उपन्यासकार प्रेमचंद का अवदान

Dr. Mulla Adam Ali
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Contribution Of Novelist Premchand

Contribution of Novelist Premchand

हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का योगदान : इस आर्टिकल में आज प्रेमचंद जयंती विशेष हिंदी उपन्यास के विकास में प्रेमचंद का योगदान के बारे में जानेंगे, प्रेमचंद हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में लिखने वाले महान लेखक है, कलम के सिपाई जन्मदिन पर उपन्यास साहित्य में प्रेमचंद का क्या योगदान रहा और प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट क्यों कहा जाता है जानिए।

उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द का अवदान

प्रेमचन्द निश्चय ही हिन्दी-उपन्यास-क्षेत्र के प्रथम उपन्यासकार नहीं थे किन्तु हिन्दी-उपन्यास के सारी चर्चाओं-परिचर्चाओं में हमारे इस उपन्यासकार का नाम ही पहले आता है। अनेक समीक्षकों ने हिन्दी-उपन्यास की विकास-यात्रा का अध्ययन-अनुशीलन करने का प्रयास किया है। काल-विभाजन के आधार-तत्व के रूप में उन्होंने प्रेमचन्द को ही स्थान प्रदान करना संगत समझा है। उनके द्वारा किया गया विभाजन निम्नस्थ है:

(1) पूर्व प्रेमचन्द-युग

(2) प्रेमचन्द युग तथा

(3) प्रेमचन्दोत्तर युग।

पूर्व प्रेमचन्द-युग के उपन्यासकार केवल कौतूहल की सृष्टि करके जन-मनोरंजन ही किया करते थे। प्रेमचन्द-पूर्व युग का उपन्यास साहित्य जासूसी, तिलस्मी, ऐय्यारी तथा काल्पनिक रोमांस से परिपूर्ण रहा है। अतएव यह उपन्यास-साहित्य मानव के यथार्थ जीवन से बहुत दूर जा पड़ा था। देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी तथा किशोरीलाल गोस्वामी प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यासकार रहे हैं। उसी पिटे-पिटाए मार्ग का अनुधावन करना हमारे इस उपन्यासकार को प्रिय नहीं लगा। वस्तुतः युगविधायक साहित्यकार बनने के लिए मौलिक प्रतिभा की अपेक्षा होती है। हम यह बात भली-भाँति जानते समझते हैं कि प्रारम्भिक युग के उपन्यास-साहित्य पर मानवेतर सन्दर्भ हावी हो चला था। स्वतंत्रचेता प्रेमचन्द ने इन सबसे अपनी असहमती व्यक्त की।

हमारे यशस्वी उपन्यासकार एवं मौलिक प्रतिभा के धनी प्रेमचन्द ने कहा था कि "मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।" कहा जा सकता है कि जनसाधारण के बारे में लेखन-कार्य करके आदरणीय बनने वाले साहित्यकार का श्रेय हिन्दी साहित्य में यदि किसी उपन्यासकार को पहली बार मिला है तो 'उपन्यास-सम्राट' प्रेमचन्द को।

प्रेमचन्द के उपन्यासों में हमें साहित्यिक बोध एवं मानव-बोध के पारस्परिक, अन्योन्याश्रित तथा नितान्त अटूट सबंध लक्षित होने लगे थे। प्रेमचन्द ही ऐसे उपन्यासकार ह जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी कृतियों ('वरदान', 'प्रतिज्ञा', 'सेवासदन', 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि', 'गबन', 'निर्मला', 'कायाकल्प', तथा 'गोदान' आदि) को यथार्थ की भावभूमि पर आधारित करने का सम्पूर्ण मन से प्रयास किया है। प्रेमचन्द की रचनाओं का मूल विषय है-मानव का दैनंदिन जीवन एवं कार्य कलाप।

कला की दृष्टि से प्रेमचन्द के उपन्यासों की दो मूल विशेषताएँ हमारे सामने आती हैं-

(1) पटना-संयोजन या (वस्तु विकास की कुशलता)

