हिंदी कहानी : लावारिस लाश | Hindi Kahaniya

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Kahaniya : Stories in Hindi

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कहानी : लावारिस लाश

मेरा बेटा टुर पर जा रहा था मैं उसे छोड़ने के लिए गेट तक आई। गाड़ी निकालने के लिए गेट सड़क के बीच तक खुलता है। मैं उसे अंदर खींचने के लिए लपकी कि मेरी नजर गली के उस छोर में लगे सफेद टैन्ट पर पड़ी । सर्दियों की सुबह, आज धुंध की चादर ओढ़े आई थी। गली के उस छोर पर धोबियों का घर हैं। सफेद टैन्ट देखकर ही मेरे दिल में शंका ने दस्तक दी। सुनसान सड़क पर मेरा दिमाग दौड़ रहा था उनके घर में तो सब बच्चे ही हैं क्या हुआ होगा? आज गुरुद्वारे से आने जाने वाला भी कोई नजर नहीं आया जिससे पूछ लूं। कड़ाके की सर्दी में तो तकरीबन स्कूलों बच्चों को ले जाने वाले वाहन ही निकलते हैं, बाकी लोग तो रजाईयों में दुबक कर बैठे होगे।

बच्चे भी कल शाम को गली में खेलते दिखे थे। मां बाप भी दुकान की तरफ से आते जाते देखे है। चलो, जो भी होगा कुछ देर में पता चल जाएगा। ऐसा कहते हुए मैं किचन में चली गई। चाय ली, रजाई में बैठ गई।

मेरी काम करने वाली माई "बीवी जी आपकी गली में जो धोबी हैं न, उनके घर में रोने की आवाजें आ रही हैं। लगता है, किसी की मौत हुई हैं। "मुझे तो पहले ही शक था। इतने में दरवाजे पर घंटी बजी। रामू चौकीदार ने बताया कि छोटे लाल धोबी के भाई की मौत हो गई है। "मर तो पहले ही चुका था" " गिनी चुनी चार हड्डियां बची थी और शरीर इतना था कि कौआ उठा कर ले जाए चोंच में।"

"जो शराबी सा था"

हां वही

"कितने बजे ले जाना है"

'ग्यारह बजे "

"फिर तो मैं अभी स्नान नहीं करती हूँ नहीं तो इतनी सर्दी में दुबारा नहाना पड़ेगा"

साढ़े दस बजे और पड़ोस वाली बहन जी उनके घर गई उसके छोटे भाई छोटे लाल ने सभी करीबी रिश्तेदारों को इतला कर दी थी अड़ोस-पड़ोस के लोगो का भी जमघट शुरु हो गया। सामाजिक रीति रिवाजों के लिए लोग वक्त निकाल ही लेते है खास कर किसी शख्स की अंतिम यात्रा के लिए चाहे जीते जी कभी उससे बात तक न की हो। गले सड़े मृत शरीर को ज्यादा देर तक घर में रखना उचित नहीं था एक दिन तो पहले ही लाश लावारिस पड़ रही थी।

कुछ बुजुर्गो को यही सलाह थी कि जितनी जल्दी हो सके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया जाए।

बहने सुबक- सुबक कर रो रही थी। बचपन की चन्द यादों के आंसू उनकी आंखों से बह रहे थे। सबसे बड़ी बहन जिसने उसे गोदी में खिलाया था, उसे बेटो की तरह पाला था। सबसे ज्यादा रो रही थी। जवानी की तो किसी के पास कोई सुखांत याद नहीं थी शायद। चौथे दिन क्रिया क्रम कर दिया। एक धोबी के लिए एक दिन भी दुकान बंद करके भाई के शोक पर बैठना अति कठिन था। तेरह दिन तक बैठना मतलब खाने के लाले पड़ जाते। जीना तो कठिन है ही आज कल लेकिन मरना उससे भी ज्यादा कठिन।

