हिन्दी बालसाहित्य : परंपरा, प्रगति और प्रयोग

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi children's literature has grown from moral tales and folk stories to modern, experimental works. This article traces its journey, key writers, and the innovations shaping its future. History and Evolution of Hindi Children's Literature: From Tradition to Modern Experiments.

History and Evolution of Hindi Children's Literature

हिन्दी बालसाहित्य परंपरा, प्रगति और प्रयोग

हिन्दी बालसाहित्य का इतिहास, विकास और नई दिशा: परंपरा से प्रयोग तक

हिन्दी बालसाहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि बालमन के संस्कार, सृजनात्मकता और कल्पनाशक्ति को पोषित करने वाला साहित्यिक आधार है। भारतेंदु युग से लेकर आज तक यह विधा निरंतर विकसित हुई है—जहाँ एक ओर परंपरागत नैतिक कहानियाँ और कविताएँ थीं, वहीं दूसरी ओर आधुनिक बालकथाओं, विज्ञान-आधारित रचनाओं और नाटकों ने नई दिशा दी है। इस लेख में हम बालसाहित्य की ऐतिहासिक यात्रा, प्रमुख रचनाकारों के योगदान और समकालीन प्रयोगों की चर्चा करेंगे।

हिन्दी बालसाहित्य : परंपरा, प्रगति और प्रयोग

     फ्रांस के सुप्रसिद्ध विद्वान रूसो का कहना है कि - "बालक का मन शिक्षा की पाठ्यपुस्तक है जिसे उसको पहले पृष्ठ से लेकर अंत तक भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए।" दूसरी ओर आयु वर्ग एवं शिक्षा मनोविज्ञान पर विचार करते हुए मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर बल दिया है कि अवस्था के अनुसार बच्चे का अपना पृथक अस्तित्त्व होता है। खलील जिब्रान का यह कथन सदैव से ही प्रासंगिक रहा है कि--

     "तुम उन्हें (बच्चों को) अपना प्यार दे सकते हो लेकिन विचार नहीं, क्योंकि उनके पास अपने विचार होते हैं। तुम उनका शरीर बंद कर सकते हो, लेकिन आत्मा नहीं क्योंकि उनकी आत्मा आने वाले कल में निवास करती है। उसे तुम नहीं देख सकते हो, सपनों में भी नहीं देख सकते। तुम उनकी तरह बनने का प्रयत्न कर सकते हो लेकिन उन्हें अपनी तरह बनाने की इच्छा मत रखना, क्योंकि जीवन पीछे की ओर नहीं जाता और न ही बीते हुए कल के साथ रुकता ही है।"

      बच्चा समाज की एक स्वतंत्र इकाई है। उसकी स्वतंत्रता और कोमलता के संबंध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ठीक ही लिखा है :- "बालक की प्रकृति में मन का प्रताप बहुत क्षीण होता है। जगत- संसार और उसकी अपनी कल्पना उस पर अलग-अलग आधार करती है। एक के बाद दूसरी आकर उपस्थित होती है है। मन का बंधन उसके लिए पीड़ादायक होता है। सुसंलग्न कार्य-कारण सूत्र पकड़कर चीज को शुरू से लेकर आखिर तक पकड़े रहना उसके लिए दुस्साध्य होता है। इसलिए यह कहा जाता है कि बच्चों के लिए लेखन आसान नहीं है उनके मनोविज्ञान को समझे बिना बालसाहित्य लिखा ही नहीं जा सकता है।"

       हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक डॉ. नगेंद्र ने वैसे तो बालसाहित्य का उल्लेख अपने समीक्षात्मक ग्रंथों में नहीं किया है लेकिन बालक की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उनका कहना है कि- "बालक की आवश्यकताओं में एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता अच्छे बालसाहित्य की भी है। पहले समाज में बालक का अस्तित्त्व खिलौने के रूप में था, उसको प्यार और दुलार तो मिलता था लेकिन उसे समाज का एक अभिन्न अंग नहीं समझा जाता था, लेकिन आज के बालक को कल का नागरिक माना जाता है और बालक की आवश्यकताओं में एक आवश्यकता अच्छे बालसाहित्य की भी है।"