(2) अभिव्यक्ति की बोधगम्यता।

प्रेमचन्द जन-जीवन के कलाकार हैं-जनवाणी के संवाहक कलाकार हैं। प्रेमचन्द- साहित्य के यशस्वी समालोचक इन्द्रनाथ मदान का मत है कि "आदर्शवाद और यथार्थवाद का पारस्परिक सामंजस्य ही उनकी (प्रेमचन्द की) कला का आधार है।"

प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में मनोवैज्ञानिकता (मनोविश्लेषण) तथा जनवादी चेतना (सामाजिक यथार्थवाद) का समावेश कर लिया था। कहना न होगा कि इसी पृष्ठभूमि पर आगे चलकर हिन्दी के लेखकों ने अपनी रचनाओं में नई प्रवृत्तियों (दिशाओं) का आविर्भाव करने का सम्पूर्ण मन से प्रयास किया है।

विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रेमचन्द का सर्वोपरि अवदान है-हिन्दी-उपन्यास-साहित्य के क्षेत्र में अपनी रचनाओं को सामन्तशाही परिवेश से निकाल कर जनसाधारण के वास्तविक जीवन पर आधारित करना। विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रेमचन्द की कृतियाँ उपन्यास की विकास-यात्रा में एक बिल्कुल नया आयाम प्रस्तुत करती हैं।

प्रेमचन्द की रचनाएँ भारतवर्ष के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन का यथार्थपरक चित्र हमारे सामने उपस्थित करती हैं। 'गोदान' भारत के समाज का यथार्थ एवं पूर्ण चित्र प्रस्तुत करने वाला महाकाव्यात्मक गरिमा सम्पन्न उपन्यास ही कहा जाना चाहिए।

समाज-मंगल की बलवती कामना से अनुप्राणित होकर प्रेमचन्द उपन्यास साहित्य- साधना में लगे हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में जीवन एवं जगत् की अभिव्यक्ति अत्यंत सफलता पूर्वक की है। इनके माध्यम से निम्न एवं मध्यम वर्ग के अत्यंत मर्मस्पर्शी चित्र हमारे सामने आते हैं तथा उनसे राष्ट्रीय भावना को भरपूर बल मिलता है।

आधुनिक हिन्दी-उपन्यास-साहित्य की सर्वोच्च विशेषता है-मानवतावादी दृष्टिकोण तथा यथार्थ की अनुभूति का पूर्ण परिपाक, जो निश्चय ही हमें प्रेमचन्द की रचनाओं में सम्यक् रूपेण लक्षित होते हैं। उनके उपन्यासों में गाँधीवादो मान्यताओं सत्य, अहिंसा, समता, बंधुता, दलित उद्धार तथा चरखा जैसी आदर्शवादी विचारधारा को अत्यंत सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। प्रेमचन्द ने समझौतावादी नीति की अपनाया है। 'कर्मभूमि' में सविनय अवज्ञा आन्दोलन, अहिंसात्मक सत्याग्रह, राष्ट्रीय चेतना तथा हिन्दू-मुस्लिम- एकता का जो स्वरूप लक्षित होता है, वह निश्चय ही 'गाँधी-युग' की देन मानी जानी चाहिए।

उपन्यासकार प्रेमचन्द की प्रासंगिकता इस बात से सूचित हो रही है कि आज भारत के बाहर साहित्यकार भारत के ग्रामीण जन-जीवन की प्रामाणिक अवगति लेने के लिए हमारे इसी यशस्वी उपन्यासकार की रचनाओं को आधार स्वरूप ग्रहण करते हैं।

आज भारतवर्ष में भाषा की किसी पद्धति को यदि व्यावहारिक कहा जा सकता है तो, वह यही प्रेमचन्द की अपनी रची हुई सरल, सहज एवं स्वाभाविक भाषा ही है, इसमें सन्देह नहीं। भाषा की दृष्टि से प्रेमचन्द की महत्ता निरापद है। प्रेमचन्द ने हमें हिन्दुस्तानी हिन्दी दी है। यदि हम उन्हें "हमारी भाषा का सर्वश्रेष्ठ कलाकार" कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेमचन्द निश्चय ही "अपनी भाषा के उस्ताद" रहे हैं।

- डॉ. महेश चन्द्र शर्मा

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