British diplomacy: अंग्रेजों की कूटनीति

Dr. Mulla Adam Ali
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British diplomacy

British diplomacy

अंग्रेजों की कूटनीति

        सन् 1857 के बाद शुरू के 20 वर्षों तक अंग्रेजों ने हिंदूओं को बढ़ावा दिया। उनका विचार था कि सन् 1857 के विद्रोह के पीछे मुसलमान ही थे। लेकिन अंग्रेजों की इस नीति के प्रति हिंदूओं में राजनीतिक चेतना और राष्ट्रीय भावना जागृत होने लगी। फलतः अंग्रेजों को गंभीर खतरा नजर आने लगा। मुसलमानों ने अंग्रेजों का विरोध करना छोड़ दिया था। उन्हें राष्ट्रीय भावना का भी अभाव था। अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का अवलंब यही से प्रारंभ किया।

      अंग्रेजों ने एक मौलिक राजनीति का सुर भारत ने छोड़ा था। उन्होंने नैतिक सिद्धांतों का राजनीतिक उपयोग करना सिखाया था। उन्होंने धार्मिक मुस्लिम शासन की जगह नैतिक इंग्लिश शासन दिया। धार्मिक शासन धर्म के नाम पर जनता में भय पैदा करता रहा। नैतिक अंग्रेज शासन नैतिकता के नाम पर जनता में भय पय करता रहा। दोनों का उद्देश्य एक ही था भाई प्रेरित करना। भय से प्रेरित जनता स्वयं ही शासन के आगे पूर्ण आत्मसमर्पण कर देती है। अंग्रेज शासन ने जिन नैतिक शासन राजनीति का प्रयोग किया वह धार्मिक राजनीति से कहीं अधिक प्रभावशाली था। धार्मिक राजनीति तो विरोध भड़का देती है किंतु नैतिक राजनीति का विरोध असंभव है। सबसे पहले लॉर्ड इफरीन ने कौन्सिल एक्ट में सन् 1892 में चोरी से एक खतरनाक प्रावधान जोड़ दिया। इसके अनुसार मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व मिल गया।

      उच्च स्तरीय अंग्रेज शासकों की झूठी नैतिकता और मगमच्छीय के आंसुओं का प्रमाण सेक्रटरी आफ स्टेट लॉर्ड हैमिल्टन के वायसराय लॉर्ड एलगीन को 3 अक्तूबर, 1895 को लिखे एक पत्र में मिलता है। जिसमें उसने लिखा था कि “धूलिया में जो हिंदू मुस्लिम दंगे हुए हैं उनमें स्पष्टतः मुसलमानों की गलती है। ये सांप्रदायिक दंगे प्रशासक की दृष्टि से दुखद घटनाएं है। परंतु ये भारत में अंग्रेजी राज को मजबूत करेंगे। इसके बाद भारत ने दंगों का सिलसिला जारी रहा और अंग्रेज शासक दोनों समुदायों को तूल देते रहे।

      भारत में हजारों वर्ष से अनेक धर्म, अनेक जातियां और अनेक संस्कृतियाँ एक साथ खिलती थी, जैसे किसी एक बाग में अनेक प्रकार के फूल साथ-साथ खिल रहे हैं। इसका मूल कारण हिंदू धर्म की सहिष्णुता ही नहीं वह मूल विश्वास है दूसरों पर हिंदू धर्म लादने को पाप समझता है। यही कारण है कि जैन और बौद्ध धर्म जो हिंदू दर्शन से एकदम अलग है, साथ-साथ खिलते रहे, फैलते रहे। इसके साथ ही बाहर से आए जैसे यहूदी धर्म, बहावी धर्म, पारसी, और ईसाई धर्म अपनी भिन्न और विपरीत मान्यताओं के होते हुए भी हिंदू जाति को भड़का न सके। वह सभी धर्म को व्यक्ति की व्यक्तिगत वस्तु ही मानते थे।

       ब्रिटिश शासन में उनकी कूटनीति के फलस्वरूप ही विभाजन अनिवार्य रहा। अंग्रेजों ने अत्यंत धूर्तता से अपने शासन की नींव पक्की की थी। उन्होंने भारतीय धर्म, प्रचलित जाति व्यवस्था, यहां की संस्कृति और उनका पूर्व इतिहास इनका सूक्ष्म अध्ययन किया था। स्वयं को झूठी नैतिकता के आवरण में छिपाकर उन्होंने अपना छल-छद्दम से डेढ़ सौ वर्षों तक राज किया और जैसे ही नैतिकता का पर्दाफाश हुआ वे इस देश को विभाजन की विभीषिका में झोंककर इंग्लैंड चले गए।

तत्कालीन कारण

      1) सन् 1937 के बाद कुछ प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनी। वहां पर कुछ सुधार लागू करते समय कांग्रेस ने मुस्लिम मानस का विचार नहीं किया। सार्वजनिक स्थानों पर अधिकांश हिंदूओं की नियुक्तियां, उर्दू के स्थान पर हिंदी, गौहत्या पर प्रतिबंध, वंदेमातरम को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता आदि ऐसी निर्णय थे जिन्होंने मुसलमानों को भड़काने का काम किया।

