नुक्कड़ नाटक के रंगकर्मी : सफदर हाशमी

Dr. Mulla Adam Ali
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Colorist of Nukkad Natak : Safdar Hashmi

Colorist of Nukkad Natak : Safdar Hashmi

नुक्कड़ नाटक के रंगकर्मी : सफदर हाशमी

मनुष्य में अनुकरण की प्रकृति जन्म से ही होती है। शिशु अनुकरण से ही भाषा सीखता है। छोटे लोग अपने बड़ों का अनुकरण करते हैं। अतः नाटकों की उत्पत्ति मानव-प्रकृति से हुई है। क्रिया-कलाप के अतिरिक्त मनुष्यों के हृदयगत भावनाओं का भी अनुकरण नाटकों में विद्यमान रहता है। नाटक का अभिनय तभी सार्थक हो सकता है, जब हम दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझने की सहानुभूति रखते हो। सहानुभूति का यही लेन-देन जग-जीवन है।

आर्थिक दृष्टि से नकारे गये श्रमिकों में स्थित संवेदनशील वर्ग को शोषण के विरोध में अपनी आवाज जन सामान्य तक, श्रमिकों तक, मध्यवर्ग तक पहुंचानी थी। परंतु उनके पास साधनों, की, पैसों की कमी थी। पर इससे उन्होंने बिना किसी मेक-अप साज-सामान, मंच, संगीत और प्रकाश के सड़क पर आकर शोषण के विरोध में अपना स्वर प्रकट करना शुरू किया, ऐसे नाटकों को 'नुक्कड़ नाटक' कहा गया।

नुक्कड़ नाटक आधुनिक शब्द है। सड़कों, मैदानों, नुक्कड़ों पर खेले जाने वाले सामाजिक, राजनीतिक थिएटर को नुक्कड़ नाटक कहते हैं। अंग्रेजी शब्द स्ट्रीट प्ले तथा ब्रेख्त का स्ट्रीट कार्नर थिएटर ही चौराहा या नुक्कड़ नाटक है। ऐसे नाटकों का आरंभ बीसवीं शताब्दी से हो जाता है। सबसे पहले रूस के इन्कलाबी दौर में, सम्पूर्ण यूरोप और इंग्लैंड़ में उसी समय चीन के इन्कलाबी दौर के वक्त, उसके बाद भारत में 'भारतीय जन नाट्य संघ' (IPTA-Indian People Theatre) आंदोलन (सन् 1940 से 1950 ई. तक) के दौर में ऐसे नाटक कम अधिक मात्रा में प्रस्तुत किये जाते थे।

भारत में सन् 1955 ई. के आस-पास ब्रेख्त के नाटकों की चर्चा आरंभ हुई थी। हबीब तनवीर ने लिखा है, "इप्टा के जमाने में बम्बई में हम लोग जिस तरह का नुक्कड़ नाटक लिखा और किया करते थे उसे 'पोस्टर थिएटर' कहना ही ज्यादा मुनासिब होगा दर असल जिस अखिल भारतीय स्तर पर अब नुक्कड़ नाटक आंदोलन पहुंच गया है, उसकी बानी सिर्फ सफ़दर हाशमी है।"

