बाल नाटकों में हास्य-व्यंग्य - डॉ. सुरेन्द्र विक्रम

Dr. Mulla Adam Ali
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Children’s literature has always found drama to be a challenging genre, and writing in humor and satire makes it even tougher. Creating plays that are simple, entertaining, and educational tests a writer’s true skill. From Bharatendu Harishchandra to K.P. Saxena and beyond, humorous plays for children have offered both laughter and reflection. This article reviews their growth, achievements, and challenges.

The Role of Humor and Satire in Hindi Children’s Drama

हिंदी बालनाटकों में हास्य-व्यंग्य

बच्चों के लिए हास्य-व्यंग्य नाटक : परंपरा, विकास और महत्व

बच्चों के साहित्य में नाटक हमेशा से एक चुनौतीपूर्ण विधा रही है और जब बात हास्य-व्यंग्य की हो, तो यह कठिनाई और भी बढ़ जाती है। बच्चों के लिए ऐसे नाटकों की रचना करना, जो सरल भाषा में मनोरंजन के साथ-साथ सीख भी दे सकें, बालसाहित्यकारों की सृजनात्मक क्षमता की असली परीक्षा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर के. पी. सक्सेना और समकालीन लेखकों तक, हास्य-व्यंग्यात्मक बालनाटकों की परंपरा ने समय-समय पर बच्चों को हँसी और चिंतन दोनों का उपहार दिया है। प्रस्तुत आलेख इसी परंपरा के विकास, उपलब्धियों और चुनौतियों की व्यापक समीक्षा करता है।

बालनाटकों में हास्य-व्यंग्य

अंतरराष्ट्रीय बालवर्ष सन् 1979 में 'बच्चों के सौ नाटक' ग्रंथ का संपादन करते हुए सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार एवं पराग के यशस्वी संपादक डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा था- "बच्चों के लिए हास्य एकांकी लिखना टेढ़ी खीर माना जाता है। इसका कारण यह है कि हास्य चरित्रों की कल्पना, उनके लिए ऐसी परिस्थितियों की कल्पना जिसमें हास्य उत्पन्न हो और फिर अभी नहीं की कुशलता- इन सबका संगम कुशलतापूर्वक प्रस्तुत कर पाना काफी कठिन है।"

   आज से 41 वर्षों पूर्व लिखा गया डॉ. देवसरे का यह संपादकीय उस समय की अपेक्षा आज और भी अधिक प्रासंगिक तथा चुनौतीपूर्ण है। जहाँ बड़ों के लिए लिखे जा रहे नाटकों में हास्य और व्यंग्य का पैनापन आज कहीं अधिक है, वहीं बच्चों के लिए हास्य नाटकों का लगभग टोटा है। इस दिशा में छिटपुट प्रयास अवश्य हो रहे हैं परंतु बच्चों की जनसंख्या, उनका रुझान और समय को देखते हुए इसे न तो उत्साहजनक कहा जा सकता है और न ही उसे पर्याप्त की संज्ञा दी जा सकती है। 

      तथ्य तो यह भी है कि बालसाहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा नाटक लिखना ही श्रमसाध्य है, उस पर हास्य नाटक लिखना तो और भी चुनौतीपूर्ण है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे का यह कहना बिल्कुल सही है कि- "बच्चों को अपने नाटकों के लिए बड़ों पर निर्भर करना पड़ता है। जब कभी भी बच्चों को नाटक खेलने की आवश्यकता होती है, तब अच्छे नाटक का चुनाव एक समस्या बन जाता। यह अच्छा नाटक क्या है? वास्तव में बच्चे ऐसे नाटक को अधिक पसंद करते हैं जिसमें उनका भरपूर मनोरंजन तो हो ही, साथ-साथ वे उसे अपने सीमित साधनों में ही मंच पर प्रस्तुत कर सकें। उसके संवाद सरल और कंठस्थ किए जा सकने वाले जा सकने वाले हों तथा दर्शकों को वह अपने साथ लेकर चले।" - बच्चों के सौ नाटक : आमुख :पृष्ठ 5       