       बालसाहित्य के स्वरूप निर्धारण के संबंध में भी अनेक अवधारणाएंँ हैं। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने इसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त किया है। पाश्चात्य समीक्षक लिलियन स्मिथ का कहना कहना है- "यह आवश्यक नहीं है कि बच्चों के लिए लिखी गई सभी पुस्तकें साहित्य ही हों और न यही आवश्यक है कि बड़े लोग जिसे बालसाहित्य मानते हैं। बाल-रुचि के अनुकूल चुनी गई पुस्तक इस कसौटी पर खरी उतर जाए, वही सही अर्थों में बालसाहित्य है। ऐसे भी लोग हैं जो बड़ों की बातों का सरल ढंग से विवेचन बालसाहित्य मानते हैं, लेकिन यह विचार बच्चों को बड़ों का सूक्ष्म संस्करण ही सिद्ध करता है, और वास्तव में यह गलत अवधारणा बचपन द्वारा उत्पन्न ही हुई है। बच्चे वास्तव में एक ऐसी जाति होते हैं जिनका जीवन- अनुभव बड़ों से बिल्कुल भिन्न होता है। उनकी एक अलग दुनिया होती है, जिसमें जीवन के मूल्य, बाल-सुलभ मनोवृति के आधार पर निर्धारित होते हैं, बड़ों के अनुभव के आधार पर नहीं।"

      हिंदी बालसाहित्य के प्रखर समीक्षक और बालगीतकार निरंकारदेव सेवक लिलियन स्मिथ की इस बात का समर्थन करते हुए उसमें अपने विचार और जोड़ते हैं कि- "बच्चों का मन इतना चंचल और कल्पनाएँ इतनी तेज होती हैं कि किन्ही निश्चित नियमों में बँधा हुआ साहित्य उनके लिए लिखा ही नहीं जा सकता है। बड़ों के लिए जो सर्वथा असंगत और अर्थहीन होता है, वह बच्चों के लिए युक्तिसंगत और अर्थपूर्ण हो सकता है। बच्चों का साहित्य बड़े ही उन्हें रचकर देते हैं, इसलिए बालसाहित्य की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जब तक वह बड़े उनकी भावनाओं, कल्पनाओं को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर पाते तब तक उनके लिखे पर, उनके अनुभव, ज्ञान तथा जीवनादर्शों की छाप आ जाना नितांत स्वाभाविक है।"

      बच्चों की कल्पनाएँ और अनुभव बड़ों से सर्वथा भिन्न होते हैं। यह बात शत-प्रतिशत सही है कि उनकी दुनिया ही बड़ों की दुनिया से अलग होती है इसीलिए यह कहा जाता है की बच्चों के लिए साहित्य लिखने में वही सफल हो सकता है जो बड़प्पन के भार को रत्ती-रत्ती कमकर बच्चों की तरह सरलता, कौतूहल और जिज्ञासा को स्वाभाविक रूप से अपने मन में धारण कर ले।

     बच्चों की लब्धप्रतिष्ठित पत्रिका 'बालसखा' के संपादक लल्ली प्रसाद पांडेय प्रायः कहा करते थे कि बालसाहित्य वही लिख सकता है जो अपने आप को बच्चों जैसा बना ले। बड़े होकर बच्चा बनना मुश्किल है और उससे भी अधिक मुश्किल है बच्चा बनकर उनके अनुकूल लिखना। इसीलिए जो लोग बच्चों के लिए लिखते हैं, वे एक पवित्र कार्य करते हैं। उनका कार्य साधना का कार्य है। बच्चों के चाचा और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि बच्चों में बचपन से ही पढ़ने की रुचि जागृत की जा सकती है। यह आवश्यक है कि आवश्यक है कि बच्चों में पढ़ने की आदत डालें और उन्हें मनोरंजक पुस्तकें दें। बच्चों का दिमाग और अधिक जानकारियों के लिए लालायित रहता है। यदि इस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर बच्चों की रुचि के अनुकूल पुस्तकें तैयार की जाएँ तो निश्चय ही बच्चों की रुचि पढ़ने की ओर बढ़ेगी।

      बालसाहित्य प्रारंभ से ही बच्चों में उन गुणों का बीजारोपण करता है जो भविष्य में चरित्रवान तथा नैतिक मूल्यों की रक्षा करने वाले होते हैं। बालसाहित्य बच्चों में भावात्मक एकता, सांवेगिक परिपक्वता तथा नैतिक उत्थान को बढ़ावा देता है। वह उन्हें आशावादी तथा आत्मनिर्भर बनने में भी मदद करता है। वास्तव में बालसाहित्य की सार्थकता तभी है जब वह बच्चों में अच्छे संस्कार डाल सके। इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्वस्थ बालसाहित्य का सृजन एक निश्चित सीमाओं में बँधकर नहीं किया जा सकता है। इसकी तुलना ऐसे जादू से ही की जा सकती है जो कि अपने दर्शकों/पाठकों को चमत्कृत करता है, उन्हें आह्लादित करता है और ऐसा जादू चलाता है कि बच्चे पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में बँधकर ठगे से रह जाते हैं।

