कहानीकार निर्मल वर्मा : Biography of Nirmal Verma in Hindi

Dr. Mulla Adam Ali
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Biography of Nirmal Verma in Hindi : Kahanikar Nirmal Verma

Biography of Nirmal Verma in Hindi

कहानीकार निर्मल वर्मा

प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी को नया मिज़ाज देने वाले अनूठे शिल्प के कहानीकार निर्मल वर्मा नहीं रहे। नई दिल्ली स्थित आयुर्विज्ञान संस्थान में चिकित्सारत श्री वर्मा ने दि. 26 अक्टूबर, मंगलवार, को महाप्रयाण किया। उनके परिवार में उनकी पुत्री, पत्नी (हिन्दी कवियित्री गगनगिल) तथा (अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार) अनुज श्री रामकुमार हैं। वे कुछ दिनों से रुग्ण चल रहे थे। उन्हें फेफड़ों में विकार के कारण अ.भा. आर्युविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में चिकीत्सा हेतु भर्ती किया गया था। मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 76 वर्ष थी।

अप्रैल 3, 1929 ई. को शिमला में जन्मे वर्मा को नई कहानी का जन्मदाता माना जाता है। नई कहानी के शीर्ष हस्ताक्षरों, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव एवं अमरकांत के साथ मिलकर नयी कहानी (लघु कथा) की दशा व दिशा तय करने का श्रेय इन्हें जाता है। हाल ही में उनकी कहानी 'कथा देश' पत्रिका में दो लड़कों के बारे में प्रकाशित हुई है।

उनकी आरंभिक शिक्षा शिमला में संपन्न हुई। तदुपरान्त इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित की। प्रयाग स्थित प्राच्य भाषा अध्ययन संस्थान में इन्होंने चेक भाषा का अध्ययन किया और अंतर्राष्ट्रीय एशियन अध्ययन संस्थान में फेलो (अनुसंधित्सु) नियुक्त किये गये। कहानी, उपन्यास विधा के अलावा इन्होंने वैचारिक निबन्ध भी लिखे जो बुद्धि- जीवियों, विद्वानों में उत्कृष्टकोटि के विचारोत्तेजक निबन्ध माने गये। इन्होंने चैक एवं अन्य विदेशी भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का हिन्दी में अनुवाद भी किया।

इनकी सृजन के तौर पर पहली लघु कहानी सन् 1950 ई. में कॉलेज की संस्मारिका में प्रकाशित हुई। प्रथम कहानी संकलन 'परिन्दे', को विद्वान आलोचकों ने नई कहानी आन्दोलन का सूत्रपात माना। इनका विपुल साहित्यिक कार्य का भारत की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इसी वर्षारंभ में इनको केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली ने गवेषणात्मक अध्ययन एवम् सृजन हेतु महत्तर अध्ययन वृत्ती के लिए चयन किया था। 1985 का साहित्य अकादमी पुरस्कार इनके गल्प संग्रह 'कव्वे और काला पानी' पर इन्हें प्रदान किया गया।

27 जनवरी, 2001 में इन्हें पंजाबी के उपन्यासकार श्री गुरुदपाल सिंह के साथ संयुक्त रूप से ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया। परसाई की तरह इन्होंने भी परम्परागत गद्य को नकारकर नई शैली व अंदाज का गद्य विकसित किया। निर्मल वर्मा को हिन्दी में उनके अलग मिज़ाज के लेखन के लिए जाना जाता है। उनकी कहानियों और उपन्यासों का वातावरण अकसर उनके पात्रों की संगति में एक मुकम्मल किरदार की तरह बर्ताव करता है जो उनके प्रत्येक पाठ को अविस्मरणीय अनुभव में बदल देता है। उनके गद्य से हम अर्थ के साथ-साथ कुछ ऐसा भी महसूस करते हैं जो अर्थ के बनिस्बत ज्यादा गहरा और दीर्घजीवी होता है। निर्मल वर्मा अपनी कहानियों में जो बिम्ब रचते हैं उसे कवि, आलोचक कुंवरनारायण ने 'खरगोश के रोएं जैसे गद्य को सहलाते हुए', उचित ही कहा है। उनका बिम्ब विधान अत्यंत कोमल, नाजुक एवं मुलायम होता है जो उन्हें विशेष संवेदनाओं का रचनाकार निरुपित करता है।

साहित्य को जानने, समझने का उनका अपना नजरिया रहा। 'साहित्य का आत्मसत्य' शीर्षक लेख में (साहित्य अमृत-नवम्बर, 2004 अंक में प्रकाशित) उन्होंने इसका खुलासा किया है :-

