महाराष्ट्र के प्रमुख संत

Dr. Mulla Adam Ali
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Maharastra ke pramukh sant
महाराष्ट्र के प्रमुख संत

  प्रस्तावना

  महाराष्ट्र को प्रमुखतः संतो की भूमि कहाँ जाता है। मराठी साहित्य में वारकरी संप्रदाय का महत्व अधिक है। भक्ति-भाव तथा ब्रह्मानंद की दशा वारकरी को प्राप्त होती है। अनेक श्रेष्ठ मराठी संत कवि इसी संप्रदाय के अन्तर्गत आतें है। संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत जनाजा, संत गोरा कुंभार आदि। तेरहवीं शताब्दी में हुएं भक्त कवियों से १७वी १८वीसदी तक संत तुकाराम, संत निलोबा आदि।

आलेख : प्रा.विद्या खाडे दलवे

   ‘वारकरी’ शब्द ‘वारी’ से बना है। वारी का अर्थ है विठ्ठल देवता के दर्शन पाने के लिए प्रत्येक मास की एकादशी तिथि को पंढरपुर की यात्रा करना। जो भक्त नियमित रूप से वारी करता है उसके बारे में मराठी के ज्येष्ठ समीक्षक श्री श.वा.दांडेकर ने वारकरी की व्याख्या इन शब्दों में की है- “आषाढ, कार्तिक, माघ, अथवा चैत्र इन चार महीनों की शुक्ल एकादशी को गले में तुलसी माला धारण कर जो नियमित रूप से पंढरपुर की यात्रा करता है। वह वारकरी कहलाता है एवं उसकी उपासना का मार्ग वारकरी पंथ या संप्रदाय कहलाता है।

           इन चार महीनों में से आषाढ मास की एकादशी का सर्वाधिक महत्व है। ‘पंढरपुर’ को महाराष्ट्र की ‘दक्षिण काशी’ समझा जाता है। इसकी वजह से कर्नाटक एवं अन्य दूसरे राज्यों से भी लाखों धार्मिक भक्त जन पंढरपुर में एकत्रित होते हैं। वैसे देखा जाए तो महाराष्ट्र में ऐसे हजारों भाविक विठ्ठल भक्तों की कमी नहीं है। जो प्रत्येक महीने की एकादशी को पंढरपुर की यात्रा करते हैं। करताल और मृदंग की ध्वनि के बीच सैकड़ों भक्त जनों की टोलियाँ उछल- उछलकर नाचती है। संत कवियों के अभंग एवं ओवी गाकर भक्ति रस में तल्लीन होतें है। एकादशी को हर गाँव, मंदिर में यह वारकरी भक्त‘जय जय राम कृष्ण हरि’गा-गाकर झूमता गाता है। विठ्ठल भक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति मानकर नित्य आनंद में विहार करता है।

        इस भक्ति संप्रदाय का नींव रखी श्री संत ज्ञानेश्वर ने। संत नामदेव ने भवन का विस्तार किया एवं संत तुकाराम ने इस भक्ति मंदिर के शिखर का निर्माण किया। स्वयं तुकाराम ने इस अभंग में कहा है-

संत कृपा झाली। इमारत फळा आली।।

ज्ञान देवे रचिला पाया। उभारिले देवरानी।।

नामा तयाचा किंकर। तेणे केला विस्तार।।

जर्नादन एकनाथ। खांब दिला भागवत।।

तुका झालासे कळस। भजन करा सावधान।।

      संतों की कृपा हुईं। यह इमारत पुरी हुई। ज्ञानदेव ने नींव रखी। मंदिर की रचना की। उनके भक्त सेवक नामदेव ने भवन का विस्तार किया। संत जर्नादन, एकनाथ ने तथा भागवत धर्म ने इस मंदिर के खंभे बनाये और इस मंदिर का शिखर बने श्री संत तुकाराम।

     इन सभी संतों ने अपने पदों के द्वारा कयी अभंगो की रचना की है। संत ज्ञानेश्वर की अनुपम काव्य कृति‘ज्ञानेश्वरी’, ‘ओवी’छंद में लिखी गई है। ‘ज्ञानेश्वरी कै प्रथम ओवी को ले सकते हैं-

