प्रसाद के नाटकों में राष्ट्रीय चेतना : Jaishankar Prasad

Dr. Mulla Adam Ali
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Jaishankar Prasad Ke Natak : Rashtriya Chetna

Jaishankar Prasad Ke Natak

हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी, उत्तरप्रदेश में हुआ और निधन 15 नवम्बर, सन् 1937 में। इस आर्टिकल में छायावादी युग के प्रवर्तक हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार जयशंकर प्रसाद के नाटकों में राष्ट्रीय चेतना के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। जयशंकर प्रसाद की राष्ट्र दृष्टि और स्कंदगुप्त, जयशंकर प्रसाद के काव्य में राष्ट्रीय चेतना की विशिष्टता, जयशंकर प्रसाद के नाटकों मे राष्ट्रीयता, जयशंकर प्रसाद के नाटकों में निहित राष्ट्रीय चेतना के स्वर, प्रसाद के नाटकों में अभिव्यक्त राष्ट्रवादी चेतना, जयशंकर प्रसाद जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना, स्कन्दगुप्तः राष्ट्रीय चेतना का जीवन्त दस्तावेज, प्रसाद के नाटकों की प्रासंगिकता, जयशंकर प्रसाद की राष्ट्र दृष्टि और स्कंदगुप्त आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करेंगे।

प्रसाद के नाटकों में राष्ट्रीय चेतना : Jaishankar Prasad

मानवीय कार्य - व्यापारों की सशक्त अभिव्यक्ति नाटकों में होती है। नाटक के पात्र विभिन्न हाव-भावों का अभिनय कर पाठक या दर्शकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ते हैं। नाटककारों में समय की पकड़ बड़ी जबरदस्त होती है, इसलिए स्वतंत्रता के पूर्व अधिकांश हिन्दी नाटकों में राष्ट्रीय चेतना का ओजस्वी स्वर अधिक मुखरित हुआ है। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस आदि राष्ट्र प्रेमी महापुरुष उस समय भारत की परतंत्रता की बेडी काटने में सक्रिय थे। इन गरम दल और नरम दल के नेताओं का एक ही उद्देश्य था कि किसी भी कीमत पर देश को आज़ाद करें, इसलिए वे देशवासियों में देश प्रेम की भावना भरकर उन्हें आन्दोलन के लिए प्रेरित करते थे । फलस्वरूप भारत के सच्चे सपूतों में देश प्रेम की भावना हिलोर लेने लगीं। हिन्दी के प्रमुख नाटककारों ने भी अपने नाटकों के माध्यम से राष्ट्रीय जागरण का मंत्र फूँकना शुरू किया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद तथा हरिकृष्ण प्रेमी उस युग के ऐसे सशक्त नाटककार थे, जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत कई नाटकों की रचना कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया और राष्ट्रीय चेतना के स्वर ऊर्जस्वित किया।

प्रसाद के नाटक हिन्दी साहित्य की विभूति है। अन्य साहित्य विधाओं की तुलना में अपेक्षाकृत निर्धन हिन्दी नाट्य क्षेत्र इनसे समृद्ध हुआ है। परिमाण और गुण दोनों की दृष्टियों से प्रसाद के नाट्य साहित्य का अपना महत्व हैं। इसमें ऐसी गरिमा है जिसने अनेक नाट्य अध्येताओं शोधकर्ताओं और रंगकर्मियों को आकृष्ट और प्रभावित किया है। प्रसाद के नाटकों में एक विशेष प्रकार का उदात्त तत्व है जो इन्हें महत्वपूर्ण बनाता है। इनमें भारत की सांस्कृतिक गौरव गरिमा और राष्ट्रीय चेतना को वाणी मिली है। इनमें एक प्रबुद्ध व्यक्तित्व का चिंतन व्यक्त हुआ है, एक संवेदनशील कवि की भावुकता मुखरित हुई है। विषयवस्तु और चेतना की दृष्टि से प्रसाद के नाटक अवश्य ही मूल्यवान है।

