्यंग्य के पुरोधा परसाई जी

- राजेन्द्र वर्मा

कबीर की प्रहार-क्षमता, प्रेमचंद की पठनीयता, और निराला की जीवंतता— इन तीनों को अगर एक कहीं देखना हो तो उसे परसाई जी के यहाँ देखा जा सकता है, जिनकी व्यंग्य रचनाओं में युगीन विसंगतियों, विडम्बनाओं, अंतर्विरोधों और समाज, राजनीति, प्रशासन आदि क्षेत्रों में मनुष्य के पाखंडी चरित्र का न केवल विशद चित्रण मिलता है, बल्कि उन पर कारुणिक प्रहार भी मिलता है। संक्षेप में, यही व्यंग्य का उद्देश्य है।

 परसाई जी, यानी, हरिशंकर परसाई (22.08.1924 – 10.08.1995) पर बात करने का मतलब है कि ख़ालिस व्यंग्य पर बात करना, जिसमें कोई हिचकिचाहट नहीं, कोई लाग-लपेट नही, इधर-उधर की कोई बात नहीं, बस दो टूक, जो पाठक को उस बेचैनी से भर दे जिससे व्यंग्य-रचना उपजी है, उसे तिलमिला दे और उसे सोचने पर मजबूर कर दे कि कैसे यथास्थिति में बदलाव लाया जाए। परसाई जी का रचना-कर्म इस नाते भी बहुत महत्त्व का है कि उससे हमें व्यंग्य के स्वरूप, सरोकार आदि को जानने-समझने का अवसर मिलता है। व्यंग्य-लेखन पर उनके विचार हर व्यंग्य-लेखक को आत्मसात करने की ज़रूरत है, क्योंकि वे ही अकेले व्यंग्यकार हैं जो खुलकर बात करते हैं कि व्यंग्य क्यों है, कैसे है और किसलिए है तथा व्यंग्यकार किस ओर खड़ा है : शोषक के साथ है या शोषित के साथ?

  परसाई जी सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक विसंगतियों को उधाड़ने और उन पर प्रहार करने में इतने दक्ष हैं कि उनके आगे कोई गद्यकार, विशेषतः व्यंग्यकार नहीं टिकता। राजनीतिक घटनाओं के विभिन्न संदर्भो में उनकी रचनाओं में तात्कालिकता भले ही दिखाई दे, पर उसका दबाव कतई नहीं दिखता, बल्कि उस अंतर्विरोध और विरोधाभासी यथार्थ का बोध होता है जो राजनीति के पैंतरों में छिपा रहता है। इन घटनाओं-प्रसंगों से उपजी उनकी रचनाओं में विसंगति और विद्रूप पर प्रहार के साथ आम आदमी की चिंता मौजूद है। राजनीतिक विचारधारा जो वामपंथ की ओर झुकी रहती है, उनकी रचनाओं में सहजतः आ जाती है। हालांकि यह उनकी जनपक्षधरता ही है, पर उन पर वामपंथी होने का आरोप लगता है, जिसे वे स्वीकार भी करते हैं। वे कहते हैं, “कोई लेखक वामपंथी हुए बग़ैर जी नहीं सकता।” उनके इस वाक्य को अगर गहराई से देखें तो पाएँगे कि व्यंग्यकार स्वभाव से ही वामपंथी या प्रगतिशील विचारधारा का ही होता है, क्योंकि वह सत्ता-व्यवस्था से समानता के व्यवहार की आशा करता है और समाजवादी होने के नाते उसके दोगले चरित्र को पहचानकर उस पर प्रहार करता है। दक्षिणपंथ तो हमें यथास्थितिवादी होना ही सिखाता है, कभी-कभी तो प्रतिगामी भी। इसीलिए व्यंग्यकार तो सत्ता का स्थायी विपक्ष कहा गया है। लेकिन इसे साहित्य का विद्रूप ही कहा जाएगा कि व्यंग्य-लेखन के क्षेत्र में आज सत्ता के समर्थक लेखकों की भीड़ ख़ुद को व्यंग्य-लेखक प्रचारित कर रही है।

व्यंग्य-लेखन पर परसाई जी के विचार स्पष्ट हैं। लेखन के सामाजिक सरोकार और उसके लक्ष्य को लेकर वे कहते हैं—

 “व्यंग्य-लेखन एक गंभीर कर्म है। कम-से-कम मेरे लिए। सवाल यह है कि कोई लेखक अपने युग की विसंगतियों को कितने गहरे खोजता है। उस विसंगति की व्यापकता क्या है और वह जीवन में कितनी अहमियत रखती है। मात्र व्यक्ति की ऊपरी विसंगति— शरीर रचना की, व्यवहार की, बात के लहजे की एक चीज़ है और व्यक्ति तथा समाज के जीवन की भीतरी तहों में जाकर विसंगति खोजना, उन्हें अर्थ देना तथा उसे सशक्त विरोधाभास से पृथक करके जीवन से साक्षात्कार कराना दूसरी बात है। सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। वह मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। अपने से साक्षात्कार करता है। चेतना में हलचल पैदा करता है और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखण्ड, असामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिए उसे तैयार करता है।”1

