हिंदी उपन्यास साहित्य में चित्रित नारी

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Novel Literature and Women

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हिंदी उपन्यास साहित्य में चित्रित नारी

नारी किसी भी काल, किसी भी देश और किसी भी समय के स्थिति के सही मूल्यांकन का दस्तावेज है। संस्कृति की पहचान और अस्मिता का प्रश्न है। साहित्य में नारी के रूप, भाव मनोवेगों और संवेगों का व्यापक चित्रण किया गया है। आदिकाल की नारी एक ओर जहाँ गरिमा मंडित वीर रूप की व्यंजना लिए हुए थी तो दूसरी ओर प्रेयसी और पत्नी के मादक व मर्यादित रूप में भी चित्रित हुई है। विदेशी आक्रमणों के प्रभाव से भारतीय नारी के गौरवान्वित आदर्श रूप में कुछ परिवर्तन तो अवश्य आया, किन्तु उसकी गरिमामयी छवि को कोई धूमिल नहीं कर सका। आधुनिक काल में नारी की अवस्था में आंशिक परिवर्तन हुए इस पुरुष प्रधान समाज ने नारी को नारी तुम केवल श्रद्धा हो.... की भावभीनी सुरभि सौंपकर बंदनवारों के शिकंजे में जकड़ लिया था, किन्तु आज की नारी छलावे रूपी शिकंजे को तोड़ चुकी है। उसने समाज को बता दिया

नारी की उपेक्षा मत करो,

नारी नर की खान

नारी से पैदा हुए

ध्रुव, प्रल्हाद महान।

आज की नारी अपने अधिकारों का प्रयोग जान चुकी है। उसने हर क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। किन्तु दुर्भाग्यवश आज भी किसी न किसी रूप में उसका शोषण हो रहा है। कही कन-भ्रूण हत्या कर उससे उसका जन्म लेने का अधिकार भी छीना जा रहा है तो कही कुपोषण की शिकार भी कन्या ही है। अगर पढ़ी- लिखी अपने पाँव पर खड़ी है तो दोहरी-तोहरी भूमिकाओं का निर्वाह करते करते स्वयं अपनी पहचान बनाने की चाह में सर्वस्व गँवा देती है। कहीं-कही वह अति स्वच्छंदता के चक्कर में अपनी अस्मिता को खुद ही दाँव पर लगा चुकी है। भारतीय नारी आज अधिक सुदृढ होने पर भी कहीं-कहीं निर्भया की तरह हैवानियत की शिकार हो जाती है।

नारी प्रकृति का सुंदरतम उपहार है। नारी सृष्टि का आधार होने के कारण उसे विधाता की अद्वितीय रचना कहा जाता है। नारी समाज, संस्कृति और साहित्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। मानवीय गुणों की दृष्टि से विचार किया जाय तो नारी अधिक मानवीय है।

इन सारे गुणों के होते हुए भी नारी को समाज और संस्कृति में वह स्थान नही मिला जिसकी वह अधिकारिणी है। पुरुषप्रधान व्यवस्था ने नारी को सदैव वंचित रखा गया और उसे मात्र अपने भोग की वस्तु बनाने का प्रयत्न किया गया। जहाँ शोषण ओर अन्याय होता है वहाँ उसका प्रतिरोध भी होता है। प्राचीन काल से लेकर अब तक नारी ने किसी न किसी रूप में अपने प्रति होने वाले अन्याय का विरोध किया है।

आधुनिक काल में आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक प्रगति के कारण समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। स्वतंत्रता जीवनमूल्य बनने के कारण नारी में भी स्वतंत्रता की भावना विकसित हुई। वह अपने प्रति सचेत हुई। अन्याय का विरोध कर न्याय और समता पर आधारित साझा संस्कृति के निर्माण के लिए उसने प्रयत्न प्रारंभ किये जिससे एक सुखद भविष्य का निर्माण संभव हो। महिला संगठनों और महिला आंदोलनों के कारण महिलाओं में नई चेतना विकसित हुई। महिला भी अपनी व्यक्ति रूप में प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न भी करने लगी।

आधुनिक युग का प्रारंभ उन्नीसवी शताब्दी से माना जाता है। 1857 ई. की क्रांति के बाद भारत में पूरी तरह से अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई। पश्चिमी विचारों एवं साहित्य ने नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण उत्पन्न किया। स्त्री शिक्षा के समबन्ध में विशेष प्रयत्न उत्पन्न किये गये। प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री-पुरुष समानता का प्रतिपादन किया जाने लगा। बीसवीं शताब्दी में शिक्षा का प्रसार हुआ। जिससे नारी अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति सचेत हुई। नारी स्वतंत्र चेतना का उदय, नारी के मन में व्यक्तित्व की खोज, अस्मिता सुरक्षा के प्रति सर्तकता, उसकी शैक्षणिक जागरुकता और आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण ही हुआ। नारी घर की चार दीवारी से निकलकर अधिक स्वतंत्र और सुखी हुई है। आज हर नारी की यह महत्वकांक्षा है कि समाज में उसकी एक पहचान बने, जबकि आधुनिक काल से पूर्व ऐसा न था, इससे पहले नारी परतंत्र थी।