स्वतन्त्रता के पूर्व किसी लेखक ने कहा था "नैराश्यपूर्ण वर्त्तमान और भविष्य में प्रसाद जी के आशावादी नाटक राष्ट्रीय आन्दोलन को अग्रसर करने के अनुपम साधन है। इस रूप में उनका महत्व किसी राष्ट्रीय नेता से कम नहीं।" लेखक का यह कथन आज के भारत के लिए भी उतना ही सच है, जितना कि स्वतंत्रता के पूर्व भारत के लिए था। आज देश स्वतंत्र है, पर सच पूछा जाए, तो आज सब से अधिक राष्ट्रीय चेतना की आवश्यकता है। प्रसाद जी के चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त तथा उनके दूसरे नाटक आज भी राष्ट्रीय जीवन के लिए उतने ही महत्वपूर्ण है और सदैव रहेंगे। उनका साहित्यिक मूल्य सदैव के लिए है, राष्ट्रीय मूल्य भी उतना ही है, उससे कम नहीं । श्री ब्रजरत्नदास के शब्दों में "प्रसाद जी के हृदय में देश-प्रेम भरा हुआ था, पर वह कर्मशील न होकर मानवशील ही अधिक थे। इसलिए देश- हितकारी कार्यों में न हाथ बँटा सकने पर अपनी साहित्यिक रचनाओं से ही देश का जो उपकार कर सकते थे वही उन्होंने यथा शक्ति पूरी तौर से किया।"¹

यह तो निर्विवाद सत्य है कि प्रसाद जी के सभी नाटकों का आधार स्तम्भ इतिहास है; परंतु उनकी प्रेरणा है - राष्ट्रीयता (देशभक्ति)। इसलिए प्रसाद जी ने अतीत के गौरव को ऐसे भव्य रूप में रूपायित किया है, जो कि सहज ही पाठकों का मन आकर्षित कर लेता है, और उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना को जाग्रत कर देता है। प्रसाद जी ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय इतिहास के उन्हीं पृष्ठों को साकर रूप प्रदान किया है, जो कि ऐसी राष्ट्रीय स्फूर्ति को उत्पन्न करने में पूर्ण सक्षम है। वस्तुतः वर्तमान, भविष्य को रूप प्रदान करने के लिए सदैव से ही अतीत से प्रेरणा ग्रहण करता रहा है और करता रहेगा।

कतिपय विद्वानों का मत है कि प्रसाद जी ने अतीत को ही अपने नाटकों का विषय-वस्तु बनाकर अपनी पलायनवादी मनोवृति का ही परिचय दिया है। लेकिन उनकी यह धारणा मूलतः भ्रांति पर ही आधारित है। निश्चय ही यदि कोई लेखक वर्तमान जीवन की विभीषिकाओं से पलायन कर, अतीत की स्वप्न-मरीचिकाओं में अपने को भुलाने के लिए ही शरण ले तो वह श्लाघनीय नही हो सकता। लेकिन अगर कोई लेखक अतीत को प्रेरणा के केन्द्र बिन्दु के रूप में ग्रहण कर वर्तमान जीवन को गति प्रदान करने के लिए ही उसका चित्रण करे तो अवश्य ही वह स्वस्थ प्रगति का विधायक ही माना जायेगा। प्रसाद जी ने अतीत कालीन कथावस्तु का चुनाव इसी दृष्टिकोण के आधार पर किया है। डॉ. सत्येन्द्र ने अपने 'हिन्दी नाटक साहित्य' शीर्षक लेख में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख किया है कि "इतिहास को - प्राणवान करके प्रसाद जी ने आधुनिक युग के लिए विचार सामग्री दी, उसको दिशा दर्शन कराया। समस्या नाटक उन्होंने नहीं लिखे पर समस्याओं से वे पीछे नहीं हटे। ऐसी कौन सी सामयिक समस्या थी जो उनके नाटकों में शाश्वत मानवी समस्या के धरातल पर प्रस्तुत न हुई हो।'² 'विशाख' की भूमिका में अपनी कृतियों के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए प्रसाद जी ने भी लिखा है इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति के अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। हमारी गिरी दशा को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है उससे बढ़कर उपयुक्त और भी कोई आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं इसमें मुझे पूर्ण सन्देह है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत प्रयत्न किया है।''³ (भूमिका से) अतएव, स्पष्ट है कि प्रसाद जी ने वर्तमान को दृष्टिकोण में रखकर ही अतीत का सफल चित्रण किया है।

प्रसाद ने भारत के गौरवपूर्ण चित्र को अपने नाटकों में रंग दिया है। उनके सभी नाटकों की कथावस्तु ऐसे भव्य युग की याद दिलाती है, जो प्रत्येक दृष्टि से बेजोड़ है। उनकी राष्ट्रीय भावना का प्रत्यक्ष प्रभाव कथावस्तु के चुनाव पर विशेष रूप से पड़ा है। प्रसाद ने 'जनमेजय परीक्षित' से लेकर 'हर्षवर्द्धन' तक के काल को अपने नाटकों का आधार बनाया है। सिर्फ प्रायश्चित (1913 ई.) को छोड़कर सभी नाटकों के कथानक इन दो सीमान्तों के बीच से ही लिये गये है। नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद के अभ्युदय से राष्ट्रीय चेतना का पूर्ण विकास हुआ। उस समय भारत की दीन-हीन जनता अंग्रेजों के गुलाम बनकर उनके तलवे सहला रही थी। अंग्रेजों के बहकावे में आकर भारतीय ही एक दूसरे का शोषण कर रहे थे। भारतीय संस्कृति के पुजारी प्रसाद जी की आत्मा को देश की इस दुर्दशा ने झकझोर दिया। वे परोक्ष रूप से भारतीय वीरों को जगाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इतिहास के उन अंशों को प्रकाश में लाया जो राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रेत थे।