 ऊ नमो जी आद्या। वेदप्रतिपाद्या।

 जय जय स्वयंसंवेद्या आत्मरूपा।।

 देवा तूचि गणेशू सकलार्थ मति प्रकाशू।।

 म्हणे निवृत्ति दासू। अवधारि जी जो।।

यहाँ संत काव्य से संबंधित एक और तथ्य का उल्लेख करना भी आवश्यक है। यह सभी संत अल्प शिक्षित अथवा पूर्णतः निरक्षर होतें हुए भी उन्होंने अभंगो को लिपिबद्ध किया। यह तथ्य ज्ञातव्य है।

 1)संत नामदेव:- सनामदेव महाराज महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत है। संत नामदेव का जन्म कार्तिक शुक्ल एकादशी संवत ११९२ महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल पंढरपुर में एक दर्जी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम दामाशेट तथा माता का नाम गोणाई था। उनका परिवार विठ्ठल भक्त था। उन्हें एक बहन भी थी उसका नाम आऊ था। जब नामदेव का जन्म हुआ तब से नामा विठ्ठल विठ्ठल कहने लगे। विठ्ठल का प्रसाद समझकर ही दोनों ने नामा को अपनी संतान के रूप में पा लिया।

      जब नामदेव ५ वर्ष के थे। तो एक दिन उनके पिताजी को काम के सिलसिले में बाहर दूसरे गाँव जाना था। दामाशेट हर रोज विठ्ठल को भोग चढाते थे। अब आज नामा पर यह जिम्मेदारी थीं। नामा विठ्ठल के लिए भोग के रूप में‘खीर’ लेकर मंदिर में पहुंचता है। विठ्ठल के आगे खीर रखकर कहता है कि, ‘ हे विठ्ठल! मैंने तुम्हारे लिए घर से खीर लाई है। इसे तुझे पीना ही पड़ेगा। मंदिर में उपस्थित लोगों ने कहा, यह पत्थर की मुर्ति खीर पिएगी कैसे? ’ नामदेव का बालहट् समझकर सब अपने अपने घर चले गए। नामदेव निरंतर रोए जा रहे हैं।

 केशवा माधवा। गोविंदा गोपाला।।

 जेवी तु कृपाला पांडूरंगा।।

  कह रहे हैं-“विठ्ठला यह खीर पी लिजीए नहीं तो मैं यही इसी मंदिर में, तुम्हारे चरणों में अपना सिर फोडुँगा। ” नामदेव की भक्ति के सामने विठ्ठल को प्रकट होकर खीर को खाना ही पड गया। तब से नामा विठ्ठल भक्त बन गए। नामदेव बडे़ हो गयें। उनका विवाह राजाबाई के साथ हुआँ। उनकों पाँच संतानें हुईं। उनकों विठ्ठल भक्ति सबसे प्रिय थीं। सारा दिन विठ्ठल भजन में ही व्यतीत होता था। सांसारिक कार्यों में तथा परिवार की ओर नामदेव का लेशमात्र भी ध्यान नही था।

2) संत चोखामेला:-

  गावा न च मानावा चोखामेला महार सामान्य।

  ज्याच्या करि साधूंचा चोखामेला महारसा मान्य।।

          कवि मोरोपंत कहते हैं कि, चोखामेला कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। उसके अभंगो की महानता का गान किया जाय तो बहुत महान व्यक्तित्व है।

       चोखामेला पंढरपुर के निकटवर्ती नगर मंगलवेढा के निवासी थे। वे जाति से ‘महार’ थे। महार होने की वजह से उनको बहुत सारी यातनाएँ विठ्ठल भक्ति के लिए भोगनी पडीं है। गुरु संत नामदेव का साथ चोखामेला को निरंतर मिलता रहा। मन विठ्ठल भक्ति होते हुए भी उनको विठ्ठल मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता था। दुखी चोखामेला को विठ्ठल मुर्ति देखने के लिए आँखे तरस रहीं थी। उनके सखा संव नामदेव किसी भी हालत में चोखामेला को पंढरपुर के विठ्ठल के दर्शन देना चाहते थे।

