देश विभाजन की त्रासदी और सांप्रदायिकता द्वारा प्रतिफलित अन्य समस्याएँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Communalism and problems

देश विभाजन की त्रासदी और सांप्रदायिकता द्वारा प्रतिफलित अन्य समस्याएँ

1. मूल्यों का पतन:

                 प्रत्येक समाज में उच्चता, अश्लील, पाप और पुण्य के अपने मानदंड होते हैं ये मानदंड व्यक्ति की उश्रृंख्खलता पर नियंत्रण रखते हैं। लेकिन देश विभाजन के समय में लोगों की नैतिकता समाप्त हो गई, क्योंकि वह अपने बारे में ही सोचने लग गए। परिवार, समाज, देश सब उनके लिए खोखले हो गए।

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने बताया है कि विभाजन के समय में लोगों में जो प्रेम, विश्वास व नैतिकता थी वह खत्म हो चुकी थी आतंक पूर्ण वातावरण बन चुका था। आतंकित लोगों की जल्दी से जल्दी सुरक्षित स्थान पर पहुंचने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि वे यात्रा का उपयुक्त साधन अथवा स्थान न मिलने पर भी यात्रा करने उद्धत थे। हिंदूओं के पाकिस्तान से और मुसलमानों को भारत से निर्गमन के कारण गाड़ियों में भयंकर भीड़ रहने लगी थी। इतनी भीड़ की जान बचाने की चिंता में भागने वाले मुसलमान भी रेल के डिब्बे के बाहर खड़े मुसलमानों को भीतर आने नहीं दे रहे थे, क्योंकि उनके नैतिकता नहीं रही थी। अम्बाला छावनी स्टेशन का दृश्य स्पष्ट है दृष्टि है- “अम्बाला स्टेशन पर इतनी भीड़ गाड़ी की ओर लपकी की भीतर सभी लोग घबरा गए। प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी के भीतर आना चाहने वाली भीड़ ऐसी आतुर और आतंकित थी, जैसे उसी गाड़ी में न चढ़ पाने से वे निश्चय ही मृत्यु के मुँह में चले जायेंगे।“ इसलिए कहा जा सकता है कि हर कोई अपनी जान बचाने के प्रयास में था किसी को किसी की परवाह नहीं थी।

     ‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही मासूम रजा व्यक्त करना चाहते हैं कि ठाकुर साहब के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो गया था इसलिए वे हिंदूओं को छोड़कर मुसलमानों का साथ दे रहे थे। हिंदुत्व वादी प्रवृत्ति जहां आम हिन्दूओं के मुस्लिमों के विरोध में भड़काने में सफल हो जाती है तब हिंदू लाठियों लेकर बारिखपुर वाले मुसलमानों के घरों को आग लगाने में सफल हो जाते हैं। तो थोड़ी देर बाद भीड़ यह देखती है कि गाँव के ठाकुर साहब मुसलमानों को बचाने के लिए आ रहे हैं। “भीड़ की समझ में यह बात नहीं रही थी कि आखिर ठाकुर साहब मुसलमानों को बचाने चाहते हैं?” उनमें नैतिकता(ethics) समाप्त हो गई थी कि वे अपने शत्रु (enemy) का साथ देने लगे थे।

     ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में उपन्यासकार कमलेश्वर ने दिखाया है कि आधुनिक समय में युद्ध के परिणाम स्वरूप लोगों के नैतिक मूल्य भी खत्म हो चुके हैं वह किसी के दुःख-दर्द को नहीं जानते। “तो अस्पताल में जाकर कोफी अन्नास से कहो कि दुनिया की छाती में जो दर्द बार-बार उठता है... और उसे सांस लेने में तकलीफ लगातार हो रही है, उसके इलाज के लिए उन्हें इस दुनिया का कामकाज सौंपा गया था, लगता तो यहां तक है कि एक ध्रुवीय शक्ति के पक्ष में उन्होंने अपने इस नैतिक हथियार भी डाल दिए हैं, जो बड़ी उम्मीद से उन्हें सौंपे गए थे।“ आज नैतिक मूल्य राजनेताओं में तो क्या आम व्यक्ति में भी ऐसी भावना समाप्त हो चुकी है।