"दुनिया की छलनाओं से ऊबकर हम-आप फिर साहित्य की ओर मुड़ आए हैं। फिर ऐसे प्रश्न पूछने लगे हैं, साहित्य क्या है ? जो अब तक जीवित है। जीवित है तो अवश्य ही कोई प्रयोजन साधता होगा, क्या उसके साधने में ही तो हमारी सिद्धी नहीं छिपी ? मुझे नहीं लगता, मैं साहित्य के भीतर छिपे सन्निहित किसी प्रच्छन्न प्रयोजन को आपके सामने अनावृत्त कर पाऊंगा, मुझे यह भी डर है कि अन्य छलनाओं की तरह साहित्य में 'प्रयोजन' ढूंढना अपने में ही तो क्या एक छलना नहीं है ? कभी-कभी तो मुझे लगता है कि साहित्य हमें जो देता है, उसे हम देखते नहीं, या देखकर भी अनदेखा करते हैं। कोई जीने का लक्ष्य, कोई विराट सत्य, कोई सहारे का सम्बल, उसके बारे में वह कुछ भी नहीं कहता, चुप रहता है। और हम एक बार भी नहीं सोचते, कि शायद उसकी चुप्पी में ही कोई ऐसा भेद छिपा है जो उसने अपने शब्दों में कहा है, जिसे हम सुन नहीं पाते । क्या बाहर की आवाजों में साहित्य की आवाज इतनी दब गई है कि हम उसमें उसका निजी (रूप) सत्य न देखकर अपना प्रयोजन ढूंढते हैं।

मुझे लगता है कि प्रयोजन ढूंढने के पीछे एक कारण है-और वह यह कि हम कहीं साहित्य से डरने लगे हैं। हम डरने लगे हैं कि कुछ शब्दों के संयोजन मात्र से एक कविता या कहानी जो 'यथार्थ' गढती है, वह कुछ इतना बेगाना, अपरिचित और विचित्र हो सकता है कि उसके संपर्क में आते ही हमारा अपना यथार्थ भरभराकर ढह जाएगा। यह एक विकट विरोधाभास है कि हम साहित्य के समक्ष जितनी 'यथार्थवादी' मांगे रखते हैं, उतना ही अधिक स्वयं साहित्य के अपने सत्य से आंखे मिलाते हुए कतराते हैं। देखा जाए तो हर महान कलाकृति-महाभारत हो या शेक्सपियर के विक्षुब्ध पात्र या टॉलस्टॉय के उपन्यास, अंततः यही कहते जान पड़ते है..... वे शब्दों के बीच यथार्थ के मुखौटों को उतारकर हमारे अपने चेहरे की एक ऐसी छवि उकेरते हैं, जो उस पहचान से अलग है। जो हमें अपने बने-बनाये आईनों में दिखाई देती है। हम उस चेहरे से डरते हैं। जिसकी फोटो इतिहास व किसी पासपोर्ट के चित्र से मेल नहीं खाती। वह सिर्फ साहित्य में प्रकट होती है।"

आगे वे लिखते हैं कि, "साहित्य को 'प्रयोजन' कुछ देने में नहीं, अपने होने की अनिवार्यता में बदल जाता है। किसी महान कृति के समक्ष तब अजीब सा कृतज्ञता भाव उत्पन्न होता है-हमें लगता है कि बिना उसके हमारा जीवन कितना विपन्न और अधूरा था।"

"अधूरेपन से संपूर्णता की ओर यात्रा-यह एक अध्यात्मिक अनुभव है जो एक कलाकृति अपने सर्वोच्च क्षणों में उपलब्ध करती है। यह एक अद्भुत यात्रा है, जहाँ हम एक नरक से दूसरे नरक तक गुजरते हुए उपर उठते जाते हैं। 'मृत्योः स मृत्युं गच्छति'। मृत्यु से गुजरना, वह जो नश्वर है, घायल, शोकाकुल, आहत है, घटनाओं और मृगतृष्णाओं के चक्रव्यूह को रचता है, यहां से एक बार निकलकर आना नहीं होता। यह हम महाभारत, इलियड के महाकाव्यों में मनुष्य की निविड़ अंधकारमयी यात्राओं में देख पाते हैं। यह वह यात्रा है, जहां व्यक्ति ब्रम्हांड की वैश्विक चेतना से स्खलित होकर अकेले अहं की कुहलिका में ठिठुरता है। कला हमें इन सब अनुभवों से गुजरने का अद्वितीय अनुभव प्रदान करती है। मैं इसे अध्यात्मिक अनुभव भी कहता हूँ। यह नश्वर में शाश्वत की फलक है। हमारी कितनी बड़ी भूल है कि हमने साहित्य और अध्यात्म के बीच एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी है जो दोनों को उसके रहस्य और रसमयता से वंचित कर वाटिका में नहीं, युद्धक्षेत्र में दो विराट सेनाओं के बीच हुआ था। यह एक अभुतपूर्व घटना थी, युद्ध सिर्फ इसलिए रुक जाता है, क्योंकि सेनानायक हथियार उठाने से इनकार कर देता है। उपनिषदों का गहन दार्शनिक रहस्य जीवन के सामान्य अनुभवों के बीच उद्घाटित होता है। भौगिक और अध्यात्मिक एक दूसरे के बीना अधूरे जान पड़ते हैं, इसलिए कलाकृति और तत्वदर्शन में दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण रहता है जो मनुष्य के एक या दो पक्षों का उसके 'समग्र मनुष्यत्व' से संबंध रखता है। गीता में विराट कृष्ण का रूप सिर्फ एक रुपक है। हर महान साहित्यिक कृति में अंतर्निहित रहता है।" ('साहित्य का आत्म सत्य' -निर्मल वर्मा - साहित्य अमृत नवम्बर, 2004, से उद्घटित)।