      तथ्य तो यह है कि बालसाहित्य का मूल उद्देश्य एक प्रकार से सतत्प्रेरणा देना होना चाहिए। बालसाहित्य ऐसा हो जो मनोरंजन के साथ-साथ नैतिकता, सत्यता, देश-प्रेम, चरित्र-निर्माण एवं भारतीय चिंतन पैदा कर सके। इन गुणों के साथ-साथ बालसाहित्य ऐसा भी होना चाहिए जो बच्चों में प्रारंभ से ही धर्म, जाति एवं वर्ग-भेद भुलाकर समाज को भावनात्मक एकता एवं राष्ट्रीयता के सूत्र में में बाँध सके। 

      बालसाहित्य का लक्ष्य बच्चों के मानसिक स्तर पर उतरकर उन्हें रोचक ढंग से नई जानकारियाँ देना है। यदि बच्चे में कल्याण भावना और सौंदर्य परख की दृष्टि जाग्रत करनी हो तो उनकी समस्त आकांक्षाओं और जिज्ञासाओं का स्कूली शिक्षा के साथ ही विकास आवश्यक है। बच्चों के चंचल मन और जिज्ञासाओं को प्रेरित करने का मुख्य साधन बालसाहित्य ही है। 

      बालसाहित्य की विधिवत शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेरणा से सन् 1882 में 'बालदर्पण' नामक बच्चों की पहली पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। स्वयं भारतेंदु ने 'बालाबोधिनी' नाम से महिलाओं की एक पत्रिका निकाली थी, जिसमें बालिकाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई, चूल्हा-चौका तथा अन्य विषयों पर रोचक सामग्री प्रकाशित की जाती थी। धीरे-धीरे चलकर आगे बढ़ती हुई बालसाहित्य की यह विकास-यात्रा आज सवा सौ वर्ष से ऊपर का सफर पार कर चुकी है है।

      भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटकों में कहीं-कहीं सरल भाषा में कई महत्त्वपूर्ण पद्य दिए हैं। 'अंधेर नगरी चौपट राजा' नाटक में 'चूरन का लटका' तथा 'चने का लटका' जैसी कविताएँ बच्चों ने बहुत पसंद कीं। बालसाहित्य के सुधी समीक्षक स्वर्गीय निरंकारदेव सेवक मानते थे कि ये कविताएँ बिल्कुल बालगीत जैसी लगती हैं। भारतेंदु ने कुछ पहेलियाँ और मुकरियाँ भी लिखी हैं जिनसे बच्चों का भरपूर मनोरंजन होता है।

हिन्दी बालसाहित्य का इतिहास, विकास और नई दिशा

     भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन पं. श्रीधर पाठक ने विशेष रुप से बच्चों के लिए कुत्ता, बिल्ली, तोता, मैना और कोयल आदि सुपरिचित विषयों पर बड़ी मनोहारी बालकविताएँ लिखी हैं जो 'मनोविनोद' नामक संकलन में संकलित की गई हैं। 

   भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने सीमित संसाधनों में जिस बालसाहित्य का बीजारोपण किया था वह आगे चलकर द्विवेदी युग में पुष्पित-पल्लवित हुआ। द्विवेदी युग के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों में-- बालमुकुंद गुप्त ने 'खिलौना', कामताप्रसाद गुरु ने 'पद्यपुष्पावली', पं. सुदर्शनाचार्य ने 'चुन्नू-मुन्नू' नामक पुस्तकों में बच्चों के लिए प्रेरक और उपयोगी साहित्य का सृजन किया। इनके अतिरिक्त मन्नन दिवेदी गजपुरी, मैथिलीशरण गुप्त तथा रामनरेश त्रिपाठी ने भी बच्चों के लिए छिटपुट कविताएंँ लिखीं। मुरारीलाल शर्मा 'बालबंधु' का प्रार्थना-गीत 'वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्त्तव्यमार्ग पर डट जाये' लंबे समय तक अनेक विद्यालयों तथा बालचर संस्थाओं में गाया जाता रहा है। आज भी विशेष रुप से ग्रामीण विद्यालयों में यह प्रार्थना दुहराई जाती है। 