     उपन्यासकार कमलेश्वर यहां स्पष्ट करना चाहते हैं कि किस तरह मुसलमान शासकों को नैतिक मूल्यों का ह्रास हो चुका था और वे हिंदुस्तानी धन, मंदिरों को कैसे लूट रहे थे इनके पीछे उनके निजी स्वार्थ थे और नैतिकता समाप्त हो चुकी थी। “मोहम्मद-बिन-कासिम से लेकर बाबर तक जो भी मुसलमान हमलावर हिंदुस्तान में आया, वह मध्यकालीन युग के यश और धन के लिए हिंदुस्तान को लूटने आया, वे इस्लाम के गाजी नहीं, वे सिर्फ अपनी सल्तनतों के, अपने निजी स्वार्थों के बानी थे। इस्लाम को बीच में मत घसीटिए... इस्लाम एक मजहब के रूप में अलग था, पर जो मुसलमान बना उसने अपनी लूटमार के लिए इस्लाम का परचम उठाया।... हिंदुस्तान पर इस्लाम ने नहीं, मुसलमानों ने अपनी मध्यकालीन चेतना और सामंती मूल्यों के तहत स्वार्थों को हासिल करने के लिए आक्रमण किए हैं।“

     यहां मुसलमानों के द्वारा किये गए नैतिक मूल्यों के विघटन को दर्शाया गया है कि निजी हितों के लिए उन्होंने मंदिर जैसे पवित्र स्थानों को भी हानि पहुँचाई। अतः विभाजन ने मनुष्य के नैतिक मूल्यों को समाप्त कर दिया था। मनुष्य में स्वार्थ भावना पैदा हो गई थी। कई लोग तो अपने संप्रदाय के बारे में न सोचकर दूसरे संप्रदाय को महत्व दे रहे थे। व्यक्ति और कि जान की परवाह न करके अपनी जान बचाने में लगा हुआ था। ये सब नैतिकता को समाप्त कर रहे थे। इस प्रकार नैतिक मूल्य बदलते तथा खंडित होते हुए दिखाई पड़ते हैं प्रेम, स्नेह, दया, सेवा आदि मूल्य में कृत्रिमता आ गई थी। विभाजन के समय मनुष्य अपने पुराने मूल्यों को छोड़कर नए मूल्यों को अपनाने के लिए तैयार था।

2. अत्याचार:

           विभाजन के समय ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई कि लोग एक-दूसरे पर अत्याचार करने लगे। मानव-मानव न रहकर दानव बन गया। घिनौने अत्याचारों से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी। हर तरफ खून, लाशें, चीख-पुकार, रोना, दहाड़ना सुनाई देने लगी। दृश्य इतना भयानक हो गया कि हर तरफ चील और कौए लाशों पर मंडराते नजर आने लगे। इन अत्याचारों का इतना यथार्थ चित्रण हुआ है कि आज भी पढ़ने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

     ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में उपन्यासकार ने विभिन्न देशों व समाजों में घटित होने वाले अत्याचारों, घटनाओं को आधार बनाकर अपने उपन्यास को अग्रसर किया है। सत्ता और विभिन्न कट्टरवादी संगठन अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए अनेक अत्याचार करते है। दुनिया का कोई भी कोना इन अत्याचारों से अछूता नहीं है।

     “सर! जब आप भाषण देने लगते है, तो संसार के किसी भी हिस्से में कहीं न कहीं रक्तपात हो जाता है... कोई हिंसक आदमी जाग पड़ता है और नस्ल या मजहब के नाम पर लोगों को भड़का देता है और वह मजहब या नस्ल अपना बदला चुकाने लगती है।... पर ये कौन लोग हैं, जो सभ्यता की कहानी को रोककर बर्बरता की दास्तानें बताना चाहते हैं?

     सर ये ३९ लोग दक्षिण आफ्रीका के बाईपोतोंग इलाके से अभी-अभी मारकर आपकी अदालत में हाजिर हुए हैं ये काले अफ्रीकी है, जिन्हें गोरी चमड़ी वाली साउथ अफ्रिका सरकार ने ही मरवाया है। लेकिन वहां तो नेल्सन मंडेला की अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और डी क्लार्क की गोरी सरकार ने समझौता हो चुका है कि वे मिल-जुलकर नया संविधान बनाएंगे और कालों का उनको नैसर्गिक अधिकार देंगे फिर ये हत्याकांड क्यों? सर! अंग्रेज गोरों ने अफ्रिकनों की एक पार्टी ‘झरवंदा फ्रीडम पार्टी’ को तोड़ लिया है और यह हत्याकांड उन्हीं से करवाया है।“

     विश्व के सभी देशों में जहाँ-जहाँ आतंकवाद फैला था, अत्याचार हुए थे उसका चित्र लेखक ने प्रस्तुत किया है।

     अत्याचार की समस्या को पूरा देश दंशित है। “अभी मोहम्मद-बिन-कासिम का बयान जारी था कि कश्मीर से जबरदस्त शोर उठा। ताजिकिस्तान चीखने लगा। ईराक पर अमरीकी बमबारी आतिशबाजी की तरह दिखाई देने लगी। बोस्नियां के मुसलमानों पर दोबारा सर्वे ने हमला कर दिया। श्रीलंका में प्रभाकरन ने दो हजार नागरिक जार से मारकर जमीन में गड़ा दिए थे, उनके पिंजर निकल-निकल कर कराहने लगे!”