हमारी कालोनी में एक ही परिवार है यह धोबियों का'। मां, बाप, तीन बेटे और चार बेटियां। बेटियों को अच्छे घरों में शदियां हो चुकी है। बड़ा बेटा सेना में भरती है। कम ही आता जाता है यहां। छोटे वाले ने अपना पुश्तैनी काम संभाल रखा है जो पहले उसका बाप किया करता था और मध्य वाला लड़का था यह जिसकी मौत हुई है। मां बाप अब नहीं है। यही सब में निकम्मा था। पहले बाप की कमाई की रोटी तोड़ता रहा। कुछ भी नहीं कमाता था फिर भी मां बाप ने इसकी शादी कर दी थी। मां-बाप ने सोचा शादी की बेड़िया पड़ेगी तो सुधर जाएगा। मां बाप को पता नहीं यह गल्तफहमी क्यों रहती है कि शादी करके ठीक होने का भ्रम पालकर क्यों किसी लड़की की जिन्दगी खराब करने पर उतारू हो जाते हैं। अपने बेटों की गलत आदतों को क्यों नज़र अंदाज कर देते है। बाप की कमाई की शराब पीता और रोज बकरे बुलाता हड्ड हराम पड़ा था। क्या किसी की जिम्मेदारी संभालता और क्या बीबी को खिलाता। यह तो अच्छा किया कुदरत ने कि उसके घर कोई औलाद नहीं हुई नहीं तो उसकी भी जिन्दगी बरवाद होती। बनता कोई शराबी और फिर शराब के लिए भिखारी। इसी दुःख के कारण इसे इसकी बीवी छोड़कर चली गई थी। प्रतिदिन नशा करके आता था और शेर की तरह दहाड़ता था। घर को उथल पुथल कर देता था । शुरु में तो थर थर कांपती थी बेचारी। मुंह पर ताला लगा कर कान में उंगली देकर मां-बाप भाई-बहन की गन्दी गन्दी गालियां सुनती रहती थी। भीगी बिल्ली की तरह जी जी करके जो हुक्म किया वही हाजिर करती रहती थी। दांत पीस पीस कर गालियां देना तो उस शराबी का रोज़ का काम हो गया। जूते खोल, "साली "जुराबे खोल-हरामज़ादी” “खाना ला" गर्म रोटी ला" "खड़ी क्या है ? मेरा मुंह नही देखा क्या"? पत्नी को औरत नहीं पैर की जूती समझता था। लाते, घूसे भी मारना शुरु हो गया। बस फिर एक बार हाथ उठा तो उठता ही रहा।

एक दिन तो हद ही हो गई। अपने साथ अपने किसी शराबी दोस्त को ले आया घर। घर का कोई सदस्य उससे बाकिफ नहीं था। सीधे ही ले जा कर उसे शयनकक्ष मे बिठा दिया। पत्नी वहां बैठी थी घबरा कर उठी और बाहर आ गई। पति की इस बेहूदा हरकत पर गुस्से से लाल पीली हो गई। सीना चौड़ाकर पत्नी पर हुक्म चलाने लगा। "दो गिलास ले आ" कुछ नमकीन भी ले आना खाने के लिए उसने कह दिया "नमकीन नहीं है घर पर " बोला " तो अण्डे की भुरजी बना के ले आ" बड़बड़ाई "मैंने मुर्गी नहीं पाल रखी है"तो बोला जुबान चलाती है" घर में बैठकर चरती रहती है सारा दिन, भैंस के माफिक मोटी होती जा रही दिन-व-दिन "निकाला तो अभी कुछ है नहीं "दो वर्ष हो गए शादी को एक बच्चा तो जन न सकी"