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 इस प्रसंग में तिरछी रेखाएँ की भूमिका, ‘व्यंग्य क्यों? कैसे? किसलिए?’ का उल्लेख भी ज़रूरी है। इसमें व्यंग्य-लेखन में हास्य की भूमिका से लेकर व्यंग्यकार के सरोकार और उसके उद्देश्य की गम्भीर चर्चा है, जबकि, ‘व्यंग्य क्यों...?’ में, व्यंग्य-पाठ के संदर्भ में पाठकीय मनोविज्ञान, हास्य का व्यंग्य में स्थान और व्यंग्य लेखन गंभीर कर्म कैसे है, आदि मुद्दों पर वे अपनी राय रखते हैं। व्यंग्य के मर्म को समझने के लिए वे विदेशी लेखकों, जोनाथन स्विफ़्ट और मार्क ट्वेन के विचारों को उद्धृत करते हैं। चेखव की कहानी, ‘बाबू की मौत’ की संक्षिप्त समीक्षा करते हुए वे व्यंग्य के उद्देश्य की बात करते हैं, “अच्छे व्यंग्य में करुणा की अंतर्धारा होती है। चेखव में शायद यह बात सबसे साफ़ है। चेखव की एक कहानी है— बाबू की मौत। इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते हँसी आती है, पर अंत में मन करुणा से भर उठता है। जिस बात पर कहानी का ताना-बाना चेखव ने बुना है, वह यह है—

“थियेटर में एक बाबू नाटक देख रहा है। उसके ठीक सामने उसका बॉस बैठा है। बॉस के चाँद है। बाबू को छींक आती है और उसे लगता है कि उसकी छींक के छींटे साहब की चाँद पर पड गए हैं। वह घबराता है और इंटरवल में साहब से माफी माँगता है— साहब, माफ़ कर दीजिए। मुझसे ग़लती हो गयी। मैंने जानबूझकर गुस्ताख़ी नहीं की। अब मज़ा यह है कि साहब की चाँद पर छींटे पड़े ही नहीं हैं। वह नहीं जानता कि बाबू माफी किस बात की माँग रहा है।” लेकिन बाबू बार-बार माफी माँगता है और अंत में जब साहब उसे चपरासी से बाहर निकलवा देता है तब वह सोचता है साहब बहुत नाराज़ हैं और उसकी नौकरी ज़रूर जाएगी... उसकी बीवी है, बच्चे हैं, उनका पालन कैसे होगा? और इसी घबराहट में वह घर आकर मर जाता है। परसाई जी कहते हैं, “कैसा करुण प्रसंग है। कहानी में चेखव ने इस कठोर नौकरशाही पर चोट की है जिसमें साहब अहंकार के कारण बाबू से पूछता तक नहीं कि तू माफी क्यों माँग रहा है। सिर्फ इतना पूछ लेता तो बाबू की जान नहीं जाती।”2

 परसाई जी के निबंधों ने व्यंग्य विधा को पहचान दिलायी, उसे स्थापित किया, हालांकि वे व्यंग्य को विधा के रूप में नहीं, एक स्पिरिट (भावना) के रूप में भी मानते रहे। व्यंग्य के बारे में उनके विचार जाने के लिए उनकी कुछ पुस्तकों की भूमिकाओं को भी पढ़ने की ज़रूरत है। कुछ में तो मामूली बाते हैं, लेकिन सदाचार का ताबीज की ‘कैफियत’ (भूमिका) उनके लेखकीय सरोकार को जानने का अच्छा माध्यम है। इसमें संवाद शैली में खूब रोचकता से बात रखी गयी है। इस प्रश्न पर कि वे राजनीतिक व्यंग्य क्यों लिखते हैं, वे कहते हैं, “राजनीति बहुत बड़ी निर्णायक शक्ति हो गयी है। वह जीवन से बिल्कुल मिली हुई है। शहर में अनाज और तेल पर मुनाफ़ाखोरी कम नहीं हो सकती क्योंकि व्यापारियों के क्षेत्रों से अमुक-अमुक को चुनकर जाना है। राजनीति— सिद्धांत और व्यवहार की— हमारे जीवन का एक अंग है। उससे नफ़रत करना वेवकूफी है। राजनीति से लेखक को दूर रखने की बात वही करते हैं जिनके निहित स्वार्थ हैं जो डरते हैं कि कहीं लोग हमें समझ न जाएँ। मैंने पहले ही कहा है कि राजनीति को नकारना भी एक राजनीति है।”3

 परसाई जी ने तीन उपन्यास भी लिखे हैं, लेकिन उनकी पहचान व्यंग्यकार के रूप में ही है। उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं— हँसते हैं रोते हैं, भूत के पाँव पीछे, तब की बात और थी, जैसे उनके दिन फिरे, सदाचार का ताबीज, पगडंडियों का जमाना, वैष्णव की फिसलन, शिकायत मुझे भी है, अपनी-अपनी बीमारी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, निठल्ले की डायरी, बोलती रेखाएँ, एक लड़की पाँच दीवाने, तिरछी रेखाएँ, पाखण्ड का अध्यात्म, विकलांग श्रद्धा का दौर, दो नाक वाले लोग, काग भगौड़ा (सभी व्यंग्य-संग्रह), रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, जल और ज्वाला (उपन्यास), आवारा भीड़ के ख़तरे (वैचारिक निबंध-संग्रह), हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं, जाने-पहचाने लोग (संस्मरणात्मक निबंध), और अंत में, कहत कबीर, तुलसीदास चन्दन घिसैं (अखबारी स्तंभों का संग्रह)। व्यंग्य-संग्रह, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी प्रतिनिधि व्यंग्य-रचनाओं में शामिल हैं : वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर, पगडंडियों का ज़माना, अपनी-अपनी बीमारी, जैसे उनके दिन फिरे, बेईमानी की परत, सदाचार का ताबीज, दो नाक वाले लोग, निठल्ले की डायरी, ठिठुरता गणतंत्र, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर, भोलाराम का जीव, सुदामा के चावल, हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं, घायल वसंत, निंदा-रस। इनमें राजनीति, समाज और साहित्य में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, अंधविश्वास, पाखण्ड, उपभोक्तावाद, अवसरवादिता आदि की चीर-फाड़ है, तो स्वस्थ व तर्कशील समाज की रचना का स्वप्न भी।

