Geetanjali Shree: गीतांजलि श्री द्वारा लिखी गई कहानी बेलपत्र

Dr. Mulla Adam Ali
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बेलपत्र : गीतांजलि श्री

        गीतांजलि श्री द्वारा लिखी गयी कहानी ‘बेलपत्र’ है। ‘बेलपत्र’ के फातिमा और ओम जैसे परस्पर विधर्मी पात्र प्यार करके जब विवाह-बंधन में जाते है तब उनमें भावुकता, रिश्तों को तोड़-छोड़ पाने का ग़म उभरकर आते हैं। स्त्री के लिए तो भावुकता के उफ़ान में जाना, उसमें लिप्त हो जाना जैसे उसका स्वभाव ही होता है।

     कहानी में जब दोनों अपने प्यार पर विवाह का मुहर लगाते है, तब जगदीश काका का आदर्श सपना उनके सामने था। परंतु शादी के बाद ओम की माँ-चाची को घर आते, पूजा करते फातिमा देखती है तो वह भी शंकर भगवान के पिण्ड पर ‘बेलपत्र’ चढ़ा देती है। उसे लगने लगता है कि माँ के साथ वह अच्छा रिश्ता बन पायी है, किन्तु मन में उसी समय गाँठ भी पड़ने लगी थी कि ओम को शादी करके सब कुछ मिल गया पर मैं माँ, पिता के साथ सारे रिश्ते-नाथे छोड़ आई हूँ। मुझे क्या मिला? अपने अस्तित्व को जब वह ओम के घर-परिवार में ढूंढने लगती है तो कुछ भी उसके हाथ नहीं आता। अपनों को छोड़ना कठिन होता है। फातिमा की अपनों को पाने की भूख बढ़ने लगती है। उसकी भावुकता के नीचे धर्म का हिस्टीरिया कुलाँचे मारने लगता है। वह अस्वस्थ होती है और नमाज पढ़ना शुरू करती है। ओम उसे शादी के पहले किये वादों को याद दिलाता है परंतु दोनों में कहा-सुनी होती है और मनमुटाव, गुस्सों के दौर चल पड़ते हैं।

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     फातिमा अब अपने घर भी आने-जाने लगती है। पिता बीमारी की हालात के बाद लौटकर जब ओम के घर आती है, वह फिर रोजे-नमाज की पाबंद हो जाती है। ओम थर्रा जाता है। उसे रोकने की कोशिश करता है। फातिमा को बुरा लगता है। वह उसे जवाब देती है कि तुम अपने देवताओं पर फूल चढ़ा सकते हो तो मैं नमाज क्यों नहीं पढ़ सकती। ओम जब कहता है कि जगदीश काका के कहे आदर्श और दुनिया की रस्में-रिवाजों को तोड़कर अपना नया जहाँ बसाने की कसमें हमने खायी थीं। परंतु तुम तो फिर अपनी खोह में लौट रही हो, तब उसे और भी बुरा लगता है।

     फातिमा के सामने एक ऐसा समाज था, जो हर बार उसे या तो अपनेपन से दूर रखता था या उसके साथ कोई रिश्ता नहीं रखता था। वहाँ जमादारिन, ओम के जिगरी दोस्त की बीवी, धोबी आदि कुछ ऐसे सामाजिक प्राणी है जो हर बात पर फातिमा को पछाड़कर रखते है। फातिमा के मन का दुःख बढ़ने लगता है। ओम जब संकीर्णता को छोड़ने की बात करता है तो वह चीखते हुए कह उठती है- “वे छोटी-छोटी लड़ाईया ही असली है। बड़ी लड़ाईया लड़ना आसान है, उन्हें गर्व से लड़ते है, हम, अभिमान में मार-मिटते हैं उनके लिए। पर ये छोटी लड़ाइयाँ... कीड़े की तरह, घिनौनी-दीमक की तरह लग जाती है, खोखला करती जाती है.. इतनी छोटी होती है, बड़ी-बड़ी स्वाभिमानी रोबदार लड़ाइयों से जोड़ कर देखना मुश्किल हो जाता है... तुम्हारी लड़ाई बड़ी हैं, लड़ो और चाटो बड़ी लड़ाई की बड़ी जीत को। उसकी तो हार में भी घमंड है पर मैं..मुझे.. इन छोटी-छोटी लड़ाइयों ने बड़ी के लिए फुर्सत नहीं छोड़ी है मैं...।“ यह कहते हुए वह समाज की सच्चाई को हमारे आमने-सामने लाती है।

