गोदान : कृषक-जीवन की यथार्थता

Dr. Mulla Adam Ali
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गोदान (Godan) : मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand)

किसान जीवन के परिप्रेक्ष्य में गोदान

किसान जीवन के परिप्रेक्ष्य में गोदान : मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया उपन्यास गोदान किसानों की त्रासदी की महागाथा है। यह उपन्यास भारतीय किसान जीवन का जीता जागता उदाहरण है, किसानों की यथार्थ जीवन को उजागर करती है और हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानी जाती है।

गोदान : कृषक-जीवन की यथार्थता

हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द अकेले ऐसे कथाकार हैं जो देश और राष्ट्रीयता की संकीर्ण सीमाओं को बाँधकर विश्व साहित्य से संबंध स्थापित करते हैं। 'तिलिस्मे होशरूबा' और अन्य ऐसी ही सस्ती और मनोरंजन की हल्की-फुल्की सामग्री वाले उपन्यास पढ़कर प्रेमचन्द ने अपने मनोजगत की पुष्टि और संवर्धन तो किया, परंतु उस धारा से एकदम अलग हटकर समाज की वास्तविकता को पहचाना और यथार्थ के माध्यम से जनता के दुख-दर्द, आशा- निराशा, दमन-उत्पीड़न, शोषण और मुक्ति के संघषों को सशक्त वाणी प्रदान की। प्रेमचन्द का साहित्य अपने युग की समस्त विभिषिकओं का दस्तावेज और दीपक है। उनके हाथ में ऐसी मशाल है, जिससे वे अपने आसपास की जिंदगी को गहराई में जाकर देखते हैं और परखते हैं। देश की नब्बे प्रतिशत ग्रामीण जनता के निकट बैठकर प्रेमचन्द ने कहानी सुनी और देखी वह अपने साहित्य में रूपायित की। हिन्दी साहित्य में कबीर के बाद प्रेमचन्द का सबसे प्रखर व्यक्तित्व है, जिसने साहित्य जन-सामान्य से जोड़ा। सामन्ती ढाँचे में पिसते संघर्षरत मजदूर-किसानों की वाणी को जो स्वर प्रेमचन्द ने प्रदान किया वह हिन्दी साहित्य में अनूठा है। अपने हृदय के खून और आँख के पानी से प्रेमचन्द ने जो साहित्य रचा वह मात्र कल्पना नहीं, बल्कि तत्कालीन युग के पीड़ित मानव का सच्चा चित्र है।

साहित्य कोई आसमानी या वायवी वस्तु नहीं है, वह ऐसा ठोस और कांक्रीट प्रमाण है, जिसमें समाज के हर वर्ग और हर परिस्थिति का यथार्थ अंकन होता है और होना चाहिए।

'गोदान' का प्रकाशन 1936 ई. में हुआ। अतः यदि राष्ट्रीय आंदोलनों के संदर्भ में उनके कृतिकार-युग पर विचार करें तो वे तिलक युग से गाँधी-युग तक के व्यापक काल- फलक से संबद्ध हैं। इस कालावधि के प्रमुख घटना-सूत्र हैं, भारतीय समाज में कृषक को अन्नदाता तथा नारी को जगत जननी मानकर अद्वितीय मान्यता प्रदान की गयी है। लेकिन उसी समाज ने नारी तथा कृषक दोनों की पूर्ण रूप से दुर्गति करने में भी किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ी है। प्रेमचन्द का 'निर्मला' उपन्यास नारी की इसी ट्रेजडी का द्योतक है तो 'गोदान' में कृषक का रूप पूर्णरूपेण चित्रित किया गया है। 'गोदान' की सामाजिक समस्या अर्थ प्रेरित है। तद्नुसार ऋण एक ऐसा अभिशाप है जिसने कृषक के जीवन को पूर्णरूपेण चूस लिया लिया है। कृषक समाज को ध्वनित करने वाला, पात्र होरी है जो समाज की संकीर्णता. असंगठन, अंधविश्वास तथा रुढ़िवादिता से लादकर सरकारी लोगों तथा जमींदारों द्वारा शोषित होता है। सामाजिक दिखावे की प्रवृत्ति तथा आत्म-सम्मान की प्रतिष्ठा के लिए होरी स्वयं को मानवीरूपी हिंसक पशुओं के चंगुल में फँसता जाता है। इसमें सरकारी बड़े अफसर, कमीशनर, कलेक्टर, डिप्टीकलेक्टर जमींदार के साथ-साथ जमींदार के चपरासी, कारिद, सिपाही, कानूनगो, थानेदार आदि समस्त प्रशासनिक मशीनरी की फौज होरी (कृषक) को शोषित करने में पूर्ण योगदान देती है। यहाँ तक कि डॉक्टर, पादरी, हाकिम भी अपना हिस्सा कृषक से लेने में नहीं चूकते। यदि किसी जमींदार के घर कोई अतिथि आ जाये तो उसके आतिथ्य सत्कार का भार भी कृषकों पर ही तब एक प्रकार से पड़ता था।