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  ‘वैष्णव की फिसलन’ उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य-रचना है। इसमें धनाड्य लोगों की छद्म नैतिकता पर कड़ा प्रहार है। कथापात्र, वैष्णव सूदखोरी करता है जिससे उसके पास नम्बर दो का बहुत पैसा हो गया है। वह सोचता है इस पैसे का क्या किया जाए ? वह विष्णु की पूजा के बाद प्रार्थना करता है, “प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइये, मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका !

 “तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा सा आवाज़ उठी— अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकर होटल बहुत चल रहे हैं।”

 वह शानदार होटल खोलता है और उसका खूब प्रचार करता है, लेकिन उसमें शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था करता है। उसके होटल का नाम सुनकर बड़े लोग (कंपनियों के एग्जीक्यूटिव, बड़े अफ़सर, सेठ) आने लगते हैं, लेकिन वे नान-वेज की माँग करते हैं। वैष्णव के सामने धर्म-संकट है। लेकिन वह अपने ग्राहकों को नाराज़ नहीं कर सकता। उसके मन में कुछ चल रहा है। परसाईजी वैष्णव की विष्णु के प्रति छद्म भक्ति को उजागर करते हैं— “वह अगले दिन शाष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा- प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरने वाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ?”

 “वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज़ आई—मूर्ख, गाँधी जी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है—‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहने वालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। उनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।”4

 होटल में मांसाहार की व्यवस्था हो जाती है। धीरे-धीरे शराब, कैबरे और लड़कियों की भी व्यवस्था हो जाती है। लेकिन इन सबकी व्यवस्था में वैष्णव विष्णु के आगे अपनी विवशता रखता है और अपनी ही आत्मा की आवाज़ से समाधान ढूँढ़ लेता है। वैष्णव की गिरावट में भी धर्म का धंधा जुड़ा है।

 ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ ज़बरदस्त फंटैसी कथा है। इसके वाक्य-वाक्य में सत्ता-व्यवस्था और पुलिस पर व्यंग्य है। परसाईजी मातादीन का स्केच खींचते हुए कहते हैं—

  “विज्ञान ने हमेशा इंस्पेक्टर मातादीन से मात खायी है। फिंगर प्रिंट-विशेषज्ञ कहता रहता है- छुरे पर पाये गए निशाँ मुलजिम की अँगुलियों के नहीं हैं। पर मातादीन उसे सज़ा दिला ही देते हैं।

 “मातादीन कहते हैं, ये वैज्ञानिक केस का पूरा इन्वेस्टीगेशन नहीं करते। उन्होंने चाँद का उजला हिस्सा देखा और कह दिया, वहाँ जीवन नहीं है। मैं चाँद का अँधेरा हिस्सा देखकर आया हूँ। वहाँ मनुष्य जाति है।

 “बात सही है, क्योंकि अँधेरे पक्ष के मातादीन माहिर माने जाते हैं।

 “पूछा जाएगा, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर क्यों गए थे ? टूरिस्ट की हैसियत से या किसी फरार अपराधी को पकड़ने ? नहीं, वे भारत की तरफ से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत गए थे। चाँद सरकार ने भारत सरकार को लिखा था- यों हमारे सभ्यता बहुत आगे बढ़ी है, पर हमारी पुलिसे में पर्याप्त सक्षमता नहीं है। वह अपराधी का पता लगाने और उसे सज़ा दिलाने में अक्सर सफल नहीं होती। सुना है, आपके यहाँ रामराज है। मेहरबानी करके किसी पुलिस अफसर को भेजें जो हमारी पुलिस को शिक्षित कर दे।”

 बहरहाल, मातादीन की प्रतिनियुक्ति चाँद पर हो गयी। उनकी कारगुजारियों से तंग आकर चाँद के प्रधान मन्त्री ने मातादीन को भारत वापस भेजने का फैसला किया। लेकिन मातादीन लौटने को तैयार नहीं, कहा- “मैं तो टर्म ख़त्म करके ही जाऊँगा।” आगे का क़िस्सा देखिए—

 “प्रधानमंत्री ने कहा— आप बाकी टर्म का वेतन ले जाइए- डबल ले जाइए, तिबल ले जाइए।

 “मातादीन ने कहा— हमारा सिद्धांत है : हमें पैसा नहीं काम प्यारा है।

 “आखिर चाँद के प्रधान मंत्री ने भारत के प्रधान मंत्री को एक गुप्त पत्र लिखा।

 “चौथे दिन मातादीन को वापस लौटने के लिए अपने आई.जी. का आर्डर मिल गया।

 “उन्होंने एस.पी. साहब क घर के लिए एड़ी चमकाने का पत्थर यान में रखा और चाँद से विदा हो गए।

 “उन्हें जाते देख पुलिसवाले रो पड़े।

 “बहुत अरसे तक यह रहस्य बना रहा कि आखिर चाँद में ऐसा क्या हो गया कि मातादीन को इस तरह एकदम लौटना पड़ा! चाँद के प्रधान मंत्री ने भारत के प्रधान मंत्री को क्या लिखा था?”