     चोखामेला पर बडवे पुजारियों ने कहीं बार आरोप भी लगाये। उन्हें दंडित भी किया। एक बार तो चोखामेला को बैलों के पैरों से बाँध कर घसीटे जाने का दंड निश्चित किया। चोखामेला को बैलों के पैरों से बाँध दिया गया किंतु आश्चर्य! बैल हिले ही नहीं। पुजारी मार मारकर थक गए। तभी सब ने अनुभव किया-जैसे पीतांबर धारी पांडुरंग ही सम्मुख खड़ा है। तब से उनके ध्यान में आया कि विठ्ठल चोखामेला का रक्षक है।

  जीवन, जगत, शरीर सब क्षणभंगुर है। किसी का कोई साथी नहीं, सब अकेले ही आते है, अकेले ही जातें हैं। इसके बारे में चोखामेला अभंग में कहते हैं

 “ जन्मला देह सुखाचा। काय भरवसा आहे याचा।

एकलेचि यावें एकलेचि जावें। हेचि अनुभवावें आपणचि।।

कोण हे अवघे सुखाचे संगति। अंतकालि होति पाठीमारे।।

चोखा म्हणे याचा न धरीं भरवसा। शरण जो सर्व विठोबा सी।।

3) संत सोयराबाई:- संत सोयराबाई संत चोखामेला की पत्नी थी। एक श्रद्धावान, भावुक कवयित्री के रूप में, एक संत महिला के रूप में सोयराबाई ने अपना विशेष स्थान प्राप्त किया है। संत चोखामेला का सहवास प्राप्त होने के कारण विठ्ठल भक्ति की गहनता इनके अभंगो में सहज ही आ जाती है। नारी हृदय की कोमलता एवं भावुकता इनके काव्य में से झलकती है।

    एक सुखद संयोग यह है कि, भक्त चोखामेला के परिवार के अनेक सदस्य भक्ति मार्ग के अनुयायी हैं। उनकी बहन निर्मला, उनके साले बंका तथा उनका पुत्र कुंभमेला सभी विठ्ठल भक्त थे। संत चोखामेला अपने एक अभंग में कहते हैं-

चंदनाच्या संगे बोरिया बाभळी।

टेकळी टाकळी चंदनाची।।

   संता चिया संगे अभाविक जन। नतयाचे दर्शन तेचि होती।।

चंदन वृक्ष के साथ रहने से काँटेदार बेरी का वृक्ष भी चंदन बन जाता है। सोयराबाई विठ्ठल को पुकार कर कहतीं है-

।। येई येई गरूड़ ध्वजा। विटे सहित करिन पुजा।।

।। धूप दीप पुष्प माला। तुज सर्मपू गोपाळा ।।

पधारिये हे गरूड़ ध्वज आसन सहित आपकी पूजा करतीं हूँ। धूप दीप पुष्प माला आपको अर्पित करतीं हूँ। प्रभु के दर्शन पाते ही अंतरतम शुध्द हो गया। कबीर कहते, “ लाली देखन मैं भी हो गई लाल। ” ‘मैं’ और ‘तू’ का भाव नष्ट हो गया। संत सोयराबाई अपने महार जाती में ‘विटाळ’ इस रीत से बहुत दुखी है। मनुष्य का उत्पत्ति स्थान ही भ्रष्ट मलादि सहित है, बिना उसके किसका शरीर बना? छूत भ्रष्टता तो देह की वस्तु है। देह के साथ चली जाती है।

4) संत कान्होपात्रा: - संत कान्होपात्रा का जीवन भी काया कल्प का उत्तम उदाहरण है। नीच तथा हीन कुल में जन्म लेकर भी भक्त होना उसके जीवन की एक विचित्र गाथा है।

       कान्होपात्रा एक वेश्या की पुत्री अनुपम भाग्य वती थी। वेश्या माता ने कान्होपात्रा को भी गाने नाचने की कला में निपुण बनाया। कान्होपात्रा सौंदर्य वती होने की वजह से उसके समान रूपवान पुरुष उसे प्राप्त नहीं हो रहा था।