हिन्दी में नुक्कड़ नाटक को प्रतिष्ठित करने का पूरा श्रेय सफ़दर हाशमी को है। उन्होंने 'जन नाट्य मंच' (जनम) के माध्यम से समसामयिक समस्याओं एवं विषयों की विविधता के संदर्भ में लोगों को उद्बोधन करने की प्रेरणा से नाटक लिखें और प्रस्तुत किये हैं। उनके नाटकों में विषय की दृष्टि से भूख, गरीबी, जमींदारों द्वारा किसानों का, मिल मालिकों द्वारा मजदूरों का शोषण, हिंसा, व्यापारियों की जमाखोरी, प्रांतवाद, आतंकवाद, युद्ध, अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद, कुशिक्षा, दहेज साम्प्रदायिकता, बेरोजगारी, साक्षरता, पर्यावरण, सरकारी व्यवस्था, कानून-व्यवस्था, आर्थिक- सामाजिक विषमता आदि कई विषयों की विविधता पाई जाती है। 'चौक चौक पर गली गली में' भाग-1 और 2 उनके नुक्कड़ नाटकों के संकलन हैं। सफदर ने नुक्कड़ नाटक को आंदोलन का स्वरुप दिया, उसे प्रतिष्ठा प्राप्त करा दी। स्वयं अनेक नाट्य-प्रयोग किये। उनका मक्सद दर्शक को समस्या की जड़ तक ले जाना था। उनके शब्दों में, "हमारी जरुरत और तलाश ने जिस प्रयोग की शक्ल धारण की, वही हमारे लिए नुक्कड़ नाटक बन गया। एक जुमले में कहूं तो हमारे नुक्कड़ नाटक का जन्म हमारे विशिष्ट हालात और हमारी खास जरुरतों से ही हुआ। जहाँ तक प्रेरणा का सवाल है, आप कह सकते हैं कि मेहनतकश तबसे के जनवादी संघर्षों से जुड़ने की इच्छा ही हमारी प्रेरणा थी।"

एक विशेष दृष्टि से देखा जाए तो शायद मोटे तौर पर संस्कृति (culture) को दो मुख्य धाराओं में बांटा जा सकता है। एक शासक वर्ग का कल्चर होता है और दूसरा शासित वर्ग का जिस दिन पंड़ितों ने ये ऐलान कर दिया था कि वेदों की ध्वनि भी शूद्रों के कानों में नहीं पड़नी चाहिए, उसी दिन से हमारा साहित्य और हमारा आर्ट दो भागों में बँट गया था। दो धाराओं का ये सिलसिला प्राचीन काल से चला आ रहा है और अब तक कायम है।

सफदर इस दूसरी धारा के कलाकार थे। कल्चर की विरोधी धारा के संघर्ष के साथ थे। दबे, कुचले, त्रस्त और पीड़ित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले कल्चर का वे नेतृत्व कर रहे थे, उसी का आलम लिये आगे बढ़ रहे थे और उसी के लिए उन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी। रमेश गौड़ के शब्दों में-

"हां, जनकला के भाल की बिंदी था हाशमी

हां, सर से पाँव तलक हिन्दी था हाशमी

हिन्दू न मुसलमान बस इंसां था हाशमी

अल्लाह न भगवान बस इंसां था हाशमी।"

नुक्कड़ नाटक उपदेशक की भूमिका नहीं निभाता। वह जन-साधारण के बीच से निकली हुई जनसाधारण की ही आवाज है। कलाकार और दर्शक की भूमिका यहां अलग-अलग नहीं रहती। दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं अपितु नाटक उन्हीं के बीच जा पहुंचता है, और इस तरह दर्शक भी मात्र दर्शक न रहकर उस नाटक का अंग बन जाता है, दोनों के बीच की विभाजन रेखा मिटने लगती है, अभिनेता उन्हीं में से निकला हुआ व्यक्ति बन जाता है। नुक्कड़ नाटक की यह भूमिका, नाटक के विकास में ऐतिहासिक महत्त्व रखती है, वहां पर दर्शक अभिनय को ग्रहण करता है, जबकि नुक्कड़ नाटक में दर्शक उसका भागीदार बन जाता है। यह नुक्कड़ नाटक के स्वभाव का ही हिस्सा है। जन-जीवन में से उठनेवाला नाटक ही ऐसा कर सकता है।

नुक्कड़ नाटक को अपनाना अभिनेता से बड़ी कुर्बानी मांगता है, निष्ठा और निःस्वार्थ भावना मांगता है। थिएटर में काम करनेवाला पेशेवर अभिनेता तो सुविधाओं के सपनें देख सकता है, पर नुक्कड़ नाटक खेलनेवाला साधारण सुविधाओं तक की अपेक्षा नहीं कर सकता। वह तो अपनी जवानी देगा, अपने गृहस्थ जीवन की उपेक्षा करेगा। कभी पुलिस से आंख चुराकर तो कभी उसे चकमा देकर नाटक खेलेगा। उसके नाटक पर पथराव होगा, क्योंकि उसका नाटक देखनेवाले टिकट खरीदकर नहीं आते, राह चलते नागरिक खडे हो जाते हैं, या नाटक को भंग करने के लिए भेजे जाते हैं। सफदर ने ऐसे ही जोखिम उठाते हुए इस नाट्य विधा को सक्षम बनाने में अपना योगदान दिया है, और ऐसे ही नाटक में भाग लेते हुए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति भी दी है।