     प्रस्तुत कहानी में फातिमा के लिए जो भावविश और समाज उसके सामने है, वह सांप की तरह उसे डंसता रहा है। आदर्श की लड़ाई लड़ने वक्त वह अंदर ही टूटती जाती है। वह स्वयं कहती है, “मैं ने समाज से लड़ाई की थी, वह मुझे बदनाम करें, मेरा बहिष्कार कर,मैं सब सह सकती थी। पर माँ-बाप से अलग होना...।“ उसके लिए असंभव थ।

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     ओम और फातिमा- धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी होकर जीने-मरने की कसमें खाते है, परंतु धर्म का ही हिस्टीरिया उनके भविष्य में दीमक की तरह लग जाता है। उसका बुखार फातिमा के मन पर चढ़ने लगता है। अपनों को छोड़ने के दुःख में कब उन्हें धर्म का बुखार हो गया, पति नहीं चलता।

     जगदीश काका एक नए भविष्य, नई पीढ़ी को बनाने के लिए कहते थे। सांप्रदायिकता का विरोध उसी में शामिल हैं। अन्तरधर्मीय विवाह उसका उत्तम उपाय है, किन्तु अपने आपको अपनों से काटकर ही उसे साधा जा सकता है। अपने आते है तो अपने साथ धर्म को, उसके कर्मकांडी स्वरूप को साथ लाते ही है। जिसके उदाहरण है- ओम की चाची और फातिमा के अब्बा की बीमारी जो फिर एक बार धर्म के कर्मकांडों की तरफ उन्हें ले जाते हैं। जिस पर समाज की निगाह आदर्शों को परास्त करती है। जगदीश काका की नसीहत ‘देखो, इस समाज की ताकत को मामूली न समझो। उसके बारे में अपनी नीयत तय कर लो। खूब थू-थू होगी, यह समझ लो। उससे घबराते हो तो सोच लो। दुनिया के आगे चाहे मुस्कराता मुखौटा चढ़ा लगे, अंदर चूर-चूर होते जाओगे। झेल सकते हो, हिम्मत है तो आगे बढ़ो, हम सब तुम्हारे साथ है। ये नकली भेद-भाव तुम बच्चों के मिटाए ही मिटेंगे। पर फिर ठीक से समझ लो, जाने दो जो जाता है... नाम... खानदान, किसी का ग़म न करो...।“ किन्तु फातिमा शादी के बाद टूटती और इन नसीहतों से दूर होती दिखायी देती है। परिस्थिति और समाज के दबाव को सहना उसके लिए कठिनतर हो जाता है। ओम के समझाने पर भी उसे समझना संभव नहीं होता। यह उसकी विवशता है। उसके मन की गहराई में दबा पड़ा ‘हिस्टीरिया’ है जो उसे मुसलमानिनी ही बना देता है। उसका सारा दर्द, सारी कुण्ठा उसकी पहचान की हद तक आती है और वह इसका हिसाब करती है कि हिन्दू-परिवार में ब्याह जाने के बाद उसे क्या मिला और उससे क्या छूटा। ‘अपनी अस्मिता की खोज’ करती है तो उसे वह फातिमा कहीं नहीं मिलती जो उसके शादी के बाद मिलने की संभावना वह देख चुकी होती है।

     वस्तुतः शादी ही वह विद्रोही भाव से करती है। तब शादी के बाद क्या-क्या हो सकता है, इसका लेख-जोख उसके सामने नहीं होता। दुनिया के नकली, भौंडे रीति-रिवाजों, धर्मभेदों को तोड़ने के आदर्श ने उसकी शादी करवायी थी। उस वक्त उस पर हटे रहने का विश्वास उसके मन में होता है पर शादी के बाद हवा की तरह फुर्र-सा उड़ जाता है। फातिमा यथार्थ की जमीन पर आ जाती है। समाज किसी को बदलने नहीं देता, रिश्ते किसी को बदलने नहीं देते। वह फिर-फिर व्यक्ति को विवश करते है। इस विवशता को तोड़ना कठिन होता है। विवेच्य कहानी उसी का प्रतिफलन है। (संदर्भ - गीतांजलि श्री- अनुगूँज)

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