 रचना का अन्त न केवल रोचक है, बल्कि उसमें पुलिस की कार्यशैली पर क़रारा व्यंग्य भी है—

 “एक दिन वह पत्र खुल ही गया। उसमें लिखा था—

 “इंस्पेक्टर मातादीन की सेवाएँ हमें प्रदान करने के लिए अनेक धन्यवाद। पर अब आप उन्हें फ़ौरन बुला लें। हम भारत को मित्र देश समझते थे, पर आपने हमारे साथ शत्रुवत् व्यवहार किया है। हम भोले लोगों से आपने विश्वासघात किया है।

 “आपके मातादीनजी ने हमारी पुलिस को जैसा कर दिया है, उसके नतीजे ये हुए हैं :

 “कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह क़त्ल के मामले में फँसा दिया जाएगा। बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता। वह डरता है, बाप मर गया तो उस पर कहीं हत्या का आरोप नहीं लगा दिया जाए। घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता— डरता है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाए। बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता, इस डर से कि उस पैर बच्चों को डुबाने का आरोप न लग जाए। सारे मानवीय सम्बन्ध समाप्त हो रहे हैं। मातादीनजी ने हमारी आधी-सी संस्कृति नष्ट कर दी है। अगर वे यहाँ रहे तो पूर संस्कृति नष्ट कर देंगे। उन्हें फ़ौरन रामराज में बुला लिया जाए।”5

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 फंतासी शैली में ही उनकी कहानी, ‘भोलाराम का जीव’ सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खोलती हुई उन पर सटीक व्यंग्य करती है। भोलाराम की मृत्यु हो गयी है। उसका जीव लेकर यमदूत जा रहा है, लेकिन वह उसकी पकड़ से छूटकर कहीं खो जाता है। धर्मराज यमदूत की कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हुए उसे नाकारा साबित कर रहे होते हैं कि इतने में वहाँ नारद का आगमन होता है। नारद को जब भोलाराम के जीव के बारे में पता चलता है तो वे उसकी छान-बीन के लिए पृथ्वीलोक आते हैं। उसके घर जाकर हालचाल लेते हैं तो पता चलता है कि वह अपनी पेंशन के इंतज़ार में दम तोड़ चुका है और परिवार की हालत बहुत ख़स्ता है। नारद को उसके परिवार पर दया आती है और वे भोलाराम की पेंशन दिलाने के लिए पेंशन दफ़्तर जाते हैं। वहाँ उनकी वीणा की रिश्वत के बदले जब भोलाराम की पेंशन की फ़ाइल देखी जाती है, तो पता चलता है कि भोलाराम का जीव पेंशन की फाइलों के बीच में दबा हुआ है। इस कहानी में भ्रष्टाचार के विविध रूपों का रोचक चित्रण है।

 परसाई जी की लेखन शैली के कई रूप हैं। बिना किसी भूमिका के रचना शुरू होती है, लेकिन बाद में सामाजिक ताने-बाने की परतें खुलना शुरू होती हैं। ‘पगडंडियों का ज़माना’ का पहला वाक्य है—

“मैंने फिर ईमानदार बनने की कोशिश की और फिर नाकामयाब रहा।” आगे वे कहते हैं, “मैंने ऐसे आदमी देखे हैं जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में। अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी-किसी आदमी में रख देते हैं।”6

पूरी रचना में जगह-जगह समाज के दोमुहे चरित्रों और स्वार्थ साधना की खातिर शॉर्ट-कट अपनाने वालों पर क़रारा व्यंग्य है।

 ‘सदाचार का ताबीज’ भी उनकी अति प्रसिद्ध व्यंग्य रचना है। आज कितनी ही शिकायतें रोज़ होती हैं, लेकिन सत्ता को भ्रष्टाचार कहाँ दिखायी देता है! इस विषय को लेकर फंतासी शैली में सत्ता-व्यवस्था (राजा, मंत्रियों आदि) पर क़रारा व्यंग्य है। भ्रष्टाचार खोजने के लिए राजा ने विशेषज्ञों को नियुक्त किया और कुछ समय बाद पूछा, “विशेषज्ञो, तुम्हारी जाँच पूरी हो गयी?”

“जी सरकार।”

“क्या तुम्हें भ्रष्टाचार मिला?”

“जी, बहुत-सा मिला।”

राजा ने हाथ बढ़ाया, “लाओ, मुझे दिखाओ। देखूँ कैसा होता है?”

विशेषज्ञों ने कहा, “हुजूर, वह हाथ की पकड़ में नहीं आता। वह स्थूल नहीं, सूक्ष्म है, अगोचर है। पर वह सर्वत्र व्याप्त है। उसे देखा नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है।” राजा सोच में पड़ गये। बोले, “विशेषज्ञो, तुम कहते हो कि वह सूक्ष्म है, अगोचर है और सर्वव्यापी है। ये गुण तो ईश्वर के हैं। तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर है?”