सफदर का जन्म एक कम्युनिस्ट परिवार में 12 अप्रैल, 1954 को हुआ था। आरम्भ के कुछ दिनों की स्कूली शिक्षा अलीगढ़ में हुई, फिर सारी स्कूली और कॉलेज की शिक्षा दिल्ली में ही हुई थी। सन 1970 ई. में उन्होंने हायर सेकेंड़री और फिर सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेजी में बी.ए. (ऑनर्स) और एम.ए. (अंग्रेजी) करके सन 1975 ई. में अपनी उच्च शिक्षा पूर्ण की थी। चूँकि उनका पूरा परिवार ही मार्क्सवादी था, अतः बचपन से ही वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सम्पर्क में आ चुके थे। मजदूर वर्ग की इस क्रांतिकारी विचारधारा और उसकी राजनीति और उसके महान उद्देश्यों से धीरे-धीरे उन्होंने अपने को एकात्म कर लिया था, उनकी असाधारण प्रतिभा और उनकी अटूट प्रतिबद्धता ने सफदर को एक ऐसा व्यक्तित्व बना दिया था, जो आज के समाज में बहुत कम देखने को मिलता है।

सफदर की जानकारी का क्षेत्र बहुत व्यापक था। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं पर जबर्दस्त अधिकार था। हिन्दी की देहाती बोलियां समझते भी थे और अपने लेखन में इनका प्रयोग भी करते थे। बातचीत का विषय कोई भी हो आत्म-विश्वास के साथ प्रस्तुत करते थे। साहित्य, राजनीति, चिकित्सा, विज्ञान हर विषय में वे जानकारी से बहस करने की क्षमता रखते थे।

सफदर को बेहतरीन से कम बिल्कुल पसंद नहीं था और जो कुछ भी करते उसे बेहतरीन करने की कोशिश करते थे। जब नाटक में उनकी रुचि बढ़ी तो उन्होंने यूनानी त्रासदियों से लेकर बर्टोल्ट ब्रेख्त तक और अभिज्ञान शाकुंतलम् से मृच्छकटिकम् और घासीराम तक, सबकुछ पढ़ और देख ड़ाला था।

सफदर के दिशा-निर्देशन में 'जन नाट्य मंच' दिल्ली में ही नहीं अपितु देश के जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन में एक अहम् स्थान बना चुका था। नाटक को जनता के बीच ले जाने के उद्देश्य से उन्होंने नुक्कड़ नाटक रचे और उन्हें मजदूरों, किसानों और समाज के अन्य शोषित तबकों के बीच ले गये। इन नाटकों में से- 'मशीन', 'औरत', 'गांव से शहर तक', 'राजा का बाजा', 'हत्यारे' आदि काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। इन नाटकों के गीत सफदर ने ही लिखे थे। 'जनम' के कलाकार मिल-जुलकर नाटकों की रचना करते थे, पर इस रचना-प्रक्रिया में सफदर की अग्रणी भूमिका रहती थी। यानी 'जनम' के नुक्कड़ नाटक सफदर लिखा करते थे, किंतु वे 'जनम' के नाटकों के रुप में जाने जाते थे। सफदर जीते-जी इससे इनकार करते रहे हैं। रमेश उपाध्याय ने लिखा है, "मेरा कहना था कि जनम को नाटक के लेखक और निर्देशक का नाम जाहिर करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन सफदर का कहना था कि ऐसा करने से जनम के अंदर व्यक्तिवाद पनपेगा।"

