नागरी लिपि : विकास और संभावनाएं

Dr. Mulla Adam Ali
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Nagari Lipi : Vikas evam Sambhavanayen

Nagari Lipi

नागरी लिपि : विकास और संभावनाएं

लिपि भाषा की विवशता नहीं है, अपितु लिपि को भाषा की आवश्यकता होती है। इसे उच्चरित ध्वनियों की पठनीय संकेत चिह्न व्यवस्था के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। अमरकोश में लिपि का समानक लिदि शब्द भी प्राप्त होता है। लिखिताक्षर विन्यासे लिपिर्लिबिरूमें /12/8/15/1 लिखित विन्यास का नाम लिपि अथवा लिबि है दोनों ही स्त्रीलिंग शब्द है। लिपि के प्रयोक्ता को, लिपिकर लिबिंकर, अक्षरचरण अथवा अक्षरचंचु कहते हैं।

उच्चरित ध्वनियों को श्रुति परम्परा द्वारा एक लम्बे समय तक जीवित रखा गया। कालान्तर में मनुष्य ने अपने भावों तथा विचारों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखने की आवश्कता अनुभव की और प्रारम्भिक प्रयासों में प्रतीकों, चित्रों और चिह्नों की सहायता से उन्हें अभिव्यक्त किया। इन्हीं प्रतीकों, चित्रों और चिह्नों को लिपि नाम से अभिहित किया गया।

लिपि के विकास क्रम में प्रतीक लिपि को प्रस्थान- बिन्दु के रूप में माना जा सकता है धीरे-धीरे भावों-विचारों को अधिक स्पष्ट करने के लिए ध्वनि-चिह्नों की आवश्यकता अनुभव हुई और और विभिन्न उच्चरित ध्वनियों के लिए विभिन्न चिह्न परिष्कृत तथा आविष्कृत किये गये। किसी भी भाषा की वर्णमाला का तात्पर्य उस भाषा की ध्वनियों के लिए निश्चित चिह्नों से होता है।

हिन्दी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है, जिसे सामान्यतः नागरी लिपि भी कहा जाता है। नागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से माना जाता है जो विश्व की प्राचीनतम लिपियों में से एक है। ब्राह्मी लिपि तथा नागरी लिपि दोनों ही के नामकरण पर विद्वानों के अनेक मत हैं। हमारा उद्देश्य यहाँ उस विवाद पर विचार करना नी है। नागरी लिपि के गुण-दोषों पर सम्यक् चर्चा होती रही है। नागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर प्रश्न चिह्न लगाए जाते रहे हैं। तथापि, ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नागरी लिपि की उपयोगिता और उसका अवदान निश्चय ही असाधारण रहा है। विगत एक शताब्दी की यात्रा कर नागरी लिपि राजद्वार में स्थापित होकर आज न केवल भाषा और और साहित्य अपितु ज्ञान के अनेक क्षेत्रों में अपनी तरलता और "सर्वाधिक ग्राहयता" के कारण निरन्तर विकासशील एवं गतिशाली रही है। सर्वाधिक ग्राहयता का यहाँ तात्पर्य, नागरी द्वारा ध्वनियों को अभ्रान्त रूप से अंकित करने से है। उदाहरणार्थ ङ अ न तथा म जैसी ध्वनियों को जिनका व्यवहार संस्कृत में नहीं किया जाता तथा जो अन्य भाषाओं में विद्यमान हैं उन्हें अपनाकर नागरी ने अपनी विकास क्षमता का परिचय दिया है। विज्ञान, चिकित्सा, विधि, न्याय बैंकिंग, वाणिज्य, व्यापार, एवं खेलकूद के क्षेत्रों से लेकर कम्प्यूटर तक नागरी लिपि की ग्राहयता से इन्कार नहीं किया जा सकता।

नागरी लिपि के उपयोग की सम्भावनाएँ असीम है। आवश्यकता है पूर्वाग्रह से मुक्त प्रयासों की हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बनाने के प्रयासों के अर्न्तगत अनुवाद कार्य ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। भाषान्तरण के माध्यम से आज हिन्दी प्राथमिक स्तर से स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा-माध्यम के रूप में व्यवहृत है। इसी प्रकार नागरी लिपि के व्यापक प्रचार प्रसार और प्रयोग में लिप्यन्तरण की विशिष्ट भूमिका भी सम्भव है। सामान्य जन प्रायः लिपि और भाषा में अन्तर नहीं करते। आचार्य विनोबा के शब्दों को दोहराएँ तो कह सकते हैं कि नागरी भी अन्य लिपियों के साथ सह-लिपि के रूप में व्यवहार में लायी जाए तो नागरी लिपि का प्रचलन सहज गति से बढ़ेगा। लिपि न केवल भाषा को चाक्षुष या दृश्य रूप प्रदान करती है अपितु भाषा को स्थायित्व भी प्रदान करती है।

