Dr. Ramkumar Verma, a pioneer of Hindi one-act plays and a noted Chhayavadi poet, made a remarkable contribution to children’s literature. His poems, songs, and plays combined entertainment with moral values, shaping young minds with culture, creativity, and national spirit.
Dr. Ramkumar Verma and Hindi Children’s Literature
हिन्दी बालसाहित्य का स्वर्णिम अध्याय: डॉ. रामकुमार वर्मा
हिन्दी बालसाहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि बच्चों के व्यक्तित्व, संस्कार और भविष्य के निर्माण का मजबूत आधार है। इस धारा में छायावाद के कवि एवं हिंदी एकांकी के जनक डॉ. रामकुमार वर्मा का योगदान अविस्मरणीय है। उनकी रचनाएँ बच्चों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर लिखी गईं, जिनमें सरल भाषा, मनोरंजन और शिक्षण का अद्भुत संगम मिलता है। बालगीतों, कविताओं और नाटकों के माध्यम से उन्होंने न केवल राष्ट्रीयता और संस्कृति का संदेश दिया, बल्कि बालसाहित्य को अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से भी जोड़कर उसे नई दिशा प्रदान की।
हिन्दी बालसाहित्य और डॉ. रामकुमार वर्मा
बच्चों को दृष्टि में रखकर जब हम बालसाहित्य पर विचार करते हैं तो उसके दो रूप हमारे सामने आते हैं। पहला - वह बालसाहित्य जिसका सृजन बच्चों के लिए बड़ों द्वारा किया जाता है। दूसरा- वह बालसाहित्य जिसका सृजन बच्चों द्वारा किया जाता है तथा उसमें बालसाहित्य कहलाने के गुण मौजूद रहते हैं। बालसाहित्य का तात्पर्य यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह बचकाना साहित्य है। जैसा कि भ्रमवश कुछ दिग्गज साहित्यकार आज भी उसका अर्थ यही लगाते हैं।
इक्कीसवीं सदी में बालसाहित्य ने बहुत प्रगति की है, और इस बात को सिद्ध कर दिया है कि बालसाहित्य से सीधा तात्पर्य है- बच्चों का अपना साहित्य। जो साहित्य बच्चों के मन और मनोभावों को परखकर उन्हीं की भाषा में, उन्हीं के स्तर पर उतरकर लिखा गया हो, सही अर्थों में वही वास्तविक बालसाहित्य है। यह तथ्य भी निर्विवाद सत्य है कि बालसाहित्य सृजन कोई आसान खेल नहीं है। इस क्षेत्र में वही लोग सफल होते हैं जो अपने अहम् को आत्मसात करके बच्चों से सीधा संबंध स्थापित करते हैं।
हिंदी बालसाहित्य आज विभिन्न सोपानों से गुजरता हुआ इस अवस्था में आ गया है कि न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों/ संगोष्ठियों में इसकी चर्चा हो रही है। बाल साहित्य का का विधिवत इतिहास भी लिखा जा रहा है। एक शताब्दी से अधिक की लंबी यात्रा में हिचकोले खाता हुआ हिंदी बालसाहित्य त्रिविधा, त्रिधारा, त्रिपदा, त्रिसंध्या, त्रिदिशा, त्रिवर्णा, त्रिसाम्या और त्रिसंगम से गुजरकर त्रिवेणी की याद दिलाता हुआ त्रिपथगा का परचम लहरा रहा है। (पुस्तकें राष्ट्रीय बालभवन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं जिनमें हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के बालसाहित्य की विधिवत जानकारी विस्तार से प्रदान की गई है।)
हिन्दी बालसाहित्य की इस अविराम यात्रा में छायावादी कवियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। चाहे महादेवी वर्मा हों या सुमित्रानंदन पंत, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हों या जयशंकर प्रसाद, सभी ने बालसाहित्य की समिधा में अपनी-अपनी आहुतियाँ दी हैं। छायावाद के ही एक अन्य कवि और हिंदी एकांकी के जनक डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी बालसाहित्य को गौरव प्रदान किया है। वे बालसाहित्य को सर्वमान्य ही नहीं सर्वव्यापक बनाने की आवश्यकता पर बल देते थे। सन् 1962 में गवर्नमेंट सेंट्रल पेडागाॅजिकल इंस्टिट्यूट, इलाहाबाद द्वारा आयोजित बालसाहित्य रचनालय में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने बालसाहित्य को राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय उद्देश्य से जोड़ा था। उनका स्पष्ट कहना था कि-
