हिन्दी बालसाहित्य : चुनौतियाँ, संभावनाएँ और भविष्य

Dr. Mulla Adam Ali
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Bal Sahitya in Hindi

hindi children's literature

डॉ. सुरेन्द्र विक्रम जी का हिन्दी बालसाहित्य की चुनौतियाँ, संभावनाएँ और भविष्य पर आधारित विश्लेषणात्मक लेख, जो आधुनिक बच्चों की रुचियों और ज़रूरतों को उजागर करता है।

हिन्दी बालसाहित्य

चुनौतियाँ, संभावनाएँ और भविष्य

अब के बच्चे बड़े सयाने, गाते हैं टी०वी० के गाने।

उन्हें न भाते दूध-बताशे, चाॅकलेट के बिना रुआँसे।

अब न खेलते कोई कंचे, उन्हें चाहिए सिर्फ तमंचे।

नहीं कबड्डी अथवा कुश्ती, लिखना-पढ़ना आती सुस्ती।

अब बूझो 'क्विज़' तो हम मानें, अब के बच्चे कितना जानें।

अब के बच्चे नहीं हैं भोले, अब के बच्चे जगत टटोलें।

कंधे पर बिस्तर औ' झोले, साइकिल ले गिरि-वन में डोलें

- डाॅ० प्रभाकर माचवे


ज्यादा नहीं सिखाओ हमको, हम भी तो कुछ कर सकते हैं।

तुम बुजुर्ग हो राह दिखाई, बहुत-बहुत शुक्रिया तुम्हारा।

लेकिन अपने पैरों के बल, चलने का अधिकार हमारा 

नहीं सहारा अब हमको दो, हम भी आखिर चल सकते हैं। 

- गोपाल कृष्ण कौल

      आज के बच्चों के बारे में कही गई उपर्युक्त पंक्तियों में आज का सच उजागर हो रहा है। देखने-सुनने में ये पंक्तियाँ भले ही भयावह लग सकती हैं, मगर बच्चों की बदलती सोच ने अभिभावकों को इस सच को स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया है। इक्कीसवीं शताब्दी के बच्चे न तो इतने सीधे और सरल हैं कि उन्हें आसानी से बहलाया जा सकता है और न ही वे माता-पिता, बड़े-बुजुर्ग और अभिभावकों की हर बात को आँख मूँदकर स्वीकार करने के हिमायती हैं।

      ऐसे बदलते परिवेश में, बदलते बच्चों के लिए बालसाहित्य लिखना भी बहुत बड़ी चुनौती है। ऊपर से मीडिया ने बच्चों को गूगल से गुगली करने की पूरी छूट दे रखी है। राष्ट्रीय बालभवन, नई दिल्ली की एक संगोष्ठी में तत्कालीन निदेशक डॉ. मधु पंत ने कहा था कि-

     "यदि हम बच्चों की सोच, उनके विचारों और उनकी मानसिकता को ध्यान में रखकर चिंतन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि आज का वक्त बालसाहित्यकारों के लिए बहुत बड़ी चिंता और चुनौती का है, क्योंकि उनके पास बागडोर है संसार भर के बच्चों में चेतना जगाने की और उन्हें उचित दिशा प्रदान करने की। आज आवश्यकता है कि हर बालसाहित्यकार की सोच को आंदोलित किया जाए, उन्हें घिसे-पिटे मूल्यों, अंधविश्वासों, परंपराओं और सामंती मूल्यों के मापदंड से थोड़ा हटकर सोचना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम अपनी भावी पीढ़ी को वह सूरज नहीं दिखा पाएंगे जो, उनके विकास के लिए आवश्यक प्रकाश और ऊर्जा प्रदान करेगा।"

        उपर्युक्त कथन बदलते परिवेश को देखते हुए इस अर्थ में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आज का बच्चा समस्याओं से जूझ रहा है। माता-पिता ने अपनी बड़ी-बड़ी आकांक्षाओं को उनके ऊपर लादकर और मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। ऐसे में बच्चों की संवेदना को समझना और उनकी पीड़ा को महसूस करना सार्थक बालसाहित्य सृजन के लिए अपरिहार्य है।

       आज एक बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है कि आखिर बच्चा क्या चाहता है? सामाजिक विसंगतियों से जूझता, अकेलेपन का शिकार, बस्ते के बोझ से आक्रांत, विद्यालय तथा परिवार के दो पाटों के बीच में पिसते हुए बच्चे अपना दुखड़ा किसे सुनाएँ? अपने मन की बात किससे कहें? पहले संयुक्त परिवारों में बच्चों को कई तरह की आजादी होती थी। बच्चे अपने मन की की भावनाओं को आपस में एक-दूसरे से बाँट लेते थे। आज एकल परिवारों और एक या दो बच्चों की स्थिति ने इस पर विराम लगा दिया है। बच्चों के मन की दबी हुई आकांक्षाएँ अनायास दम तोड़ रही हैं। 

