Sanskriti Ke Char Adhyay Book by Ramdhari Singh Dinkar
संस्कृति के चार अध्याय लगभग 800 पृष्ठों में प्रकाशित डॉ. रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित पुस्तक है। इस पुस्तक में चार अध्याय है 1. आर्य 2. द्रविड़ 3. मुस्लिम और 4. अंग्रेज़ी। आज इस आर्टिकल में दिनकर की चर्चित पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय पर एक विश्लेषण किया गया है। तो चलिए पढ़ते हैं इस चर्चित किताब में कौनसे अध्याय में क्या बताया गया है।
Table of Contents;
• संस्कृति के चार अध्याय : रामधारी सिंह 'दिनकर' परिचय
• संस्कृति के चार अध्याय का प्रथम अध्याय : भारतीय जनता की रचना और हिंदू संस्कृति का आविर्भाव
• संस्कृति के चार अध्याय का द्वितीय अध्याय : प्राचीन हिंदुत्व से विरोध
• संस्कृति के चार अध्याय का तृतीय अध्याय : हिंदू संस्कृति और इस्लाम
• संस्कृति के चार अध्याय चौथा अध्याय : भारतीय संस्कृति और यूरोप
• निष्कर्ष (Conclusion)
• FAQ (frequently asked questions)
1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय विख्यात साहित्यकार दिनकर द्वारा लिखी गई है। चार भागों में दिनकर भारत के संस्कृतिक इतिहास को इस पुस्तक में बांटा है। इस पुस्तक के माध्यम से दिनकर प्राचीन साहित्य और भारत का आधुनिक साहित्य के बीच के अंतर को स्पष्ट करना चाहते थे।
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• Sanskriti Ke Char Adhyay by Ramdhari Singh Dinkar: संस्कृति के चार अध्याय का सारांश
• दिनकर विषयक अध्ययन और अनुसंधान की दिशाएँ
संस्कृति के चार अध्याय : एक विश्लेषण
रामधारी सिंह दिनकर की गद्य-पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' संस्कृति व दर्शन से संबंधित, इतिहास की सामग्रियों से परिपूर्ण, 'भारतीय संस्कृति का शौकिया शैली में लिखा गया इतिहास है।'¹ प्रस्तुत इतिहास वर्णन में सर्जकता, ताजगी, बेघकता, थरथराहट, पुलक व प्रकंपन है। दिनकर ने अनेक विद्वानों की कृतियों में पैठकर घटनाओं और विचारों के बीच संबंध बिठाकर आगामी सत्यों का पूर्वाभास दिया है व उनकी खुलकर घोषणा की। यद्यपि ग्रंथ का प्रबल समर्थन व कठिन विरोध हुआ तथापि ग्रंथ ने 'भारतीय एकता के सैनिक' के रूप में कार्य किया है व करता रहेगा। नेहरू की दिनकर से घनिष्ठ मित्रता थी। उक्त पुस्तक के लिए प्रस्तावना नेहरू ने ही सितंबर 1955 में लिखी थी। पुस्तक हमारे मन मस्तिष्क में उठने वाले कुछ प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करती है। वे प्रश्न हैं-- आखिर भारत है क्या? उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? किन घटकों व शक्तियों के संश्लेषण से भारत बना। ये शक्तियाँ उन मुख्य प्रवृत्तियों की तुलना में, जिन्होंने विश्व को प्रभावित किया, कैसी रही होंगी। पुस्तक के अंतर्गत बहुत से मानवीय कार्यकलाप भारत की परिधि से बाहर हैं। पुस्तक 636 पृष्ठों की है। इसकी विस्तृत अनुक्रमणिका 637 से 698 पृष्ठों में समाई हुई है। आरंभ से अंत तक दिनकर ने इस बात पर जोर दिया है कि भारतवासियों की संस्कृति की प्रवृत्ति सामासिक रही है व धीरे-धीरे विकसित हुई है। सही अर्थों में पुस्तक भारतीय संस्कृति के चार सोपानों पर दृष्टिपात करती है। ये चार सोपान क्रमशः भारतीय संस्कृति की चार क्रांतियों के वर्णन हैं। तद्नुसार पुस्तक के निम्न चार अध्याय हैं।