"बालसाहित्य का महत्त्व सर्वमान्य है। बालक केवल राष्ट्र की ही निधि नहीं है, उसका कार्यक्षेत्र देश से बाहर भी होगा। उसे राष्ट्रदेवता के पुनीत कर्त्तव्य का पालन करना है और साथ ही सच्ची मानवता का प्रतीक भी बनना है। इस हेतु बालसाहित्य का उद्देश्य द्विस्तरीय है :- राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय।"
डॉ. वर्मा मानते थे कि बालसाहित्य बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बचपन में माँ, दादी और नानी द्वारा सुनाई गई कहानियाँ उसके व्यक्तित्व को सही दिशा प्रदान करती हैं, इसीलिए उन्होंने बालसाहित्य की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि- "देश को ऐसे बालसाहित्य की आवश्यकता है जिससे माताएँ बच्चों को खिलाते समय, नहलाते समय, अथवा सुलाते समय गुन-गुनाकर बच्चों के साथ-साथ अपना भी स्वस्थ मनोरंजन कर सकें।" (देवेन्द्रदत्त तिवारी द्वारा संपादित : बालसाहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: पृष्ठ 27)
यह निर्विवाद सत्य है कि तथ्यत: मनोरंजन बालसाहित्य की पहली शर्त है। अगर बालसाहित्य मनोरंजक नहीं होगा तो वह उबाऊ हो जाएगा और उबाऊ बालसाहित्य नकारने में बच्चे जरा भी संकोच नहीं करेंगे। इसीलिए डॉ० वर्मा का स्पष्ट मानना था कि- *"बालसाहित्य द्वारा बच्चे का मनोरंजन अभीष्ट है किंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी जिज्ञासाएँ भी प्रबल होती हैं। उन्हें यथोचित तीव्रता प्रदान करना बालसाहित्यकार का राष्ट्रीय ही नहीं मानवीय कर्त्तव्य है।" (देवेन्द्रदत्त तिवारी द्वारा संपादित : बालसाहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: पृष्ठ 27)
वस्तुतः बालसाहित्य देखने में जितना सरल लगता है, सृजनात्मकता के स्तर पर वह उतना ही जटिल होता है। बच्चों के मन और मनोभावों को परखना सबके बस की बात नहीं होती है। विषय का आरंभ तथा प्रस्तुतीकरण से लेकर समापन तक रचना की कसावट ही स्वस्थ बालसाहित्य की कसौटी है, इसीलिए डॉ. रामकुमार वर्मा कहते हैं- "बालसाहित्य के प्रस्तुतीकरण में शिथिलता नहीं आनी चाहिए। उसे प्रभावोत्पादक बनाने के लिए बच्चे की मनोवैज्ञानिक क्षमताओं तथा जिज्ञासाओं को प्रेरित करने का प्रयत्न मनोरंजन के माध्यम से होना अपेक्षित है।" (देवेन्द्रदत्त तिवारी द्वारा संपादित : बालसाहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: पृष्ठ 28)
सन् 1962 में इलाहाबाद में संपन्न बालसाहित्य रचनालय को अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए डॉ. रामकुमार वर्मा ने बालसाहित्य की उपादेयता को निर्विवाद बताते हुए कहा था कि- "बालसाहित्य की उपादेयता निर्विवाद है, किंतु हमारे देश में उसका सुचारु निर्माण संभव नहीं हुआ है। इस खेदजनक अभाव की पूर्ति के लिए यदि बालोपयोगी पत्र- पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का प्रकाशन राष्ट्र-शक्ति अथवा संपत्ति के द्वारा हो तो बच्चों की सेवा कर हम अपनी अमूल्य निधि को सुरक्षित रखेंगे। इस दृष्टि से बालसाहित्य रचनालय को मैं ज्ञान-यज्ञ समझता हूँ और उसकी सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।" हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक) :अप्रैल - जून 2015: पृष्ठ 245
वैसे तो साहित्य की कोई भी सीमा नहीं है, उसे कभी सीमा में बाँधा भी नहीं जा सकता है, परंतु डॉ. रामकुमार वर्मा बालसाहित्य को सीमा में बाँधने के पक्षधर हैं। इसके पीछे उनकी अपनी सोच है जो सार्थक प्रतीत होती है। उन्होंने निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत अपनी बात रखी है-
