महान लेखक प्रेमचंद द्वारा चित्रित समाज

Dr. Mulla Adam Ali
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Jayanti Special : Society as portrayed by Premchand

Society as portrayed by Premchand

समाज का दर्पण है मुंशी प्रेमचंद का साहित्य : महान लेखक मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में चित्रित विविध समस्याएँ, आज उनके जयंती पर विशेष आपके लिए प्रेमचंद की साहित्य साधना, प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में समाज के यथार्थ को चित्रित किया है, उसका विवरण इस आर्टिकल में दिया गया है, तो चलिए पढ़ते हैं मुंशी प्रेमचंद पर विशेष आलेख।

प्रेमचन्द द्वारा चित्रित समाज

प्रेमचन्द एक ऐसे उपन्यासकार, एक ऐसे कहानीकार थे जिन्होंने अपने समय के समाज को पैनी दृष्टि से देखा और भोगा था। गरीबी, भुखमरी, शोषण और सामंतवादी का बोलबाला था उस समय। जमींदारों द्वारा कृषक वर्ग ज्यादा शोषित हो रहा था। जिसका चित्रण उन्होंने कहानियों और उपन्यास में किया है। उस समय के भारत के गाँवों शहरों की स्थिति का सही चित्र उनकी कहानियों और उपन्यासों में मिलते हैं।

इन दिनों साहित्यकारों का एक खेमा प्रेमचन्द को दलित साहित्य के रचनाकार मानते हैं तो दूसरा खेमा मध्यम वर्ग के रचनाकार मानते हैं। जबकि प्रेमचन्द किसी खास वर्ग या खेमा के साहित्यकार नहीं थे बल्कि अपने समय के पूरे भारत को साथ लेकर चले थे और उसी का चित्र उनके साहित्य का मुख्य स्तंभ है।

प्रेमचन्द की लेखनी अबाधगति से गरीब मध्यम वर्ग और जमींदारों पर चलती रही थी। उनके ऊपर जो आरोप लगाए जा रहे हैं कि प्रेमचन्द दलित साहित्य के लेखक है, यह सरासर गलत है। प्रेमचन्द के उपन्यासों में, कहानियों में भारत के आम लोगों की गाथा के साथ-साथ जमींदारों की भी कथा है। उनके द्वारा चित्रित समाज में सभी तरह के लोग रहते हैं जैसे गरीब, अमीर तथा मध्यम वर्ग। इसलिये उनके साहित्य में ज्यादातर गरीब और मध्यम वर्ग के शोषण की कहानी है। ऐसा इसलिये है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भारत में जमींदारी प्रथा थी। भारत के आम लोग विभिन्न तरह की समस्याओं से जूझ रहे थे। नारी शिक्षा का काफी अभाव था। प्रेमचन्द की 'कुसुम' कहानी में नारी जीवन की घोर विडंबनाओं का चित्रण है। गौना के बाद तीन बार कुसुम ससुराल जाती है। पति कुसुम की तरफ ताकते तक नहीं हैं। बहुत दिनों तक कुसुम चिट्ठी पत्री भेजती है, तंत्र-मंत्र से भी पति को अपनी ओर आकर्षित करती है। लेकिन वह पत्थर देवता नहीं पिघलता है। तब कुसुम का कोमल मन कड़ा होता है। उसमें स्वाभिमान और आत्म सम्मान जाग आता है। और साहस बटोरकर कुसुम अपनी माँ से कहती है। माँ मैं उस छोकरे के पास नहीं जाऊँगी। वह दंभी, लोभी, नीच और उसमें कूट-कूट में स्वार्थ भरा हुआ है। उसके उस साहासिक कदम से सभी लोगों को आश्चर्य होता है। ऐसी स्थिति में प्रेमचन्द ने नारी स्वतंत्रता की बात की है कि समाज में पीड़ित शोषित नारी भी अपने स्वाभिमान को जगाकर सम्मानित जीवन जीने की अधिकारी है। कुसुम का साहस और तेजस्विता के सामने सभी लोगों को उसकी बातें माननी पड़ी। यह है नारी मुक्ति। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों में नारी मुक्ति आंदोलन का भी बोलवाला है। इसके लिये नारी शिक्षा जरूरी है।

प्रेमचन्द समाज के यथार्थ को लिखने में तनिक नहीं हिचके हैं। उस समय के समाज में सबसे ज्यादा शोषण किसानों का होता रहा है। प्रेमचन्द सामंतवादी गतिविधियों को भी खत्म करके स्वतंत्र भारत को देखना चाहते थे। हालांकि उनकी मृत्यु 1936 में ही हो गयी। इक्कीस वर्ष की अवस्था से ही प्रेमचन्द की लेखनी चलने लगी थी। जन सामान्य की समस्याओं को वे अपने लेखन के माध्यम से दूर करना चाहते थे।

विश्व में जितना भी साहित्य रचा गया है उसमें आम आदमी की समस्याओं को जितना प्रेमचन्द ने लिखा है उतना किसी साहित्यकार ने नहीं लिखा है। प्रेमचन्द का साहित्य गाँवों की खेतीबाड़ी से लेकर शहर की पूँजीवादी व्यवस्था तक सफर किया है। किसान सिर्फ जमींदारों के ही शोषण नहीं होते तो बल्कि समाज का एक वर्ग महाजन वर्ग भी था जो किसानों का शोषण करता था। किसान से अधिक सूद महाजन लेता था।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले का समाज का सही-सही चित्रण प्रेमचन्द ने किया है। उस समय के समाज और अब के समाज में बहुत फर्क हुआ है। प्रेमचन्द का मंशा नहीं था कि दलित-साहित्य लिखा जाये। उस समय की स्थितियाँ-परिस्थितियों की टकराहट ने सब कुछ प्रेमचन्द से लिखवा लिया है।

प्रेमचन्द के 'निर्मला' उपन्यास में बेमेल विवाह की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। बेमेल विवाह यानी पति उमरदार और पत्नी जवान के बीच कई उलझने आती हैं। निर्मला के पति हमेशा निर्मला को शक की निगाह से देखता है। निर्मला के पति के मनोभावों का सही चित्रण है इस उपन्यास में। प्रेमचन्द ने कलात्मक दृष्टिकोण से निर्मला उपन्यास के सभी मुख्य पात्रों के मनोभावों को उकेरा है।

प्रेमचन्द दलित साहित्य के लेखक नहीं बल्कि सभी तरह के साहित्य के लेखक हैं। उनके द्वारा चित्रित समाज में सभी तरह के पात्र आये हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता है।

- डॉ. प्रभा कुमारी

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