प्रथम अध्याय : भारतीय जनता की रचना और हिंदू संस्कृति का आविर्भाव
प्रस्तुत अध्याय में आर्य द्रविड़ विवाद का वर्णन है। अध्याय भारतीय संस्कृति के विकास का प्रथम कालखंड है जो दिनकर के अनुसार आर्यों के भारत के आगमन से पूर्व का काल है जब भारतीय संस्कृति पनप चुकी थी। प्रथम काल खंड वह भी है जब आर्य भारत में संभवतः मध्य एशिया से आए।
दिनकर की इस मान्यता का आधार है कुछ पश्चिमी विद्वानों का मत 'नीग्रिटो, औष्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य, सभी वंशों के लोग भारत में बाहर (अफ्रीका, मध्य एशिया अथवा चीन) से आएं' इसी मत के आधार पर दिनकर कहते हैं "भारत में आदिमानव की उत्पत्ति शिवालिक पर्वत के पास अथवा दक्षिणी भारत में हुई होगी। दिनकर आगे कहते हैं-- "बहुत अधिक संभावना है कि द्रविड़ इस देश के मूल निवासी हैं और जिसे हम भारत का सनातन धर्म कहते हैं उसका मूल द्रविडों के गहनतम प्राचीन इतिहास में है। जब आर्य आए, उन्होंने वह की अम्कृति में अपने उद्दाम आशावाद का पुट डाला किंतु उपनिषदों के आते-आतें आर्य वही इस देश की सनातन परंपरा में डूब गए और उनके प्रवृत्तिमागी विचारों पर भारत कात निवृतिवादी भावना का पूरा रंग चढ़ गया। आर्यों का भारतीय संस्कृति पर बहुत अधिक प्रभाव रखा। दिनकर आये कहते हैं कि आर्येतर जातियाँ भारत में पहले ही थी व आर्य बाद में आए। आर्य व आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना हुई वहीं बायर्या (हिंदुओं) का बुनियादी समाज बना। आर्य व आर्येतर संस्कृतियों विशेषकर द्रविड़ व उसके पश्चात् मोहनजोदारों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई वहीं इस देश की आधारभूत संस्कृति बनी। दिनकर ने इन दोनों संस्कृतियों के मिलन की व्यापक चर्चा की है। दिनकर शायों को भारत के मूल निवासी नहीं मानते हैं। यहाँ इस विषय पर संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य सी लग रही है आर्य भारत के मूल निवासी थे अथवा बाहर से आए, विवादास्पद विषय है। डॉ. संपूर्णानंद की पुस्तक 'आयर्यों का आर्य देश' का एक उद्धरण आर्य सप्त सिंधु प्रदेश के निवासी थे सात नदियों का यह प्रदेश उत्तर में सिंधु नदी, बीच में पंजाब की पाँच नदियों (राबी, चिनाब, झेलम, सतलुज, व्यास) व उससे नीचे सरस्वती नदी से बनता है। डॉ. संपूर्णानंद आर्यों के बाहर से आने की बात को पश्चिमी इतिहासकारों की साजिश व कुछ भारतीय इतिहासकारों पर पश्चिमी इतिहासकारों के प्रभाव का परिणाम मानते हैं।
दिनकर आगे कहते हैं कि सभ्यता यदि संस्कृति का भौतिक पक्ष है तो इस पक्ष का आर्यों ने पर्याप्त विकास किया। आर्यों के स्वभाव में भावुकता थी अतः भारतीय साहित्य में भावुकता का पुट आया। वैदिक युग के आर्य मोक्ष के लिए चिंतित न थे। संभवतः यही कारण है कि वेदों की ऋचाएँ सामान्य मनुष्य में आह्लाद पैदा करती हैं। तत्कालीन वर्णव्यवस्था में वर्ण का निर्धारण व्यवसाय व स्वभाव अर्थात् प्रवृत्ति के आधार पर ही था। कालांतर में वर्ण का आधार जातिगत हो गया क्योंकि शनैः शनैः जातियों का प्राकट्य हुआ ।