    डाॅ०विद्याभूषण 'विभु' ने 'लालबुझक्कड़' तथा 'शेखचिल्ली', स्वर्णसहोदर ने 'गिनती के गीत', ' नटखट हम', शंभूदयाल सक्सेना ने आ री निंदिया', 'बाल कवितावली' ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने 'गुब्बारा','बालभारती' सुभद्राकुमारी चौहान ने 'कोयल','सभा का खेल', पं. सोहनलाल द्विवेदी ने 'बच्चों के बापू','हँसो - हँसाओ' तथा रमापति शुक्ल ने 'हुआ सवेरा','अंगूरों का गुच्छा' आदि महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय पुस्तकों के माध्यम से आरंभिक दौर में बालसाहित्य के भंडार को भरा। लल्लीप्रसाद पांडेय ने 'बालसखा' पत्रिका निकालकर जहाँ बालसाहित्य को गति प्रदान की तथा वहीं सुदर्शनाचार्य ने 'शिशु', आचार्य रामलोचन शरण ने 'बालक', रामजी शर्मा ने 'खिलौना' विश्वप्रकाश ने 'चमचम', कुंवर सुरेश सिंह ने 'कुमार' तथा व्यथितहृदय ने 'तितली' और 'मदारी' जैसी बालपत्रिकाएँ निकालकर बालसाहित्य को स्थायित्व प्रदान किया।

     स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बालसाहित्य की धूम मच गई। सरकारी, गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा बालसाहित्य की लगभग सभी विधाओं की पुस्तकें प्रकाशित हुईं। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से बालभारती नामक बच्चों की संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका ने अपने जीवन के बहुत महत्त्वपूर्ण पल देखे हैं। आगे चलकर पराग, नंदन, शावक, शेरसखा तथा मिलिंद आदि बालपत्रिकाएँ अस्तित्व में आईं जिनके माध्यम से ढेर सारा बालसाहित्य प्रकाशित होकर सामने आया। इसी समय आत्माराम एंड संस, दिल्ली से योगेन्द्र कुमार लल्ला और श्रीकृष्ण के संपादन में प्रतिनिधि सामूहिक गान तथा प्रतिनिधि बाल सामूहिक गान शीर्षकों से महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

      बालसाहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में नए-नए प्रयोग किए, जिन्हें बच्चों ने बहुत पसंद किए। हरिकृष्ण देवसरे की 'नए परीलोक में' शारदा मिश्र की 'नीलम परी और मसहरी की देवी' तथा शिवमूर्ति सिंह वत्स की 'सुनहरी मछली' आदि पुस्तकों में परंपरागत लीक से हटकर बच्चों को नए चिंतन से जोड़ा गया।

     भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को बच्चों से विशेष लगाव था। उन्होंने बच्चों को स्वस्थ और सुरुचिपूर्ण बालसाहित्य प्रदान करने के उद्देश्य से प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर के सहयोग से चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की स्थापना की। जहाँ से आज भी अच्छा और स्तरीय बालसाहित्य प्रकाशित होता है। राष्ट्रीय बाल भवन, नई दिल्ली बच्चों को केन्द्र में रखकर अनेक गतिविधियाँ संचालित करता है। यहाँ से प्रकाशित,'अक्कड़ बक्कड़' पुस्तक के लेखक, चित्रकार, संपादक तथा संयोजक बच्चे ही होते हैं। तत्कालीन निदेशक डॉ. मधु पंत के कार्यकाल में राष्ट्रीय बाल भवन, नई दिल्ली ने अनेक वर्षों तक बालसाहित्य पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित की, जिसमें बालसाहित्य के लेखक, प्रकाशक, संपादक, बच्चे, अभिभावक और चित्रकार सब एक मंच पर उपस्थित होते थे तथा आपस में विचार-विमर्श करके बालसाहित्य को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करते थे। इस संगोष्ठी में प्रस्तुत किए गए आलेखों को पुस्तकाकार भी प्रकाशित किया जाता था। वहाँ से प्रकाशित 10 पुस्तकें आज भी हिंदी बालसाहित्य का प्रतिनिधित्त्व करती हैं।

     सन् 1957 में स्थापित नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली भी उच्चस्तरीय बालसाहित्य प्रकाशित करता है। सन् 2000 के बाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने राष्ट्रीय बालसाहित्य केंद्र की स्थापना की, जिसे सूचना व प्रलेखन, प्रशिक्षण व प्रचार-प्रसार तथा अनुसंधान व विकास नामक घटकों में विभाजित किया गया है। यहाँ से पहले पाठक मंच बुलेटिन नामक पत्रिका प्रकाशित होती थी जिसका नाम बदलकर अब रीडर्स क्लब बुलेटिन कर दिया गया है। राष्ट्रीय अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) नई दिल्ली पहले हर दूसरे वर्ष बालसाहित्य की राष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित करता था, परंतु लंबे समय से यह योजना बंद पड़ी है। पहले यहाँ से कई सुरुचिपूर्ण बालसाहित्य की पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं परंतु इधर उनका कोई भी बालसाहित्य का प्रकाशन देखने में नहीं आया है। एनसीईआरटी अब केवल पाठ्यपुस्तकों पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित किए हुए है। 

