Shambhu Prasad Srivastava, a renowned writer and editor, greatly enriched Hindi children’s literature through magazines like Shersakha and Rani Bitiya. His works blended imagination, learning, and values, inspiring generations of young readers.
Shambhu Prasad Srivastava: A Pioneer of Hindi Children’s Literature
हिंदी बाल साहित्य के अग्रदूत : शंभू प्रसाद श्रीवास्तव
शंभू प्रसाद श्रीवास्तव हिंदी बाल साहित्य के ऐसे रचनाकार और संपादक थे जिन्होंने शेरसखा और रानी बिटिया जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से बाल साहित्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। उनकी रचनाएँ बालमनोविज्ञान पर आधारित होकर बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उनके नैतिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक विकास की दिशा तय करती हैं।
शंभू प्रसाद श्रीवास्तव
'शेरसखा' और 'रानी बिटिया' बालपत्रिकाओं के संपादक
हिन्दी बाल पत्रकारिता के इतिहास में यह एक महत्त्वपूर्ण घटना है कि बाल साहित्यकार शंभू प्रसाद श्रीवास्तव ने बच्चों के लिए कलकत्ता से प्रकाशित 'शेरसखा' पत्रिका का पाँच वर्षों तक तथा वाराणसी से प्रकाशित 'रानी बिटिया' पत्रिका का दो वर्षों तक सफल संपादन किया। साथ ही साथ उन्होंने बच्चों के लिए विभिन्न विधाओं में लगभग दो हजार से अधिक रचनाओं का सृजन भी किया। खेद की बात है कि ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्रीवास्तव जी को आज की पीढ़ी के बाल साहित्यकार जानते तक नहीं हैं।
यह कहना बड़ा आसान है कि बालसाहित्य दोयम दर्जे का लेखन है, बचकाना साहित्य है, इसमें कोई गंभीरता नहीं है परंतु जिन लोगों ने बालसाहित्य सृजन करते हुए अपने को समर्पित कर दिया, उनके योगदान को देखते हुए ये सारी बातें कहना-सुनना बेमानी लगती हैं। बालसाहित्य गुणवत्ता, परिमाण और औचित्य तीनों दृष्टियों से बच्चों के लिए उपयोगी, महत्त्वपूर्ण और दिशावाहक है।
बालसाहित्य में सृजन और संपादन दोनों दृष्टियों से गंभीरता से काम करने वाले श्रीवास्तव जी ने गद्य और पद्य दोनों में समान रूप से लेखन कार्य किया है। विपुल मात्रा में लेखन करने के बावजूद उनकी दो दर्जन बालोपयोगी पुस्तकों को ही प्रकाशन का अवसर मिला। इनमें से कुछ प्रमुख और उल्लेखनीय हैं- बजे एकता का एकतारा (बाल कविताएँ), हँसते-हँसते जीना सीखें (बाल कविताएँ), प्रेरक पद्यकथाएँ (बालोपयोगी कथाएँ), हम बेटियाँ इस देश की (बालकविताएँ), कथा मुक्तावली (बाल कहानियाँ), अचंभों का जुलूस (बालउपन्यास), हम चमन के फूल (बालनाटक), अंगों की हड़ताल (बालनाटक), मैं भी बनूँ महान (गद्य-पद्य कथाएँ), रसमलाई (शिशुगीत संग्रह), क से कविता ग से गीत (बालकविताएँ), ग्लोब के मुँह में टाॅफी (बालकहानियाँ), गणेश-कथा (बालनाटक), कह गए संत सुजान (किशोरोपयोगी गीत), हमें नया समाज दो (बालकविताएँ), देशराग (बालकविताएँ), मीठे हैं सारे त्योहार (बालकविताएँ), आओ चुग लें मोती सारे (बालकविताएँ), टाफी से भी मीठे गीत (बालकविताएँ), अक्कड़-बक्कड़-बम्बे-बो (शिशु गीत), चूँ-चूँ (शिशु गीत), अल्लो-बल्लो (बाल कथाएँ), बहुत दिनों की बात है (बाल कथाएँ), सरस कहानियाँ-दो भागों में (बाल कथाएँ) आदि।