      अपने लंबे बालसाहित्य सृजन के दौरान बच्चों से रूबरू होते हुए मैंने जिन चुनौतियों को महसूस किया है, उनमें सबसे पहले नए और पुराने के संक्रमण की चुनौती है। आधुनिकता की चकाचौंध में भटके हुए बच्चों को सही रास्ता दिखाने की चुनौती है, तेजी से बदलती सूचना क्रांति, बाजारवाद का प्रभाव, मीडिया की घुसपैठ तथा अभिभावकों की उदासीनता से बच्चे बालसाहित्य से विमुख हो रहे हैं। आज बच्चे कुछ नए की तलाश में है। पुरानी चीजों का मोहभंग उनकी नियति में शामिल हो गया है।

      यह गंभीर चिंता की बात है कि इस दौर में बच्चे एकाकीपन के कारण ही बालसाहित्य से कटते जा रहे हैं। उन्हें दस श्रेष्ठ बालसाहित्यकारों के नाम तक याद नहीं हैं फिर उनसे कैसे आशा की जा सकती है कि वे दस बालकविताएँ या पाँच बालकहानियाँ याद रख सकेंगे। मेरा मानना है कि सार्थक बालसाहित्य बच्चों में ऊर्जा का संचार करता है तथा उन्हें संवेदनशील बनाता है। बालसाहित्य से न जुड़ने के कारण बच्चे संवेदनाशून्य होते जा रहे हैं। घर आए मेहमान का प्रफुल्लित होकर स्वागत करना, उनके पैर छूना, उनके बीच में उठना-बैठना तथा आपस की बातों में शरीक होना जैसी चीजें बाल-सुलभ गतिविधियों का हिस्सा नहीं रह गई हैं।

      इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही बालसाहित्य को लेकर नया चिंतन शुरू हो गया था। बीते दो दशकों के बाद अब यह प्रश्न फिर से उठ खड़ा हुआ है कि आज बच्चों के लिए बालसाहित्य का नया स्वरूप क्या होगा? यह सवाल हमेशा से ही तैरता रहा है कि बालसाहित्य सृजन हँसी-खेल नहीं है, यह चुनौती भरा लेखन रहा है। इस चुनौती का सामना करते हुए बालसाहित्य की सोच की दिशा में परिवर्तन भी अपरिहार्य हैं। यह प्रश्न भी बड़ा प्रासंगिक है की बदलता परिवेश और मीडिया का बढ़ता हुआ प्रभाव कहीं हिंदी बालसाहित्य को ही न निगल जाए? 

     आज मीडिया के बढ़ते हुए चैनल रस्साकशी करते हुए जिस गति से बच्चों को अपनी गिरफ़्त में लेते जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि इस सदी में बच्चे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अंधभक्त हो जाएंगे। यह परिस्थिति बालसाहित्यकारों के लिए और कठिन चुनौती भरी होगी। इस खुली चुनौती में बालसाहित्यकारों को अधिक से अधिक प्रभावशाली, प्रेरक और दिशाबोधक रचनाओं का सृजन करना होगा जिससे बच्चे मीडिया के बढ़ते प्रभाव से मुक्त होकर बालसाहित्य की ओर अपने को केंद्रित कर सकें। 

      यह प्रश्न भी विचारणीय है कि दस वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते बच्चा इतने सारे रक्तरंजित दृश्य, हत्या, मारपीट, अराजकता तथा बलात्कार के दृश्य परोसे गए चैनलों के माध्यम से देख चुका होता है कि उसके सामने आगे के दृश्य बौने नजर आते हैं। ऊपर से नई-नई सूचनाओं का विस्फोट बच्चों पर किस तरह और कितना असर दिखाएगा यह कहना शायद अभी जल्दी होगी। कुछ भी हो, लेकिन इतना तय है कि ऐसी परिस्थिति में बालसाहित्यकारों को अनायास ही कम समय में बड़े हुए बच्चों को उनकी परिधि में लाकर वास्तविक ज्ञान ़-चक्षु खोलने होंगे, उन्हें बालसाहित्य की उपयोगिता का आभास कराना ही होगा।