    आज के बालसाहित्य को सजाने और सँवारने में जहाँ पुरानी पीढ़ी के कुछ सक्रिय बालसाहित्यकारों का विशेष महत्त्व है वहीं नई पीढ़ी और दोनों के बीच के प्रतिभासंपन्न बालसाहित्यकारों ने नए प्रतीकों, नए बिम्बों तथा मौलिक भावनाओं से बालसाहित्य की नई जमीन खोजी है। पहले बालसाहित्य के चौबीस और छत्तीस पृष्ठों के ही संकलन ज्यादातर प्रकाशित होते थे परंतु अब इसमें व्यापक बदलाव आया है। मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, मेरे प्रिय बालगीत, मेरे प्रिय शिशुगीत तथा बच्चों की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, बालिकाओं की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ एवं पर्व और अवसर विशेष पर संकलित की गई रचनाओं के संकलन लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। सन 1975 में में पहली बार द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के बालगीतों का बृहद संकलन 'बालगीतायन' प्रकाशित हुआ था। इसके बाद लंबे समय तक ऐसा कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था परंतु इक्कीसवीं शताब्दी में ऐसे ढेर सारे बालोपयोगी संकलन प्रकाशित हुए हैं। जिनमें समकालीन बाल साहित्य का का प्रतिनिधित्त्व हुआ है।

    श्रीमती शकुंतला सिरोठिया का बाल संसार समग्र प्रकाशन की दृष्टि से एक अभिनव प्रयास है। बालसाहित्य लेखन के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ से बालसाहित्य भारती पुरस्कार से सम्मानित डॉ. श्रीप्रसाद की आ री कोयल, एक थाल मोती से भरा, आँगन के फूल फूल आदि 50 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। चंद्रपाल सिंह यादव मयंक की फुलवारी में सैर सपाटा करते हुए रंग बिरंगे फूल देखना बालसाहित्य की उपलब्धि है। अनेक लब्धप्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित तथा बालसाहित्य के प्रथम शोधकर्ता डॉ. हरिकृष्ण देवसरे बहता पानी कहे कहानी, संयुक्त राष्ट्र बच्चों के लिए, मुहावरों की कहानियाँ तथा कहावतों की कहानियाँ आदि गौरवपूर्ण पुस्तकें लिखकर अपना विशिष्ट स्थान बना चुके हैं। विनोदचंद्र पांडेय 'विनोद' की बालकवितांजलि, गौरव-गान, विष्णुकांत पांडेय की वीणा गाय हँसे विनोद तथा मेरे प्यारे-प्यारे बालगीत आदि महत्त्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हैं । शंकर सुल्तानपुरी 400 से अधिक पुस्तकें छप चुकी हैं। मेरी प्रिय बाल कविताएँ के कवि सूर्यकुमार पांडेय बालसाहित्य में नए प्रयोगों, बिम्बों के लिए विशेष रूप से चर्चित हैं । कौशलेंद्र पांडेय की कृति देशभक्त रोबोट बच्चों को नए-नए विषयों से परिचित कराती है। रवीन्द्र कुमार 'राजेश' की अपने-अपने मम्मी-पापा तथा कविताओं में पढ़ो कहानी जैसी कृतियाँ बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं। डॉ. सुरेन्द्र विक्रम की इक्कीसवीं सदी की ओर तथा सारा देश हमारा घर सहित एक दर्जन पुस्तकें छप चुकी हैं। 

     डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने अपने पोते-पोतियों के लिए काफी बाद में बालसाहित्य लिखा। उनकी जन्मदिन की भेंट, नीली चिड़िया तथा बंदरबाँट पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। नरेशचंद्र सक्सेना ने मौलिक लेखन के साथ-साथ लंबे समय तक बालदर्शन पत्रिका का संपादन भी किया था। बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक और रोचक नाटक लिखने में विनोद रस्तोगी सिद्धहस्त हैं। धर्मपाल शास्त्री ने खेलें कूदें नाचें गाएँ तथा मेरी गुड़िया कुछ तो बोल कृतियाँ देकर बालसाहित्य में मानक स्थापित किया है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के बालनाटक भों-भों खों-खों तथा लाख की नाक बच्चों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। 