नुक्कड़ नाटक करना कोई खेल नहीं है। इसकी अपनी जरुरीयात है, अपना अनुशासन और व्याकरण है। नुक्कड़ नाटक विशिष्ट रुप से राजनीतिक नाटक है। आक्रोश, असंतोष और अपनी बेचैनी की अभिव्यक्ति का बहाना मात्र नहीं है। विशिष्ट स्थितियों का राजनीतिक विश्लेषण ऊपरी और सतही न हो। उसकी प्रस्तुति भौंडी और अधकचरी न हो। गंभीरता, ऊंचे दर्जे की रचनात्मकता और प्रतिभा नाटक का आवश्यक अंग है। नुक्कड़ नाटक राजनैतिक, सामाजिक समस्याओं पर आधारित तैयार किये जाते हैं जो कि शासक वर्ग द्वारा पैदा की गई होती हैं और जिनके व्यापक गंभीर प्रभाव से जनता प्रभावित होती है। चूँकि नुक्कड़ नाटक शासक वर्ग द्वारा फैलाई गई संस्कृति का ही हिस्सा है।

नुक्कड़ नाटक लिखने का कोई फार्मूला नहीं है। परंतु नुक्कड़ नाटक अपनी खास जरुरीयात की वजह से अपने लिए एक अलग व्याकरण एक अलग अनुशासन बनाता है। नाटक की शुरुआत अति नाटकीय, विस्फोटक और चकाचौंध करने वाली होनी चाहिए। मसलन थिरकता, फुर्तीला नृत्य, तीव्र स्वर वाला गीत, ढोल या डुगडुगी की आवाज, चीख-पुकार, लड़ाई का दृश्य आदि। इन नाटकों में संवाद लम्बे और बोझिल नहीं अपितु हल्के-फुल्के, तेज-तर्रार और संक्षिप्त होने चाहिए। भाषा जटिल न होकर सरल और खूबसूरत होनी चाहिए। गति नुक्कड़ नाटक के सफल प्रदर्शन में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। संगीत नुक्कड़ नाटक का एक खास हिस्सा है। 'जनम' के अधिकतर नाटकों में गीत और संगीत का भरपूर प्रयोग किया गया है। ढोलक, खड़ताल, ड़फली और झांझ इस तरह के तालवाद्यों का ही प्रयोग इन नाटकों में किया गया है। 'जनम' के अक्सर नाटक गीत अथवा ढ़ोलक की थाप के साथ शुरु होते हैं।

'जनम' ने सफदर की ऊर्जामय प्रतिभा के नेतृत्व में सन् 1988 ई. तक लगभग 25 नाटक तैयार किये थे, और इन नाटकों के चार हजार से ज्यादा प्रदर्शन हुए थे, जिन्हें कुल मिलाकर लगभग 25 लाख से ज्यादा लोगों ने देखा था। उन्होंने बच्चों, विद्यार्थियों, युवाओं, मजदूरों, अध्यापकों, कलाकारों, फिल्म और टेलीविजन के कलाकारों सभी के बीच कुछ-न-कुछ रचनात्मक कार्य किया था। इसीलिए अपने नाटकों के दर्शकों में तो वे लोकप्रिय थे ही, इन हिस्सों में भी अच्छी तरह घुले-मिले थे और इसीलिए उनकी हत्या पर समाज के सभी तबके शोकाकुल थे।

नुक्कड़ नाटक : Nukkad Natak

1) मशीन (सितम्बर, 1978) - गाजियाबाद में हेरिग इंडिया फैक्टरी में साइकिल स्टैंड़ और कैंटीन के मुद्दे पर मालिक ने मजदूरों पर गोलियां चला दी थी, जिसमें छः मजदूर मारे गये थे। इस घटना पर आधारित ये नाटक है। यह नाटक एक्टर का नहीं, संवाद का है। इसके केंद्र में विचार है। एक नाटकीय विचार कि-एक मशीन है, जो चलती है और अचानक रुक जाती है। अभिनय या एक्शन में बहुत व्यंजना नहीं है, यह नाटक सीधा है, जो कहना है उसे सीधे कह देता है।