बाल साहित्य चुनौतियां और संभावनाएं

        बालसाहित्य सृजन की एक चुनौती और है कि हमें बच्चों से सीधा साक्षात्कार करके यह भी जानना होगा कि बच्चे क्या और किस तरह का साहित्य पढ़ना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि अब बच्चों की रुचियों में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हुआ है। सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार क्षमा शर्मा का यह सवाल बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि-

        "क्या एक ही कहानी या एक ही रचना सब बच्चों के लिए उपयोगी हो सकती है? शायद नहीं, क्योंकि बड़ों की तरह हर बच्चे की रुचि भी अलग-अलग होती है। एक जमाना था- जब 8 साल से 18 साल तक के बच्चों की रुचि एक समझी जाती थी। उनके लिए एक ही रचना ठीक मान ली जाती थी, लेकिन सच तो यही है कि हर बदलता साल बच्चों के लिए रुचियों और सीखने के नए दरवाजे खोलता है। आज दादी-नानी के मुकाबले कहानियाँ तकनीक और एप्स के हवाले हो गई हैं, तो इसीलिए कि पहले की तरह न तो संयुक्त परिवार बचे हैं और न ही माँ-बाप के पास बच्चों को किस्से-कहानियाँ सुनाने का पहले जैसा मय है।" - दैनिक जागरण : 4 अप्रैल 2018: पृष्ठ 8

बीसवीं शताब्दी के अंत तक बच्चों की रुचि के नाम पर कॉमिक्स की भी बहुत भीड़ रही है। प्रकाशकों के तर्क थे कि चूँकि बच्चे कॉमिक्स बहुत पसंद करते हैं, इसलिए उनका धड़ल्ले से प्रकाशन नियमित हो रहा है। मेरा मानना है कि - इस भीड़ में कुकुरमुत्ते की तरह जगह-जगह उग आए कपोलकल्पित काॅमिक्स के पात्रों ने हवाई किले बनाकर बच्चों को बहुत दिग्भ्रमित किया है। विदेशी पात्रों की बढ़ती लोकप्रियता से प्रभावित होकर कुछ भारतीय प्रकाशकों ने जो भौड़ी नकल बच्चों के नाम पर परोसी है, उसने समाज में भ्रम-जाल ही फैलाया है। इससे जहाँ एक ओर बच्चों का कोमल मन आहत हुआ वहीं, दूसरी ओर काॅमिक्स की भ्रष्ट भाषा ने उनकी सोच और संवेदना को पंगु बना दिया। 

     आज भी बालसाहित्य सर्जकों के समक्ष यह चुनौती है कि वह अटपटे और बालमन को प्रदूषित करने वाले कॉमिक्स के आगे बढ़े पैरों में विचारों की ऐसी बेड़ियाँ डालें कि वह भरभरा कर गिर पड़े। मुझे यह साझा करते हुए प्रसन्नता हो रही है कि नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रथम बुक्स, नमन प्रकाशन तथा अमर चित्र कथा ने इस दिशा में सार्थक प्रयास किया है, तथा रोचक भाषा में बच्चों के लिए उपयोगी और उनके आयु वर्ग के अनुकूल चित्रकथाएँ प्रकाशित की हैं। 

      आज बालसाहित्य के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि जो अच्छा बालसाहित्य लिखा जा रहा है, उसका प्रकाशन कहाँ हो? यह कम चिंता की बात नहीं है कि करोड़ों की आबादी वाले देश में बच्चों के लिए हजार तो क्या एक सौ भी अच्छी बाल पत्रिकाएँ नहीं है। जैसे-तैसे जहाँ और जो बालसाहित्य छप भी रहा है उसमें अनेक अशुद्ध, लयहीन, अतुकांत और शिथिल बालकविताओं का बोलबाला है। अधिकांश बालकहानियों में सपाटबयानी है। लोककथाओं और पौराणिक कथाओं को ही बार-बार घोला जा रहा है। 

       पिछले दो दशकों में प्राइवेट प्रकाशकों ने हिन्दी की कक्षा एक से लेकर आठ तक की अलग-अलग नामों से ढेरों पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित की हैं।इनमें बालसाहित्यकारों की रचनाओं के बल पर करोड़ों का वारा-न्यारा किया है। मगर लेखकों को रॉयल्टी देने के नाम पर प्रकाशक ऐसे बिदकते हैं जैसे पटाखे में किसी ने आग लगा दी हो।