शोषित होते समय एक ओर में कृषक के रूप में होरी में मानवता का दम टूट रहा है, दूसरी ओर मातादीन के रूप में अन्याय तथा दानवता का उग्र रूप धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था का अंतिम टैक्स लेने को सन्नद्ध है। प्रेमचन्द वास्तविक रूप में युग द्रष्टा थे। उन्होंने देखा था की कृषक जिसका स्थान पूँजीवादी व्यवस्था में सबसे निम्न है पूर्ण रूप से शोषित होकर रायसाहब, खन्ना और तंखा आदि पुर्जों में पिसता हुआ दब जाता है।

प्रेमचन्द की 'गोदान' कृति आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से ग्रस्त है। इसमें होरी का कळणांत यथार्थवादी है जिसने अपने समस्त जीवन अपनी मर्यादा बचाने का ही प्रयत्न किया और व्यवस्था में सुधार का प्रयत्न करता रहा, उसका गोदान भी केवल बीस आनों द्वारा होता है। इस प्रकार 'गोदान' में प्रेमचन्द की सामाजिक मानवतावादी, जनवादी संवेदनाओं का दर्शन मिलता है। प्रेमचन्द ने नेताओं की कूटनिति को भलीभाँति पहचान लिया था। यही कारण है कि इसमें रायसाहब अमरपालसिंह जैसे जमींदार राष्ट्रीय आंदोलनों में जेल भी जा चुके हैं और साथ ही अंग्रेज़ी व्यवस्था के कृपाकांक्षी भी हैं, किन्तु कृषकों को शोषित भी कर रहे हैं।

इस प्रकार ब्रिटिश कालीन आर्थिक एवं राजनीतिक सभी प्रवृत्तियों का सुन्दर दिग्दर्शन 'गोदान' में मिलता है। गोबर के रूप में 'गोदान' में नवजागरण का दर्शन मिलता है जो समय- समय पर इन कूटनीतियों का विरोध करता है। गोबर अपने से निम्न जाति की लड़की झुनिया को अपने घर में रखता है। पहले बिरादरी उसे आदर नहीं देती है। इस पर होरी पर डिग्री की जाती है। गोबर सब का विरोध करके शहर चला जाता है। इसके बाद उसकी आर्थिक दशा सुधरने के साथ जागृति की संवेदना प्रबल हो उठती है और सोचता है जब तक इस जमाने में कड़े न पड़ो कोई सुनता नहीं है।

अंततः 'गोदान' में प्रेमचन्द यही संदेश देना चाहते हैं कि शहर में मजदूर असंगठित हैं तो गाँव में किसान। इन दोनों को संगठित करने और उनके बीच पुल बनने का आह्वान वह मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के प्रतिनिधि मालती और मेहता से करते हैं। उनके इस उपन्यास का पूरा संदेश ही किसानों और मजदूरों के संगठन में मध्यवर्ग की सार्थक भूमिका की तलाश है।

- डॉ. अर्जुन के. तड़वी

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