2) हत्यारे (दिसम्बर 1978)-यह 25 मिनट का नाटक है, इसमें 8 कलाकार हैं, और इसके 200 से अधिक प्रदर्शन हुए थे। यह नाटक सन् 1978 ई. में अलीगढ़ में हुए दंगों के बाद लिखा गया था और वहां के हालात पर तैयार की गई एक रिपोर्ट पर आधारित है। यह उनके सफल नाटकों में से है। उत्तर भारत के स्कूल, कॉलेज और नुक्कड़ नाटक मंडलियों में ये नाटक बहुत लोकप्रिय है। बंगला और अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद किया गया है। जुलाई, 1990 में यह नाटक दूरदर्शन के लिए भी किया गया था।

3) डी.टी.सी. की धांधली (फरवरी, 1979)- यह 12 मिनट का नाटक है, इसमें 8 कलाकार हैं, और इसके भी कई प्रयोग हुए हैं। यह नाटक फरवरी, 1979 में दिल्ली परिवहन निगम द्वारा अचानक किरायों में भारी बढोत्तरी के खिलाफ हुए एक व्यापक जनांदोलन के समय लिखा गया था। इस नाटक को 'जनम' ने दो घंटे के अल्प समय में लिखा और तैयार किया था। एक सप्ताह के आंदोलन में इसके 30 से अधिक प्रयोग दिल्ली के इलाकों में बस-स्टापों के नजदीक किये गये थे। सन् 1981 ई. में किरायों की एक बार फिर से बढोत्तरी के समय 'जनम' ने इस नाटक के कुछ और प्रयोग किये थे। इन प्रयोगों के दौरान कलाकारों को पुलिस दमन का सामना भी करना पड़ा था। तात्कालिक मुद्दों को लेकर लिखे गये नुक्कड़ नाटकों का ये एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

4) औरत (मार्च, 1979) इस नाटक में 7 कलाकार हैं, 2500 से अधिक इसके प्रयोग हुए थे। उनके सफलतम् नाटकों में से है। इसे उत्तर भारत की कामगार महिलाओं के सम्मेलन के अवसर पर तैयार किया गया था। इस नाटक का लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी यह नाटक खेला गया था। नाटक की पहली कविता क्रांतिकारी ईरानी कवियत्री मार्जियेह ओस्कोई की है। जैसे-

"मैं एक माँ

एक बहन

एक बेटी

एक अच्छी पत्नी

एक औरत हूँ।"

इसका हिन्दी अनुवाद सफदर ने किया है।

5) मिल के चलो (जून, 1979) - इस नाटक में 11 कलाकार हैं, कोई प्रदर्शन नहीं। यह नाटक मजदूरों और किसानों के संगठित संघर्ष की अहमियत को दर्शाता है।

6) समरथ को नहिं दोष गुसाई (मार्च, 1980) यह 35 मिनट का नाटक है, इसमें 6 कलाकार हैं, और 1600 से अधिक प्रयोग हुए हैं। यह नाटक उनके सफल नाटकों में से है जिसे अलग-अलग नामों से जैसे- 'महंगाई की मार', 'मदारी-जमूरा' आदि अलग-अलग नामों से उत्तर-भारत की अनेक नुक्कड़ नाटक मंडलियों ने खेला है। इस नाटक में उन्होंने मदारी और जमूरे के प्रचलित माध्यम को इस्तेमाल किया है, जिससे नाटक में स्वच्छंदता आती है। नाटक का अनुवाद अनेक भारतीय भाषाओं में हो चुका है।

7) आया चुनाव (दिसम्बर, 1980) - यह 45 मिनट का नाटक है, इसमें 13 कलाकार हैं, और इसके कई प्रदर्शन हुए हैं। यह नाटक दिसम्बर, 1980 के आम चुनाव के समय लिखा गया था। सन 1977 ई. के चुनावों में देश की जनता सरकार को चुना लेकिन जिन अपेक्षाओं के साथ इस सरकार को चुना गया ढ़ाई वर्ष के अंतराल में ही उसने जनता की इच्छाओं का दमन कर दिया जिससे देश में अराजकता की स्थिति और भयंकर हो गई। जनता ने इस दौरान जो कुछ भोगा उसी को आधार मानकर इस नाटक को लिखा गया था।