यद्यपि 'जनमेजय' का नागयज्ञ (1926 ई.) "नाटक का प्रेरणा स्रोत सन् 1926 ई. में होनेवाला साम्प्रदायिक दंगा है, तथापि प्रसाद जी ने इसमें दो विरोधी जातियों (आय और नागों ) का संघर्ष दिखलाया वे अपने देश और धर्म को सर्वोच्च मानते थे, इसलिए अपने नाटकों में राष्ट्र की रक्षा और आत्म सम्मान पर बराबर बल देते रहे। स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी आदि नाटक इसके उत्कृष्ट प्रमाण हैं। वे अहिंसा या हिंसा या किसी मार्ग को अपनाकर देश की स्वतंत्रता चाहते थे। 'चन्द्रगुप्त' नाटक में राष्ट्रीयता का उद्घोष प्रसाद जी चाणक्य के माध्यम से कराते हैं  "तुम मालव हो और यह मगध, यही तुम्हारे मन का अवसान है न? परंतु आत्म-सम्मान इतने ही से संतुष्ट नहीं होगा। मालव और मगध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में आर्यावर्त के सब स्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पद दलित होंगे।"⁴ इसी एक मंत्र पर सिंहरण समस्त भारत को अपना देश मानकर अखण्ड भारत के कल्याण के लिए प्राण लुटा देने की कामना करता है। अलका और मालविका भी राष्ट्र की रक्षा के लिए पुरुषों का साथ देती है। तथा देशवासियों में जीवन एवं जागृति का स्वर भरती है।

आज भी क्षेत्रियता का विष भारत में फैला है। अतः प्रसाद जी की यह उक्ति आज के संदर्भ में कितनी सार्थक और प्रासंगिक है। प्रसाद जी ने अपने नाटकों की संवाद - योजना में राष्ट्रीय चेतना का ऐसा संचार कर दिया है, कि जिससे भारतीयों की आत्मा शौर्य से भर उठती है। क्योंकि विदेशियों ने भी भारत की महिमा का गुणगान किया है। वे इसकी अनुपम संस्कृति से प्रभावित है और इसीलिए वे इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। भारत की पवित्र और आदर्श भूमि का उल्लेख कार्नेलिया चन्द्रगुप्त के सामने इस प्रकार करती है -

"यहाँ के श्यामल कुंज, घने जंगल, सरिताओं की माला पहने हुए शैलश्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीतकाल की धूप और भोले कृषक तथा सरल कृषक बालिकाएँ बाल्यकाल की सुनी कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ हैं। यह स्वप्नों का देश, त्याग और ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि - भारतभूमि क्या भुलाई जा सकती है? कदापि नही! अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है, यह भारत मानवता की जन्मभूमि है।"⁵

'स्कन्दगुप्त' और 'चन्द्रगुप्त' में तो गए प्रेम की भावना अन्य नाटकों की अपेक्षा अधिक निखरी हुई है तथा 'स्कन्दगुप्त' में बंधुवर्मा से कहलाया भी गया है, "तुम्हारे शस्त्र ने बर्बर हूणों को बता दिया है कि रणविद्या केवल नृशंसता नहीं है। जिनके आतंक से आज विश्वविख्यात रोम साम्राज्य पादाक्रान्त है, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा और तुम्हारे पैरों के नीचे दबे हुए कंठ से उन्हें स्वीकार करना होगा कि भारतीय दुर्जय वीर है।"⁶