- बालसाहित्य ऐसा हो जो बच्चों में सहज, स्वाभाविक और सात्विक जिज्ञासा उत्पन्न करे। स्वप्न देश की घटनाएँ स्वस्थ जिज्ञासाएँ नहीं हैं। स्वस्थ जिज्ञासा प्रेरित करने के लिए पाठ्यपुस्तकों का संकलन, विज्ञान, जीवनवृत्त, इतिहास आदि से किया जाए तो हितकर होगा।
- बालसाहित्य जिज्ञासा की तृप्ति के लिए भी उपादेय हो।
- उसके द्वारा ( बालसाहित्य के द्वारा) बच्चों में भावी नागरिकता की भावना का उदय हो। हमारे आज के अधिकतर छात्र अपनी संस्कृति की अमूल्य निधियों से नितांत अपरिचित हैं। लेखक का राष्ट्रीय दायित्व है कि वह केवल आज की ही नहीं भावी राष्ट्रीयता का पूर्वाभास प्रस्तुतकर बच्चों का मानस निर्माण करें। बच्चों में अपनी भाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जाए और साथ ही साहसिकता, सहिष्णुता आदि उदात्त गुणों का समावेश उनके चरित्र में किया जाए।
- बालसाहित्य में प्रभावों एवं संस्कारों का समन्वय हो। हमारा देश विभिन्न धर्मों, विभिन्न जातियों का देश है। इस दृष्टि से प्रभावों का संस्कारों की अपेक्षा अधिक महत्त्व है। साहित्य की प्रभावोत्पादकता इसी में है कि वह संस्कारों का परिष्कार कर सके।
- बालसाहित्य में अनुकूल प्रभावों को समाविष्ट करने के लिए महापुरुषों के जीवनवृत्त से प्रचुर मात्रा में उपयोगी सामग्री संकलित की जानी चाहिए।
उपर्युक्त इन तथ्यों से स्पष्ट है कि बालसाहित्य के संबंध में डॉ. रामकुमार वर्मा की अवधारणा सबसे अलग थी। वे किसी भी स्तर पर बालसाहित्य को न तो सतही समझते थे और न ही उसकी अवहेलना के पक्षधर थे। हाँ, उनकी चिंता यह अवश्य थी कि स्वस्थ और सार्थक बालसाहित्य का सृजन अपेक्षाकृत कम हुआ है। उनकी सोच थी कि- "बालसाहित्य द्वारा बच्चों में भावी नागरिकता की भावना का उदय हो। हमारे आज के अधिकतर छात्र अपनी संस्कृति की अमूल्य निधियों से अपरिचित हैं। लेखक का राष्ट्रीय दायित्व है कि वह केवल आज की ही नहीं अपितु भावी राष्ट्रीयता का पूर्वाभास प्रस्तुतकर बच्चों का मानस निर्माण करें। बच्चों में अपनी भाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न किया जाए और साथ ही साहसिकता, सहिष्णुता आदि उदात्त गुणों का उनके चरित्र में किया जाए।" - हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक) :अप्रैल - जून 2015: पृष्ठ 113
डॉ. वर्मा बालसाहित्य में भारतीय संस्कृति को विशेष रूप से उजागर करने के पक्षधर थे। इसका कारण यह है कि हमारे देश में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है इसलिए हमारी भावी पीढ़ी को को उनके बारे में अवश्य जानना चाहिए। यह कार्य बालसाहित्य के माध्यम से हो तो बच्चे उसका अधिक से अधिक लाभ उठा सकते हैं। यह सच है कि विज्ञान हमारे जीवन का आवश्यक अंग है परंतु भारतीय संस्कृति और उससे मिलने वाली प्रेरणा का भी हमें अच्छी तरह से स्मरण होना चाहिए। उनका स्पष्ट मानना था कि- "विज्ञान तो सर्वकालीन, सार्वभौमिक है किंतु दर्शन, धर्म और कला विशेष अथवा देश विशेष की अपनी छाप होती है।अतः विदेशी साहित्य अथवा कला से अपने बालसाहित्य की पुष्टि हेतु सामग्री, आदर्श तथा मान्यताएँ ग्रहण करते समय हमें अपनी सांस्कृतिक तथा राजनीतिक मान्यताओं एवं सामाजिक वस्तुस्थिति का स्पष्ट ध्यान रखना चाहिए और उन्हीं प्रभावों को अपनाना चाहिए जो हमारी मान्यताओं एवं वस्तुस्थिति में सामंजस्य रखते हों तथा जिन्हें हम सहज ही आत्मसात कर सकें। इस संबंध में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि अन्य देश संस्थाओं के देश हैं जबकि हमारा देश महापुरुषों का देश है। एक ही युग में अनेक महापुरुषों का उदय हमारी विशेषता है। अस्तु, हमारे बालसाहित्य में अनुकूल प्रभावों को समाविष्ट करने के लिए महापुरुषों के जीवन-वृत्त से प्रचुर मात्रा में उपयोगी सामग्री संकलित की जानी चाहिए।" - हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक) :अप्रैल - जून 2015: पृष्ठ 141
