निर्मल वर्मा के कला संबंधित विचार : सौंदर्य एवं नैतिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Nirmal Verma's thoughts related to Art : Beauty and Morality

Nirmal Verma's thoughts related to Art

निर्मल वर्मा के कला संबंधित विचार : सौंदर्य एवं नैतिकता

निर्मल वर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत के विख्यात लेखक हैं। उनकी साहित्यिक रचनाओं ने सदैव ही अपने समय को प्रभावित किया है। भारतीय कला, संस्कृति आदि के संदर्भ में उनके विचार अत्यंत प्रखर हैं। कला संदर्भित उनके विचार अत्यंत अहमियत रखते हैं। कला को अपनी परिभाषा देते हुए, वह उसे ऐसी शक्ति से युक्त मानते हैं जो मनुष्य को यथार्थ के और भी करीब ले जाती है, वह कहते हैं कि -

'कला का अर्थ एक ऐसी यथार्थ रचना है जो सारी व्याख्याओं और संदेशों से मुक्त हो - उनसे जो हमारे और संसार के बीच खड़े हैं।'

उनके मतानुसार कला मनुष्य को व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे अहंग्रस्त व्यक्ति द्वारा सृजित व्यर्थ की बनावटी सच्चाई से अलग मनुष्य उस सच्चाई को देख सके जहाँ से वह शुरू हुआ था (जहाँ हम प्रत्येक वस्तु से जुड़ते हैं उसे अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हुए) यह सच्चाई जीवन का हल नहीं है इस सत्य से तात्पर्य यह है कि कला मनुष्य को उन बातों के प्रति सजग बनाती है जिन्हें जीवन की उथल-पुथल में हम कहीं नजर अन्दाज कर जाते हैं, वह सभी कला में अधिक उजले और सक्रिय रूप में मिलते हैं वह कहते हैं कि -

'अगर कोई हमसे पूछे, तुमने वाल्मीकि से क्या अर्थ पाया, शेक्सपियर या टॉलस्टॉय ने तुम्हें क्या दिया - तो एक भी उत्तर संतोष जनक नहीं जान पड़ता क्योंकि हम जानते हैं कि जो हमें मिला है वह कोई जीवन का हल नहीं है - हम सिर्फ एक बड़ी रोशनी में आ गए हैं। हम कुछ ज्यादा देख रहे हैं।'

जब हम कला या साहित्य की बातें करते हैं तो सर्वप्रथम लेखक के सौंदर्य संबंधित मानदण्ड प्रश्न बनकर सामने खड़े हो जाते है कि कला में यदि सौंदर्य के किस रूप को समाहित कर सकते हैं? कला में सौंदर्य की स्थिति पर अनेक विद्वानों के विभिन्न मत हैं। निर्मल वर्मा के सौंदर्य संबंधित मत मौलिक एवं समन्वयात्मक हैं। कला में सौंदर्य की चर्चा करते हुए वह उसे एक ऐसा विषय मानते हैं जिसकी अभिव्यक्ति या सृजन स्वछंद रूप से ही किया जा सकता है किसी एक बनी - बनाई विचारधारा में बंधकर या एक परिपाटी से ग्रस्त होकर नहीं किया जा सकता। वह इस संदर्भ में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि -

'लेखक को विचारधारा का गुलाम नहीं होना चाहिए क्योंकि कला का सौंदर्य सत्य को विभिन्न कोणों से दखने पर ही निखरता है।'

उनका सौंदर्य सबंधी यह मत एक सम्यक् विचार है क्योंकि किसी एक वाद या विचारधारा से उत्पन्न होने वाला सौंदर्य कुछेक पहलुओं से अवश्य ही अछूता रह जाता है और इसके कारण सौंदर्य की अभिव्यक्ति अधूरी रह जाती है। वाद को बचाने के प्रयास में हम उसके मानदण्डों या प्रवृत्तियों पर चलते हैं, सौंदर्य को प्रत्येक कोण से परखते नहीं हैं जिसके कारण बहुत से सौंदर्यपरक मर्म पर जाते हैं।

निर्मल वर्मा सौंदर्य को उसकी संपूर्ण एवं यथास्थिति में स्वीकार करने वाले लेखक हैं लेकिन साथ ही वह सौंदर्य की उस स्थिति को ही वास्तविक सौंदर्यमयी स्थिति मानते हैं जो सीमित न हो जिसका आधार विद्रूप एवं कुत्सित न हो, उनके अनुसार सौंदर्य का वही रूप सर्वश्रेष्ठ है जो प्रकृति में उसके नैसर्गिक विधि-विधानों में छिपा है जो स्वाभाविक है जिसे ऊपर से ओड़ा नहीं गया है। निर्मल वर्मा के अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु जो सौंदर्य से परिपूर्ण है उसका सौंदर्य केवल उसी तक सीमित नहीं है वरन् वह वातावरण और उपादान भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं जिन्होंने उस सौंदर्य के उत्पन्न होने में योगदान दिया। वह मानते हैं कि किसी सौंदर्यमयी वस्तु का सौंदर्य तब तक संदिग्ध है जब तक यह स्पष्ट नहीं है कि उपस्थित सौंदर्य के पीछे के समस्त कारण एवं क्रियाएँ पूर्णतः नैतिक हैं। निर्मल वर्मा मूलतः दोस्तोएवस्की के इस मत के समर्थक हैं कि -