इसी क्रम में 'स्कन्दगुप्त' नाटक में महाप्रतिहार को सावधान करते हुए पृथवीसेन का यह कथन राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत है। बाहरी भय उत्पन्न होने पर आपसी मतभेद भुलाकर ही राष्ट्रीय सीमाओं की रक्षा सम्भव है। "महाप्रतिहार ! पश्चिम और उत्तर में से काली घटाएँ उमड़ रही हैं। यह समय अन्तर्विद्रोह का नहीं है।'⁷ 'स्कन्दगुप्त' में प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना और भी उज्ज्वल, तीव्र, प्राणवान, देश सेवा, कष्ट सहिष्णुता और निःस्वार्थ बलिदान के चमकते चित्र है। पर्णदत्त, बन्धुवर्मा, देवसेना, जयमाला और स्कन्दगुप्त सभी स्वतंत्रता के पुजारी है। उसकी रक्षा के लिए हँसते-हँसते मर मिटने को तथा देश-प्रेम की बलिवेदी पर चढ़ जाने को तत्पर है। इस प्रकार प्रसाद जी को जो प्राचीन भारतीय आदर्शों को प्रस्थापित करने में जो सफलता प्राप्त हुई है वह हिन्दी - संसार में किसी भी अन्य साहित्यकार को ने मिल सकी।

विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण तथा विदेशी संस्कृति के प्रति निष्ठावान होना राष्ट्रीयता के प्रति विश्वासघात करना है। जो लोग बात पीछे विदेशीपन की दुहाई देते हैं, जो केवल विदेशी शिक्षा प्राप्त करना जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं, जिन्हें अपनी हर बात हेय दिखाई देती है, उनसे हमारा निवेदन है कि - 'यवनों' से उधार ली हुई सभ्यता नाम की विलसिता के पीछे आर्य जाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलवधू को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में'।⁸ कहने की आवश्यकता नहीं है कि सैनिक के इस कथन में प्रसाद जी के हृदय की उस वेदना की अभिव्यक्ति हुई है, जो अराष्ट्रीय तत्वों को देखकर घनीभूत हो उठती थी। राष्ट्र प्रेमी प्रसाद जी के हृदय की उस वेदना की अभिव्यक्ति हुई है, जो अराष्ट्रीय तत्वों को देखकर घनीभूत हो उठती थी।

प्रसाद जी ने अपने नाटक में कुछ ऐसे आदर्श पात्रों का संघटन किया है, जिनका कि उदात्त चरित्र स्वयंमेव राष्ट्रीय स्वाभिमान की वस्तु बन जाता है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त, सिंहरण अलका आदि पात्र इसी कोटि के हैं, जो कि अनायास ही जन जीवन की श्रद्धा के अधिकारी बन जाते हैं और स्वयं साथ ही राष्ट्र को भी ऊँचा उठा देते हैं। ये सभी पात्र ऐसे देश भक्त हैं जो कि राष्ट्र के लिए अपने तुच्छ वैयक्तिक स्वार्थी को तिलाजंलि देकर अपने प्राणों को हथेली पर लिए सदैव ही प्रस्तुत रहते हैं, चन्द्रगुप्त अपने राष्ट्र की रक्षा के "मरण से भी अधिक भयानक का आलिंगन करने के लिए सदा" तैयार रहता है। चाणक्य अपने कर्त्तव्य पथ पर सुख और दुःख में समान रूप से अडिग बना रहता है। वह एक महान् कर्मयोगी है। सिंहरण और अलका तो भारतीय संस्कृति के प्रतीक उदात्त पात्रों के रूप में हमारे सामने आते ही है। वे भारतीय संस्कृति उदारता, सहिष्णुता, निभीकता, स्वार्थ त्याग आदि श्रेष्ठतम से विभूषित है। इस प्रकार प्रसाद जी ने इन आदर्श पात्रों के संघटन तथा उनके चरित्र-चित्रण द्वारा भारतीय संस्कृति के उदात्त तथा महत्तम रूप को ही दिखाने का प्रयास किया है, जो कि उनकी राष्ट्रीय भावना का ही सूचक तत्व है।

सशक्त, ओजपूर्ण संवाद योजना के अतिरिक्त प्रसाद जी की गीत योजना में भी राष्ट्रप्रेम की पताका लहरा उठी है। राष्ट्रीय चेतना की धारा अलका के इस गीत में वह रही है -

"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो

प्रशस्त पुण्य पथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।"⁹

इतना ही नहीं, प्रसाद जी ने विदेशियों के मुँह से भी भारत भूमि का गुणगान करवाया हैं। प्रसाद जी का मत है कि भारत ही विश्व का प्रथम ज्ञान गुरु है और वही सम्पूर्ण विश्व सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र स्थल है। अपनी "भारत गीत" शीर्षक कविता में उन्होंने यही भावधारा अभिव्यंजित की है। कार्नेलिया भारत वर्ष को दग्ध और अज्ञान विश्व का एकमात्र अवलम्ब मानकर इस देश को मधुमय कहती है।