अरविंद जैन ने इसका कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है- "आदमी ने औरत की जिस एक चीज को मारा-कुचला है, पालतू बनाया है, वह है उसकी स्वतंत्रता। आदमी हमेशा से नारी की स्वतंत्र सत्ता से डरता रहा है और उसे उसने बाकायदा अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है। अपनी अखण्डता और सम्पूर्णता में नारी दुर्जेय और अजेय है, जहाँ वह ऐसी शक्ति है, जो स्वतंत्र और स्वच्छंद है बनैली और स्वैरिणी.... इसीलिए आदमी ने उसे ही तोड़ा है। तोड़कर ही किसी को कमजोर और पालतू बनाया जा सकता है। आदमी ने लगातार और हर तरह की कोशिश की है कि उसे परतंत्र और निष्क्रिय बनाया जा सके।"

इस प्रकार बीसवी सदी के प्रारंभ में आधुनिक नारी ने अपने अधिकारों के लिए जिस नारी मुक्ति आन्दोलन तथा अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष का श्रीगणेश किया, उसके चलते नारी सदियों की गुलामी की जंजीरों को तोड़कर विश्व क्षितिज पर उदित हुई। नारी की अपने अधिकारों के प्रति सजगता ने आदर्शवादी संस्कारों की जकड़ को शिथिल कर दिया। जिससे व्यक्ति स्वातंत्रय का विकास हुआ और अपनी-अपनी अस्मिता के प्रति सजग हुई।

हिंदी साहित्य के बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में स्त्री लेखन के प्रारंभिक दौर में स्त्री लेखिकाओं के लेखन का विषय नारी और उसका परिवार तक सीमित था। इस बारे में कई समीक्षक थे आरोप करते थे कि स्त्री लेखन अपनी मर्यादा में या अपनी जीवन तक सीमित है किंतु हिंदी साहित्य में आपत्काल के बाद मन्नु भंडारी जैसी लेखिका ने राजनीतिक पतन के विषय को 'महाभोग' जैसे उत्कृष्ट उपन्यास के द्वारा चित्रित किया है। इस महिला ने वर्तमान राजनीति का इतना गंभीर चिंतन उपन्यास में व्यक्त किया वही आलोचक इस उपन्यास को हिंदी का पहला राजनीतिक उपन्यास कहने लगे।

मनुष्य स्वभाव के अनुसार स्त्री लेखिकाओं ने अपनी ही वेदनाओं को सृजनात्मक स्तर पर थोड़ी मात्रा में व्यक्त किया। किन्तु कई ऐसी लेखिकायें है जिन्होंने गाँव को अत्यंत सूक्ष्मता से चित्रित किया है। जिसमें मैत्रेयी पुष्पा का 'चाक' और 'इंदन्नमम' जैसा उपन्यास आता है।

नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं ने देश की विभाजन त्रासदी को 'जिंदा मुहावरे' उपन्यास के द्वारा व्यक्त किया। मृणाल पांडे जैसी सजग पत्रकार लेखिका ने फुटपाथ पर जीवन व्यतीत करने वाले महानगरीय लोगों के जीवन की व्यथा को 'रास्तों' पर भटकते हुए में चित्रित किया।

हम केवल द्रौपदी के बारे में साहित्य में देखते है, पढ़ते है किन्तु पद्मा सचदेव जैसी लेखिकाओं ने महाभारत का अर्जुन अपनी पत्नी को वस्तु की भाँति सब भाईयों में बाँट देता है। उस समय एक पुरुष की मन पर क्या बीती होगी। उसका इतना गंभीर और गहरा विश्लेषण किया है लगता ही नही कि एक स्त्री ने उपन्यास लिखा है। मारवाड़ी समाज के तीन पीढ़ीयों का चित्रण अलका सरावगी ने 'कलीकथा वाया बायपास' उपन्यास में चित्रित किया है। उन्होंने स्त्री के दृष्टि से मारवाड़ी समाज की मानसिकता को उजागर किया है।

नमिता सिंह का 'अपनी सलीबे', प्रभा खेतान का 'पीली आँधी', मधुकांकरिया का खुले गगन के लाल सितारे, गीतांजली का हमारा शहर उस बरस आदि उपन्यासों में समाज का व्यापक परिप्रेक्ष्य में चित्रण किया है। इन उपन्यासों पर जब गंभीर चिंतन किया जाता है जब स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अंतिम दशक की स्त्री लेखिकाओं द्वारा उपन्यासों में नारी जीवन का चित्रण बड़ी मात्रा में हुआ है। अर्थात अंतिम दशक के उपन्यासों में नारी जीवन इस दशक के उपन्यासों की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है जिसकी ओर गंभीरता से नहीं देखा गया।