श्रीवास्तव जी ने अपने नियमित लेखन की शुरुआत सन् 1951 से की थी। आपकी पहली रचना 'मगर और सियार' (पद्यकथा) सन् 1954 में बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका बालभारती में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर अपने जीवन काल तक (लगभग 40 वर्षों तक) उनकी रचनाएँ नंदन, पराग, बालक, मनमोहन, जीवन शिक्षा, मेला, बालमेला, नन्हें तारे, बालहंस, शेरसखा आदि बालपत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहीं।
श्रीवास्तव जी सफल बालसाहित्यकार, कुशल संपादक के साथ-साथ अद्भुत चित्रकार भी थे। उनकी हस्तलिपि इतनी सुन्दर थी कि एक-एक अक्षर मोती जैसे जड़ा हुआ लगता था। मेरा उनसे लंबे समय तक पत्राचार रहा है। हिन्दू-धर्म और संस्कृति के वैज्ञानिक विवेचन पर आधारित सोलह पुस्तकों का उन्होंने लेखन, चित्रांकन, संपादन और सामग्री-संकलन बड़े परिश्रम से किया था 'हिन्दू-धर्म का वैज्ञानिक आधार' बहुरंगी पुस्तक में उन्होंने बच्चों के लिए रोचक और जानकारी से परिपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है।
शेरसखा पत्रिका में अपने संपादन के दौरान श्रीवास्तव जी ने कई अद्भुत प्रयोग किए। सन् 1965 में शेरसखा का जो 'विश्व बालक अंक' निकला था, वह आज भी बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर बना हुआ है। किसी भारतीय भाषा में पहली बार 40 प्रमुख देशों के के बालकों के दैनंदिन जीवन, इतिहास-भूगोल, दर्शनीय स्थल, कला-संस्कृति, पशु-पक्षी, पर्व-त्यौहार आदि की प्रमाणिक जानकारी प्रस्तुत की गई थी। यह एक अत्यंत श्रमसाध्य शोधकार्य था। आपने 'नन्हा पर्यटक: अपोलो के देश में' नामक शीर्षक से 11 वर्षीय बालक द्वारा लिखित अमेरिका यात्रा का रोचक विवरण तथा 'अलविदा आर्तेक' नामक शीर्षक से 12 वर्षीय बालक द्वारा लिखित रूस यात्रा के रोचक विवरण का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद-संपादन और चित्रांकन प्रस्तुत करके भारतीय बालकों से उनका परिचय कराया था।
वाराणसी से प्रकाशित 'रानी बिटिया' पत्रिका का संपादन करते हुए उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा पर अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक सामग्री प्रस्तुत की थी। बालिकाएँ किसी भी स्तर पर बालकों से कम नहीं है, इसका अहसास रानी बिटिया पत्रिका के अंको को पढ़ते हुए आसानी से लगाया जा सकता था। तत्कालीन बालसाहित्य सृजन और संपादन पर अपना अनुभव साझा करते हुए श्रीवास्तव जी ने आज से लगभग 35 वर्षों पूर्व दि०-11 फरवरी 1984 को लिखे पत्र में मुझे बताया था कि-
"तब फुटपाथी बालसाहित्य की गंगा में बाढ़ नहीं आई थी, अतः बच्चे अच्छी पत्रिकाओं में जो कुछ छपता था, उसे ही चाव से पढ़कर अपनी भूख शांत करते थे। बच्चे हमेशा से अच्छी और रोचक सामग्री पढ़ना चाहते रहे हैं। उन्हें रोचकता और नवीनता दोनों समान रूप से आकर्षित करती हैं । कथा शैली में कही गई बातों को वे रुचिपूर्वक पढ़ते हैं। बड़े प्रतिष्ठानों से प्रकाशित होने वाली बालपत्रिकाओं की रीति-नीति विशुद्ध व्यावसायिक है, उनसे बालसाहित्य का कुछ खास लेना-देना नहीं होता है। वे अपनी विशिष्ट दृष्टि से श्रेष्ठ बालसाहित्य का निर्णय एवं चयन करती हैं।