दिनकर इसी खंड में हमारी महान् संस्कृति के ठोस घटकों के निर्माण में आर्य व द्रविड़ संस्कृतियों के मिले-जुले योगदान की बात करते हुए कहते हैं कि इस महान् संस्कृति का प्रतिनिधित्व प्राचीन भाषा संस्कृत द्वारा हुआ। संस्कृत भी शायद मध्य एशिया में जन्मी पर जब यह भारत वर्ष पहुँची राष्ट्रीय भाषा बनी। संस्कृत के विकास में उत्तरी या दक्षिणी भारत दोनों का योगदान रहा पर बाद में दक्षिणी भारत का योगदान अधिक रहा। संस्कृत भारतीय विचारधारा को अभिव्यक्त करने का माध्यम तो बनी ही, साथ में भारत की सांस्कृतिक एकत्ता बनाने व बढ़ाने में भी संस्कृत का हाथ रहा। बुद्ध के समय से लेकर आज तक संस्कृत भारतवासियों की बोलचाल की भाषा नहीं बन पाई पर समग्र भारत वर्ष पर इसका प्रभाव पड़ा। हमारी संस्कृति की विशिष्टताएँ जैसे अहिंसा, सहिष्णुता, वैराग्य भावना द्रविड़ प्रभाव में विकसित हुई।
द्वितीय अध्याय : प्राचीन हिंदुत्व से विरोध
दिनकर के अनुसार भारतीय इतिहास व संस्कृति का द्वितीय कालखंड यह है जब भारतीय संस्कृति उत्तर पश्चिम से आने वालों द्वारा प्रभावित हुई। पश्चिम से समुद्री रास्तों से आने वालों का प्रभाव भी हमारी संस्कृति पर लगातार पड़ता रहा। इस प्रकार हमारी संस्कृति का निर्माण धीरे-धीरे हुआ क्योंकि इसमें नये तत्वों को आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता थी। हमारी संस्कृति में जब तक यह गुण रहा तब तक यह सजीव, परिवर्तनशील, जीवंत व गतिशील रही।
द्वितीय कालखंड के अंतर्गत दिनकर महावीर और बुद्ध द्वारा तब तक स्थापित हो चुके वैदिक धर्म के विरोध की बात करते हैं। यहाँ बौद्ध साधना पर शाक्त प्रभाव का भी वर्णन है। वे कहते हैं कि बुद्ध व उससे कुछ पूर्व भारत में संन्यासियों व भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ चुकी थी। तत्कालीन समाज में भी दो प्रकार के लोग थे एक यज्ञ के माध्यम से वैदिक धर्म का पालन करने वाले व दूसरे हठयोगी जो ईश्वर के निमित्त अपने शरीर को कष्ट देकर संतोष का अनुभव करते थे। यज्ञों में दी जाने वाली बलि का विरोध भी जैन व बौद्ध दोनों धर्मों ने किया। दोनों ने वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार किया। सृष्टिकर्ता की सत्ता पर भी अविश्वास प्रकट किया।
दिनकर के अनुसार धर्म और काम को समन्वित करने में मध्यकालीन साधकों को बहुत कठिनाई हुई। दिनकर के अनुसार बौद्ध मत के उत्थान का सूक्ष्म कारण यह था कि भारत की निवृत्तिवादी भावना वैदिक मत के आशावाद को दबाकर ऊपर आना चाहती थी और अंत तक वह ऊपर आ भी गयी। जैन मत बौद्ध मत की अपेक्षा कहीं प्राचीन है। बुद्ध ने जो मार्ग अपने लिए चुना वह जैन साधना से ही निकला था, योग व तपस्या की परंपरा भी जैन साधना से ही निकली। यही जैन साधना शैव मार्ग का भी आदि स्रोत है। प्रस्तुत अध्याय में तंत्र साधना का भी संक्षिप्त वर्णन है। बुद्ध का चलाया हुआ आंदोलन क्रांतिकारी हुआ क्योंकि जैन साधना से विपरीत इसका झुकाव सामाजिक परिवर्तनों की ओर था। जैन संप्रदाय सदा हिंदुत्व के भीतर समाया रहा। बौद्ध मत वर्णाश्रम धर्म और जाति प्रथा का विरोध करता रहा। इसीलिए भारत में इस्लाम के आगमन के बाद बहुत से भारतवासी मुसलमान बनाए जा सके।