विशेषज्ञों ने कहा, “हाँ, महाराज, अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है।”

भ्रष्टाचार मिटाने की खातिर राजा एक साधु, जिसे दरबारियों ने ही प्रस्तुत किया था, को ताबीज बनाने का ठेका देता है। उसका दावा है कि ताबीज पहनने से राज्य-कर्मचारी रिश्वत नहीं लेंगे। करोड़ों रुपये के ताबीज बन गए, कर्मचारियों की भुजाओं पर बाँध भी दिये गए। महीने के शुरू के दिनों में ताबीज का असर दिखा, अर्थात कर्मचारियों ने रिश्वत नहीं ली, लेकिन महीने की आख़िरी तारीख को ताबीज काम नहीं करता। उस दिन जब उससे आने वाली आवाज़ को सुना गया तो पता चला कि उससे यही आवाज़ आ रही है, ‘अरे, आज को इकतीस है, आज तो ले ले।’7

‘दो नाक वाले लोग’ स्मित हास्य से भरी हुई व्यंग्य-रचना है। दो उद्धरण देखिए—

“मेरा ख़याल है, नाक की हिफ़ाज़त सबसे ज्यादा इसी देश में होती है। या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा तेज जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है। छोटे आदमी की नाक बहुत नाजुक होती है। यह छोटा आदमी नाक को छिपाकर क्यों नहीं रखता ?

 “कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं। कालाबाजार में जेल हो आए हैं। औरत खुले आम दूसरे के साथ ‘बॉक्स’ में सिनेमा देखती है। लड़की का सार्वजनिक गर्भपात हो चुका है। लोग उस्तरा लिये नाक काटने को घूम रहे हैं। मगर काटें कैसे ? नाक तो स्टील की है। चेहरे पर पहले जैसी ही फिट है और शोभा बढ़ा रही है।”

“जो बहुत होशियार हैं, वे नाक को तलवे में रखते हैं। तुम सारे शरीर में ढूँढ़ो, नाक ही नहीं मिलती। नातिन की उम्र की दो लड़कियों से बलात्कार कर चुके हैं। जालसाजी और बैंक को धोखा देने में पल्कड़े जा चुके हैं। लोग नाक काटने को उतावले हैं, पर नाक मिलती ही नहीं। वह तो तलवे में है। कोई जीवशास्त्री अगर नाक की तलाश भी कर दे तो तलवे की नाक काटने से क्या होता है? नाक तो चेहरे पर की कटे, तो कुछ मतलब होता है।”8

 ‘आवारा भीड़ के खतरे’ उनका बहुपठित निबंध-संग्रह है जिसमें सामाजिक आन्दोलन, धर्म-विज्ञान और परिवर्तन को लक्षित विचार-मंथन के अनेक मननीय लेख हैं। इन लेखों-निबंधों का लक्ष्य पाठक की चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाते हुए विकसित जीवनदृष्टि प्रदान करना है। इन निबंधों की विशेषता यह है कि आसान भाषा में विचारों को सरल ढंग से समझाया गया है। विचार-मंथन की प्रक्रिया में वे उन लोगों पर कड़ी नज़र रखते हैं जो सिद्धांतों के तथाकथित प्रवक्ता हैं और अंतर्विरोधों के शिकार हैं। उनकी दृष्टि साफ़ है और वे राजनीति द्वारा पोषित भ्रष्टाचार और विज्ञान से उपजे उपभोक्तावाद पर कदा प्रहार करते हैं। निबंधों में वस्तु और भाषा का जो तालमेल उनके यहाँ मिलता है, वह निबंधकार के ज्ञान का भय नहीं उपजाता, पाठक की सामान्य बुद्धि में यथार्थ और चिंतन-दृष्टि समा जाती है। यह हिंदी के प्रसिद्ध निबंधकारों के यहाँ दुर्लभ है। ‘आवारा भीड़ के खतरे’ में वे एक विचारक की भूमिका में उतरते हैं। रचना की शुरुआत एक घटना के जिक्र से होती है—

 “एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आस पास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया, हरामज़ादी बहुत खूबसूरत है।”

 इस निबंध में परसाई जी युवा मन में पलते आक्रोश के कारणों की पड़ताल करते हैं— “यह आक्रोश क्यों है? बेरोज़गारी, घर की आर्थिक हालत का खस्ता होना, अपमान और अवहेलना झेलते रहना और हर समय की घुटन आदि के कारण उसमें नकारात्मक भावना पैदा करता है। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। आगे वे कहते हैं कि जिस भी चीज़ से खुशी, सुंदरता, सम्पन्नता, सफलता और प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है। उसे समाज और सत्ता-व्यवस्था से शिकायत है।”

 निबंध का अंतिम पैरा हमें सचेत करता है— “दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है। इसका उपयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती हैं। यह भीड़ किसी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराये जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।”9

 कहना न होगा कि आज ऐसे बेरोजगार युवकों की भीड़ का दुरुपयोग सत्ता द्वारा सामाजिक समरसता को समाप्त करने हेतु करवाया जा रहा है— वह चाहे सोशल मीडिया द्वारा हो अथवा छोटे-छोटे राजनीतिक और धार्मिक आंदोलनों द्वारा, जैसे गोरक्षा, हिंदू जागरण, घर वापसी। आज राजनीति और धार्मिक पाखण्ड को अलगाना कठिन हो गया है। वैज्ञानिक सोच रखने वालों और प्रश्न करने वालों का जीवन दूभर हो रहा है। नास्तिकों और अंधविश्वासों के खिलाफ काम करने वालों का काम तमाम हो रहा है और सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता का इतना प्रश्रय है कि मॉब लिंचिंग की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं और ऐसे मामलों में न्यायालय भी फैसले दे रहे हैं, न्याय नहीं।