        आज इक्कीसवीं सदी में जी रहे बच्चों के सामने कई तरह के संकट हैं। दृश्य और श्रव्य दोनों माध्यमों के बढ़ते हुए शिकंजे ने उनसे उनका सहज बचपन तो छीन ही लिया है, ऊपर से कुकुरमुत्ते की तरह उगाए अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों ने खेलने-कूदने की उम्र में बच्चों को तनाव में जीने के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसी परिस्थिति में यह बड़ा ज्वलंत प्रश्न है कि बच्चों के लिए बालसाहित्य लेखन कैसा, किस तरह का हो? उन्हें पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त और कैसा बालसाहित्य प्रदान किया जाए जिनसे एक ओर उनका मनोरंजन हो तथा दूसरी ओर वे अपने भावी जीवन की दिशा तय कर सकें।

       एक और ज्वलंत प्रश्न है कि आख़िर बच्चे बालसाहित्य क्यों पढ़ें? जब तक ऐसा बालसाहित्य नहीं लिखा जाएगा जो बच्चों को पंक्तिबद्ध होकर खरीदने के लिए मजबूर करे, उनकी अंतरात्मा तक को आंदोलित करे, तब तक सारी चीजें ख्वाबों में ही पलती रहेंगी। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे भी अपनी चिंता इसी स्वर में व्यक्त करते हैं-

       "एक बालसाहित्यकार का स्वयं का चिंतन और उसके विचारों का फलक इतना विस्तृत होना चाहिए कि वह न केवल अपने परिवेश, वरन् समाज के प्रत्येक पहलू से परिचित हो। उसे यह अहसास हो कि आज कौन सा पहलू किस तरह से बच्चों को प्रभावित करता है। बच्चे कहानियाँ केवल इसलिए नहीं पढ़ते कि वे उनका भी और लोगों की तरह मनोरंजन करती हैं। बच्चे कहानियों में केवल आनंद ही नहीं पाते बल्कि अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त होता देखते हैं। कौन है जो बच्चों को समाज की विसंगतियों से जूझने की ऊर्जा दे सकता है? यह दायित्त्व बालसाहित्यकार का ही है जो अपनी सशक्त रचनाओं से बच्चों में नई चेतना, नई स्फूर्ति ला सकता है।"

बच्चों के लिए लेखन की सबसे बड़ी कसौटी यह है कि रचनाकार जिस विषय का चयन करें उसका संबंध सीधा बच्चों से हो। इस दृष्टि से बालसाहित्य के लेखन एवं चुनाव के लिए आवश्यक हो जाता है कि रचनाकर बच्चों के व्यक्तित्त्व के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का गंभीरता से अध्ययन करें। बालसाहित्य लेखन में बच्चों की मानसिकता, उनकी अभिरुचि, रचनाओं के घटनाक्रमों को समझ सकने की क्षमता आदि का ज्ञान बहुत आवश्यक है। उसमें प्रेम का प्रदर्शन-- मानव प्रेम, प्रकृति प्रेम तथा देश प्रेम के रूप में हो एवं क्रोध का प्रदर्शन अत्याचार एवं अनाचार के विरोध के रूप में हो। बालसाहित्य में आतंक, दंड, हिंसा, प्रतिरोध एवं क्रूरता के स्थान पर प्रेम, सहानुभूति, सहयोग एवं कोमलता के उदाहरण मिलने चाहिए, जिसे पढ़कर बच्चों में आत्मसम्मान एवं महत्वाकांक्षा की भावना जागृत हो। सौंदर्य भावना के विकास की दृष्टि से बच्चों को मानव तथा प्रकृति प्रेम संबंधी ही रचनाएँ दी जानी चाहिए।

     बाल साहित्य में ऐसे विषयों का प्रतिपादन हो जो सामाजिक मूल्यों की रक्षा करने वाले हों जैसे- अपराधी को दंड अवश्य मिलना चाहिए। उसमें विविधताओं का होना भी अनिवार्य है क्योंकि बच्चों की सूचियों में विविधताओं का समावेश रहता है। बच्चों के लिए लेखन में भाषा-शैली का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि बोझिल भाषा और उबाऊ शैली बच्चों को कभी भी रास नहीं आती है। सहज और सरल भाषा से वे कठिन विषयों को भी आसानी से आत्मसात कर लेते हैं।

      बच्चों के लिए उनकी सबसे प्रिय विधा कविता लिखते समय तो इस बात पर ध्यान अवश्य देना चाहिए कि उसकी अभिव्यक्ति मौलिक होनी चाहिए। तुक मिलाने के चक्कर में गलत शब्द या अपशब्द का प्रयोग बिल्कुल नहीं होना चाहिए। कविताओं में वैज्ञानिक विषयों को भी सहज और सरल भाषा में तथा अच्छे ढंग से समझाकर प्रस्तुत करना चाहिए जिससे बच्चे आसानी से उसे समझते चलें। आज का बालक वैज्ञानिक युग में जी रहा है, जिसमें यांत्रिकता पूरी तरह से हावी है। 