इसी खंड में दिनकर भारत की भौगोलिक स्थिति का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि भारत समुद्र व हिमालय से घिरा हुआ होने के कारण बाहरी लोगों का प्रवेश भारत में सुगम न था। फिर भी आर्यों के आगमन से पूर्व तो विदेशियों के कुछ समूह भारत में आते रहे होंगे। आयों के भारत में आगमन के पश्चात् विदेशियों के समूह देश में प्रवेश न पा सके पर यही विदेशी एशिया व यूरोप में आते रहे तया वापिस जाते रहे। इस प्रकार एक जाति दूसरी जाति का स्थान लेती रही। जातियाँ स्थापित व विस्थापित होती रहीं। इस प्रकार एशियाई व यूरोपीय जीवन में बहुत अधिक परिवर्तन आए। परंतु आर्यों के भारत में आगमन के पश्चात् भारतवासियों के जीवन पर विदेशियों के प्रभाव न के बराबर रहे। सीथियाई व हूण जातियों के कुछ लोग भारत में आने के पश्चात् राजपूतों के किन्हीं विशेष समूहों में जा मिले। वे स्वयं को प्राचीन भारतवासियों के वंशज होने का प्रचार करने लगे।
दिनकर पुनः भारत की भौगोलिक स्थिति का हवाला देते हुए कहते हैं कि विश्व के अन्य देशों से अलग-थलग रहने के कारण हम अन्य देशों से भिन्न बने। हमने कुछ ऐसी परंपराएँ बना दीं जिन्हें अन्य देश न जानते हैं न समझते हैं। उदाहरणार्थ जाति प्रथा व छुआछूत । इन परंपराओं के कारण ही हम संकीर्ण बन गए। विडंबना यह कि एक ओर हम स्वयं को उदार व सहिष्णु होने का दावा करते हैं दूसरी ओर हमारा सामाजिक दृष्टिकोण तंग है। आज भी हमारे दोहरे व्यक्तित्व के कारण हम इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत हैं।
पश्चिमी देशों के लोग जब समुद्री रास्ते से हमारे देश में आए तो हमारे देश में आद्योगिकी सभ्यता का प्रवेश हुआ। इससे हमारे बुद्धिजीवियों ने पश्चिमी बुद्धजीवियों की भाँति सोचना शुरू कर दिया। यह एक ढंग से अच्छा था क्योंकि इससे कम से कम हम आधुनिक जगत् को समझने लगे। इसकी एक बड़ी क्षति यह हुई कि हमारे देश का बुद्धिजीवी वर्ग सामान्य जनता से बिल्कुल कट गया कारण यह था कि आम जनता को इस नये विचार प्रवाह की भनक तक न थी। इस प्रकार हमारी परंपरागत सोच का ढाँचा बिल्कुल गड़बड़ा गया। कुछ देशवासी परंपरागत सोच से कुछ इस तरह जुड़े रहे कि उनकी उन्नति, कल्पना व सृजनात्मकता के सब द्वार बंद होते हुए दिखाई देने लगे। यह स्थिति नव परिवेश से किसी भी तरह जुड़ी हुई नहीं थी।
तृतीय अध्याय : हिंदू संस्कृति और इस्लाम
दिनकर ने तृतीय कालखंड उस अवधि को कहा है जब भारतीय संस्कृति पर बाह्य प्रभाव समाप्त होते गए व वह शिथिल पड़ गई। इसके सभी पक्ष कमज़ोर हो गए। इस प्रकार दिनकर के अनुसार हम समग्र भारतीय इतिहास में दो पारस्परिक विरोधी व स्पर्धात्मक शक्तियाँ देखते हैं। एक शक्ति बाह्य प्रभावों को पचाकर सामंजस्य पैदा करने का प्रयत्न करती है। दूसरी शक्ति अलगाव व विघटन को प्रोत्साहन देती है। अब दिनकर इस्लाम के भारत में आगमन की चर्चा करते हैं- भारत में इस्लाम का आगमन 1000 से अधिक वर्ष पूर्व हुआ। दिनकर