 उनके अन्य निबंधों में, ‘घायल वसंत’, और ‘गेहूँ का सुख’ विशेष चर्चित हैं। ये दोनों उनकी रचनाओं के विशिष्ट संग्रह, ‘तिरछी रेखाएँ’ में संकलित हैं।

 ‘घायल वसंत’ में मौसम के बदलाव के बहाने देश की सामाजिक विसंगतियों के अलावा चीन-पाकिसतान देशों की कारगुज़ारियों पर भी प्रहार है। इसमें तुक्कड़ कवियों की भी खबर ली गयी है। निबंध में लेखकीय सरोकार देखते ही बनते हैं— “वसंत अपने आप नहीं आता; उसे लाया जाता है। सहज आने वाला तो पतझड़ होता है, वसंत नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसंत यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसंत निकाल सके, निकाल ले। दो पाटों के बीच में फँसा है देश का वसंत। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसंत को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन पाटों को पीछे ढकेलो— इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत।”10

 ‘गेहूँ का सुख’ वह निबंध है जो भौतिकता और आध्यात्मिकता के द्वन्द्व में जीवन की ज़रूरतों की बात करता है। वह श्रम की महत्ता की बात करता है, वर्ग-संघर्ष में श्रमिक वर्ग के साथ खड़ा होता है। स्वार्थी और निठल्ले लोगों की खबर लेते हुए निबंधकार गेहूँ और गुलाब में गेहूँ के साथ खड़ा है— “कुछ लोग गेहूँ की बात को ‘भौतिक’ कहकर मुँह चिढ़ाते हैं। अगर भौतिक बुरा है तो सबसे बड़ी भौतिक क्रिया तो जन्म धारण करना ही है तो भाई, भौतिकता से पिंड छुड़ाने के लिए मरते क्यों नहीं? उपनिषद का वह ब्रह्मचारी मूर्ख नहीं था जिसने छूटते ही कहा था कि अन्न ब्रह्म है। लेकिन अब कुछ लोग गेहूँ से गुलाब की ओर इस तरह ले जाते हैं, जैसे गेहूँ ज़रूरत से ज़्यादा हो गया, इसलिये गुलाब की खेती करना चाहिए। जहाँ उजड़े हुए गेहूँ के खेत हों, वहाँ गुलाब की फसल किस काम आयेगी? ज़िंदगी के बारे में जो सोचेगा, वह भला गेहूँ छोड़ देगा? सबसे पहले सोचेगा।”11

  ‘कबीर समारोह क्यों नहीं’ नामक निबंध में वे कहते हैं कि मानस चतुश्ती समारोह होने में उन्हें कोई एतराज़ नहीं है, उसे होने दिया जाए। कम-से-कम इतने बड़े और पूज्य कवि (तुलसी) पर खुली बहस तो हो जाए, लेकिन सामंती समाज के पोषक और छोटे, कमज़ोर दलित वर्ग को और कुचलने के लिए एक धार्मिक पृष्ठभूमि और मर्यादा के रक्षक तुलसी की ब्राह्मण-पूजा और नारी के प्रति शंका और दुराग्रह से वे क्षुब्ध हैं। वे कहते हैं, “फिर कबीर समारोह हो, कबीर— जिसने अपनी ज़मीन तोड़ी, भाषा तोड़ी और नयी ताक़तवर भाषा गढ़ी, सड़ी-गली मान्यता को आग लगायी, जाति और धर्म के भेद को लात मारी, सारे पाखंड का परदाफाश किया, जो पलीता लेकर कुसंस्कारों को जलाने के लिए घूमा करता था। वह योद्धा कवि था। महाप्राण था। सरकार को ‘कबीर समारोह’ अवश्य करना चाहिए। मगर, याद रहे, जगजीवनराम को उमाशंकर दीक्षित के साथ एक डिनर खिलाने से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं होता।”12

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 परसाई जी ने पत्र-पत्रिकाओं में स्तम्भ लिखे जो ‘कल्पना, सारिका, नई दुनिया’ और ‘नई कहानियाँ’ में छपे। ‘तुलसीदास चंदन घिसैं’ उनके स्तम्भों का संग्रह है। इसमें शीर्षक स्तम्भ और ‘सुनो भई साधो’ क्रमशः ‘सारिका’ और ‘नई दुनिया’ में छपते रहे। ‘सारिका’ में ही उनके दो स्तम्भ और छपे— ‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’ और ‘तीसरी आज़ादी का जाँच कमीशन’, लेकिन ये दोनों जल्द-ही बंद हो गए : पहला आपातकाल लगने के कारण और दूसरा परसाई जी की बीमारी के कारण। ‘नई कहानियाँ’ में उन्होंने ‘पाँचवा कॉलम’ और ‘उलझी-सुलझी’ तथा ‘कल्पना’ में ‘और अंत में’ स्तम्भ लिखे। इन रचनाओं में तत्समय के तापमान दर्ज़ हैं और विचार-मंथन के लिए पर्याप्त सामग्री है।

