प्रेमचंद के कथा साहित्य में स्त्री विमर्श

Dr. Mulla Adam Ali
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Feminist Discourse in Premchand's Fiction

Feminist discourse in Premchand's fiction

मुंशी प्रेमचंद के कथा-साहित्य का नारी-विमर्श : आज प्रेमचंद जयंती पर उनके कथा साहित्य (कहानी और उपन्यास) में नारी विमर्श के बारे में ये आलेख आपके समक्ष प्रस्तुत है, प्रेमचंद के साहित्य में नारी संघर्ष और चुनौतियाँ पर विशेष आर्टिकल में प्रेमचंद की कहानियों में नारी जीवन की समस्याएं, प्रेमचंद की उपन्यासों में नारी जीवन की समस्याएं और नारी विमर्श पर आधारित कहानियां और उपन्यास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है।

मुंशी प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में स्त्री विमर्श

प्रेमचन्द की नारी भावना में आकाश की व्यापकता, सरिता का प्रवाह, मन की गहराई, चिन्तन की ऊँचाई इस प्रकार विद्यमान है कि वह कहीं भी और कभी भी स्त्री-पुरुष को एक सूत्र में बाँध सकती है और उसके द्वारा नारी के प्रति जो श्रद्धा उत्पन्न होता है उससे बढ़कर लोकमंगल की कल्पना इस जगत में असम्भव है। समय की माँग, साहित्यिक प्रगति, समाजोपयोगिता तथा निजी व्यक्तित्व की संघर्षमयी गरिमा के प्रेरणा स्वरूप प्रेमचन्द के नारी सम्बन्धी विचारों ने हिन्दी कथा-साहित्य में एक युगान्तर प्रस्तुत किया है। गोदान में उनका कवत था "स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है जितना प्रकाश अंधेरे से।" इसी के चलते उन्होंने अपने नारी-चरित्रों का निर्माण पुरुष से अधिक महत्ता प्रतिपादन हेतु किया है। 'निर्वासन' कहानी की मर्यादा, 'भूत' की विध्येश्वरी, 'सोहाग के शव' की सुभद्रा, 'लाछन' की देवी, 'स्त्री और पुरुष' की आशा 'रानी सारन्धा' की सारन्धा, 'दिल की रानी' की हमीदा, 'मर्यादा की वेदी' की प्रेमा तथा 'बेटों वाली विधवा' की विधवा माँ आदि नारी पात्र पुरुषों से महान् इसलिए लगते हैं कि "पुरुष में थोड़ी पशुता भी होती है जिसे वह इरादा करने पर भी हटा नहीं सकता। वह पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जायेंगा। वात्सल्य स्नेह, कोमलता, दया इन्हीं आधारों पर सृष्टि थमी हुई है और ये स्त्रियों के गुण हैं।" (गोदान) फिर भी "स्त्रियों को संसार अबला कहता है- कितनी बड़ी मूर्खता है मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से प्रिय समझता है वह स्त्री की मुट्ठी में है।" (गोदान) इसीलिए जिस मालती को मेहता से ही प्रेरणा मिलती है। उसी को एक दिन प्रेमचन्द मेहता से भी बड़ी बना देते हैं।

प्रेमचन्द के अनुसार नारी का कर्तव्य है, देना, लेना नहीं। उसके हृदय का सम्पूर्ण वात्सल्य विश्वास, श्रद्धा, करुणा एवम् सहनशीलता इसी उद्देश्य की ओर प्रवाहित होते हैं। 'वरदान' की माधवी हो या 'प्रेमाश्रम' की गायत्री, 'रंगभूमि' की सोफिया, इन्दु हो या जाह्नवी, 'कायाकल्प' की मनोरमा हो या 'सेवासदन' की सुमन, 'गबन' की जलापा हो या 'कर्मभूमि' की सुखदा, 'गोदान' की गोविन्दी, धनिया हो या मालती-नारी में इस आदर्श की स्थापना के बिना प्रेमचन्द रह ही नहीं सकते।

प्रेमचन्द की नारी-भावना का सुन्दर एवम् सरसतम रूप वहाँ दृष्टिगत होता है। जहाँ दाम्पत्य जीवन में नारी पुरुष की प्रेरणा स्फूर्ति एवम् पूर्ति बनकर आती है। गंगाजली, सुभद्रा, माया, विलासी और धनिया कुछ ऐसे ही आदर्श नारी पात्र हैं जो पुरुष को विकास की ओर अग्रसर करने में प्रेरक हैं एक-दूसरे के अभावों की पूर्ति एवम् आदर्श समझौते को ही प्रेमचन्द आदर्श दाम्पत्य मानते हैं।

प्रेमचन्द ने अपने कथा-साहित्य में नारी के विकास में बाधक तत्वों की चर्चा करते हुए उसके निवरण की बात भी की है। दहेज, पर्दाप्रथा, बहु विवाह, अशिक्षा इनसे नारी पर ही नहीं सम्पूर्ण समाज पर अस्वस्थ प्रभाव पड़ता है, प्रेमचन्द का मानना था नारी की अधिकतर समस्याओं का मूल अशिक्षा ही है और इसका निवारण अत्यावश्यक है, दहेज व अशिक्षा का विकराल रूप 'सेवासदन' की सुमन, 'निर्मला' की निर्मला के रूप में उभरता है। इसके समाधान के रूप में प्रेम विवाह, विजातीय विवाह को प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं। 'गोदान' में रुद्रपाल सिंह व सरोज इसका स्पष्ट रूप हैं। नारी का कर्मठ और जुझारु व्यक्तित्व भी 'गोदान' की धनिया, 'कर्मभूमि' की सलोनी और 'कायाकल्प' की लोगी के रूप में उभरता है। प्रेमचन्द में नारी भावना का विकास साहित्य व सामाजिक प्रगति के साथ हुआ है। नारी- जागरण का सशक्त रूप गोदान में वोट की मांग करती 'सरोज' स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेती 'कर्मभूमि' की 'सुखदा', नारी के स्वतंत्र विचारों को अभिव्यक्त करती 'गबन' की जालपा में दिखाई देता है अतः कहा जा सकता है कि प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में नारी पहली बार मानवी के रूप में प्रतिष्ठित हुई है।

- डॉ. अमर ज्योति

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