सच्चाई यह भी है कि बाल पत्रिकाएँ इतनी कम हैं कि बाल साहित्यकारों के लिए छपने की समस्या बड़ी जटिल हो गई है। नंदन जैसी पत्रिका तो संपादन में कमाल करती है। आपकी रचना स्वीकृत होते समय जो होगी, वह प्रकाशित होते समय कट-छँटकर कुछ ऐसी हो जाएगी कि आप पहचान भी नहीं सकेंगे कि वह आपकी रचना है। इसमें संपादकों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वे पत्रिका की आधारभूत नीतियों के आगे विवश हैं। कुल मिलाकर बालपत्रिकाओं में जो कुछ छप रहा है रहा है उसे पूरा श्रेष्ठ साहित्य की कसौटी पर कसना बड़ा मुश्किल है।"
परीकथाएँ प्रारंभ से ही बालसाहित्य के केंद्र में रही हैं। इनकी प्रासंगिकता को लेकर चल रहे विवाद की चर्चा करते हुए श्रीवास्तव जी ने बताया था कि- "परीकथाओं का परंपरागत ढंग यदि बदलकर परियों का चरित्र और उनके कार्यकलापों को नए युग के फ्रेम में फिट किया जाए तो परीकथाओं की लोकप्रियता का लाभ उठाकर बच्चों को बहुत सी नई बातें बताई जा सकती हैं। मैं परीकथाओं के पुरातन रूप का पक्षधर नहीं हूँ, लेकिन उन्हें लेखन से बाहर करने के पक्ष में भी नहीं हूँ। निष्पक्ष रुप से इसमें नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।"
आठवें दशक में हिन्दी बालसाहित्य में तरह-तरह के प्रयोगों की भी शुरुआत हो गई थी। विशेष रूप से बालकविता में हाइकू, पहाड़ा शैली, नए बिम्बों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा था। इस विषय पर श्रीवास्तव जी का स्पष्ट कहना था कि- "इन प्रयोगों की सार्थकथा तभी है, जब बालकों को इनमें प्रचुर आकर्षण और नवीनता दृष्टिगोचर हो। प्रयोग के लिए प्रयोग तो मेरी समझ में हिंदी बालसाहित्य को कोई नया आयाम नहीं दे सकेगा। प्रयोग के साथ हमें अपने दृष्टिकोण को भी बदलना होगा और बालसाहित्य सृजन के लिए एक सार्थक नवीन धरातल चुनना होगा।"
विदेशों में लिखे गए, प्रकाशित और पढ़े जा रहे बालसाहित्य की तुलना में भारतीय बालसाहित्य विशेष रूप से हिन्दी के बालसाहित्य पर उनका दृष्टिकोण बिलकुल साफ था- "शेरसखा पत्रिका के विश्व बालक अंक की तैयारियों के दौरान मैंने 40-50 देशों के बालसाहित्य का अध्ययन करने के बाद यह अनुभव किया था कि भारतीय बालसाहित्यकारों की दृष्टि एक परिधि में ही चक्कर काट रही है। प्राचीन साहित्य में बहुत कुछ ऐसा अछूता पड़ा है जिसे यदि भाषा का नया कलेवर देकर बच्चों के लिए प्रस्तुत किया जाए तो विदेशी साहित्य की तुलना में श्रेष्ठ होगा। विदेशों में तो इतिहास-भूगोल की किताबें भी परीकथाओं की तरह प्रस्तुत की जाती हैं।"
शेरसखा और रानी बिटिया पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ आने वाली रचनाओं की चर्चा छिड़ते ही श्रीवास्तव जी अपना संपादक रूप इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते हैं- "बच्चों की दुनिया न्यारी है। उनका जगत् कल्पनातीत आश्चर्यलोक है। उसमें बड़ों का प्रवेश निषिद्ध है। उसमें जाना हो तो पहले बच्चा बनिए, फिर लीजिए वहाँ का आनंद। बच्चों को समझना सरल नहीं है। वे कठिन पहेली के समान होते हैं। उनके लिए लिखना भी सबके बूते की बात नहीं है।