    एक दिन वारकरी करताल - मृदंग बजाते हुए अभंग गाते हुए पंढरपुर जा रहे थे। कान्होपात्रा ने उनसे पूछा ‘ आप लोग कहाँ जा रहे हो? विठ्ठल भक्तों ने बताया हम पंढरपुर जा रहे हैं। इन पर कान्होपात्रा ने पूछा, “ मैं यदि पंढरपुर आ जाऊँ, तो क्या पांडूरंग मुझ जैसी हीन नारी का स्वीकार करेंगे? ” वारकरी यों ने कहाँ, “हाँ, क्यों नहीं? वे तो हीन, दीन, नीच, पतित सभी पर कृपा करते हैं। ” माता से आज्ञा पाकर कान्होपात्रा पंढरपुर गयी और वहाँ विठ्ठल- मंदिर के बाहर बैठकर विठ्ठल का भजन करने लगी। हे विठ्ठला मुझे शरण दो। मुझे अपना लो कहतीं रहतीं।

   कान्होपात्रा के सौंदर्य की कीर्ति बीदर के बादशाह तक जा पहुंचीं। बादशाह ने कान्होपात्रा को पाना चाहा।

विठ्ठल भक्त कान्होपात्रा को पाना चाहा। विठ्ठल भक्त कान्होपात्रा हाथ जोड़कर प्रार्थना करतीं हैं कि, हे प्रभु! दुष्ट मेरा पीछा कर रहे हैं। नीच ,चांडाल, पापी जन मुझे ले जाना चाहते हैं- मेरा अंत मत देखो, आये संकट का निवारण करो। हरिणी के शिशु को जैसे व्याघ्र पकड़ लेता है, मेरी ऐसी दशा हो गई है विठ्ठला। पांडुरंग ने उसकी प्रार्थना सुन ली और अपने स्वरूप में विलीन कर लिया। आज उस जगह पर तरटी वृक्ष है। उस झेलती पीड़ा समय कान्होपात्रा एक अभंग में कहतीं है-

दीन पतित अन्यायी। शरण आले विठाबाई।।

मी तो हाये जाति हीन। न कळे आचरण। ठाव देई

चरणापाशी तुझी कान्होपात्रा दासी।।

निष्कर्ष:- संतों के स्वभाव, आचरण, सिद्धांत, उद्देश्य, काव्य आदि के विषय में ग्रंथ कारो का मानना है कि संत काव्य भक्ति से परिपूर्ण है। आज भी लाखों भाविक भक्त विठ्ठल दर्शन के लिए पैदल कोसो मील यात्रा करते हैं। क्रोध इनके पास भी नहीं फटकता। लोभ, मोह, माया, मद, मत्सर, द्वेष इन से कोसों दुर रहते हैं।

“देव भावाचा भुकेला। यति कुळ नाही त्याला।

आहे भक्ति चा बोधला। अवतार घेतो त्यासाठी।। ”

    विठ्ठल भक्ति की यह धारा १३ वी शताब्दी में प्रकट होकर निरंतर प्रवाहित होती हुई १७ वी ईस्वी सदीं तक जन जन को पावन बनातीं हुईं गतिमान रहीं। आज भी इन संतों की परंपरा कायम रखने के लिए संतों के अभंगो की, विचारों की, भागवत धर्म की नीति आचरण करने हेतु आलंदी में कहीं संस्थाओं की निर्मिर्ती हुईं हैं। वहाँ शिक्षा पाकर हमारे महाराष्ट्र में संतों के विचारों को आम जनता के सामने लाने का कार्य महाराष्ट्र में बहुत सारे किर्तनकार कर रहे हैं।

     आलंदी अनेक शिक्षण संस्थाओं द्वारा संतों के कार्यो पर प्रकाश डाला जाता है। इनमें से आलंदी की जोग महाराज शिक्षण संस्था का कार्य उल्लेखनीय है। उसके साथ ही सिद्धबेट वारकरी शिक्षण संस्था, देहू कर माऊली शिक्षण संस्था और कुंभार गुरूजी वारकरी शिक्षण संस्था आदि। दुसरी गर्व की बात यह है कि, यहाँ पर शालेय शिक्षण और आध्यात्मिक शिक्षण देनेवाली सैकड़ों संस्थायें आलंदी नगरी में है।

संदर्भ :

मराठी संत काव्य- प्रा.वेदकुमार वेदालंकार - विकास प्रकाशन कानपुर

प्रा.विद्या खाडे दलवे
कला महाविद्यालय नांदूरघाट,
ता.केज.जि.बीड 431126

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