एक अनजान आदमी के सामने अपनी तौहीन सुनकर उसका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। मन ही मन निश्चिय कर लिया कि इस अपमान का बदला तो जरुर लेकर रहेगी। उसकी सहन करने की हद टूटती जा रही थी। इधर उधर टलने की कोशिश कर रही थी। इधर-उधर गुस्सा अब दिमाग की नसें फाड़कर बाहर आ जाएगा। अगर एक भी शब्द और अपमान का निकाला तो.....। मां, बाप, छोटे लाल का परिवार उपरी मंजिल पर जा कर सो गए थे दो-दो गिलास गटकाने के बाद, गन्दे बाहयात चुटकलें सुनाकर ठहाके मारकर हंसने लगे। वे औरत को भी उस दौर में शामिल करने की जिद कर रहे थे। उनकी बोतल में दारु नीचे उतरती गई और गुस्से का पारा अन्तिम बिन्दु पर पहुंच गया। उसका दिमाग फटने वाला हो गया था। अब और नहीं सहा जाता था। वह तिल मिला उठी। उस आदमी को साफ-2 जाने के लिए कह दिया लेकिन उसके कान पर तो जूं तक न रेंगी। वह तो मचलने लगा भाभी, भाभी... कह कर उसके पास आने की कोशिश कर रहा था। "न जान न पहचान" बड़ा आया भाभी का देवर। " दफा हो जा यहां से पति की तो आंखें बंद हो गई थी। लेकिन दोस्त बहक कर उसकी बीवी के और पास आ रहा था। जैसे उसकी बांह पकड़ना चाहता हो । उसका माथा ठनका कहीं ऐसा तो नही कि उसके पति को कुछ मिलाकर पिला दिया हो। उसकी नीयत पर उसे शक हुआ। वह अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगी । अपने पति के इस व्यवहार से झल्लाहट होने लगी। "भड़क गई आग" टूट गया सहनशीलता का बांध फट गयी दिमाग की नसें, फूट गया ज्वालामूखी, रोद्र रुप धारण किया "नामर्द कहीं का" झाडू आया उसके हाथ में। दे धनाधन बरसा दिए दोनों पर। बोतल मारी पटका कर बाहर और दोनो को धक्के मार घर से बाहर निकाला। दोस्त तो दुम दबाकर भाग गया। अब यह दरवाजे के बाहर छाती ठोक कर कितनी देर तक बोलता रहा। दरवाजा पीटता रहा। समझती क्या है खुद को। मर्दों को झाड़ू से पीटती है अड़ोस पड़ोस के लोग भी अपने दरवाजों पर से देखकर अन्दर चले गए। सब को पता है कि इस शराबी का यह नित का ही काम है। लेकिन आज कुछ ज्यादा ही शोर मचा दिया उसने। गली में लोगों के सामने जुलूस निकले इससे पहले पत्नी ने दरवाजा खोल दिया। दरवाजा बंद करके उसने पत्नी पर लातो घूसों की बौछार कर दी। मां, बाप, भाई, भाभी सब बीच बचाव न करते तो बेचारी की जान ही निकाल देता। सारी रात बैठ कर रोती रही अपनी किस्मत को' सुबह उठकर चली गई अपने मां बाप के पास फिर कभी नहीं आई। आया तो "तलाक नामा"

उसके जाने के बाद कौन सा सुधर गया। अब बगार पड़ गई, भाई भाभी के सिर। मां बाप तो दोनों ही एक साल के अन्दर ही मर गए। हर रोज शराब पीकर आना गाली गलौच, भाई के इन्कार करने पर उससे हाथा पाई करना। शराब पीकर घर में से अपने हिस्से को लेकर रोज़ रात को धमाल चौकड़ी मचा कर रखता था। बच्चों का सुबह उठकर स्कूल जाना दूभर हो गया था।