    नारायणलाल परमार ने बच्चों के लिए कहानियों और कविताओं की अनेक रोचक पुस्तकों के साथ-साथ प्रेरक प्रसंगों पर आधारित ऐसी वाणी बोलिए पुस्तक का भी लेखन किया है। श्रीमती इंदिरा परमार बराबर बालसाहित्य सृजन करती रही हैं। अच्छी आदतें और स्वास्थ्य कृति के बाद निंदिया रानी उनका प्रमुख बालकाव्य संकलन प्रकाश में आया था। राजस्थान के मनोहर वर्मा सही अर्थों में बालसाहित्य के गौरव थे। उन्होंने बालहंस पत्रिका को अपने संपादकीय अनुभव से न केवल लाभान्वित किया बल्कि नई-नई योजनाएं बनाकर बालहंस को बालसाहित्य की मुख्यधारा में जोड़ने का भी प्रयास किया।

      बालसाहित्य पर शोध करने के साथ-साथ बाल साहित्य समीक्षा पत्रिका का लंबे समय तक संपादन करने वाले डॉ. राष्ट्रबंधु का बालसाहित्य सृजन हमें समय से जोड़ता रहा है। उनकी टेसू जी की भारत यात्रा में बच्चों को भारत का भ्रमण कराया गया है। बाबूलाल शर्मा 'प्रेम' ने बालसखा पत्रिका से अपने बालकाव्य सृजन की शुरुआत की थी। उन्होंने सैकड़ों बालकविताएँ लिखीं जो पत्र-पत्रिकाओं में बराबर प्रकाशित होती रहीं, मगर उनका कोई भी बच्चों की कविताओं का संकलन उनके जीवनकाल में नहीं छप सका था।

     बच्चों की 51 कविताएँ कृति पर हिंदी अकादमी, दिल्ली का पुरस्कार प्राप्त करने वाले रमेश कौशिक ने बच्चों के लिए कुछ रूसी कविताओं का अनुवाद भी किया है। बच्चों के लिए अनोखी कविताएँ लिखने वाले दामोदर अग्रवाल बालकाव्य में नए प्रयोगों, मौलिक उद्भावनाओं और बिम्बों के लिए हमेशा चर्चित रहे। उनकी चल मेरी नैया कागजवाली प्रमुख बालकाव्य कृति है उनकी कविताएँ नंदन, पराग और बालभारती पत्र-पत्रिकाओं में बराबर छपती रही हैं। डॉ. शेरजंग गर्ग ने बच्चों के लिए स्वस्थ हास्य लिखा है। उनके शिशुगीत बच्चों में बहुत लोकप्रिय रहे हैं। डॉ. श्याम सिंह 'शशि' ने आदिवासी बच्चों को लेकर कई पुस्तकें लिखी हैं। 

       चक्रधर नलिन ने मौलिक कविताएँ और कहानियों के अतिरिक्त बालसाहित्य पर अच्छे समीक्षात्मक निबंध भी लिखे हैं, जो उत्तरप्रदेश, हिंदुस्तानी, सम्मेलन पत्रिका तथा अतएव आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. सरोजिनी प्रीतम ने बालोपयोगी हास्य कहानियाँ लिखी हैं जिन्हें बालपाठक बहुत पसंद करते हैं। प्रयाग शुक्ल ने अपनी सशक्त रचनाओं से बालसाहित्य को नया चिंतन प्रदान किया है। सुंदरलाल 'अरुणेश' की फुलवारी में बाल साहित्य के अनेक फूल खिले हुए हैं। दिविक रमेश की कृति 'हाथी अगर खेलता होली' तथा 'बल्लू हाथी का बालघर' विशेष रुप से चर्चित कृतियाँ हैं।

       डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने बच्चों के लिए मनोहारी ग़ज़लें लिखी हैं, उनका संकलन 'नन्हीं ग़ज़लें' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। इस परंपरा को जहीर कुरेशी, सुरेश विमल, अहद प्रकाश तथा श्याम बेबस तथा रमेशराज आदि ने आगे बढ़ाया है। डॉ. रूपसिंह चंदेल ने बच्चों के लिए ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं। श्याम कुमार दास ने बांग्ला से हिंदी में बालसाहित्य की कई कृतियों के अनुवाद प्रस्तुत किए हैं। घमंडीलाल अग्रवाल ने बच्चों के लिए शताधिक पुस्तकें लिखी और संपादित की हैं। उनका एकांकी 'पापा-मम्मी पर मुकदमा' विशेष रुप से चर्चित रहा है। 'चाची और चुनौतियाँ' शीर्षक से प्रकाशित किशोरोपयोगी उपन्यास से चर्चा में आए विनायक जी 'नदिया और जंगल' तथा 'नदी किनारे वाली चिड़िया' जैसे सशक्त उपन्यास लिखकर आज भी चुनौती बने हुए हैं।