इस समय जो बालसाहित्य लिखा जा रहा है उसे तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- वह जो स्वस्थ चिंतन, रचनात्मक दृष्टिकोण एवं समय-बोध का सुफल है। इस प्रकार का बालसाहित्य प्रोत्साहन के अभाव में बहुत कम लिखा जा रहा है।
दूसरा- वह जो रातों-रात बालसाहित्यकारों को जन्म देने वाले व्यवसायी प्रकाशक पैसा कमाने के लिए आँख मूँदकर धड़ल्ले से छाप रहे हैं, और नई पीढ़ी को 'नशीले पदार्थ' का आदी बना रहे हैं।
तीसरा- वह जो संपादकों द्वारा चोटी के लेखकों को ऊँचा पारिश्रमिक देकर अनिच्छापूर्वक लिखवाया जा रहा है।
बालसाहित्य के अधिकांश लेखकों को न तो भारतीय बालकों की मानसिकता की जानकारी है और न ही बालमनोविज्ञान की। विदेशों में प्रकाशित होने वाले उत्कृष्ट बालसाहित्य की जानकारी का तो सवाल ही नहीं उठता। हिंदी में चोटी के लेखक बालसाहित्य लिखने के नाम पर मुँह बिचकाते हैं। गिनी-चुनी पत्रिकाएँ अपनी पत्रिका के सर्कुलेशन की बात पहले सोचती हैं, रचनाओं के स्तर की बात बाद में।
भारतीय बच्चों के अनुरूप जिस बालसाहित्य का सृजन होना चाहिए, वह अभी भी प्रोत्साहन के अभाव में मंथर गति से हो रहा है। विदेशों में प्रकाशित होने वाले बालसाहित्य से भारतीय बालसाहित्य की तुलना करें तो हमें लगेगा कि आज भी हम एक सदी पीछे हैं। आज जो कुछ लिखा जा रहा है, उसका अंशत: बच्चों के अनुरूप भले हो पूर्णत: तो कदापि नहीं हो सकता।"
इन बिंदुओं पर विचार करते हुए एक और बड़ा सवाल हमारे सामने मुँहबाए हमेशा से ही खड़ा रहा है कि आखिर बालसाहित्य कैसा होना चाहिए जो बच्चों में जागरुकता तो जगाए ही उन्हें भविष्य निर्माण के लिए पूरी तरह तैयार कर सके। अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर श्रीवास्तव जी बताया करते थे- "आज बालसाहित्य कैसा लिखा जा रहा है, और कैसा लिखा जाना चाहिए, इस विषय में ज्यादा कुछ न कहकर मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि बालसाहित्यकारों को आँखें मूँदकर बालसाहित्य लिखने के बजाय, उन्हें बच्चों के बीच जाना चाहिए। साथ ही इस बात का गहराई से अध्ययन करना चाहिए कि उनकी वर्तमान मानसिकता, रुचि, प्रवृत्ति और सोच कैसी है? उनकी समस्याएँ और शिकायतें क्या हैं? जो बालसाहित्य आज छप रहा है और लिखा जा रहा है, वह उन तक पहुँचता भी है या नहीं? यदि यह सर्वेक्षण बड़े पैमाने पर किया जाए तो कई आश्चर्यजनक तथ्य चौंका देंगे।
यह कटु सत्य है कि देश की त्रुटिपूर्ण शिक्षा प्रणाली के फलस्वरूप नई पीढ़ी न अपने धर्म के बारे में जानती है, न संस्कृति के बारे में जानती है और न ही अपनी महान परंपराओं की उसे जानकारी है। स्वस्थ बालसाहित्य इस दिशा में महत्त्वपूर्ण तथ्य बालकों तक जाने का कार्य कर सकता है। संसार की नवीनतम् घटनाओं, उपलब्धियों एवं गतिविधियों की जानकारी कराने के लिए एक नया पंचतंत्र लिखने की आवश्यकता है। नई पीढ़ी में अपनी संस्कृति, अपना धर्म और भारतीयता के प्रति जो दिनोंदिन अनास्था बढ़ रही है, उसे कम करने के लिए लिखा जाने वाला बालसाहित्य मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ एवं उपादेय है। भारतीय बालसाहित्य को आधुनिकता से संपृक्त करने के लिए विदेशी बालसाहित्य के पैटर्न मात्र का अनुकरण पर्याप्त नहीं होगा।
