This poem, “Nafrat Ka Bazaar” reflects the harsh reality of our times, where misinformation, false pride, and rising hostility are turning communities against each other. Through striking imagery and emotional depth, the poem reminds us that hatred consumes everything in its path—including those who ignite it. The Market of Hatred Poem by Reshma M. L.
Nafrat Ka Bazaar
A Powerful Poem on Today’s Social Reality
यह कविता “नफ़रत का बाज़ार” हमारे समाज में फैलती असहिष्णुता, अफवाहों और भीड़-मानस की मानसिकता पर गहरी चोट करती है। सरल शब्दों में कही गई यह कविता बता देती है कि नफ़रत की आग कभी किसी एक को नहीं जलाती—अंत में सबकुछ राख हो जाता है। यह रचना पाठकों को सोचने, रुकने और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में जागरूक होने का संदेश देती है।
आज के समय की सच्चाई: नफ़रत का बाज़ार और टूटते रिश्ते
नफरत का बाज़ार
शहर में एक बाज़ार नया है,
दुकानें सजी हैं,
इंसानियत का सौदा हुआ है।
दो कौड़ी की अफवाह उठा लो,
ईमान का तमाशा बना लो।
न कोई नाम, न कोई धर्म,
बस एक भीड़ का हिस्सा बन जाओ।
"देशभक्ति" का मुखौटा पहन लो,
और "रक्षक" का नारा लगा लो,
फिर सवाल नहीं, जवाब नहीं,
बस शोर में खुद को भुला दो।
इस बाज़ार में, हर रोज़,
किसी का घर जल रहा है,
किसी का मान, किसी का स्वाभिमान,
सरेआम नीलाम हो रहा है।
कल तक जो थे यार-दोस्त,
आज वो दुश्मन बन बैठे हैं।
नफ़रत की आग में,
रिश्तों के धागे टूट रहे हैं।
लेकिन याद रहे,
यह आग सिर्फ़ गैरों को नहीं,
तुम्हारे घर को भी जला सकती है।
यह बाज़ार जब अपनी दुकान समेटेगा,
तुम्हारे पास सिर्फ़ राख बचेगी।
- डॉ. रेशमा एम. एल.
सहायक प्रोफेसर
क्राइस्ट डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी
बैंगलोर
यह कविता हमें याद दिलाती है कि नफ़रत का कोई अंत नहीं होता—वह लौटकर वही सब कुछ नष्ट करती है जिसे हम बचाना चाहते हैं। रिश्तों, समाज और मानवता को बचाए रखने के लिए आवश्यक है कि हम सच और सद्भाव की राह चुनें। नफ़रत का बाज़ार बंद तभी होगा, जब हम दिलों के दरवाज़े फिर से इंसानियत के लिए खोलेंगे।
ये भी पढ़ें; मैं ग़ाज़ा हूँ: मानवीय संकट पर एक मार्मिक कविता