 ‘तुलसीदास चंदन घिसैं’ (सारिका में प्रकाशित) का पहला लेख है, ‘चंदन क्यों घिसा?’ इसमें कबीर की परम्परा के पक्ष में परसाई जी खड़े हैं और वे तुलसी में भी कबीर का अक्खड़पन देखते हैं। परसाई जी तुलसी द्वारा चंदन घिसने की क्रिया को उनके शोषण की संज्ञा देते हैं। संतों की भीड़ को वे लुच्चों की भीड़ बताते हैं, क्योंकि संतों की भीड़ नहीं हुआ करती। परसाई जी रामचरितमानस से उद्धरण देते हुए व्यंग्य-दृष्टि रख देते हैं—

 “तुलसीदास ने मनसबदारी ठुकरा दी थी, जब अकि बहुत लेखक किसी का चोबदार बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। कोई प्रगतिशील कैसे हो सकता है जिसे अपनी क्लासिकी परम्परा ही नहीं मालूम। गाँवों में काम करनेवाले एक वामपंथी नेता ने अपनी कठिनाइयाँ बतायीं तो मैंने कहा— उत्तर भारत में ‘रामचरितमानस’ के बिना ग्रामीणों में नहीं घुस सकते। ‘मानस’ में ही क्रांति के तत्त्व मिलेंगे। तुम इसे नारा बना सकते हो—

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।

सो नृप अवस नरक अधिकारी॥

पर, इस समय हालत यह है—

हरित भूम तृण संकुल, सूझ परहि नहिं पंथ।

जिमि पाखंड विवाद तें, लुप्त होहिं सदग्रंथ॥”13

 संग्रह में एक और लेख है— ‘विश्व हिंदी नौटंकी’। इसमें हिंदी को देश में अपनाये जाने सए पहले ही उसे राष्ट्र संघ की भाषा बनवाने वालों पर गहरा कटाक्ष है। लेख में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जो ज़रूरी बातें हैं, उन पर गहराई से विचार किया गया है, जैसे— “हिंदी को सम्पन्न बनाने का एक तरीका है, उर्दू-फारसी शब्द और मुहावरे लेने का। यह रास्ता बंद। मुसलमानों की भाषा नहीं लेंगे। दूसरी तरफ़ कहते हैं— उर्दू तो हिंदी की शैली है। अगर ऐसा है तो हिंदी के पाठ्यक्रम में मीर और ग़ालिब पढ़ाइए। यह नहीं करेंगे। दूसरा रास्ता है बोलियों और लोकभाषाओं का। कई सौ सालों के अनुभव से लोकभाषाओं के शब्द और मुहावरे बने हैं। उन्हें ले लेते तो भाषा समृद्ध होती। मगर शुद्धतावादी गँवारी नहीं आने देंगे। जो शब्द अंग्रेज़ी के आ गये हैं (या) आते जा रहे हैं, उन्हें हिंदी बना लेना चाहिए। उन्हें अपनी व्याकरण में ढाल लो, लिंग-वचन दे दो। लोग बोलते ही हैं— ट्रेनें लेट आ रही हैं। लोग जो बोलेंगे, वह भाषा होगी। जिस पर चलेंगे, वह सड़क होगी। दूर से निकलनेवाली कंक्रीट की सड़क से नहीं चलेंगे, पास की पगडंडी से चलेंगे।” 14

 ‘सुनो भई साधो’ (नई दुनिया में प्रकाशित) में राजनीतिक प्रसंगों की खुलकर चर्चा है और जहाँ ज़रूरी है, विसंगतियों पर प्रहार भी। अन्य लेखों के अलवा, ‘शाहबानों का दूसरा झटका’ बहुत रोचक और मुसलिम समाज की सड़ी-गली मान्यताओं पर वाज़िब सवाल उठाने वाली रचना है। इसके अंतिम पैरे की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं—

 “साधो, ख़ुश रहने के भी क्या-क्या कारण हैं, (यह) फिर से उभरे साम्प्रदायिक माहौल में। शाहबानों के पक्ष में जब सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया तो दकियानूस मुसलमान दुखी थे और हिंदू दकियानूस साम्प्रदायिक ख़ुश थे— लो, मुसलमानों की हार हुई। अब जब दंड (प्रक्रिया) संहिता की धारा 125 से मुसलमानों औरतों को बरी करने का विधेयक संसद में है तो दकियानूस मुसलमान ख़ुश हैं। इधर हिंदू साम्प्रदायिक भी ख़ुश हैं कि प्रगतिशील मुसलमानों की हार हो रही है। एक से अपराध के लिए देश के हर नागरिक को एक-सी सज़ा मिले, यह दण्ड संहिता का आधार होता है। मगर धारा 125 से एक सम्प्रदाय को मुक्त करने का जो यह क़दम उठाया जा रहा है, तो कुछ लोग ख़ुश हैं।”15

 परसाई जी का लेखन मानवमुक्ति का लेखन है। आत्मकथात्मक रचना, ‘गर्दिश के दिन’ में वे कहते हैं, “मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट है मुक्ति के लिए, सुख के लिए, न्याय के लिए। पर यह बड़ी लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती है। अकेले वे ही सुखी हैं जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे है! न उनके मन में सवाल उठते, न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ़ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज़्यादा सुखी हो जाते हैं। कबीर ने कहा है—

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै॥

 जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं होता। व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।”16