मेरा सुझाव है कि यदि अध्यापक/अध्यापिकाओं की जगह बालसाहित्य के अनुभवी और सिद्धहस्त लेखकों को साहित्य के साथ-साथ इतिहास-भूगोल की बालोपयोगी पुस्तकें लिखने का काम सौंपा जाए तो पाठ्यक्रमों में एक नए अध्याय का संचार होगा। बालसाहित्य को श्रेष्ठ एवं स्तरीय बनाने के लिए हिंदी के सिद्धहस्त बालसाहित्यकारों को साधन एवं सुविधा उपलब्ध कराना भी इस दिशा में लाभदायक होगा।"
श्रीवास्तव जी ने न केवल बालसाहित्य का सृजन, संपादन और चयन किया है बल्कि बच्चों की उस हर चिंता में भी बराबर शामिल रहे हैं जो उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए अपरिहार्य है। वे बाल साहित्यकारों से रूबरू होकर बच्चों से तादात्म्य बनाने के लिए बराबर उन्हें प्रोत्साहित करते रहे हैं। वे दो-टूक शब्दों में कहते थे कि- "आज बच्चों की रुचि और प्रवृत्ति को प्रदूषित होने से बचाने के लिए कारगर कदम उठाने की आवश्यकता है। इसमें बाल साहित्यकारों की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए। जब हमारी नई पीढ़ी में अच्छी बातों और जीवनोपयोगी संदेशों को सुनने और ग्रहण करने की प्रवृत्ति ही नहीं शेष रहेगी तो कौन पढ़ेगा वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, शिक्षाप्रद प्रेरक बालसाहित्य? सच्चाई को नजरअंदाज करके कलम चलाते रहना अर्थहीन है। आज बच्चों का नैतिक और चारित्रिक स्तर ऊँचा उठाने की बात सबसे पहले. सोचनी है।"
श्रीवास्तव जी ने स्काउटों और गाइडों के लिए दृश्य एवं श्रव्य शैली पर आधारित दो दर्जन से अधिक प्रेरक मंच-रूपकों का लेखन एवं मंचन भी किया है, जिसकी भूरि-भूरि सराहना की गई है। उनकी रचनाओं के कैसेट भी बन चुके हैं जिनमें 'आमरा बागानेर फूल' (हिंदी बालनाटक : हम चमन के फूल के बांग्ला अनुवाद का गीत-संगीतमय कैसेट) गणेशकथा (हिंदी बालनाटक का संगीतमय कैसेट) तथा एक शाम शहीदों के नाम (हिंदी देशभक्तिपूर्ण गीता) का कैसेट आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
लेखन और संपादन में सिद्धहस्त शंभू प्रसाद श्रीवास्तव के अंदर संगठन की भी अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने बालसाहित्य को विस्तृत मंच प्रदान करने के उद्देश्य से कलकत्ता में 'मनीषिका' नामक संस्था का गठन किया था। 'मनीषिका' उनके कुशल निर्देशन में अभी घुटनों के बल चलना सीखा ही था कि ईश्वर ने शंभू प्रसाद श्रीवास्तव जी को अपने पास बुला लिया, शायद उन्हें भी किसी संस्था के गठन के लिए ऐसे कर्मठ और योग्य व्यक्ति की आवश्यकता थी।
उनके चले जाने से न केवल 'मनीषिका' अनाथ हो गई बल्कि बालसाहित्य की रोपी हुई फुलवारी उजड़ गई। उनकी बनाई हुई सारी योजनाएँ तहस-नहस हो गईं। उन्होंने कलकत्ता में बालसाहित्य अकादमी स्थापित करने का बिगुल बजा दिया था, मगर हाय रे दुर्भाग्य! शायद ईश्वर को यह मंजूर नहीं था। बालसाहित्य अकादमी दु:स्वप्न हो गई। बाद में और भी कई जगहों से बालसाहित्य अकादमी बनने/बनाने की खबर आती-जाती रही मगर सब कागज पर। राजस्थान में तो बाकायदा मुख्यमंत्री के स्तर पर इसकी घोषणा भी की गई, मगर कहीं कुछ भी कार्यान्वयन में नहीं आया।