8) पुलिस चरित्रम् (फरवरी, 1980)-यह 30 मिनट का नाटक है, इसमें 10 कलाकार हैं, और 25 से अधिक इसके प्रदर्शन हुये हैं। दिल्ली के महिला संगठनों द्वारा चलाये गये 'बलात्कार विरोधी' अभियान के लिए यह नाटक लिखा और खेला गया था। ये नाटक पुलिस द्वारा लॉक अप में किये गये बलात्कारों की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था।

9) काला कानून (अगस्त, 1981)- यह 30 मिनट का नाटक है, इसमें 10 कलाकार हैं, और 25 से अधिक प्रदर्शन हुए हैं। सन् 1981 ई. में सत्ता में वापस आने के बाद कांग्रेस (आई) ने जनविरोधी नीतियों को लागू किया और कई दमनकारी कानून बनाये थे। इन नीतियों के खिलाफ उन्होंने ये नाटक तैयार किया था। नाटक का प्रदर्शन जनता के अलग-अलग हिस्सों में और जनवादी रैलियों और ट्रेड़-यूनियन सभाओं में किया गया था।

10) जंग के खतरे (सितम्बर, 1982) - यह 30 मिनट का नाटक है, इसमें 11 कलाकार हैं, और इसके कई प्रदर्शन हुए हैं, एक ऐसे माहौल में जबकि अमरीकन साम्राज्यवाद दुनिया को युद्ध की तरफ धकेल रहा था, उन्होंने यह नाटक लिखा था। इस नाटक में रिहर्सल से लेकर प्रदर्शन तक कई परिवर्तन हुए हैं।

11) जब चोर बने कोतवाल (सितम्बर, 1983)- यह 40 मिनट का नाटक है, इसमें 7 कलाकार हैं, और इसके भी कई प्रयोग हुए हैं। 'जनम' ने इस नाटक को एक अभिनेत्री और छः अभिनेताओं की टीम के साथ खेला था। सात से कम की टीम के साथ यह नाटक नहीं खेला जा सकता है। यदि बड़ी टीम उपलब्ध हो तो मजदूर पक्ष की संख्या बढ़ा दी जाती है।

12) मई दिवस की कहानी (अप्रैल, 1984)-यह 45 मिनट का नाटक है, इसमें 8 कलाकार हैं, और इसके कई प्रदर्शन हुए हैं। यह नाटक मई दिवस के शताब्दी वर्ष में लिखा गया था। इस नाटक को छः से तेरह कलाकारों के साथ उन्होंने खेला था।

13) वीर जाग ज़ारा (मई, 1984) - यह 14 मिनट का नाटक है, इसमें 8 कलाकार हैं, और इसके कई प्रयोग हुए हैं। यह नाटक मई, 1984 तक के पंजाब के हालात के बारे में लिखा गया था।

14) एग्रीमेंट (जनवरी, 1986) - यह 15 मिनट का नाटक है, इसमें 7 कलाकार हैं, और इसके भी कई प्रयोग हुए हैं। यह नाटक नवम्बर, 1985 में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की दो महीने से लम्बी हड़ताल के समर्थन में लिखा गया था। इसके प्रदर्शन इसी हड़ताल के दौरान किए गए थे।