निर्मल वर्मा ने विपुल साहित्य रचा, कहानी, उपन्यास, डायरी, यात्रा संस्मरण, निबन्ध आदि। यहां उनके लेखन की सूची देने का प्रयास किया गया है।

उनके छह कहानी संग्रह- 'परिन्दे', 'जलती झाड़ी', 'पिछली गर्मियों में', 'बीच बहस', 'कव्वे और काला पानी', और 'सूखा तथा अन्य कहानियां', हैं। उपन्यासों की कड़ी में 'वे दिन लालटीन की छत', 'एक चिथड़ा सुख', 'रात का रिपोर्टर', 'अन्तिम अरण्य' है। उनके प्रमुख वैचारिक निबन्धों में 'शब्द और स्मृति', 'कला का जोखिम', 'ढलान से उतरते हुए', 'भा और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र', 'इतिहास स्मृति आकांशा', 'शताब्दी के ढलते वर्षों में', (अन्त और आरम्भ) निबन्ध विधा में मील का पत्थर माना गया है। सूचनार्थ।

डायरी और यात्रा संस्मरण में निर्मल वर्मा की 'चीड़ों पर चांदनी', 'हर बारिश' और 'धुंध से उठती धुंध', अपनी विधा में केन्द्रीय महत्व रखती है। 1959 में उन्हें चेकोस्लावाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान और चेकोस्लावाकिया लेखक संघ द्वारा आमंत्रित किया गया । चेकोस्लावाकिया में अपने सात वर्षों के प्रवास के दौरान उन्होंने कई चेक कथा कृतियों का अनुवाद किया जिनमें 'रोमियो जूलियट' और 'अन्धेरा' (यान ओखे नासेक) और 'कारेल चापेक की कहानियाँ', 'कुप्रिन की कहानियां', 'इतने बड़े धब्बे', 'झोपड़ीवाले', 'बाहर और परे', 'बचपन', 'आर यू आर', 'एमेके एक गाथा' विशेष उल्लेखनीय है।

निर्मल वर्मा कुछ वर्ष लन्दन में भी रहे जहां से 'टाइम्स ऑफ इंडिया', के लिए वहां की राजनीतिक-सांस्कृतिक समस्याओं पर लेख व रिपोर्ताज लिखते रहे। 1972 में वापसी के बाद इंडियन इन्सटिट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़, शिमला में फैलो रहे और मिथक चेतना पर कार्य किया। 1977 में इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम, आयोवा में हिस्सेदारी। 'मायादर्पण' कहानी पर निर्मित फिल्म 1973 के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म पुरस्कार से सम्मानित । निराला सृजनपीठ, भोपाल और यशपाल सृजनपीठ, शिमला के 1981-83 और 1989 में अध्यक्ष रहे। 1988 में इंग्लैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद 'दि वर्ल्ड एल्स व्हेयर' प्रकाशित। उनके व्यक्तित्व पर बी.बी.सी. चैनल-4, पर एक फिल्म का प्रसारण भी हो चुका है।

1996 में युनिवर्सिटी आफ ओक्लाहोमा, अमेरिका की पत्रिका 'द वर्ल्ड लिटरेचर' के बहुसम्मानित पुरस्कार 'न्यूश्ताद' अवार्ड के लिए भारत से मनोनीत किए गए। इन्हें संपूर्ण कृतित्व के लिए 1993 का साधना सम्मान, 1995 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का राममनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान तथा 1997 में 'भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र' पर भारतीय ज्ञानपीठ के वाग्देवी पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है।

निर्मल वर्मा सच्चे अर्थों में मक्षिजीवी रहे और उन्होंने कलम को अपनी आजीविका का साधन बनाया। उनके कहानी संग्रह 'तीन एकान्त' (तीन कहानियां 'धूप का एक टुकड़ा', 'डेढ इंच उपर', और 'वीक एण्ड') पर नाट्य रुपान्तरण एवं मंचन हो चुका है। भारतीय मनीषा के इस अप्रतिम दैदिप्ययान सितारे पर माँ भारती को नाज़ है। - भौतिकी रूप में यद्यपि वे हमारे मध्य नहीं है किन्तु अपनी रचनाओं के माध्यम से वे हमारे मध्य सदैव विद्यमान रहेंगे। मैं उनकी पावन स्मृति को विनम्र प्रणाम करता हूं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे एवं उनके परिवारजनों को यह दुख सहन करने की शक्ति।

आधार सामग्री स्रोत पत्रिकाएँ :

1) 'प्रकाशन समाचार', फरवरी, 2001

2) साहित्य अमृत - नवम्बर 2004

3) दक्षिण समाचार, 27 अगस्त 1991

4) Times of India, 27 Oct., 2005

- भगवानदास जोपट

ये भी पढ़ें; ऐतिहासिक उपन्यासकार : वृन्दावनलाल वर्मा

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