     बच्चों के लिए लिखे गए हास्य नाटकों/एकांकियों की जब भी चर्चा चलेगी, इसकी शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र के 'अंधेर नगरी' से ही होगी। हालाँकि कुछ विद्वानों को यह आपत्ति हो सकती है कि यह बच्चों का एकांकी नहीं है, लेकिन इसका प्रस्तुतीकरण और इसकी समस्याओं को देखते हुए डॉ. देवसरे ने इसे 'बच्चों के सौ नाटक' में सम्मिलित किया है। सन् 1881 में लिखा गया यह एकांकी जहाँ बड़ों को मानवीय संवेदना से जोड़ता है, वहीं संवाद की दृष्टि से यह बच्चों का भरपूर मनोरंजन भी करता है। इसमें भारतेंदु जी ने व्यंग्य और विनोद का ऐसा मिश्रण किया है कि उसमें अनेक विडंबनात्मक चित्र उभरकर सामने आ गए हैं। 

     बालनाटकों का विकास मुख्य रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुआ। हास्य बालनाटक छठवें दशक में अधिक लिखे गए। सन् 1964 में प्रकाशित भानु मेहता का बालनाटक 'वे सपनों के देश से लौट आए' हास्य से भरपूर है। दो अंको के इस नाटक में विद्यालय के अध्यापक और माता-पिता के डर से भागे हुए तीन बच्चों की हास्य से परिपूर्ण गाथा है, जो परीलोक की सैर करने के बाद घर की याद सताने पर वहाँ से भाग खड़े होते हैं। सन् 1965 में प्रकाशित नाटक 'अधिकार का रक्षक: उपेंद्रनाथ अश्क' नेताओं पर करारा व्यंग्य है। 

    इसी वर्ष सन् 1965 में ही योगेन्द्र कुमार लल्ला के संपादन में प्रकाशित 'हास्य एकांकी' अपने ढंग का अभिनव प्रयोग था। इसमें कुल ग्यारह एकांकी संकलित किए गए हैं। इनके रचनाकार हैं- आनंद प्रकाशन जैन, चिरंजीत, देवराज दिनेश, मंगल सक्सेना, मनोहर वर्मा, मस्तराम कपूर, विष्णु प्रभाकर, वेद राही, सुदेश कुमार, सत्येंद्र शरत और श्रीकृष्ण। इस संग्रह ने बालसाहित्य के क्षेत्र में एक मानक स्थापित किया। बच्चों के आसपास के चरित्र को लेकर लिखे गए ये एकांकी जहाँ एक ओर उनका भरपूर मनोरंजन करते हैं, वहीं दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से से कोई न कोई संदेश देने में भी सक्षम हैं।

    सन् 1966 में प्रकाशित हरिकृष्ण दासगुप्ता के हास्य बालनाटक 'निरीक्षण' में अध्यापकों की कर्त्तव्यहीनता पर व्यंग्य तथा छात्रों की सत्यनिष्ठा का जयघोष किया गया है। सन् 1971 में प्रकाशित श्रीकृष्ण का हास्य-बालएकांकी 'हिरण्यकश्यप मर्डर केस' बच्चों को हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देता है। हिरण्यकश्यप को मारने वाले नरसिंह अवतार भगवान विष्णु पर मुकदमा चलता है। वकील के रूप में नारद की प्रस्तुति एकांकी में चार चाँद लगा देती है। सरकारी वकील अपने तर्कों से भगवान विष्णु कोखूनी सिद्ध कर देता है। जज फैसला सुनाते हैं- 'गले में रस्सी का फंदा डालकर लटकाया जाए-जब तक दम न निकल जाए।' (बच्चों के 100 नाटक: पृष्ठ 450) इसी बीच भगवान विष्णु बना लड़का भाग खड़ा होता है तथा पार्श्व में नारद की नारायण-नारायण ध्वनि सुनाई पड़ती है।

   सातवें दशक में हास्य बालनाटक कम लिखे गए परंतु आठवें दशक में पराग पत्रिका ने नाटक प्रतियोगिताएँ आयोजित करके बच्चों के लिए विशेष रुप से नाटक लिखने के लिए रचनाकारों को प्रोत्साहित किया। इस काल में पराग के माध्यम से बच्चों के लिए नाटक लिखने की दिशा में एक अच्छा माहौल बना। जिसके परिणामस्वरूप के. पी. सक्सेना, केशव दुबे, विनोद रस्तोगी, मनोहर वर्मा, मस्तराम कपूर तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि के कई हास्य नाटक समय-समय पर पहले पराग पत्रिका में बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। 