मार्गदर्शन का ही काम नही करती रही, बल्कि उनकी थकी आत्मा को सहलाती रही, नयी प्रेरणा देती रही। भगवती चरण वर्मा, अश्क, फणेश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मी नारायण लाल, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, मन्नु भंडारी, अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, शिवानी, कमलेश्वर, मनहर चौहान, कृष्णा अग्नहोत्री के उदय के साथ ही कथा-यात्रा में नारी के प्रति सजग और अन्वेषी दृष्टि अपनाई गई। परंपरिक मान्यताओं के विरुद्ध उसे एक नया आक्रोश दिया गया। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय स्त्री की मानसिकता को समझना सरल नही। उस पर अनेक पश्चिमी प्रभाव है, सुदूर अतीत की परम्पराएँ है, अपनी विवशताएँ और अपनी मर्यादाएँ है। उपन्यासकारों ने पीड़ित स्त्री जाति को स्वतंत्रता का धरातल दिया और पाश्चात्य उपन्यासकारों की भंगिमा को अपनाया।

हिंदी उपन्यासों में नारी-पात्रों पर हुए अब तक के शोधकार्यों के सर्वेक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि अब तक हिंदी शोधकर्ता स्वातंत्र्योत्तर भारतीय नारी के विविध रूपों को उपन्यासों के आधार नहीं समझ पाये है। उपन्यास आगे बढ़ता गया, आलोचना पीछे छूटती गई। आधुनिक शोध आधुनिक बोध के समानान्तर नहीं चल पाया। आज हिंदी उपन्यासों में एक वर्ष में इतने नारी रूप आ जाते है, जितने पहले एक दशक में एक साथ नही आ पाते थे। यह ठीक ही कहा गया है कि समाज और साहित्य के बदलाव को अगर ठीक-ठीक समझना हो, तो नारी- रूपों को देखो और समझो। इसी प्रतिपाटी के आधार पर प्रस्तुत शोधकर्ता ने समकालीन उपन्यासों के स्त्री-चरित्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया।

प्रेमचंद युग के पहले नारी की स्थिति भारतीय समाज में कैसी थी, इसका भी वर्णन मिलता है, परन्तु नारी के सम्पूर्ण अस्तित्व को नये संदर्भ में देखने की कोशिश नहीं की गई है। साहित्य की सभी विधाओं में नारी पर बहुत कुछ लिखा गया है। संसार के साहित्य का अस्सी प्रतिशत स्त्री-प्रधान या स्त्री केन्द्रित है और कथा साहित्य, विशेषतः सामाजिक उपन्यासों में तो वह पूरी - केन्द्र ही होती है। वैसे तो रहस्यमयी आकर्षणमयी नारी सदैव से ही पुरुष के लिए अध्यायन का विषय रही है और उसके तन-मन की विशेषताओं का उद्घाटन सभ्यता- संस्कृति के विकास के समानान्तर निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया रही है। आधुनिक युग में, ल्यूकस के शब्दों में साहित्य पर, मनोविज्ञान का आक्रमण हुआ है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत के जीवन मूल्यों में, इतने परिवर्तन दिखते है कि विश्वास नहीं होता, सदियों से गुलाम भारत इतनी तेजी से परम्पराओं के प्रति कैसे विद्रोह कर पाया। हिंदी उपन्यासों में स्वतंत्रता के पहले जो नारी हमारे सम्मुख उपस्थित होती है वह सीता- सावित्री की तरह आदर्श हेतु, सतीत्व हेतु, कभी पति के साथ जल मरने की बात कहती है, कभी अपने शरीर की अपवित्रता पर मनःचिन्ता प्रकट करते हुए 'सीतामैया' की तरह 'धरती फटे ओर मैं समाऊँ' का आदर्श उपस्थित करती। 'परीक्षा गुरू' 'भाग्यवती' आदि की नायिकाएँ इसी तरह आदर्श के लिए अपने को होम करने वाली नायिकाएँ है। प्रेमचंद ने समाज में नारी की स्थिति को अनेक कोणों से देखा और केवल उसका प्रिया-पत्नी रूप हो नही, समाज-सेविका और क्रान्तिकारिणी रूप भी चित्रित किया। गोदान की 'धनिया' अद्भुत नारी चरित्र है। न भूतो न भविष्यति। प्रेमचंदयुग में ही 'जैनेन्द्र' 'जोशी' और 'अज्ञेय' के आने के साथ नये क्षितिज के द्वार खुले।

- प्रा. श्रीमती एस. तोंडारकर

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