मैं ग़ाज़ा हूँ: मानवीय संकट पर एक मार्मिक कविता

Dr. Mulla Adam Ali
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This poem gives voice to Gaza—not as a headline or a statistic, but as a living soul enduring unimaginable pain. Through stark imagery and raw emotion, it reveals the human cost of conflict and the silence of a world that chooses to look away. I Am Gaza poem by Dr. Reshma M. L.

Main Gaza Hun

मैं ग़ाज़ा हूँ मानवीय संकट पर विशेष कविता

यह कविता ग़ाज़ा की त्रासदी को सिर्फ़ खबरों और आंकड़ों में नहीं, बल्कि एक जीवित मनुष्य की पीड़ा के रूप में महसूस कराने का प्रयास है। आधुनिक सभ्यता की संवेदनहीनता, वैश्विक राजनीति की उदासीनता और आम लोगों की हताशा—इन सबके बीच यह कविता उस आवाज़ को स्वर देती है जिसे दुनिया अक्सर सुनना नहीं चाहती।

The Cry of Gaza: A Heart-Touching Humanitarian Poem

मैं ग़ाज़ा हूँ


मैं ग़ाज़ा हूँ,

दस महीनों से प्यासा —

पर सभ्य दुनिया मुझे

“मानवता का जलस्रोत” कहकर

सम्मेलन हॉलों में तालियाँ बजाती है।


मैं ग़ाज़ा हूँ,

हर बेटी की आँखों में

सूखी रोटी का सपना रखकर

मौत की कतार में खड़ा हूँ,

और दुनिया मुझे

“मानवीय संकट” की रिपोर्ट बनाकर

यूनो के कागज़ों में सजाती है।


मैं ग़ाज़ा हूँ,

मेरे चूल्हे बुझ चुके हैं,

धुआँ अब सिर्फ़ बारूद का है।

लेकिन टीवी चैनल कहते हैं –

“यह तो सिर्फ़ संघर्ष की सामान्य तस्वीर है।”


मैं ग़ाज़ा हूँ,

कफ़न भी कम पड़ जाए तो

हड्डियों पर चादर डाल देता हूँ।

और सभ्यता इसे देखकर कहती है –

“कितना सहनशील है यह इलाक़ा!”


मैं ग़ाज़ा हूँ,

तुम्हारे ‘गा’ में फँसा हुआ

वह ‘अलिफ़’ हूँ

जिसे किताबों में तो आदर से पढ़ा जाता है,

पर ज़मीन पर बारूद से मिटा दिया जाता है।

रेशमा एम एल
डॉ. रेशमा एम. एल.
सहायक प्रोफेसर
क्राइस्ट डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी
बैंगलोर

यह कविता हमें याद दिलाती है कि आँकड़ों और रिपोर्टों के पीछे भी एक पूरा जीवन, एक पूरा संसार धड़कता है। ग़ाज़ा की पीड़ा केवल एक क्षेत्र की नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक संवेदनशीलता की परीक्षा है। यदि हम इस दर्द को महसूस कर पाएं, तो शायद दुनिया थोड़ी मानवीय हो सके।

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