      बच्चों के लिए हास्य नाटक लिखने में के. पी. सक्सेना को सर्वाधिक सफलता मिली। उनके अनेक हास्य बालनाटकों का देश के कोने-कोने में सफलतापूर्वक मंचन किया गया। उनके हास्य बाल-एकांकी, जो प्रमुख रूप से चर्चित रहे, आज भी बालपाठकों द्वारा खूब सराहे जाते हैं- फुकनूस गोज टू स्कूल, तलाश अर्जुन की, चोंचू नवाब, दस पैसे के तानसेन, खामोश पढ़ाई जारी है, लालटेन की वापसी, अपने-अपने छक्के तथा मूँछ-घड़ी आदि। हास्य रस की चासनी में पागे गए इन एकांकियों का स्वाद पाठक/दर्शक कभी-कभी रंगमंच के माध्यम से आज भी महसूस करते हैं। के. पी. सक्सेना की अद्भुत संवाद अदायगी ने इन एकांकियों को अविस्मरणीय बना दिया है।

      इसके अतिरिक्त गोविंद शर्मा का 'डॉ. चुनमुन' केशव दुबे का 'जादूगर', 'नाटक जो नहीं हो सका', 'ड्रामे की दुकान', मनोहर वर्मा का 'नाटक से पहले', मंगल सक्सेना का 'आदत सुधार दवाखाना' आदि हास्य बाल एकांकियों ने बच्चों के बीच में अच्छी पैठ बनाई। बाल नाटकों को बच्चों तक पहुँचाने के लिए रेखा जैन ने जो अभूतपूर्व प्रयास किया, उसे भुलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने बाल रंगमंच को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए न केवल बाल नाटकों का लेखन किया अपितु उनके मंचन की ढेर सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर पूरी तरह ओढ़ी। पूरी दिल्ली में उन्होंने बालनाटकों के मंचन को एक अभियान के रूप में चलाया। 

    रेखा जैन ने अपने पति और सुप्रसिद्ध साहित्यकार नेमिचंद जैन के सहयोग से उमंग संस्था बनाकर बच्चों और शिक्षकों के लिए रंग-कार्यशालाएँ कीं, अनेक चित्रकार-शिविर लगाए, कार्टून और मुखौटे बनाने का विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण दिलवाया। साथ ही बच्चों के लिए नाटक/ एकांकी लिखने वाले रचनाकारों के सहयोग से कहानियों की पुस्तकों के अतिरिक्त बालरंगमंच और बालनाटकों पर भी पुस्तकों का प्रकाशन किया। इसके साथ ही उमंग की विकास यात्रा पर केन्द्रित फिल्म और प्रदर्शनी का आयोजन किया। बाललोक कलाकारों का मेला लगवाया और उमंग के रजत जयंती वर्ष का वृहद् कार्यक्रम आयोजित करके उसे अविस्मरणीय बना दिया।

बच्चों के लिए हास्य-व्यंग्य नाटक

     आठवें दशक के अंत तक हास्य बाल नाटकों ने अपना एक मुहावरा गढ़ लिया था। अंतरराष्ट्रीय बालवर्ष में पूरे साल भर बालसाहित्य की घूम रही। बालसाहित्य पर केंद्रित अनेक आयोजन पूरे देश में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए। बाल रंगमंच की दिशा में भी इस वर्ष अनेक नाटकों का मंचन हुआ, जिसमें हास्य बाल नाटकों को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया।

    नवें दशक में प्रकाशित राधेश्याम उपाध्याय का बाल एकांकी 'पासा पलट गया' में छात्राएँ अपनी अटपटी माँगें मनवाने के लिए करती हैं। उनकी अटपटी माँगों में निम्नलिखित नई प्रार्थना भी शामिल है-

प्रभु दो इतने वरदान हमें, अच्छे-अच्छे पकवान हमें। 

नमकीन समोसा पपड़ी दो, रसगुल्ला, बर्फी, रबड़ी दो। 

दो एक सुनहरी कार हमें, नौकर- चाकर, दो-चार हमें।

कॉलेज में अपनी शान रहे, कक्षा हरदम सुनसान रहे। 

प्रभु इतना माँगें मानो तुम, या अपनी शामत जानो तुम। 

    जब छात्राओं को पता चलता है कि उन्हीं की तर्ज पर रसोई में भी चूल्हाबंद हड़ताल है, तब उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है। इसके बाद शशि, नजमा सुजाता, दलजीत तथा पूनम यह निर्णय लेती हैं-

