प्रेमचंद : साहित्य के विविध आयाम

Dr. Mulla Adam Ali
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Premchand : Sahitya Ke Vividh Aayam

Premchand : Sahitya Ke Vividh Aayam

प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ : कलम के सिपाई मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष उनके साहित्य पर आधारित लेख प्रेमचंद के लेखन के विविध आयाम, हिंदी साहित्य जगत में उपन्यास सम्राट नाम से प्रसिद्ध यथार्थवादी रचनाकार प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई को हुआ, आज उनके जन्मदिन पर आपके सामने प्रस्तुत है प्रेमचंद साहित्य पर आधारित लेख, पढ़े और साझा करें।

मुंशी प्रेमचन्द : साहित्य के विविध आयाम

प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मौलिक उपन्यासकार थे। जनता ने उन्हें 'उपन्यास-सम्राट' उपाधि से सम्मानित किया था। हिन्दी उपन्यास को उन्होंने तिलिस्मी, जासूसी, प्रेम धर्म तथा उपदेश आदि के सीमित क्षेत्रों से बाहर निकाल, सबसे पहले उसे जनजीवन के साथ मिलाने का प्रयास किया। उनके अनुसार साहित्य का मूल उद्देश्य जनता की भावनाओं का यथार्थ चित्रण करना था। उनका आशय था कि साहित्यकारों को जनता की बात जनता की भाषा में कहनी चाहिए। यही नहीं वे साहित्यकारों से निर्भय होकर अन्याय का विरोध करने को कहते थे, इसलिए वे अपने युग के निर्भीक जनवादी कलाकार बने थे।

प्रेमचन्द ने एक युग प्रवर्तक कथाकार के रूप में हिन्दी कथा साहित्य को एक ठोस सामाजिक जमीन पर प्रतिष्ठित किया। अपनी युगीन समस्याओं को गहरी संवेदना एवं संलग्नता से उन्होंने प्रस्तुत किया। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि-'अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा दुःख सुख और सूझ-बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचन्द से बढ़‌कर उत्तम परिचायक आपको नहीं मिलता।' उन्होंने ठीक ही कहा है कि प्रेमचन्द ने अपने समय की वास्तविक जिन्दगी से अपनी लेखनी को कभी अलग नहीं किया। इसी कारण हिन्दी कथाकारों में प्रेमचन्द सबसे अधिक 'लोकप्रिय' और आज के लिए सबसे अधिक 'प्रासंगिक कथाकार' बन गये।

प्रेमचन्द का संपूर्ण साहित्य हिन्दी नवजागरण की विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करता है। उसमें जातीय तत्वों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय महत्व के सभी तत्व विद्यमान हैं। भारत के आधुनिक जीवन के अंतर्विरोधों को परखने के लिए प्रेमचन्द का साहित्य एक जीवंत क्षेत्र है। वे किसी भी संकुचित विचारधारा के पक्षपाती न थे, उनकी विरासत उदार मानववादी भावना और चेतना है।

प्रेमचन्द के कथा साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता उनके आयामों की अद्वितीय विराटता है। वे ग्रामीण नागर, निर्धन-धनिक, निम्न उच्च अवला, वृद्ध सभी प्रकार के पात्रों की सृष्टि में सक्षम हैं। ग्राम्य-जीवन के सजीव चित्रण में वे पूरे विश्व साहित्य के मूर्धन्य कथाकार हैं। वे एक संवेदनशील कलाकार हैं। उनके संवेदन का मौलिक अंश निर्धन एवं शोषित ग्रामीणों, अस्पृश्यों, दीनों, हीनों इत्यादि के लिए सुरक्षित है, फिर भी वे संपन्न एवं शोषक नागरिकों, नेताओं, ऋणदाताओं, जमींदारों, उद्योगपतियों इत्यादि की समस्याओं से भी पर्याप्त जागरूक हैं। उन्होंने आधुनिक बुर्जुआ समाज के अभिव्यक्ति माध्यम को अपनी कलम के हवाले किया और बुर्जुआ संस्कारों से उसे मुक्त करके जन-चरित्रों को अभिव्यक्ति का माध्यम बना दिया। प्रेमचन्द की रचनाएँ आ सांस्कारिकता को झटककर संघर्ष-शील बारिज्जा उजागार करते हैं। वे पाठकों के भीतर कौतुहल ही नहीं जगाते, बल्कि उन्हें झकझोर कर अपने समाज की चेतना को जानने के लिए जिज्ञासु बनाते हैं।

प्रेमचन्द के साहित्य में मानवतावादी आदर्श प्रमुख भूमिका निभाते हैं। उनका युग राजनीति में गाँधीजी का युग था। अतः प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में गाँधी जी के सिद्धांतों को अभिव्यक्त करने का यथेष्ट प्रयास किया। उन्होंने अपने साहित्य द्वारा आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में मानवतावादी आदर्शों की प्रतिष्ठा की है। व्यक्ति-जीवन के उदात्त तत्त्व जैसे आचरण की सात्विकता, सत्य की प्रतिष्ठा, अहिंसा का आदर्श, त्याग, परोपकार, दया, सहानुभूति और मानव के प्रति प्रेम, सहयोग की उदात्त भावना आदि मानवीय आदर्शों से युक्त व्यक्ति ही मानवतावादी आदर्शों की प्रतिष्ठा में सहायक हो सकता है।