'सुन्दरता एक दुनिया को बचाएगी'

इस मत के अनुरूप निर्मल वर्मा का भी मत है कि -

'मैं सुन्दरता को कभी भी एक अलग मूल्य के रूप में नहीं देख पाया। वह एक अभिव्यक्ति है जैसे पेड़ पर उगा हुआ फूल इसलिए सुन्दर है कि उसकी जड़ें नीचे अँधेरी धरती से समूची संजीवनी शक्ति खींचकर उसे सुन्दरता प्रदान करती हैं, मेरे लिए जीवन के वे सब मूल्य महत्वपूर्ण हैं जो सुन्दरता को जन्म देते हैं लेकिन इसी सुन्दरता को यदि अमूर्त्त मूल्य के रूप में स्वीकार करना होगा तो मैं वह नहीं कर सकता। यहूदियों की खाल से जर्मन सुन्दर लैम्पशेड बनाते हैं तो भले ही वह लैम्पशेड अपने में सुन्दर हों। पर मेरे लिए वह सुन्दर नहीं है मेरी चिन्ता यह है कि इस सुन्दरता के पीछे कौन से उपादान काम कर रहे हैं।'

इस संबंध में निर्मल वर्मा का मत नितांत स्पष्ट है कि नैतिक एवं उदात मूल्यों से उत्पन्न सौंदर्य ही सचमुच इस संसार को बचाएगा क्योंकि उस समय हम प्रत्येक यथार्थ को आदर्श नहीं मानेंगे (जो मंगलकारी हो अथवा न हो) वस्तुतः सौंदर्य की नैतिक मान्यता ही संसार को बचा सकेगी।

निर्मल वर्मा की यह दृष्टि उनके सौंदर्य में नैतिकता को समन्वित करने के मत का प्रतिपादन करती है अपनी इस दृष्टि को वह 'विटगेन्स्टाइन' के मत द्वारा और भी स्पष्ट कर देते हैं यथा -

'एस्थेटिक सौंदर्य अन्ततोगत्वा मनुष्य की नैतिकता में ही सन्निहित होता है।'

इस प्रकार निर्मल वर्मा की सौंदर्य परक मान्यता अत्यंत उदात्त है। साहित्य में सौंदर्य की चर्चा करते हुए वह उसकी रचना प्रक्रिया पर विचार करते हैं। वह मानते हैं कि लेखक के अनुभव स्मृति के कपाटों के मध्य से होकर सौंदर्य युक्त रचना करते हैं। जो अनुभव एवं स्मृति अब तक लेखक की नितांत वैयक्तिक थीं, वह अब सामूहिक हो जाती हैं। प्रत्येक सौंदर्य परक रचना का निर्माण करते समय उसकी लेखन प्रक्रिया के साथ लेखक अपने अकेले अनुभव से सामूहिक स्मृति की तरफ जाने की यात्रा तय करता है। जो अनुभव अब तक केवल लेखक तक सीमित थे, अब वह उसकी रचना के द्वारा समस्त पाठक के स्मृति पटल पर अंकित हो जाते हैं। निर्मल वर्मा मानते हैं कि किसी भी रचना में सौंदर्य एवं नैतिकता का संतुलन ही कला के मूलाधार भाव आवेग को जन्म देता है। उनका कथन है कि-

'कला का मूलाधार जिसे हम भाव आवेग या पैशन कहते हैं हमेशा इन दो तत्वों के तनाव भरे संतुलन से उत्पन्न होता है। क्या किसी लेखक के रचना कर्म और संघर्ष को इन दो तत्वों से अलग करके देखने की चेष्टा उस बौद्धिक विलासिता का ही लक्षण नहीं है जो हमें बुद्धिजीवी लेखक बनने का गौरव तो देता है लेकिन कलाकार के अनिवार्य जोखिम से छुटकारा दिला देता है।'

वस्तुतः निर्मल वर्मा सौंदर्य की उत्पत्ति के लिए यथार्थ के प्रत्येक पहलू के लेखन को अनिवार्य मानते हैं, साथ ही वह उस सौंदर्य को स्वीकार करते हैं जो नैतिकता की पृष्ठभूमि से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार किसी भी रचना में उपस्थित सौंदर्य एवं नैतिकता ही 'भावआवेग' को जन्म देते हैं, जो कला का मूलाधार है और सौंदर्य एवं नैतिकता ही वह तत्व हैं जो एक लेखक को उसके लेखक होने की सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह कराने के साथ उसमें एक कलाकार को भी जीवित रखते हैं।

(निर्मल वर्मा के निबंध संग्रह 'शब्द और स्मृति' तथा 'कला का जोखिम में संग्रहीत निबंधों के आधार पर किया गया कार्य)

- नमस्या

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