दहाड़ता हुआ जब घर के अन्दर घुसता था तो घर एक जंगल बन जाता था। बच्चे गीदड़ों की तरह दुबक कर बिस्तरों में छुप जाते थे। जैसे कि कोई खूंखार शेर उनके लहू का प्यासा जंगल में आ धमका हो। उसका अपना मांस गल सड़ रहा था। उसके फेफड़े क्षति ग्रस्त हो चुके थे। लाख मना करने पर कि शराब तेरे लिए ठीक नहीं है नहीं छोड़ी। एक खोखला पिंजर रह गया था उसे लगता था कि उसके मांस के लोथड़े में लहू की रफ्तार शराब से ही मिलती है। और शराब की ही बजह से उसकी सांसे चलती हैं।

नित रंग बिरंगे दोस्तों को ले आता था और हिस्से के पैसे मांगता था। एक दिन छोटे लाल की पत्नी ने कह दिया मैं अपना घर बरबाद नहीं होने दूंगी। इसका बंदोबस्त कहीं बाहर कर दो। "बैठे बिठाए मुफ्त की रोटियां तोड़ता है" छोटे लाल से बोला" अपने हिस्से की खा रहा हूं हिस्सा है मेरा घर में' "अभी तक जो खाया वह क्या कमाकर खाया, हिस्सा तो कब का खत्म हो चुका है उठा बोरी विस्तरा और जा यहां से कुछ नहीं बचा है अब इसमें तेरा"

छोटे लाल ने बड़े भाई को भी बुलाया और इसका हिसाब चुकता कर उसे घर से बाहर निकाल दिया। जब तक पैसे थे दोस्तों ने दिल खोल कर ऐश की फिर खाली करके उसे एक मन्दिर में छोड़ आए खाने का काम तो मंदिर के भंडारे से चलता रहा लेकिन शराब पीने का काम कैसे चलाए, नशे के बगैर तो उसके हाथ पैर फूलने लगते थे। भीख मांग कर दारु पीना उसका एक रास्ता रह गया था। मंदिर के प्रांगण में भिखारियों की पंक्ति में बैठने लगा। अपनी मार्किट में नया प्रतिद्वंदी आने से भिखारियों में उसे पीटने और भगाने की साजिश शुरू हो गई।

शाम को कुछ भिखारी उसे लालच देकर दूर झड़ियों में ले गए। पीटने लगे 'साले मांगेगा मंदिर में" हमारे पेट पर लात मारने कहां से आ गया तू" जैसे कुत्ता या कोई बड़ा जानवर अपने साम्राज्य में बंदर, किसी के घुसते ही उसकी जान का दुश्मन हो जाता है। इन्हें भी तो भूख ने जानवर ही बना दिया है। "मुझे दारु पिला दो"मेरा अंग-अंग टूट रहा है"

नशा चाहिए तुझे आ यह रही भांग की खेती घुस जा इसमें। मलने का तरीका बता दिया। मंदिर में मांगता नजर आया तो टांग तोड़ देंगे। सारा दिन भांग की खेती में घुसा रहता। शाम को पुड़िया भरकर ले आता। वहां बैठे लोगों से चिल्म मांगता। - चिल्म तो मिल गई, परन्तु बदले में उसे उन लोगों के लिए भांग की मरोड़ियां लानी पड़ती। नहीं लाता तो - जो छत उसे रात काटने के लिए मिली थी वह छिन - जाती। चिल्में पी पीकर उसका लहू जल गया। चेहरा एकदम पीला हो गया था।

छोटे लाल अपनी दुकान में काम निपटाने के बाद घर के लिए चला। रास्ते में किसी की साड़ी पकड़ानी थी, उसे अखबार में लपेटने लगा। उसकी आंखे फटी रह गई। इश्तिहार लगा था, "लावरिस लाश" और फोटो लगी थी, उसके भाई की। छोटे लाल घर के लिए भागा। अन्धेरा हो चुका था। संस्कार तो किया नहीं जा सकता। अब क्या करूं? उसने सब रिशतेदारों को इतला कर दी और खुद चार आदमी लेकर सिविल अस्पताल पहुंचा और घर ले आया “लावरिस लाश"

- सुनीता भरद्वाज

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