हिन्दीतर भारतीय भाषाओं की विपुल साहित्य मूल भाषा और नागरी लिपि में साथ-साथ प्रकाशित करने की योजना द्वारा, नागरी अक्षरों के चाक्षुष परिचय के साथ, नागरी अक्षरों की वैज्ञानिकता, सुगमता, ग्राह्यता, सरलता और सुबोधता का स्पष्ट परिचय पाठक वर्ग को प्राप्त हो सकेगा। सर्व प्रथम, जस्टिस शारदाचरण मित्र ने सभी भारतीय भाषाओं को नागरी लिपि में लिखने का आग्रह किया था। इस दिशा में वर्तमान पत्रिका, नागरी संगम के प्रयास उल्लेखनीय हैं। कुछ समय पूर्व नागरी लिपि में पंजाबी भाषा की एक पुस्तक अनुवाद विज्ञान देखने में आयी । डा० चम्पा शर्मा तथा डा० वीणा गुप्ता द्वारा लिखित यह पुस्तक नागरी लिपि और पंजाबी भाषा के प्रयोग का एक सफल प्रयास है। इसी प्रकार गुजराती के शताधिक प्रकाशन ऐसे हैं, जिनकी भाषा गुजराती तथा लिपि नागरी है। इस प्रकार के प्रयासों को विद्वानों, अध्येताओं द्वारा पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पंजाबी, गुजराती, बंगला, उड़िया और असमी भाषाओं को यदि नागरी में भी लिखने की परम्परा विकसित हो तो नागरी लिपि के प्रसार-प्रचार में पर्याप्त सफलता प्राप्त होगी। साथ ही इन भाषाओं के पाठक वर्ग की भी वृद्धि होगी। इन भाषाओं की लिपि तथा इनकी शब्द-संम्पदा संस्कृत के निकट भी है।

आज दृश्य एवं श्रव्य संचार माध्यमों से हम समझ सकते हैं कि नागरी लिपि का उत्तरोत्तर प्रयोग वाणिज्य-व्यापार में वृद्धि और विकास में किसी प्रकार प्रभावशाली हो रहा है। 'महाकोला' और 'ये दिल मांगे मोर' जैसे वाक्य प्रयोग 'नागरी' की लोकप्रियता और वाणिज्यक उपयोगिता के कारण ही देखने-सुनने को मिल रहे हैं। नगारी में व्यवहृत उन ध्वनियों को हिन्दी वर्णमाला में सम्मिलित किया जाना चाहिए। जिन्हें केवल चिह्नों के रूप में स्वीकारा गया है। इस दिशा में हमें उर्दू से प्रेरणा लेनी चाहिए। उर्दू भाषा ने उन व्यवहृत ध्वनियों को अपनी वर्णमाला में स्थान दिया है जो अरबी या फारसी भाषा में नहीं हैं। उदाहरणार्थ टे, डे, पे, घ । उर्दू ने देश की भाषाओं में प्रयुक्त इन ध्वनियों को अपनी वर्णमाला में स्थान दिया है। नागरी लिपि में क, ख, ग, फ, ज, ध्वनियाँ नीचे बिन्दु लगाकर चिह्न के रूप में स्वीकृत हैं। इन्हें हिन्दी वर्णमाला में पूरक ध्वनियों के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए न कि आगत ध्वनियों के रूप में।

नागरी लिपि के माध्यम से केवल क्रियाओं, प्रत्ययों और सर्वनामों की भिन्नता थोड़े प्रयत्नों के बाद सीख लेने से प्रादेशिक भाषाओं का ज्ञान भी सर्व-साधारण को सुलभ होगा। यह देश की भावात्मक एकता को बढ़ाने वाला एक सशक्त माध्यम हो सकता है।

आज आवश्यकता है निष्ठा और लगन के इस ओर ध्यान देने और वातावरण तैयार करने की । निकट भविष्य में नागरी लिपि की ग्रह्यता अधिकाधिक बढ़ेगी और विद्वजन इस ओर गंभीर विमर्श द्वारा नागरी लिपि में निहित संभावनाओं का भरपूर उपयोग करने हेतु दिशा-निर्देश देने की सार्थक भूमिका का निर्वाह करेंगे, ऐसा विश्वास है।

- डॉ. राजीवलोचन नाथ शुक्ल

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