बहनों, अब हड़ताल नहीं होगी, नहीं होगी, अब हड़ताल नहीं होगी।

    प्रमोद जोशी का एकांकी 'गुमशुदा' पात्रों के नामों से ही हास्य उत्पन्न करता है। नवाब दंबूक अली, मिर्जा घड़ौची, नवाब चोंचपुरी और इंस्पेक्टर जुम्मन। एकांकी में नवाब दंबूक अली का हसन गुम हो जाता है। चुटीले संवादों के बीच अंत में जब पता चलता है कि हसन नवाब का बेटा नहीं बल्कि बकरा है, तो तीनों पात्र कुर्सियों पर बैठे-बैठे बेहोश हो जाते हैं। एकांकी की भाषा चटपटी है इसे आसानी से मंच पर खेला जा सकता है। 

    विश्वबंधु का बाल एकांकी 'संतरा सिंह की होली' नामों की चमत्कारपूर्ण गाथा है। होली के अवसर पर संतरासिंह, मौसमी बाई के स्वागत में नींबू, चीकू तथा लीची सभी से जोरदार तैयारियाँ कराते हैं। संतरासिंह बेसब्री से मौसमी का इंतजार करते हैं। एकांकी के अंत में रमेश अपने कुछ साथियों के साथ एक पैकेट लेकर गुनगुनाते हुए प्रवेश करता है-

बहारों फूल बरसाओ

कि संतरा चाचा से मिलने 

मौसमी बाई आई हैं। 

    संतरासिंह के सामने रमेश पैकेट खोलकर एक मौसमी निकालता है। मौसमी देखकर संतरासिंह अपना सिर पकड़कर बैठ जाते हैं। ठहाकों के साथ एकांकी यहीं समाप्त हो जाता है। 

    वीणा गुप्ता का एकांकी 'तीसरा कौन?' हास्य के साथ सीख लिए हुए है। सियार का मोती और टिंगु से यह कहना कि जब कभी तुम दोनों में किसी बात पर मतभेद हो तो उसे सदा आपस में ही निपटा लेना, किसी तीसरे को कभी बीच में मत डालना। जो कोई भी तुम्हारा फैसला करेगा, वह सदा अपना स्वार्थ ही देखेगा, लाख टके की सलाह है। इसे माननेवाला कभी धोखा नहीं खा सकता है। 

   मुहावरों और कहावतों को केंद्र में रखकर कई हास्य एकांकी बच्चों के लिए लिखे गए हैं। राजेश शारदा का एकांकी 'पहचान असली हीरे की' ऊँट के मुँह में जीरा कहावत पर आधारित है। राजबनिया घासीराम, काशीराम का जीरा जब सरकारी ऊँट नहीं खाता है तो महाराज अपना बेबाक निर्णय सुनाते हैं, जो पाठकों/दर्शकों के मुख पर अनायास हँसी बिखेर देता है। 

   'बड़े-बूढ़े कह गए हैं- ऊँट के मुँह में जीरा अर्थात ऊँट ही असली जीरे की पहचान कर सकता है। ऊँट ने जीरा मुँह में नहीं लिया इसलिए जीरा एकदम नकली है। अतः नकली माल बेचने के अपराध में तुम्हें दंडित किया जाएगा। जीरे का तुम्हारा स्टॉक जब्त किया जाता है और तुम्हें राज्य में जीरे का होलसेलर इस शर्त पर बनाया जाता है कि तुम उसी जीरे का का व्यापार कर सकोगे जिसे सरकारी ऊँट ने चखकर असली प्रमाणित कर दिया हो।'

     विश्वबंधु का एकांकी 'सिक्स स्टार होटल' बबलू की घर को होटल बनाने की सनक पर आधारित है। उसकी इस सनक से परेशान पापा अपने मित्र खन्ना से संपर्क करते हैं। मिस्टर खन्ना हँसी-हँसी में ही इसका समाधान खोज लेते हैं- 'जहाँ तक बच्चों की जिद का सवाल है, वह फूले हुए गुब्बारों की तरह होती है जिसे एक पिन से पिचकाया जा सकता है।'