       आधुनिक युग के बच्चे अपने मन में भाँति-भाँति तथा नए-नए सपने संजोए हुए हैं। उनकी नजर में अंतरिक्ष में विस्फोट हो रहा है, वह एक ओर रोबोट की बात करता है, तो दूसरी ओर कंप्यूटर, लैपटॉप और पूरी टेक्नोलॉजी उसके जीवन में जगह बनाए हुए है, ऐसे माहौल में चूहा-बिल्ली, बंदर-भालू, तोता-मैना तथा मौसमी कविताएँ, कपोलकल्पित-परीकथाएँ, बासी और उबाऊ कथानक की भूत-प्रेत की कहानियाँ बच्चों को कितनी पसंद आएंगी, यह विचारणीय विषय है।

      बच्चों की बातों को उनकी भाषा में कहना एक कला है। इस कला में यह समाहित है कि कौन सा बच्चा कब, क्या सोचता है, उसके मन में क्या चल रहा है, इस मनोविज्ञान को पकड़ना बालसाहित्यकार के लेखन की की कसौटी होती है। अगर बच्चों को उनके बदलाव, अभिरुचि, परिवेश तथा सोच से जुड़ी हुई रचनाएँ दी जाएंगी तो बच्चे उन्हें रुचि से मन लगाकर तो पढ़ेंगे ही उनसे स्वयमेव जुड़ते भी चले जाएंगे।

     बालसाहित्य लेखन की लंबी परंपरा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उसका भविष्य उज्जवल है। आज उसकी विकास यात्रा एक शताब्दी को पारकर दूसरी शताब्दी की ओर अग्रसर हो रही है। साहित्य की विभिन्न विधाओं-कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि से बालसाहित्य भंडार भरा पड़ा पड़ा है, इसके बावजूद और बालसाहित्य की आवश्यकता इसलिए महसूस की जा रही है क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह बालसाहित्य के माध्यम से भी सामने आना ही चाहिए। बालसाहित्य के उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए आवश्यक है कि-

  1. आज का बालसाहित्य आपसी बोलचाल, सहज तथा मनोहारी भाषा में लिखा जाना चाहिए। 
  2. बालसाहित्य की विषयवस्तु ऐसी होनी चाहिए जिसका बच्चों के कोमल मन पर अनुकूल प्रभाव पड़े। 
  3. विशेष रूप से बालउपन्यासों की कथावस्तु में अनावश्यक विस्तार का निषेध होना चाहिए, क्योंकि अनावश्यक विस्तार से बच्चे ऊब जाते हैं। 
  4. बालसाहित्य का प्रारंभ बच्चों के परिचित जगत से होना चाहिए। उसकी कथावस्तु तथा पात्रों का चयन ऐसा हो जिसे जानने में बच्चों को अधिक मशक्कत न करनी पड़े।
  5. बच्चों की कहानियों में जिज्ञासा का होना अनिवार्य है क्योंकि उनमें कौतूहल का स्वाभाविक गुण विद्यमान रहता है। 
  6. बच्चे वर्तमान परिवेश में जीते हैं इसलिए उनके लिए बालसाहित्य का वातावरण उसी परिवेश से लिया जाना चाहिए। 
  7. बालरचनाओ में पात्र अगर बच्चे हों तो वे उन्हें अधिक पसंद करते हैं।
  8.  बालरचनाओं का समापन हमेशा सुखद होना चाहिए तथा उसका कोई न कोई उद्देश्य भी होना चाहिए। 

      अंत में मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि बालसाहित्य की अनेकानेक चुनौतियों के बीच उसकी संभावनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं। बालसाहित्यकारों की कई पीढ़ियाँ इसके विकास की साक्षी रही हैं। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का कहना बिल्कुल सही है कि-

‌ "आज के बालसाहित्यकार के सामने जो चुनौतियाँ हैं, उनका सामना करने के लिए उसे सक्षम बनना ही पड़ेगा अन्यथा उसके बालसाहित्य लेखन का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा। वास्तव में आज के बालसाहित्यकार से जो अपेक्षाएँ हैं, वे भविष्य की वे चुनौतियाँ हैं जिनका बच्चे सामना करेंगे और हमें उनके उत्तर प्रस्तुत कर, बच्चों को सक्षम और समर्थ बनाना है। यह काम बालसाहित्य लेखकों के साथ उन लोगों का भी है, जो बच्चों के सरोकारों से जुड़े हुए हैं।"

- डॉ. सुरेन्द्र विक्रम
एसो० प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज, 
लखनऊ, (उ०प्र०)- 226018

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