      प्रो. उषा यादव लंबे समय से बालसाहित्य सृजन कर रही हैं। उनकी लगभग 50 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। 'उसके हिस्से की धूपधूप' तथा 'लाखों में एक' उनके चर्चित बालउपन्यास हैं। कमलेश भट्ट 'कमल' वैसे तो ग़ज़लकार और कहानीकार के रूप में चर्चित हैं परंतु उन्होंने बच्चों के लिए भी महत्त्वपूर्ण साहित्य लिखा है। अज़ब ग़ज़ब और तुर्रम उनकी महत्त्वपूर्ण बालसाहित्य की कृतियाँ हैं। नागेश पांडेय 'संजय' ने बालसाहित्य पर शोध कार्य किया है। उनकी बालसाहित्य की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। 'टेढ़ा पुल' उनका महत्वपूर्ण बालउपन्यास है जिसका उड़िया भाषा में अनुवाद भी हुआ है। 

     अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन' ने विशेष रुप से बच्चों के लिए कई विधाओं में साहित्य सृजन किया है। 'बंटी का कंप्यूटर', 'दादी की दादी' आदि उनकी चर्चित कृतियाँ है। डॉ० भैरूलाल गर्ग बालवाटिका पत्रिका के संपादक हैं। उनके कई बालोपयोगी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। रमाशंकर ने वैज्ञानिक बालसाहित्य लिखकर ख्याति अर्जित की है। 'आज का कर्ण' और 'वृक्ष मित्र' उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। बलराम अग्रवाल ने बच्चों के लिए कहानियाँ और एकांकी लिखे हैं उनका 'दूसरा दिन' कहानी संग्रह तथा 'ग्यारह अभिनेय बाल एकांकी' विशेष रुप से चर्चित रहे हैं। डॉ. मुल्ला आदम अली ने बच्चों के लिए कहानियाँ और कविताएँ को लिखी है उनका 'नन्हा सिपाई' बाल कहानी संग्रह तथा 'छोटी सी पहल' बाल कविता संग्रह विशेष रूप से चर्चित हैं। भगवती प्रसाद द्विवेदी का बालसाहित्य लेखन में विशेष स्थान है। वे गद्य और पद्य दोनों विधाओं में समान रूप से लिखते हैं। 'जंगल में मंगल' तथा 'रसीले नींबू' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं।

       डाॅ. मोहम्मद अरशद खान बालसाहित्य सृजन में एक ऐसा नाम है जिसने थोड़े ही समय में अपार ख्याति अर्जित की है। 'किसी को बताना मत', 'इन्द्रधनुष सतरंगा' उनकी चर्चित कृतियाँ हैं। डॉ. साजिद खान भी लगातार उत्कृष्ट बालसाहित्य लिखकर चर्चा में हैं। आशीष शुक्ला की उल्लेखनीय कृतियों में 'बूढ़ा एलियन', 'सपनों वाला तकिया' तथा 'बालबगीचा' आदि बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं। बालकाव्य लेखन में नए बिम्बों और प्रतीकों से लबरेज रचनाएँ देने वालों में हरीश निगम, रमेश चंद्र पंत, देवेन्द्र कुमार, हरेराम राय हंस, शिवचरण चौहान, राजा चौरसिया, श्याम सुशील, रमेश आजाद, जगदीश चंद्र शर्मा, अरनी राबर्ट्स आदि महत्त्वपूर्ण हैं। 