का यह वृत्तांत भ्रांतियों व विशेष अवधारणाओं से भरा हुआ है। यहाँ दिनकर ने ऐसी राह के बारे में प्रश्न उठाया है जिस पर चलकर हिंदू-मुसलमान दोनों एक दूसरे के निकट आ सकते हैं। दिनकर ऐसी राह को ढूँद निकालना भी चाहते हैं। जब हम यह कहते हैं कि हमारे पूर्वज महान् थे व हमने उनकी भद्र विचारधारा ही अपनाई है तो इसमें हमारे वास्तविक व्यवहार से विरोधाभास स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हमें अपने जीवन से यह विरोधाभास समाप्त करना होगा। अगर हम ऐसा न कर पाए तो हमारी हार समग्र राष्ट्र की हार होगी। न केवल यही, हम अपने वे सब गुण खो बैठेंगे जिन पर हमें आज तक गर्व रहा है। जैसे हम आज देश की मुख्य राजनैतिक व आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं हमें वैसे ही अपने इस विरोधाभास से भी जूझना होगा। हमें अपने सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन लाना होगा। अगर हम ये परिवर्तन नहीं लाएँगे तो हमारे ऊपर पड़ने वाले दबाव को हम सह नहीं पाएँगे व अंततः उसके शिकार बन जाएँगे।
ईसा से 1000 वर्ष पूर्व भारत का जो चित्र विश्व की दृष्टि में उभरा था, आज वह चित्र अत्यंत विकृत हो चुका है। उन दिनों भारतवासी प्रसन्नचित्त थे, साहसी थे, उनमें जीवन का भरपूर संचार या अपने जीवन दर्शन संबंधी संदेश वे दूर-दूर तक फैलाया करते थे। विचारों के क्षेत्र में वे अतुलनीय थे। उनकी भाषा ओजस्विनी थी। उनकी कलाओं में सृजनात्मक निपुणता थी। भारतीय जीवन व समाज में गतिशीलता थी। समूचे भारतवर्ष में सांस्कृतिक चेतना शीर्षस्थ थी। दक्षिणी भारतवासी दक्षिण पूर्व एशिया की ओर गए व वहाँ अपना उपनिवेश बनाया। दक्षिण भारत से ही बुद्ध की शिक्षाएँ चीन तक फैलीं। इस प्रकार उत्तरी व दक्षिणी भारत एक दूसरे के पूरक रहे।
इसके पश्चात् देश का पतन हुआ। भाषा में बनावटीपन व कलाओं में शृंगार का बृहद् पुट इस पतन के उदाहरण हैं। नये विचारों का प्रवेश बंद सा हो गया, सृजनात्मकता का ह्रास हुआ। शारीरिक व भावनात्मक बल का भी अभाव दृष्टिगोचर होने लगा। जाति प्रथा जोर पकड़े रही।
हम उच्च आदशों की बात करते हैं पर हमारी कथनी व करनी में बहुत अंतर है। हम शांति, अहिंसा व सहिष्णुता जैसे सुंदर शब्दों का प्रयोग करते हैं पर जब कोई हमसे अलग ढंग से कोई सोचता है तो उसके प्रति हम असहिष्णु हो जाते हैं। हम स्वयं को अपने कार्यों के प्रति निर्लिप्त घोषित करते हैं पर हमारे कार्य बहुत तुच्छ स्तर पर संचालित हो रहे हैं। अनुशासन- हीनता हमें अत्यंत अधम बना रही है।
दिनकर की मान्यता है कि जो इस्लाम गजनवी और गोरी के साथ भारत पहुँचा वह वह इस्लाम नहीं था जिसका वर्णन हज़रत मुहम्मद और उनके प्रथम चार शिष्यों ने किया था। दिनकर भारतीय संस्कृति पर इस्लाम के प्रभाव का लेखा जोखा भी यहाँ प्रस्तुत करते हैं। इस चर्चा के लिए दिनकर ने पुस्तक के लगभग 200 पृष्ठ समर्पित किए हैं। डॉ. ताराचंद और प्रो. हुमायूँ कबीर द्वारा हिंदुत्व पर इस्लाम के प्रभाव के वर्णन से असहमत होते हुए दिनकर कहते हैं, हिंतुत्व पर इस्लाम का किंचित प्रभाव कबीर के बाद से पड़ने लगा लेकिन हिंदुत्व पर इस्लाम ने जो प्रभाव डाला