वैसे तो श्रीवास्तव जी ने बालसाहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में लेखन कार्य किया है परंतु बालकविताओं के सृजन में उनकी विशेष रुचि रही है। संपादक और लेखक दोनों रुपों में उन्होंने बालमनोविज्ञान का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन किया था। उनके संपादन और लेखन में सभी जगह उनकी बालमनोविज्ञान पर पकड़ प्रतिबिंबित होती है। चाहे वे मनोरंजक कविताएँ हों या सुरुचिपूर्ण कहानियाँ उन्होंने सदैव अपनी रचनाओं में बाल सुलभ चेष्टाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए 'पच्चीस साल का बच्चा' (बालमेला :अक्तूबर 1990: पृष्ठ 38 में उनका कौशल देखा जा सकता है।
श्रीवास्तव जी ने ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों को भी दृष्टि में रखकर कई सुंदर और बालोपयोगी कहानियाँ लिखी हैं। फलों की चोरी (बालमेला : जून 1990 पृष्ठ 20) कहानी जहाँ महर्षि दुर्वासा के चरित्र का विश्लेषण करती है, वहीं उन्होंने विचित्र परीक्षा (बालहंस : अगस्त- प्रथम: 1991 :पृष्ठ 27) में महाकवि कालिदास के जीवन की घटना को रेखांकित किया है। चिन और मिन (बालमेला : जुलाई 1990:पृष्ठ 15) में परियों की जन्म- कथा है, तथा सलामी (बालमेला : मार्च 1990: पृष्ठ 11) में नेपोलियन बोनापार्ट की महानता की सशक्त घटना है।
उनकी अन्य बालकहानियों में- टूटू हंस, विचित्र परीक्षा, अनोखा चोर, फूलों का विद्रोह, मेहनती मधुमक्खी: कामचोर मच्छर, गुड़िया चली गई जापान, कोर्ट की तलाश, अंतरिक्ष में पहला मानव, लोहे का आदमी, दुर्वासा और कुंडली, नकली गुरु तथा लाल जूता आदि उल्लेखनीय हैं।
सन् 1967 में उनका एक धारावाहिक बालउपन्यास 'चीतल और मीतल' बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका मनमोहन में प्रकाशित हुआ था, जिसकी खूब सराहना हुई थी। उनकी कई रचनाएँ विभिन्न राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में भी संकलित की गई थीं।
श्रीवास्तव जी ने देशभक्तिपूर्ण रचनाओं का भी बहुतायत में सृजन किया है। इन रचनाओं में आपस में भाई-चारे का संदेश तो मिलता ही है, साथ ही साथ इनमें देश की सभ्यता और संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। 'अपना देश निराला है' कविता की कुछ पंक्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है-
ईश्वर ने भी यहाँ चखा है
आकर हर जीवन का स्वाद।
कितनी अदभुत है यह धरती
पता चला आने के बाद।
कभी बना राजा का बेटा, कभी बना वह ग्वाला है।
अपना देश निराला है।
हम अनेक हैं, किंतु एक हैं
सबके मन में ऐसा भाव।
रगड़ा-झगड़ा कुछ भी कर लें
नहीं चाहते हैं अलगाव।
चुटकी बजा सवालों का हल, हमने ढूँढ़ निकाला है।
अपना देश निराला है। -बालहंस :अगस्त (द्वितीय) 1991: 58
बच्चों की कल्पनाएँ असीम होती हैं, इसीलिए यह कहा जाता है कि बालमनोविज्ञान समझ पाना दुष्कर नहीं तो कठिन अवश्य है। श्रीवास्तव जी ने कई कोणों से बालकल्पनाओं और बालमनोविज्ञान को जाँचा तथा परखा है यही कारण है कि उनकी रचनाएँ बच्चों में बेहद लोकप्रिय हैं। उनका कविता 'मेरा झूला' में कल्पना का ऐसा आवेग है कि बच्चे क्या बड़े तक सहज भाव से खिंचते चले आते हैं-
