Establishment of Muslim League: अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना

Dr. Mulla Adam Ali
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Establishment of Muslim League

All-India Muslim League

मुस्लिम लीग की स्थापना

          बंगाल के विभाजन के बाद मुस्लिम राजकीय दृष्टि से जागृत हो गए थे। वे संपूर्ण हिंदुस्तान के मुस्लिमों की एक प्रतिनिधिक संस्था स्थापना करना चाहते थे। केंद्रीय स्तर पर राजनैतिक संस्था की आवश्यकता अनुभव होने लगी थी। अंग्रेजों ने इस भावना को उभारा और उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने के लिए और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर बनाने के लिए मुस्लिम लीग जैसी संस्था बनाने में अंग्रेजों ने मदद की। कांग्रेस की बढ़ती हुई लोकप्रियता, उसकी मांगो तथा पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों के कारण अंग्रेज इस तरह के संगठन की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे जो मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करें और अंग्रेजों के प्रति वफादार भी रहे। ढाका के नवाब सलीमुल्लाह हक ढाका के मुस्लिमों की एक बैठक बुलवायी और मुस्लिमों की केंद्रीय परिषद बनाने की भूमिका उनके सामने रखी गई। मुस्लिमों की आकांक्षा एवं अधिकारों की रक्षा करना इस परिषद का उद्देश्य निश्चित किया गया। इस प्रकार संगठन के कारण मुस्लिम कांग्रेस में नहीं जुड़ेंगे और उन्हें अपने अधिकारों को मांगने के लिए एक व्यासपीठ भी प्राप्त होगा- यह भी इस परिषद का एक उद्देश्य था। अंततः नवाब सलीमुल्ला हक की यह योजना मंजूर कर ली गई एवं 30 दिसंबर 1906 में ‘अखिल भारतीय मुस्लिम लीग’ की स्थापना हुई। यह संगठन आगे चलकर संपूर्ण भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व संगठन बन गया। मुस्लिम लीग अंग्रेजों के प्रति वफादार था और मुसलमानों के हितों की रक्षा करने पर प्रतिबद्ध थी लेकिन उसमें हिंदूओं के प्रति कोई विरोधी भावना नहीं थी। लेकिन वातावरण पहले से ही इस तरह का था धीरे-धीरे इस तरह का बनता जा रहा था कि फासले अपने आप बढ़ते जा रहे थे। अंग्रेजों के प्रति अति स्वामी भक्ति ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। लीग संगठन को अंग्रेजों का अंदरूनी समर्थन था। कांग्रेस का महत्व कम करने के प्रयास में अंग्रेजों ने इसी संस्था का प्रोत्साहन किया।

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       इन्हीं विचारों का फायदा अंग्रेजों ने उठाया। मुसलमानों को बहुत सी सुविधाएं देकर उन्हें अपना भक्त बना लिया और इसी राज्यभक्ति का उपयोग हिंदू और मुसलमानों के बीच पार्थक्य के बढ़ाने में करने लगे। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि –“मुस्लिम लीग का उदय ही अंग्रेजों की स्वार्थ सिद्ध के लिए हुआ था, इसलिए उनकी नीति परोक्ष रूप से अंग्रेजों को लाभ पहुंचा रही थी।“1

       एक मुस्लिम कालेज के प्रिंसीपल मि. बेक ने मुसलमानों की इस राजभक्ति का अपने हित में उपयोग किया। इंग्लैंड में हुई ‘अंजुमन इस्लामिया’ की एक सभा में भाषण देते हुए बेक ने कहा –“भारत में मुसलमान अंग्रेजों के साथ रहना पसंद करते हैं, परंतु हिंदूओं का संसर्ग और संपर्क पसंद नहीं करते। इसका कारण यह है कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक तीनों ही दृष्टिकोण से हिंदूओं और मुसलमानों में भयानक प्रतिकूलता है।”2  इस प्रकार मि.बेक हिंदूओं और मुसलमानों के बीच लगातार असामान्यता बढ़ाने जा रहे थे।

      इस प्रकार मुस्लिम लीग के उद्देश्यों और विचारों ने हिंदू और मुसलमानों के बीच निरंतर दूरी बढ़ानी आरंभ कर दी। मुसलमानों में धीरे-धीरे उसका विस्तार हो रहा था, दूसरी ओर लीग अंग्रेजों के हाथों का खिलौना बनकर उसका हित साधन कर रही थी। अतः मुस्लिम लीग के माध्यम से अंग्रेजों ने भारतीय मुसलमानों को देश के हिंदूओं से अलग करने का और देश में फूट की राजनीति का जो कुचक्र चलाया, उसने देश को खंडित करके ही दम लिया।

संदर्भ;

1. यशवंत विष्ट – सांप्रदायिकता एक चुनौती और चेतना – पृ-112

2. केशव कुमार ठाकुर – भारत में अंग्रेजी राज्य के दो सौ वर्ष- पृ-771

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