उससे अधिक प्रभाव उसने हिंदुत्व से स्वयं ग्रहण किया। पठानों के समय एक ओर जहाँ हिंदुओं के दलन के उदाहरण मिलते हैं वहाँ दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि मुस्लिम कवि और लेखक भारतीय भाषाओं में अपना साहित्य तैयार करते रहे हैं। औरंगजेब का दूसरा नाम नवरंग बिहारी भी था। हिंदू मुस्लिम एकता को सबसे अधिक शक्ति सम्राट अकबर से प्राप्त हुई। भारत में यूरोप के आगमन से हिंदू मुसलमानों में बहुत नंद पैदा हुए।
चौथा अध्याय : भारतीय संस्कृति और यूरोप
दिनकर के अनुसार चौथा कालखंड भारतीय इतिहास का आधुनिक काल है जिसमें हम विघटनकारी शक्तियों को एक तरफ व देश को जोड़ने वाली शक्तियों को दूसरी तरफ कार्यरत पाते हैं। देश को जोड़ने वाली शक्तियाँ देश में राजनैतिक व सांस्कृतिक एकता पैदा करने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं। विघटनकारी शक्तियाँ देशवासियों के मन में एक दूसरे के प्रति कड़वाहट व घृणा पैदा करने का दूषित कार्य करती हैं। इस प्रकार जिस समस्या से हम आाज जूझ रहे हैं वह हमारे समग्र जीवन से संबंधित है। हमारा भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसका हल कितनी समझदारी से निकाल सकते हैं। ऐसी समस्याओं का समाधान विचारक ही निकाल सकते हैं पर वर्तमान स्थिति में विचारकों को भी कोई समाधान सुनाई नहीं दे रहा है।
प्रस्तुत चौथे कालखंड में देश की संस्कृति पर यूरोप के प्रभाव का व देश का यूरोपीय देशों से संबंध का वर्णन है। सबसे पहले पुर्तगाली, फिर डच, फिर फ्रांसीसी व अंत में अंग्रेज इस देश में आए। अंग्रेजों के उपनिवेशवाद से भारत पर उनका प्रभुत्व हुआ। इंग्लैंड के कारण भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार का भी वर्णन है। देश में अंग्रेजी राज्य के कारण भारतवासियों में आत्म चेतना उत्पन्न हुई व पुनर्जागृति आई। पर दिनकर की यह भी मान्यता है कि भारत के बटवारे के बीज मुगल काल में ही शेख अहमद सरहिंदी ने बो दिए थे। कंपनी सरकार की देश को बाँटने वाली भाषा नीति का भी वर्णन है। इस विश्लेषण विवेचन के साथ 'भारतीय संस्कृति के मुख्य गुण' व 'संस्कृति के सामाजिक स्वरूप' का वर्णन है। 'संस्कृति का सामाजिक स्वरूप' समझने के लिए यह चर्चा पाठकों के लिए अत्यंत सहायक है। भारत की जो आस्था पश्चिमी विचारधारा से पनपी, अब वह भी डोल रही है। परिणामस्वरूप अब हमारी कोई भी विचारधारा नहीं है न अपनी पुरानी वाली, न उनकी नई वाली। अब हमने स्वयं को एक नदी के हवाले कर दिया है जिस दिशा में हमें बहा कर ले जाए। भारत को नई पीढ़ी के पास उनके कार्य अथवा विचार को नियंत्रित करने के लिए कोई भी मानदंड नहीं है। यह भयानक व खतरनाक स्थिति है जिस पर अगर नियंत्रण न पाया गया तो यह भयानक परिणाम लाएगी। हम आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन की दिशा में जा रहे हैं। संभवतः यह इस दिशा परिवर्तन का ही महत्त्वपूर्ण परिणाम है। पर आणविक युग में किसी भी देश को सुधार के लिए अधिक अवसर नहीं मिलेंगे। अगर हम एक भी अवसर पर चूक गए तो हमारा सर्वनाश हो सकता है।