15) हल्ला बोल-सफदर के निर्देशन में 'जन नाट्य मंच' ने सीटू की दिल्ली, गाजियाबाद, फरीदाबाद की सात दिन की हड़ताल में 'चक्का जाम' शीर्षक से एक नुक्कड़ नाटक तैयार किया था और उसे विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदर्शित किया था। इसी नाटक को हड़ताल के बाद की स्थिति से जोड़कर 'हल्ला बोल' के रुप में परिवर्तित कर दिया था। 31 दिसम्बर, 1988 की शाम को ये नाटक 'ओखला' (दिल्ली) के मजदूर इलाके में खेला गया था। यही वह नाटक है जिसका प्रदर्शन करने के लिए 'जन नाट्य मंच' को लेकर सफदर 1 जनवरी, 1989 को साहिबाबाद के पास झंड़ापुर गांव गए थे। नाटक के दौरान गाजियाबाद नगर पालिका के चुनाव उम्मीदवार मुकेश शर्मा और उसके गुंडों ने सीटू के साथियों और 'जनम' के कलाकारों पर हमला कर दिया। कई साथी घायल हो गये तथा तितर-बितर हो गये। बाद में गुंड़ों ने रामबहादुर की गोली मारकर हत्या कर दी तथा सीटू कार्यालय पर सुनियोजित ढंग से हमला बोला जहाँ कलाकार चले गये थे। सफदर ने महिला कलाकारों सहित अपने साथियों को वहाँ से चले जाने की सलाह दी और स्वयं एक साथी कलाकार के साथ दरवाजा संभाले रहे और अंत में वहाँ से निकले तो हमलावरों ने उनके सिर पर निर्मम ढंग से वार किये, उनका सिर चकनाचूर कर दिया। उन्हें मोहन नगर जयप्रकाश नारायण अस्पताल और फिर राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले जाया गया, जहाँ 2 जनवरी, 1989 को उनकी मृत्यु हुई थी। इन दोनों नाटकों ने मजदूर वर्ग में एक नई संघर्ष-चेतना जगाने में सहायता की थी। यह नाटक जहां एक ओर दर्शकों का दिल खोलकर मनोरंजन करता है, वहां मिल-मजदूरों के यथार्थ जीवन पर से परत-दर-परत पर्दा उठाता चला जाता है।

सफ़दर की हिंसा पर भावुक हृदय से भीष्म साहनी ने लिखा था, "उनका चेहरा बार-बार मेरी आँखों के सामने आ जाता है। उनका निखरा-निखरा व्यक्तित्व, सौम्य सुंदर चेहरा, हंसता-मुस्करता हुआ, सामने आते ही दिल में गहरी पीड़ा का अनुभव करता हूँ। यह उनके चले जाने के दिन नहीं थे। उसे तो बहुत काम करना था, हमारे सांस्कृतिक खजाने को समृद्ध बनाना था।" अपने पति को जलाने के 20 घंटे के भीतर झंड़ापुर में 'हल्ला बोल' का मंचन करते हुए माला हाशमी ने जिस शौर्य का परिचय दिया उसने एक बार फिर लोगों की संकल्प शक्ति को आवेग से संवलित कर दिया था।

हम अंत में इतना ही कह सकते हैं कि राजनीतिक गुंड़ों द्वारा की गई सफ़दर की हिंसा जहाँ नाटक जैसी कला के प्रभाव और लोकप्रियता को त्रासद ढंग से रेखांकित करती हैं, वहाँ यह भी बताती है कि कला जब सक्रिय ढंग से प्रतिबद्ध होती है तो उसे जान की बाजी लगा देने की हद तक अभिव्यक्ति के खतरे उठाने पड़ते हैं। अवतार सिंह के शब्दों में कहना चाहूं तो

"सुकरात से सफदर हाशमी तक

यही तो रहा है अहले सितम का चलन

सुला दिये मौत की नींद कितने ही

बेदार ज़हन!"

संदर्भ;

1. सफदर हाशमी का व्यक्तित्व और कृतित्व- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।

2. नया पथ-सफदर हाशमी अंक (अंक 8: जनवरी- मार्च, 1989)-सं.मं. अध्यक्ष-चंद्रबली सिंह।

3. चौक चौक पर गली गली में (भाग - 1 और 2) - सहमत, नई दिल्ली।

4. नया पथ (जनवरी-जून, 2012-संयुक्तांक)-सं. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह/चंचल चौहान।

5. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास-डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे।

6. हिन्दी गायकवाड़। मराठी नुक्कड़ नाटक डॉ. वर्षा

7. चंचल चौहान जी के बातचीत से.......

- डॉ. मजीद शेख

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