      बालसाहित्य लेखन के क्षेत्र में महिला साहित्यकारों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। बाल कहानियाँ और दूरदर्शन पर अनेक धारावाहिकों की लेखिका विभा देवसरे ने विपुल मात्रा में बालसाहित्य सृजन किया है। डॉ. मधु पंत राष्ट्रीय बाल भवन, नई दिल्ली की निदेशक रही हैं, उन्होंने अपने कार्यकाल में बालसाहित्य को बहुत बढ़ावा दिया है। उनकी कई बालोपयोगी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है। इनके अतिरिक्त उषा सक्सेना, शकुंतला वर्मा, मृणालिनी श्रीवास्तव, वसुधा शर्मा, रेखा जैन, उषा महाजन, विजय गुप्ता, शांति अग्रवाल, सुरेखा पाणंदीकर, मनोरमा जफ़ा, मनोरमा श्रीवास्तव, रंजना सक्सेना, ऋचा कुलश्रेष्ठ, अलका पाठक, कमल मुसद्दी, कृष्णा नागर, बानो सरताज, पद्मा चौगाँवकर, मालती शर्मा, विमला भंडारी, विमला रस्तोगी, आकांक्षा यादव, कुसुमलता सिंह, नीलम राकेश, पवित्रा अग्रवाल, प्रीति प्रवीण खरे, कीर्ति श्रीवास्तव, मालती बसंत, शांति अग्रवाल, सरोजिनी प्रीतम, तथा सरोजिनी कुलश्रेष्ठ आदि ने उत्कृष्ट बालसाहित्य सृजन किया है। 

      इसके अतिरिक्त भी डॉ. अजय प्रसून, कलीम आनंद, प्रमोद जोशी, धीरेंद्र कुमार यादव, सत्यदेव सवितेन्द्र, सुधीर सक्सेना सुधि, कमल सौगानी, राजकुमार जैन' राजन, अमरनाथ शुक्ल, कमलेश द्विवेदी, चित्रेश, अनुज प्रताप सिंह, राजनारायण चौधरी, रामकुमार गुप्त, डाॅ. दिनेश चमोला, डॉ. अजय जनमेजय, अश्वघोष, आशा सैनी, ओमप्रकाश कश्यप, कल्पनाथ सिंह, गोविंद भारद्वाज, गोविंद शर्मा, चंद्र मोहन दिनेश, त्रिलोकसिंह ठकुरेला, डॉ. मुल्ला आदम अली, बद्री प्रसाद वर्मा अनजान, डॉ. विकास दवे आदि ऐसे नाम हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण बालसाहित्य लिखा है। (यह सूची बहुत लंबी हो सकती है, विस्तार भय से इसे आगे नहीं बढ़ाया गया है। क्षमायाचना सहित।)

      इस प्रकार यह सर्वमान्य सत्य है कि हिन्दी बालसाहित्य की एक समृद्ध परंपरा रही है। इसने धीरे-धीरे ही सही लेकिन निश्चित रूप से साहित्य की एक स्वीकृत विधा सहित अपनी पहचान बनाई है। बालसाहित्य लेखन की परंपरा में अनेक बदलाव भी आए हैं। समस्त विधाओं जैसे- कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, के साथ-साथ बालजीवनियाँ, चुटकुले, पहेलियाँ तथा वैज्ञानिक बालसाहित्य आदि का विपुल भंडार भरा पड़ा है। इसके बावजूद आज इक्कीसवीं सदी में बच्चों की जनसंख्या को देखते हुए और स्तरीय बालसाहित्य की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इसका कारण यह है कि चूँकि साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिए समाज में जो कुछ भी घटित हो रहा है, साहित्य में उसका प्रतिफल आवश्यक है। बालसाहित्य इसका अपवाद नहीं है।

      यह बिलकुल सत्य है कि आज जो बालसाहित्य लिखा जा रहा है उसमें विविधता है, संभावनाओं की तलाश है तथा बच्चों को कुछ नया देने की कोशिश है। अंत में हम पाश्चात्य समीक्षक वसीली सुखोक्लीन्सकी के बालसाहित्य के प्रति उद्गारों से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कह सकते हैं कि- "बालसाहित्य बच्चों के लिए अजीबोगरीब, रोमांचक तथा प्रेरक घटनाओं का विवरण ही नहीं होता है अपितु उनके लिए तो यह एक पूरा संसार होता है जिसमें वे रहते हैं, संघर्ष करते हैं, बुराई का अपनी अच्छाई से मुकाबला करते हैं। कथा-कहानियों में बच्चे की आत्मिक शक्ति को शब्दों में अभिव्यक्ति मिलती है, वैसे ही जैसे खेलकूद में गति और संगीत में धुन उसे व्यक्त करती है। बच्चा कहानी सुनना ही नहीं चाहता, बल्कि सुनाना भी चाहता है, जैसे कि वह गीत सुनना ही नहीं चाहता बल्कि गाना भी चाहता है, खेल देखना ही नहीं चाहता, खेलना भी चाहता है।"

- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज
लखनऊ (उ.प्र)-226018
मो.नं.- 08960285470

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