बालसाहित्य के बारे में अपने इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर डॉ. रामकुमार वर्मा ने सन् 1928 के 1932 के बीच में बच्चों के लिए अनेक रचनाएँ लिखीं। उनकी बालोपयोगी कविताएँ और तत्कालीन प्रमुख बालपत्रिकाओं- बालसखा, शिशु, चमचम, बालबोध तथा मनमोहन आदि में प्रकाशित होती थीं। उनके बालगीतों की पुस्तक ' शिशु-शिक्षा ' पाँच भागों में प्रकाशित हुई है। उनका एक मनोरंजक बालगीत है-
पंडित जी है भागे जाते, कितनी लंबी दौड़ लगाते।
फूल रही है उनकी छाती, चोटी पीछे उड़ती जाती।
जाते हैं अपनी ससुराल, निज कंधे पर कपड़ा डाल।
जूता अपने हाथ उठाए, डरते कहीं न वह घिस जाए। - शिशु: नवंबर 1928
हिंदी बाल कविता के आरंभिक दौर में ऐसी मजेदार और नटखटपन से भरी हुई कविता पढ़कर सचमुच आश्चर्य होता है। यह रचना चित्र कविता का भी एक सशक्त उदाहरण है पंडित जी का भागना चोटी का लहराना उनके हाथ में जूते उठा कर चलना और सबसे मजेदार बात की जूता कहीं घिस ना जाए कंजूस पन का अद्भुत नमूना है। ऐसी कविताएँ न केवल बच्चे मन से पढ़ते हैं बल्कि जल्दी ही उनकी जुबान पर भी चढ़ जाती है। डॉ वर्मा की अनेक कविताएँ कई वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं किसानों को लेकर लिखी गई एक सीधी और सरल कविता बच्चों में बहुत लोकप्रिय है-
हे ग्रामदेवता! नमस्कार
सोने-चाँदी से नहीं किंतु, तुमने मिट्टी से किया प्यार।
हे ग्रामदेवता! नमस्कार
जन कोलाहल से दूर, कहीं एकाकी सा सिमटा निवास
रवि, शशि का उतना नहीं, कि जितना प्राणों का होता प्रकाश
श्रम-वैभव के बल पर करते हो, जड़ में चेतन का विकास।
दानों-दानों से फूट रहे, सौ-सौ दानों के हरे हास
यह है न पसीने की धारा, यह गंगा की है धवल धार
हे ग्रामदेवता! नमस्कार।
डॉ. रामकुमार वर्मा की प्रार्थनापरक और देशभक्तिपूर्ण कविताएँ भी बच्चों ने बहुत पसंद की हैं। इसमें कहीं-कहीं छायावाद का प्रभाव अवश्य परिलक्षित होता है, परंतु आगे अर्थ-विस्तार देती हुई कविता ईश्वर की शरण में जाकर निश्चिंतता का बोध कराती है-
करुणामय, इस शुष्क हृदय में
भर दो सरस सुधा धारा।
मेरे भाग्य-गगन में चमके
मेरी उन्नति का तारा।
मेरे तन के रोम-रोम में
शक्ति सिन्धु हो लहराता।
दिव्य रूप से सजी रहे नित्य
भाग्यवती भारत माता।
हम न भूलें तुम्हें रघुवर
करते नित्य तुम्हारा ध्यान।
तुम भी हमें भुला मत देना
यही माँगते हैं वरदान।
डॉ. वर्मा जिस दौर में बालसाहित्य का सृजन कर रहे थे, उसमें राष्ट्रभक्ति जन-जन में हिलोरे मार रही थी। ईश्वर के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा थी। बच्चे भी उस ईश्वर को कृतज्ञतापूर्वक याद कर अपने को गौरवशाली महसूस करते थे-
प्रभुवर ! सूरज को चमकाकर
रोज सवेरे देते भेज ।
काम घूमने का सिखलाकर
देते हो उसमें भी तेज।
इसी तरह मुझको भी अब सब
काम खूब सिखला देना।
मुझ में अपना तेज डालकर
दुनिया में चमका देना।
- बालगीत साहित्य : इतिहास एवं समीक्षा :पृष्ठ 172
आकाश, चाँद-तारे, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि अनेक विषयों में बच्चों की विशेष रूचि नहीं है, इसीलिए वे सीधे उनसे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। चंदा को मामा, सूरज को भैया, हाथी को दादा, कोयल को दीदी बनाने की कल्पना में कला का बड़ा अद्भुत आत्मीय चित्र उभरकर सामने आता है।
डाॅ. वर्मा अपनी कविता में तारों की उपमा मोती से देते हैं। उन्हें लगता है कि आकाश में इतने सारे फूल कहाँ से आ गए हैं, तारों का हँस-हँसकर बच्चों से यह कहना कि हम तो तुमसे ऊपर रहते हैं, बच्चों के अंतः संसार का एक अद्भुत चित्र है। बल्कि अगर इसे दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें बालमनोविज्ञान की अनुपम सूझबूझ है-
किसने ये मोती बिखराए
कितने फूल कहाँ से आए?
