युग निर्माता प्रेमचन्द और उनका साहित्य

Dr. Mulla Adam Ali
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Munshi Premchand : The True Purpose of Literature

World Famous Literature by Munshi Premchand

World Famous Literature by Munshi Premchand : प्रेमचंद आधुनिक हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक लेखक है, समाज कल्याण हेतु, आदर्श मार्ग के चलते राजनीतिक चिंतन भी उनके साहित्य में दिखाई पड़ता है। कलम के सिपाई नाम से मशहूर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष आलेख हिन्दी में पढ़िए।

युग निर्माता मुंशी प्रेमचंद और उनका साहित्य

प्रेमचन्द लेखक थे, इंसान थे। इंसानियत का इल्म उनमें इतना गहरा था कि उनकी किस्सागोई में उसका प्रभाव सहज ही दिख पड़ता है। किस्सागोई करना उनका लक्ष्य नहीं था अपितु समाज-सुधार और आदर्श के मार्ग से गुजरते हुए राजनीतिक चिंतन की ओर भी वे गये। उनकी विचार-यात्रा उनकी सभी रचनाओं में लक्ष्य है। सीधा, सरल इंसान होने के कारण प्रेमचन्द ने सब कुछ सीधा-सादा कहा। लाग-लपेट कुछ भी नहीं, दुराव-छिपाव का नाम नहीं। 'क्योंकि प्रेमचन्द साहित्य में प्रतिस्पर्द्धा भाव से नहीं आए थे, उन्होंने समाज सेवी की मूल चेतना को ही ध्यान में रखा और साहित्य कर्म को समान' देखा।

मानवीय मूल्यों की स्थापना और शोध उनका लक्ष्य था। प्रेमचन्द की दृष्टि में मानव- मूल्यों की स्थापना सर्वोपरि है। उनकी लेखनी का बुनियादी सरोकार मानव-अस्तित्त्व को स्थापित करना था। महाकरुणा का बोध उनकी साहित्य-चेतना का आधार था और होरी इस करुणा का सबसे बड़ा पात्र है। होरी केवल भारतीय साहित्य का ही नहीं अपितु विश्व साहित्य का वह प्रतीक पुरुष है जो संघर्ष का नहीं बल्कि 'समवेदना' का संस्थापक है। प्रेमचन्द ने होरी को यही व्यक्तित्व दिया। क्योंकि प्रेमचन्द का मूल लक्ष्य संघर्ष की स्थपना या चित्रण का नहीं था अपितु समवेदना ही था, इसी को महाकरुणा कहना उचित है प्रेमचन्द के किस्सागोई की जमीन इसी महाभाव से युक्त है।

समीक्षा की दृष्टि से प्रेमचन्द का साहित्य आज भी उचित रूप से मूल्यांकित नहीं हो सका है। समीक्षकों ने प्रेमचन्द के इसी दृष्टिकोण को राजनीतिक चेतना का आधार भी घोषित कर दिया और बेहिचक कहा जाय तो प्रेमचन्द 'वादों' के दायरे में समेट दिये गये और सीमित कर दिये गये। लेकिन प्रेमचन्द में राजनीतिक महात्वाकांक्षा नहीं थी, बावजूद इसके उनके विचारों का इस्तेमाल करने की कोशिशें हुई भी। लेकिन प्रेमचन्द इससे अछूते रहे। प्रेमचन्द का यह भोलापन उनके व्यक्तित्व का विशिष्ट पहलू है। मानव में ही उनका अखण्ड विश्वास और मानव मात्र के प्रति उनकी अगाध करुणा ही उनके भोलेपन की आधारशिला थी और वह भोलापन प्रणम्य है। इसी कारण प्रेमचन्द सदैव लोकमंगल के विराट् लक्ष्य को धारण करके चलते रहे। 'कबीर और तुलसी के बाद प्रेमचन्द ने सामाजिक चिंतन का जो विशाल कैनवास बनाया और उस पर लोक मंगल और लोक रक्षण का जो वृत्तचित्र खींचा वह भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है।'

स्पष्ट है कि साहित्य सामाजिक परिवर्तन का निमित्त बनता है. रुचि निर्माण करता है, सामाजिकों (पाठक समाज) के संवेदन का विस्तार करता है और युग की समग्र विचारधारा को बदल देता है। संक्षेपतः इसे संक्रमण कहा जाता है। हिन्दी साहित्य के आरंभिक युगों में संक्रमण के नायक के रूप में हमारे सामने दो महान व्यक्तित्व आते हैं-मैथिलीशरण गुप्त और मुंशी प्रेमचन्द। भारतीय परंपरा का संपूर्ण परिचय एवं जीवन शैली प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलता है। प्रेमचन्द एक व्यापक अर्थ में हिन्दी उपन्यास के लिए एक पूरी परंपरा हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों में यह विशेषता उनके पात्रों की व्यापकता के कारण देखी जा सकती है।