    मिस्टर खन्ना जैसे ही घर बने होटल के रजिस्टर पर प्रिंसिपल साहब का नाम लिखते हैं, बबलू की सारी सनक हवा हो जाती है। 

  'होली की मिठाई' डॉ. प्रेमचंद्र गोस्वामी का ऐसा हास्य एकांकी है, जिसमें पहलवान पकौड़ीमल मुन्नू के बिछाए जाल में फँस जाते हैं। बच्चों से कभी भी होली न खेलकर उन पर रोब झाड़ने वाले पकौड़ीमल पर मुन्नू की बनावटी आवाज का ऐसा असर होता है कि वे उसे भगवान का असली आदेश मान बैठते हैं। एकांकी के अंत में जब खुलता है तो पहलवान गिरता-पड़ता हुआ बच्चों के पीछे भागता है और बच्चे उसका मजाक बनाते हुए हुड़दंग करते हैं।

   'ट्यूशन' हरिशचंद्र पाठक का हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देने वाला एकांकी है जिसमें बंटी मास्टर द्वारा सिखाए गए स्वर-व्यंजन की न केवल अपने ढंग से व्याख्या करता है अपितु अंग्रेजी की स्पेलिंग की भी टाँग खींचने से बाज नहीं आता है। एकांकी के अंत में बंटी और मास्टर साहब का संवाद काफी मनोरंजक है-

मास्टर साहब - - यह किसने सिखाया ? 

बंटी - बी आर ओ टी यच ई आर - ब्रदर ने। 

मास्टर साहब - - कहाँ है वह ? 

बंटी - - एम ए आर के ई टी - मार्केट गया है। 

मास्टर साहब-- मगर तुम्हें यह क्या हो गया है ? 

बंटी--एस पी ई एल एल आई एन जी- स्पेलिंग सहित अंग्रेजी की जानकारी का शौक। 

मास्टर साहब - - क्यों ? 

बंटी-- टी यू टी आई ओ एन - ट्यूशन पढ़ने से '

- बालभारती :मई 1986: पृष्ठ 15

   घमंडीलाल अग्रवाल का हास्य एकांकी 'चाचाजी का अतिथि सत्कार ' एक लोक कथा पर आधारित है, जिसमें कंजूस चाचाजी अनचाहे मेहमान बच्चों का सत्कार गंगाजल पिलाकर करते हैं- "गंगाजल की तरह शुद्ध, ठीक है हमें नहीं लेना मलाई-बलाई। हम तो अपने मेहमानों को तीर्थराज प्रयाग का लाया हुआ गंगाजल ही पिलाएंगे।" - बालभारती : मई 1992 :पृष्ठ 43             

    प्रेम भटनागर के हास्य बालएकांकी 'एक संसद यह भी' में सरकारी कामकाज की नीतियों का मजाक उड़ाया गया है। योजनागत निर्णयों के अभाव में फलते-फूलते भ्रष्टाचार के लिए शिक्षामंत्री के इस संवाद की एक झलक ही काफी है- *"मैं सदन को बताना चाहूँगा कि बस्ते का आकार छोटा करना राष्ट्रीय हित में नहीं है, क्योंकि इसका कपड़े के व्यवसाय पर सीधा प्रभाव पड़ेगा।" - बालहंस :जून :1994 :पृष्ठ 22 

    इसी प्रकार विद्यालय में ठेके पर कैंटीन चलाने वाले घोंचूमल का मिलावटी और बासी सामान बेचना राष्ट्रीय मुद्दे से जुड़ जाता है। इसे खाद्य मंत्री का कानून व्यवस्था से जोड़ना कितना हास्यास्पद है- "ठेके की समाप्ति पर बेकारी की एक समस्या बढ़ जाएगी। दूसरा यदि बाजार में ठेला लगाते हैं तो उनके बासी समोसे, पकौड़े और चाट उलट दिए जाएंगे, राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान होगा। तीसरा बासी सामान बेचने से मारपीट की नौबत आने से कानून और व्यवस्था की नई समस्या अलग से पैदा होगी।" - बालहंस :जून 1994: पृष्ठ 25