चमक रहे हैं कितने सारे
चंदा के हैं राज दुलारे।
हँस-हँसकर वे क्या कहते हैं
हम तुमसे ऊपर रहते हैं ।
- शिशु-शिक्षा पुस्तक की तारे शीर्षक कविता
डॉ. वर्मा ने बच्चों के लिए ऐसी अनेक कविताएँ लिखी हैं जिन्हें पढ़कर बच्चे लोटपोट हो जाते हैं। गधा सदैव से मूर्खता का प्रतीक रहा है, परंतु उसी गधे के प्रति डॉ. वर्मा का अंदाज-ए-बयाँ बिल्कुल ही निराला है-
किसने कहा 'गधा' मुझसे मैं, यह न कभी सुन सकता हूँ ।
यह न समझ बैठे कोई भी मैं तो यूँ ही बकता हूँ ।
किसका क्या घटता है जो मैं, रहता हूँ मुँह लटकाए
क्यों कोई मुझसे बोले कुछ, क्यों मेरे सम्मुख आए।
मैं तो अपने ही विचार में रहता हूँ, बिल्कुल ही चूर
मामूली दुनिया की चिंताओं से रहता हूँ हरदम दूर।
- बालसखा : मई 1929
कविताओं की अतिरिक्त अतिरिक्त डॉ. रामकुमार वर्मा ने बच्चों के लिए एकांकी/नाटक भी लिखे हैं। ऐतिहासिक विषयों को आधार बनाकर नाटक लिखने में में डॉ. वर्मा को महारत हासिल है। उनके कई बालोपयोगी नाटक पाठ्यपुस्तकों में तथा अनेक संकलनों में संकलित किए गए हैं। 'बच्चों के 100 नाटक' पुस्तक में डॉ. वर्मा के दो नाटक 'छींक' तथा 'तैमूर की हार' संकलित किए गए हैं। तैमूर की हार लंबे समय तक उ.प्र. शिक्षा विभाग द्वारा हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता रहा है।
'पृथ्वी का स्वर्ग' नाटक भी उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम में तथा 'विजय - पर्व' एकांकी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली के पाठ्यक्रम में निर्धारित रहे हैं। उनका एक और बालोपयोगी नाटक 'मालिक की सेवा' बालसुलभ जिज्ञासाओं के कारण आज भी बालपाठकों के गले का कंठहार है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपनी रचनाओं से बालसाहित्य को सजाया और सँवारा है। उनकी तमाम बालोपयोगी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं परंतु विडंबना यह है कि बड़ों के लिए लिखने वाले चर्चित रचनाकारों के जो समग्र संकलन प्रकाशित किए जाते हैं उनमें उनके बालसाहित्य की चर्चा प्रायः नहीं होती है। हालाँकि अब स्थितियों में थोड़ा बदलाव आया है, और रचनाकारों की बालोपयोगी रचनाएँ भी उनके समग्र में प्रकाशित होकर सामने आ रही हैं। मेरा सुझाव है कि द्विवेदी युगीन प्रकाशित बाल-पत्र-पत्रिकाओं में अगर डॉ. रामकुमार वर्मा के प्रकाशित बालोपयोगी साहित्य को संकलित करके अलग से पुस्तक के रूप में उन्हें प्रकाशित किया जाए तो यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम
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