वस्तुतः प्रेमचन्द आधुनिक उपन्यासकार हैं, लेकिन उनकी आधुनिकता, उस कोटि की नहीं है जिसमें समाज के परंपरित मूल्यों का तिरस्कार और सदैव नयी कसौटियों की खोज की तड़प होती है। उनके कर्तृत्व का व्यास विशाल है, उनके जोड़ का दूसरा उदाहरण हिन्दी क्या भारतीय साहित्य में नहीं है। विश्व साहित्य में भी प्रेमचन्द का स्थान महनीय है क्योंकि प्रेमचन्द का अकेला व्यक्तित्व समूचे विक्टोरियन युग का आस्फालन करता हुआ हमें डिर्केस और थैको के समाज-चित्रों से मिसिंग के समाजालोचन तक ही नहीं ले जाता बल्कि पहले महायुद्ध का युग पार करके गाल्सवर्दी से आगे तक पहुंचा देता है।

स्पष्ट है कि उपन्यास में दृष्टिकोण का महत्व होता है, जहाँ तक प्रेमचन्द के उपन्यासों का संबंध है, उनमें कथानक का महत्व अधिक है, प्रेमचन्द कथानक को ही प्राथमिकता देते थे। लेकिन क्रमशः स्थिति बदलती गयी। दृष्टिकोण एक पैनेपन के साथ निरूपति होने लगा क्योंकि दृष्टि भी सामाजिक यथार्थ को बँकने वाली सतह को भेदती हुई भीतर टटोलनी लगी। 'कफन' या 'पूस की रात' इसलिए श्रेष्ठ नहीं है कि उनमें मूल्य ऊपर से लादे गए हैं बल्कि इसलिए कि मूल्य-दृष्टि इन कहानियों के भीतर से उभरती है।

प्रेमचन्द ने अपने विराट अनुभव और दृष्टिकोण से हिन्दी उपन्यास को जो दिशा दी वह महनीय है 'उनके (प्रेमचन्द) हाथों पड़कर हिन्दी-उपन्यास सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति का श्रेष्ठतम साधन बना। उनमें एक तपस्वी की साधना थी, महाकाव्यकार की व्यापक जीवनाभूति थी, कुशल चितेरे की रूप-विधायिनी कला थी। उन्होंने जीवन को अधिक निकट से जाना था, और स्वयं संघर्षों के बीच से गुजर कर, परिस्थितियों के थपेड़े खाकर समाज के विष को पचाकर साहित्य में शिव की प्रतिष्ठा की थी। हिन्दी उपन्यास को साहित्यिक गरिमा, साप्राणता एवं विश्वसनीयता प्रदान करने वाले वे प्रथम लेखक थे।'

यह स्वीकारना अनुचित नहीं होगा कि प्रेमचन्द ने अपने एक-एक उपन्यास में युगीन संदर्भों की व्यापक स्थापना की है। एक ही उपन्यास 'गोदान' के अन्दर 'जन-जीवन तथा समाज अथवा देश की धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के जितने विविध चित्र लेखक ने समेट कर यथार्थ रूप में चित्रित किये हैं, उतने चित्र संपूर्ण उपन्यास साहित्य में ढूँढने पर ही मिलेंगे और एक स्थान पर मिलना तो असंभव ही है।

वस्तुत प्रेमचन्द अपने साहित्य के माध्यम से समाज में जिस 'समवेदना चेतना' को स्थापित करना चाहते थे उसके लिए वे निरंतर संघर्ष करते रहे, चाहें वह भाव के स्तर पर हो अथवा भाषा के स्तर पर। भाषा अथवा संप्रेषण को तो उन्होंने भाव के ही आधार पर व्यक्त किया। वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज ने 1798 म 'लिरिकल बैलेड्स' के माध्यम से काव्यभाषा में जिस सहजता और जनपक्ष की भाषा' की वकालत की थी उसे गद्य में सशक्त ढंग से प्रेमचन्द ने ही प्रस्तुत किया। लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि प्रेमचन्द केवल पाठक के लिए ही लिखते थे और पाठकीय आस्वादकता की कसौटी पर प्रेमचन्द का कथा साहित्य खरा उतरा है।

प्रेमचन्द के कथा साहित्य में जिस 'नैतिकता बोध' की व्याप्ति है वह इस बात की स्पष्ट प्रस्तुति है कि साहित्यकार के नाते प्रेमचन्द ने अपने को हमेशा एक जाग्रत नीतिप्राण सामाजिक चेतना के रूप में ही देखा है, एक सिपाही के रूप में नहीं, क्योंकि एक सिपाही या योद्धा पिछड़ भी जाता है। लेकिन जाग्रत आत्मा कभी नहीं पिछड़ती है। ध्यातव्य है कि प्रेमचन्द का उद्देश्य नीति-निरपेक्ष संसार का चित्र प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि एक नैतिक संसार की वास्तविकता प्रस्तुत करना था। वस्तुत प्रेमचन्द उस विशाल सत्य के प्रस्तुतकर्ता थे जो अपने आप में बहुत सीधा और सरल है और जो निरंतर मूल्यांकन की मांग करता है, क्योंकि अभी उस सत्य का मूल्यांकन शेष है जो प्रेमचन्द की 'समवेदन चेतना' का आधारभूत लक्ष्य है।

- डॉ. राजेश चन्द्र पाण्डेय

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