अरूण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।¹⁰

अतः भारत का प्राचीन गौरव हमारे अन्दर स्फूर्ति का भाव भर देता है।

प्रस्तुत गीत में भारत का मनमोहक सौन्दर्य ही नहीं इसके द्वारा ज्ञान का प्रकाश और असीम सहृदयता का भी संकेत मिलता है। 'स्कन्दगुप्त' नाटक का एक पात्र मातृगुप्त भारत की महिमा का राष्ट्रप्रेम इस प्रकार व्यक्त करता है।

"किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं । हमारी जन्म- -भूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं। जिये तो सदा उसीके लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष। निछावर कर दे हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।"¹¹

इस प्रकार प्रसाद जी के नाटक 'स्कन्दगुप्त' पारस्परिक कलह से जर्जर भारत का चित्रण है, और 'चन्द्रगुप्त' नाटक में तो राष्ट्रीय चेतना का साकार स्वरूप देखने को मिलता है। उनके अन्य नाटकों में भी राष्ट्रीय चेतना के अनेक चित्र मिलते है।

यद्यपि राजेश्वर प्रसाद अर्गल ने प्रसाद के देश-प्रेम को संकुचित भावनापूर्ण मानते हुए उनपर यह आरोप भी लगाया है कि वह अपने देश के सामने दूसरे किसी भी देश की प्रशंसा नहीं सुन सकते। परंतु यह आरोप निराधार ही है, क्योंकि वास्तविकता तो यह है कि प्रसाद का राष्ट्र-प्रेम विश्व-प्रेम में बाधक न होकर विश्व-प्रेम का एक माध्यम है। अपनी नाट्य रचना राज्यश्री (1915 ई.) के अन्त में उन्होंने विश्व-कल्याण व सुखी मानव समाज के लिए परम पिता परमात्मा से प्रार्थना भी की है। अतः उनकी राष्ट्रीयता को संकुचित भावनापूर्ण मानना उचित नहीं ।

सच तो यह है कि प्रसाद जी ने संसार की आँखों को भारतीय संस्कृति की पुनीत झाँकी दिखलाई और उनकी राष्ट्रीयता ने वह रूप धारण किया जो विश्वभावना का तनिक भी विरोधी नहीं है।

'राज्यश्री' में उन्होंने हर्ष और राज्य श्री द्वारा लोक सेवा वे आत्म त्याग का जो आदर्श प्रस्तुत किया है उसे देखकर चीनी यात्री हुएनच्वांग ने यही मनोकामना की थी कि भारत से मैंने जो सीखा है वह अपने देश में सुनाऊँ। इस प्रकार प्रसाद के नाटकों में नाटककार की राष्ट्रीय भावना उज्ज्वल तीव्र, प्राणवान व त्यागमयी है। यदि एक ओर उसमें अतीत कालीन भारत की स्वर्ण झाँकी प्रस्तुत की गई है, तो दूसरी ओर, वर्तमान समस्याओं का हल भी उसमें खोजा गया है। वस्तुतः प्रसाद जी के सभी नाटक ज्वलंत राष्ट्रीय चेतना का अमर स्मारक है, जो कि युगों तक भारत वासियों के हृदय में देश भक्ति की भावना को जाग्रत करता रहेगा। अतः प्रसाद जी के नाटक आज भी हिन्दी साहित्य की अमर कृतियाँ हैं । भिन्न रूचि वाले मनुष्यों में राष्ट्रीय चेतना को उदबद्ध करने में महाकवि के नाटक पूर्ण समर्थ और प्राणवन्त है। राष्ट्रीय चेतना का जैसा भव्य रूप प्रसाद के नाटकों में प्रकट हुआ है वैसा अन्यत्र किसी भी साहित्यकार के नाटक में दृष्टिगत नहीं होता है।

संदर्भ:

1. ब्रजरत्नदास हिन्दी नाट्य साहित्य, पृ. 220 : प्रकाशकः हिन्दी साहित्य कुटीर बनारस संवत् - 1995

2. डॉ. सत्येन्द्र : हिन्दी नाटक साहित्य, पृ.110

3. जयशंकर प्रसाद : विशाख (भूमिका)

4. जयशंकर प्रसाद : चन्द्रगुप्त (नाटक), पृ. 50-51 भारती भण्डार, इलाहाबाद।

5. उपरित् : पृ.131

6. जयशंकर प्रसाद : स्कन्दगुप्त, पृ. 105, प्रसाद मंदिर, वाराणसी, 1983 ई.

7. उपरिवत् : पृ. 55

8. उपरिवत् : पृ. 100

9. जयशंकर प्रसाद : चन्द्रगुप्त, पृ. 177

10. उपरिवत् : पृ. 89

11. जयशंकर प्रसाद : स्कन्दगुप्त, पृ. 143-144

- तारकेश्वर सिन्हा

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