    डॉ. सत्य जायसवाल का एकांकी 'भुलक्कड़' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह भूलने की घटना पर आधारित है। रामू पापा के लिए लिखा पोस्टकार्ड लेटरबॉक्स में डालकर, अपना जूता और एक रुपए का सिक्का मोची को देकर भूल जाता है। विद्यालय में रामू का हंगामा प्रधानाचार्य को हैरत में डाल देता है, तभी डाकिया रामू का पत्र और मोची जूता लेकर उपस्थित होते हैं। इसी के साथ बड़ी जोर का ठहाका गूँजता है और प्रधानाचार्य सहित सभी के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ जाती है है। 

   शेषनाथ मिश्र के हास्य बालएकांकी 'लाख रोग की एक दवा' में भोले-भाले बच्चों को ठगने वाले गुरु के पास सभी बीमारियों का इलाज था। बच्चों की लंबाई बढ़ाने का, आँखों से चश्मा उतरवाने का, मोटापा कम करने का, परंतु मूँछों को बड़ा करने का इलाज उसके पास नहीं था। इसी कारण उसे हवालात की सैर करनी पड़ी। ऐसे एकांकी जागरुकता अभियान की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं। 

    बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बालनाटकों को लेकर फिर से गंभीर चिंतन की शुरुआत हुई। इसी कालखंड में प्रकाशित डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल का संग्रह 'बच्चों के हास्य नाटक' शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कुल 16 नाटक संकलित किए गए हैं। इनके शीर्षक हैं- आधा सेर रबड़ी, एक चोरी ऐसी भी, मैं धनक लाल हूँ धनकू नहीं, अति की भली न तोंदवा, यमराज की भूल, चुटकुला प्रतियोगिता, मक्खीमार से वार्तालाप, रिश्वतफंड, किस्सा एक अपराधी का, जीवन का प्रमाण, ठलुए कवि, दूधियों से इंटरव्यू, दो ठग, आग का तमाशा, मुंडन तथा हाँ मैं चौकीदार हूँ। 

   बकौल नाटककार इन नाटकों का मूल मंतव्य है- "विद्यालयों में प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन अवसरों पर बच्चे नाटक का भी अभिनय करते हैं, सब बच्चों की भाषा में लिखे गए सरल नाटकों की खोज होती है। ये हास्य नाटक विशेष रुप से विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। ये सरल भी हैं और मनोरंजक भी।"

    'आधा सेर रबड़ी' नाटक में मुख्य प्रबंधक रसोइया, कम्मो और निरीक्षक सब मिलकर रंगीले शाह को मूर्ख बनाते हैं तथा सारी रबड़ी चटकर जाते हैं। इसमें सही अर्थों में नाटककार ने यह बताया है कि जब राजा सो जाता है तो कोतवाल भ्रष्ट हो जाता है। साथ ही मालिक के बेखबर होने पर बाड़ खेत को खाने लगती है।

    'एक चोरी ऐसी भी' नाटक में चोर अपनी मूर्खता के कारण पकड़ा जाता है। मैं धनकलाल हूँ धनकू नहीं, नाटक जहाँ नौकरों को अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बनाता है, वही उनकी जीवन शैली का जीवंत चित्र भी प्रस्तुत करता है। यमराज की भूल नाटक में हास्य कम शिक्षा अधिक है। यमराज द्वारा व्यक्ति को दिए गए तीनों नोटिस नाटक की असली जान है। चुटकुला प्रतियोगिता बच्चों का स्वस्थ मनोरंजन करता है। मक्खीमार से वार्तालाप सामान्य नाटक है जबकि रिश्वतफंड में पूरी शारीरिक संरचना का बड़े कौशल से विवेचन किया गया है।

   जीवन का प्रमाण एकांकी पढ़ते हुए हरिशंकर परसाई की कहानी भोलाराम का जीव की बहुत याद आई। यह एकांकी प्रशासनिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है। ठलुए कवि नाटक का उद्देश्य यह है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है, इसलिए व्यक्ति को कभी खाली नहीं बैठना चाहिए। दूधियों से इंटरव्यू नाटक में इस बात का खुलासा किया गया है कि दूधवाले कहीं न कहीं मालिक की जेब पर डाका अवश्य डालते हैं। कहीं पानी मिलाकर, कहीं कम तौलकर, कहीं यूरिया मिलाकर और कहीं पंचमेल दूध बनाकर।