मेरा झूला उड़न खटोला, मुझको लेकर उड़ता है।
ऊपर जाता, नीचे आता, दाएँ-बाएँ मुड़ता है।
ख़ूब मज़ा आता है मुझको, दीदी पेंग बढ़ाती हैं।
'कसकर रस्सी पकड़े रहना' रह-रह कर चिल्लाती हैं।
मेरा झूला चेतक घोड़ा, बात हवा से करता है।
पहले जो भी इस पर चढ़ता, थोड़ा-थोड़ा डरता है।
मैंने डरना छोड़ दिया है, अब झूले पर गाता हूँ
अपने दोनों पैर मज़े से, मैं आगे फैलाता हूँ।
- मेरा झूला : बालमेला : अप्रैल 1990: पृष्ठ 10
'रानी बिटिया' पत्रिका का संपादन करते हुए उन्होंने अनेक बालसाहित्यकारों से बालिकाओं पर केन्द्रित कविताएँ और कहानियाँ लिखवाकर प्रकाशित किया। उनकी स्पष्ट सोच थी कि बालिकाओं का स्वस्थ विकास होने पर ही सही अर्थों में समाज का विकास हो सकता है। उनकी यह कविता सही सोच का ही सुफल है-
बहनो बढ़ो, बढ़ती चलो, बढ़ना हमें है शान से
हम हर दिशा में जय लिखें,अपने सफल अभियान से।
हम बेटियाँ इस देश की, इसका हमें अभिमान है
हम शक्ति हैं अबला नहीं, जग ने लिया पहचान है।
गौरव बढ़ाएँ देश का, हम त्याग से बलिदान से
हम हर दिशा में जय लिखें, अपने सफल अभियान से। - शंभू प्रसाद श्रीवास्तव : व्यक्तित्त्व - कृतित्त्व : पृष्ठ 32
नन्हे-मुन्नों के लिए शिशु गीत लिखना सबके बस की बात नहीं है, क्योंकि शिशुओं की अपनी शब्दावली, अपनी समाज, अपना परिवेश और अपनी परिस्थितियाँ होती हैं। श्रीवास्तव जी अनेक ऐसे शिशु गीत लिखे हैं, जिनका नन्हे-मुन्नों ने दिल खोलकर स्वागत किया है। शिशुगीतों की पहली शर्त है- सहज असंगति और हास्य शिशुगीतों का एक सामान्य गुण है। लेकिन इसके बावजूद भी ऐसे शिशुगीत लिखे गए हैं जिनमें थोड़ी गंभीरता भी जोड़ी जा सकती है। श्रीवास्तव जी का यह शिशु गीत इसका उदाहरण है-
आसमान मे लाखों तारे
लेकिन उनको कौन निहारे।
जगकर सारी रात चमकते
मगर अँधेरा मिटा न सकते
एक अकेला चंदा आकर
अपनी किरणों को फैलाकर
सबकी आँखें शीतल करता
सबके मन में अमृत भरता
यह दुनिया भी बहुत बड़ी है
इंसानों से भरी पड़ी है
हर कोई है नन्हा तारा
बनकर चाँद करो उजियारा। - पराग- मासिक: दिसंबर 1966: पृष्ठ 36
इस प्रकार बहुआयामी व्यक्तित्त्व के धनी और मूर्धन्य बाल साहित्यकार शंभू प्रसाद श्रीवास्तव ने बच्चों के लिए इतना प्रेरक, उद्बोधक और मनोरंजक बालसाहित्य का सृजन किया है कि उसे एक आलेख में समेटना संभव ही नहीं है। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार निरंकारदेव सेवक के निम्नलिखित कथन से सहमति जताते हुए निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि-
"शंभू प्रसाद श्रीवास्तव की सभी रचनाओं में एक सामाजिक-बोध का भाव प्रच्छन्न रूप से विद्यमान दिखाई देता है। वह बच्चों को कुछ सिखाने, कुछ बनाने के लिए लिखने को प्रेरित होते हैं, इसलिए स्वयं बच्चा बनकर बच्चों को वाणी देने के लिए लिखने से उनके लेखन को कुछ भिन्न समझा जा सकता है। वे समाज में बच्चों के नैतिक और चारित्रिक विकास के कार्यों से सीधे संबद्ध और सक्रिय रहे। लेखनी पर उनका जबरदस्त अधिकार था इसलिए गद्य और पद्य दोनों में लिखने में उन्हें पूरी सफलता मिली है।"
- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम
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