     2) सन् 1937 के बाद संयुक्त प्रांत मुस्लिम सांप्रदायिकता का केंद्र बना मुस्लिम लीग ने एक साल देश में 180 शाखाएं खोली वह भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि पार्टी बनी।

     3) इसी बीच मुल्ला-मौलवी भी राजनीति में सक्रिय हुए और उन्होंने इसे धर्म कार्य मानना प्रारंभ किया।

     4) मार्च, 1940 के लीग के अधिवेशन में यह प्रस्ताव किया गया कि मुस्लिम जनसंख्या के आधार पर भारत का बंटवारा किया जाय और उन्हें स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में माना जाए। इस प्रकार पाकिस्तान शब्द का प्रयोग न करते हुए भी मुस्लिम लीग ने एक अलग राष्ट्र की मांग करना प्रारंभ किया।

     5) महात्मा गांधी ने लीग के इस प्रस्ताव की कड़े शब्दों में आलोचना की तथा देश में भी इस प्रस्ताव की बड़ी आलोचना हुई। हिंदू-अखबारों में इसे “पाकिस्तान प्रस्ताव” कहा।

     6) सन् 1942 में क्रिप्स स्वतंत्र की योजना लेकर भारत आए। गांधी जी ने स्वयं जिन्ना से मिलकर उनका मत परिवर्तन करने का प्रयास किया। लेकिन इसमें विफल हुए।

     7) अगस्त, 1942 में कांग्रेस ने “भारत छोड़ो” आंदोलन छेड़ा परिणामतः सभी बड़े कांग्रेस नेता जेल भेज दिए गए।

     8) जिन्ना ने मुसलमानों को इस आंदोलन से हेतुतः दूर रखा। वे इस बात पर दृढ़ थे कि हिंदू-मुस्लिम दो राष्ट्र है।

     9) इसी बीच सी. राजगोपालाचारी ने पाकिस्तान की मांग उचित ठहराते हुए उसे मंजूरी देने का आग्रह शुरू किया।

     10) हिंदू मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए 20 जून 1945 को सर्व पक्षीय शिमला परिषद का आयोजन किया गया, लेकिन जिन्ना के अड़ियल रवैए से इसका कुछ निष्पक्ष नहीं हो सका।

    11) इंग्लैंड की सरकार ने मार्च 1945 में कैबिनेट मिशन दिल्ली भेजा। इसके तहत अंतरिम सरकार की स्थापना की घोषणा हुई लेकिन जिन्ना ने इस सरकार में शामिल होने से इनकार किया। मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त का दिन कार्यवाही का दिन घोषित किया। इसी दिन बंगाल में सांप्रदायिक दंगों का तांडव नृत्य शुरू हुआ। लाखों संख्या लोग मारे गए। अंग्रेज शासन मूक बनकर देखता रहा। मनो गृह युद्ध भी छिड़ गया था।

    12) 20 फरवरी, 1947 के दिन ब्रिटेन की संसद में प्रधानमंत्री एटली ने भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा की और कहा कि वह जून 1948 तक भारत छोड़ देगा। उन्होंने इस कार्यान्वयन के लिए माउंट बेटन को भारत भेजा। 6 मार्च, 1947 के दिन कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के असहयोग से तंग आकर एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें विभाजन को अप्रत्यक्ष स्वीकृति दे दी गई थी।

    13) लॉर्ड माउंट बेटन ने विभाजन की पूरी तैयारी की थी। मई 1947 में ब्रिटिश सरकार ने इसे स्वीकृति दी। कांग्रेस कार्यकारिणी ने भी लंबी चर्चा के बाद भारत विभाजन की योजना को स्वीकृति दी।

        भारत जैसे बृहत देश के विभाजन के कारण विभिन्न थे। विभाजन के लिए मुस्लिम लीग का अट्टहास जितना जिम्मेदार रहा उतना ही कांग्रेस की कुछ बड़ी भूलें भी कारण रही। गांधी जी ने तो 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में ही पहली बार मुस्लिमों के अलग होने के यह अधिकार यह कहते हुए मान्यता दी थी कि वह तो एक संयुक्त परिवार के दो भाइयों का बँटवारा होगा। आगे चलकर राजगोपालाचारी ने पाकिस्तान के प्रस्ताव का समर्थन किया और मार्च, 1947 में नेहरू, प्रसाद और पटेल, जिन्ना के द्वीराष्ट्र के सिद्धांत को मान्यता दे बैठे।

    डॉ. लोहिया जी ने देश विभाजन के आठ कारणों का उल्लेख किया है- (१) ब्रिटिश कपट नीति (२) कांग्रेस नेतृत्व की ढलती उम्र (३) हिंदू मुस्लिम दंगे

 (४) जनता में साहस और ताकत की कमी (५) मुस्लिम लीग की पृथकतावादिता (६)गांधीजी की अहिंसा (७) प्राप्त अवसर से फायदे उठाने की क्षमता

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