      दो ठग, नाटक में दोनों ठग एक दूसरे को बेवकूफ बनाकर पहले तो खूब प्रसन्न होते हैं, बाद में दोनों को जेल की हवा खानी पड़ती है। आग का तमाशा, नाटक हास्य का बेहतरीन उदाहरण है। बच्चे इसे मंच पर आसानी से अभिनीत कर सकते हैं तथा दर्शक भी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएंगे। मुंडन, राजनीतिक व्यवस्था की पोल खोलता हुआ एक सफल नाटक है। अंतिम नाटक हाँ, मैं चौकीदार हूँ में चौकीदार झंडा सिंह की असलियत जब सामने आती है तो खाँ साहब ठगे रह जाते हैं। उन्हें चौकीदार की लाठी और कुर्ता का मतलब साफ-साफ समझ में आने लगता है। 

       सन् 1999 में डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के संपादन में 'चुने हुए बालएकांकी' शीर्षक से दो भागों में 59 एकांकियों का संग्रह प्रकाशित हुआ था। लेखकों के आकारादि क्रम से प्रकाशित इस संग्रह में कई हास्य बाल एकांकी संकलित किए गए हैं- फलों की चौपाल : अखिलेश श्रीवास्तव चमन, फुकनूस गोज टू स्कूल : के. पी. सक्सेना, सेहत का नुस्खा: घमंडीलाल अग्रवाल फिर इंस्पेक्टर साहब मुआयना करने आए: नारायण वक्त तथा दाँतों की चोरी: नारायण लाल परमार। रंगमंच की दृष्टि से ये सभी एकांकी बच्चों द्वारा आसानी से अभिनीत किए जा सकते हैं।

    हाल ही में जो अच्छे हास्य बाल नाटक प्रकाशित हुए हैं, उनमें पहलवान की खाट: ऋषिमोहन श्रीवास्तव, धूर्ताचार्य का औषधालय: अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', सोने का मकान : राधेलाल 'नवचक्र', नीम हकीम : योगेश चंद्र शर्मा, मेरी भी सुनिए : मोहम्मद फहीम तथा सेर को सवा सेर : हरीश निगम आदि उल्लेखनीय हैं।

    इस प्रकार हास्य बाल नाटकों के इस पूरे परिदृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भले ही कम मात्रा में ही सही परंतु बच्चों के लिए हास्य नाटक /एकांकी लिखे तो गए हैं परंतु उन्हें अलग से संकलित/ संपादित करके सामने लाने का प्रयास कम हुआ है। पराग, मेला, बाल मेला, बाल भारती, और बालहंस जैसी प्रतिष्ठित बाल पत्रिकाओं के अतिरिक्त धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान की पुरानी फाइलों में भी बच्चों के लिए लिखे गए अच्छे हास्य एकांकी अवश्य मिलेंगे, जिन्हें खोजकर और संपादित करके प्रकाश में लाने की आवश्यकता है।

     जहाँ तक वर्तमान परिदृश्य का सवाल है, मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि आज हास्य बाल नाटक/ एकांकी बहुत कम लिखे जा रहे हैं। इसके लिए लेखकों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं को भी बराबर जिम्मेदारी लेनी होगी। एक समय ऐसा भी था, जब बाल-पत्रिकाओं के नाटक विशेषांक प्रकाशित होते थे तथा बड़ों के लिए प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के बाल स्तंभों में भी बाल नाटक प्रकाशित होते थे। मनोरंजन की दृष्टि से आज हास्य बाल नाटकों की बड़ी आवश्यकता है। आज बाल पत्रिकाएँ उँगलियों पर गिनने वाली हो गई हैं, ऐसे में बाल साहित्यकारों की जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है कि वे कम से कम संकलनों के माध्यम से ही बाल नाटकों का सृजन करें तथा उन्हें बच्चों तक पहुँचाने का प्रयास करें। अंत में निदा फ़ाज़ली के इन शब्दों में सुर से सुर मिलाते हुए कहना चाहता हूँ कि-

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।

- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज
लखनऊ (उ.प्र)-226018
मो.नं.- 08960285470

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