प्रेमचन्द चरित्र-चित्रण की कला में इतने कुशल हैं कि वे व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का चित्रण करने में रुचि नहीं रखते बल्कि व्यक्ति के रूप में वर्ग का चित्रण करने में सिद्धहस्त हैं। जैसे 'रंगभूमि' के 'सूरदास' और 'गोदान' के 'होरी' विश्व साहित्य के दो महान् औपन्यासिक पात्र हैं। सूरदास विकलांग होते हुए भी सत्य और निष्ठा के साथ समस्त शोषक व्यवस्था से अकेले ही टक्कर लेता है। कर्मभूमि के 'अमरकांत', गबन के 'देवीदीन' और 'जाल्पा', 'गोदान' के 'गोविन्दी' और 'मिर्जासाहब' आदि पात्र 'स्वच्छ आचरण' के प्रतीक हैं। प्रेमचन्द ने. दयनीय पतित और शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति व्यक्त की है। गोदान, कफन तथा पूस की रात में निस्सहाय किसान की विडंबना एवं विवशता को दिखलाना और उनकी लाचारी पर सहानुभूति प्रकट करता लेखक का लक्ष्य रहा।

त्याग, परोपकार, दया एवं सहयोग के संदर्भ में 'मृतक भोज' 'होली की छुट्टी' 'रंगभूमि' आदि कहानियाँ द्रष्टव्य हैं। 'गोदान' की 'मालती' 'प्रेमाश्रम' के 'प्रेमशंकर', कायाकल्प की 'मनोरमा' आदि परोपकार का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

प्रेमचन्द का युग 'आदर्श स्थापना' का युग माना जा सकता है। उन्होंने अपने कथा साहित्य में आचरण की सात्विकता को ऊँचा स्थान दिया है। इस सिलसिले में 'नमक का दरोगा' का बंशीधर की कर्तव्य निष्ठा, 'सज्जनता का दण्ड' के इंजिनीयर शिवसिंह की ईमानदारी, 'पंचपरमेश्वर' का अलगू चौधरी, 'प्रायश्चित्त' का मदारीलाल, 'चमत्कार' की चम्पा, 'आत्माराम' का महादेव शुद्ध आचरण से अपने चरित्र की उदात्तता का परिचय देते हैं।

प्रेमचन्द के कथा-साहित्य की एक और महत्वपूर्ण विशेषता-सांप्रदायिक सहिष्णुता रही है। उनके समय में भारत में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की समस्या आज की तुलना में काफी जटिल थी। साम्प्रदायिक समस्या के मूल में बुर्जुआ समाज की स्वार्थ प्रेरित प्रवृत्तियों को ही प्रेमचन्द ने प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना है। हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को लेकर प्रेमचन्द का दृष्टिकोण काफी तटस्थ, तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक रहा। प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में सभी वर्गों के ऐसे मुसलमान एवं हिन्दू पात्रों को देखा जा सकता है, जो सांप्रदायिक भावनाओं से मुक्त हैं, जिनकी रोजी-रोटी की समस्याएँ समान हैं। 'कर्मभूमि' का 'सलीम', 'गोदान' के 'मिर्जासाहब', 'प्रेमाश्रम' का 'कादिर', 'रंगभूमि' का 'ताहिर अली', 'कायाकल्प' का 'चक्रधर', 'कर्मभूमि' का 'अमरकांत' 'मुक्तिधन' का 'रहमान' 'पंचपरमेश्वर' के 'जुम्मन' और 'अलगू' जैसे दर्जनों हिन्दू और मुस्लिम पात्र सांप्रदायिक भेदभाव से दूर हैं। प्रेमचन्द के लिए महात्मा गाँधी आदर्श थे, जो सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच मानवीय संबंध तथा भाईचारे का संबंध कायम करने का प्रयास किया है।

प्रेमचन्द एक सोद्देश्य कलाकार थे। उनका मत था कि साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल जमाना और मनोरंजन का साधन जुटाना नहीं। इसलिए उन्होंने महान् उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही अपने कथा साहित्य की सृष्टि की थी। उनके साहित्य में समाज की अनगिनत समस्याओं का चित्रण और उनके समाधान के प्रयत्न द्रष्टव्य हैं। समाज को रुढ़िमुक्त करके जनता को सचेत बनाना, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना, जीवन और जगत की विसंगतियों को मिटाने की चेष्टा करना ये सब प्रेमचन्द के साहित्य के प्रमुख उद्देश्य थे। प्रेमचन्द का विश्वास है कि सच्ची जिन्दगी वही है जहाँ हम अपने लिए नहीं, सबके लिए जीते हैं और सब के लिए जीने की उदात्तत्ता हम में तभी आती है, जब हमारे जीवन में मानवीय आदर्शों का स्रोत निरंतर प्रवाहित होता हो।

- डॉ. पी. के. जयलक्ष्मी

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