विश्व में कई बड़ी-बड़ी शक्तियाँ कार्यरत हैं। अगर हम उन सबको न भी समझ पाएँ तो हमें कम से कम इतना तो अवश्य समझ लेना चाहिए कि भारत देश के वाङ्मय का विकास कैसे हुआ। दूसरा उसकी अभूतपूर्व एकता किन तत्वों में है। भारत में रसने बसने वाली कोई भी जाति समूचे भारत से भिन्न विचारधारा का दावा नहीं कर सकती है। देश के प्रत्येक वर्ग ने देश निर्माण में योगदान दिया है। अगर हम यह न समझ पाए तो तब हमारी भावनाएँ, विचार व चेष्टाएँ सभी निरर्थक होंगी। इस स्थिति में हम देश की वास्तविक सेवा नहीं कर पाएँगे।
इसी अध्याय के अंत में दिनकर लिखते हैं- ज्ञान की भाषा के रूप में अंग्रेजी इस देश में हमेशा रखी जा सकती है किंतु शिक्षा और शासन के माध्यम पद पर से उसे हटाए बिना हम अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकेंगे।²
दिनकर की मान्यताओं से बहुत से पाठक सहमत न भी हों तो हमें यह अवश्य मानना पड़ेगा कि पाठकों में भारतीय संस्कृति की समझ पैदा करने के लिए प्रस्तुत कृति एक प्रशंसनीय प्रयास है।
पुस्तक के अंत में संदेश रूप में दिनकर - "देश में गरीबी पर लगाम लगते ही इस देश में एक विचारधारा प्रकट होने वाली है जो यह बताएगी कि मनुष्य का कल्याण इसमें नहीं है कि आवश्यकताएँ अनंत हो बल्कि इसमें कि उसकी ज़रूरतें थोड़ी हो; जरूरत की चीजें मनुष्य को तुरंत चाहिए। लेकिन बनावटी और फालतू ज़रूरत या ज़रूरत से फाजिल चीजें उसे एकदम नहीं चाहिए। जो ज़रूरतें टाली जा सकती हैं उन्हें टाल देना ही श्रेष्ठ है बनिस्पत इसके कि उन नकली जरूरतों को पूरा करने के लिए हम विज्ञान की खुशामद करें अथवा उसकी दासता स्वीकार कर लें।³
निष्कर्ष; दिनकर की मान्यताओं से बहुत से पाठक सहमत न भी हों तो हमें यह अवश्य मानना पड़ेगा कि पाठकों में भारतीय संस्कृति की समझ पैदा करने के लिए प्रस्तुत पुस्तक एक प्रशंसनीय प्रयास है।
- डॉ. सुनीला सूद
संदर्भ;
1. संस्कृति के चार अध्याय - रामधारी सिंह दिनकर, नया संस्करण, 1998, तृतीय संस्करण की भूमिका, पृ. X
2. अंतिम अनुच्छेद : पृ. 674
3. वहीं : पृ. 676
FAQ;
Q. 'संस्कृति के चार अध्याय' के लेखक कौन हैं?
Ans. 'संस्कृति के चार अध्याय' के लेखक डॉ. रामधारी सिंह दिनकर है, यह 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी की बहु चर्चित पुस्तक है। भारत सरकार द्वारा पपद्मभूषण भी मिला।
Q. दिनकर की पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में किन चार अध्यायों की बात है?
Ans. 'संस्कृति के चार अध्याय' के चार अध्याय क्रमशः 1. प्रथम अध्याय : भारतीय जनता की रचना और हिंदू संस्कृति का आविर्भाव 2. द्वितीय अध्याय : प्राचीन हिंदुत्व से विरोध 3. तृतीय अध्याय : हिंदू संस्कृति और इस्लाम 4. चौथा अध्याय : भारतीय संस्कृति और यूरोप।
Q. दिनकर जी का निधन कहाँ हुआ था?
Ans. 24 अप्रैल 1974 को (उम्र 65) दिनकर का निधन तमिलनाडु के मद्रास में हुआ था।
Q. दिनकर जयंती कब मनाया जाता है?
Ans. दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गांव में हुआ था, आज 23 सितम्बर 2024 उनकी 117वीं जयंती है।
Q. दिनकर का शाब्दिक अर्थ क्या है?
Ans. दिनकर का शाब्दिक अर्थ है "सूरज"
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