 उन्होंने उपन्यास भी लिखे। ‘रानी नागफनी की कहानी’, ‘तट की खोज’ और ‘ज्वाला और जल’ उनके उपन्यास हैं। पहला उपन्यास इंशाअल्ला खां की ‘रानी केतनी की कहानी’ की तर्ज़ पर लिखी गई फैंटसी रचना है, जबकि ‘ज्वाला और जल’ लघु कलेवर का एक सामाजिक उपन्यास है जो नफ़रत पर प्रेम की जीत को दर्ज़ करता है। यह एक विद्रोही युवक के हृदय परिवर्तन की मार्मिक कथा है। विशेष बात यह है कि इसमें व्यंग्य का उपयोग न के बराबर हुआ है। अगर पहले से न मालूम हो, तो यह कहना मुश्किल होगा कि यह परसाई जी की रचना है।

 ‘तट की खोज’ भी उनका लघु कलेवर का सामाजिक उपन्यास है। इसे लम्बी कहानी भी कहा जा सकता है। इसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि ‘अमृत प्रभात’ के दीपावली विशेषांक हेतु दो रातों में उन्होंने उसे लिख डाला था। लेकिन इस उपन्यास के बारे में वे चौंकाने वाली बात कहते हैं, “लिखकर पछताया। छपा तब और पछताया। अब मैं इस रचना का सामना नहीं कर सकता। मेरी एक तिहाई रचनाएँ ऐसी हैं जिनका सामना करते मैं डरता हूँ।”17

 तो, ऐसी थी उनकी रचना की आत्मसमीक्ष्य दृष्टि। हमें भी अपनी रचनाओं की समीक्षा कर देखना चाहिए कि वे सार्थकता में कहाँ तक खरी उतरती हैं! ऐसा नहीं कि जो लिख दिया, सो लिख दिया। इस लिहाज से हमें उनसे जहाँ यह सीखना ही है कि कैसे विसंगतियों पर सटीक प्रहार किया जाए जिसे पढ़कर पाठक बेचैन हो उठे और बदलाव की सोचे, वहीं यह भी सीखना है कि अपनी व्यंग्य रचनाओं को लेकर हमें आत्ममुग्ध नहीं होना है, बल्कि ख़ुद का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करते रहना है तभी वर्तमान व्यंग्य की स्थिति सुधर सकती है। कहना न होगा कि आज व्यंग्य के नाम पर जो लिखा जा रहा है, उसमें से आधी रचनाएँ भी व्यंग्य नहीं हैं।

 प्रेमचंद के बाद परसाई जी सर्वाधिक पढ़े जाने वाले हिंदी के लेखक है। इसका कारण है। वे सरल-सहज और बोलचाल की भाषा में समाज और राजनीति आदि क्षेत्रों में गहरे बैठी विसंगतियाँ पर ऐसा प्रहार करते हैं कि पाठक उद्वेलित हो उठता है और यथास्थिति के में सकारात्मक परिवर्तन की बात सोचता है। यह किसी रचना की सार्थकता है। विचारणीय है कि आज कितने व्यंग्यकार ऐसा लेखन कर पाते हैं, जबकि उनमें परसाई के उत्तराधिकारी बनने की होड़ लगी हुई है। कहना न होगा कि आज का समय परसाई जी के समय की तरह झूठ, क्रूरता और छल-छद्म से भरा है, बल्कि मूल्यहीनता और पाखंड में उनके समय से भी आगे है, लेकिन उनके बाद आज तक कोई ऐसा व्यंग्यकार नहीं हुआ जिसे उनके समकक्ष या आस-पास भी रखा जा सके। बल्कि, आज उनकी कमी इस माने में खल रही है कि आज की गलीज राजनीति और बाजारी संस्कृति पर उनके जैसा मारक प्रहार कोई नहीं कर पा रहा है।

 परम्परागत विधाओं के शिल्प में तोड़-फोड़ कर उन्होंने व्यंग्य का रास्ता साफ किया— वह चाहे ललित निबंध हो, कहानी या उपन्यास हो। यही कारण है कि आज व्यंग्यात्मक कहानी कथात्मक व्यंग्य के रूप में जानी जाती है, तो व्यंग्यात्मक निबंध ‘व्यंग्य’ विधा के रूप में जाना जाता है। उपन्यास में अगर व्यंग्य की मात्रा अधिक है, तो वह भी अब केवल उपन्यास नहीं रह गया, व्यंग्य-उपन्यास हो गया है। उनका यह अवदान कभी नहीं भुलाया जा सकता।

राजेन्द्र वर्मा
3/29 विकास नगर, लखनऊ-226 022
(मो.80096 60096)

संदर्भ;

1. तिरछी रेखाएँ, हरिशंकर परसाई, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2005, पृ. 9

2. वही, पृ. 9-10

3. सदाचार का ताबीज, परसाई, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण 2010, पृ. 12

4. वैष्णव की फिसलन, परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण 1996, पृ. 11

5. अपनी-अपनी बीमारी, परसाई, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2006, पृ., 90-91

6. पगडंडियों का ज़माना, परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 1997, पृ. 76-77

7. सदाचार का ताबीज, परसाई, वही, पृ. 16 व 20

8. दो नाक वाले लोग, परसाई, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2006, पृ. 54-55

9. आवारा भीड़ के खतरे, परसाई, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 2004, पृ. 9 व 14

10. तिरछी रेखाएँ, वही, पृ. 71

11. वही, पृ. 76

12. वैष्णव की फिसलन, वही, पृ. 111-112

13. तुलसीदास चंदन घिसैं, परसाई, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1986, पृ. 20

14. वही, पृ. 32-33

15. वही, पृ. 169

16. तिरछी रेखाएँ, वही, पृ. 16

17. तट की खोज, परसाई, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2005, पृ. 5

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