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने हिन्दूओं-मुसलमानों के एक-दूसरे पर किये गए अत्याचारों को उजागर किया है। भारत सरकार ने मुसलमानों की रक्षा का प्रयत्न किया। मुसलमानों से लदी गाड़ियां जब भारत की ओर से पाकिस्तान की ओर प्रस्थान करती तो मार्ग में उन गाड़ियों पर हिन्दू-सिक्ख आक्रमण कर देते मुस्लिम यात्रियों की हत्या करने और सामान लूटने का प्रयत्न करते। जब एक गाड़ी के लगभग आधे यात्री सरहिंद स्टेशन के पास कत्ल या जख्मी कर दिए गए और अभी कत्ल करने का अभियान चल रहा था कि “बहुत सी राइफलें एक-साथ दगने के धमाके सुनाई दिये। फर्से भाले लिए लोग गाड़ी से कूद कर बस्ती की ओर भागने लगे। जीपे दौड़ती चली आ रही थी। राइफलें लिए सिपाही जीपों से कूद पड़े। मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों के वर्णन किया गया है।

     सरकार को रास्ते में सूचना मिल चुकी थी कि गाड़ी पर रास्ते में आक्रमण होने की आशंका है। जब तक गाड़ी के साथ पर्याप्त सशस्त्र पुलिस भेजने का प्रबंध नहीं होता तब तक गाड़ी को आगे जाने नहीं दिया जाएगा। अतः गाड़ी के यात्रियों को सरकारी हुक्म सुनाया गया- “सब लोग गाड़ी से दो मिनट में उतर आएं। आगे लाइन पर हमले का खतरा है। गाड़ी आगे नहीं जाएगी। सवारियों को स्टेशन से बाहर जाने की इजाजत नहीं है। सवारियों को हिफाजत के लिए मुस्लिम पनाहगुजी कैम्प में जाना होगा।“ मुसलमानों को अत्याचारों से बचाने के लिए उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने का प्रयत्न किया जा रहा था।

     जयदेव पुरी जब लुधियाना से फिरोजपुर जाने वाली गाड़ी में सवार हुए था। मोगा स्टेशन पर जब उसकी गाड़ी पहुँची तो उसने देखा -स्टेशन वीरान है, प्लेटफार्म पर जगह-जगह खून फैला हुआ है। लाशों पड़ी हुई है। उन दिनों भारत में पूर्वी पंजाब का वातावरण इतना ही भत्स हो गया था कि रेलगाड़ी की यात्रा हो या सड़क की यात्रा रास्ते में जगह-जगह लाशें दिखाई देती थी। पाकिस्तान से तारा आदि अपहत नारियों को लाने वाली बसें जब भारत की सीमा से कुछ मील की दूरी पर थी तब सहसा तीखी दुर्गंध के कारण बसों के यात्री बेचैन हो उठे- “सड़क के दोनों ओर बहुत सी आधी खाई, धूप से सूखकर वर्षा से सड़कर काली हो गयी लाशों पड़ी हुई थी। लाशों पर बहुत से गिद्ध कूद और उछल रहे थे, कुछ बैठे चोंचें मार रहे थे। जहां-तहां टूटे हुए बक्स मुँह बायें पड़े थे। अधजली बसें सड़क के दाएं-बाएं पड़ी थी।“ इस दुर्गंध से यात्रियों को अत्यंत दुःखी देखकर तारा की बस के ड्राइवर ने बताया कि वह महीने भर से यही हाल देख रहा है।

     ‘झुठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने हिन्दूओं द्वारा मुसलमानों और मुसलमानों द्वारा हिन्दूओं पर किये गए भयानक अत्याचारों को उजागर किया है। दंगों में चाहे वे मुस्लिम थे या हिन्दू दोनों ने ही पहल की। जो जिस क्षेत्र में समर्थ था, उसने दूसरे को दबाने और मारने में कोई कसर न छोड़ी। “सुबह-सुबह खबर फैल गई कि ‘सरी मुहल्ले’ से हिन्दूओं के ऊंचे मकान से, उस मुहल्ले से लगी मुसलमानों के नीचे मकानों की बस्ती पर, मुँह अंधेरे बंदूकों से गोलियां चलाई गई। अपनी छत पर सोते हुए सात मुसलमान मारे गए थे।“

     यशपाल ने लिखा है कि रेलवे मजदूर यूनियन लाहौर की सबसे शक्तिशाली यूनियन थी और सांप्रदायिक सद्भाव बनाये रखने के पक्ष में थी। जब उन पर बम फेंका गया। रेलवे मजदूर यूनियन के पैंतालीस हजार मजदूर जब दंगा करने पर उतर आए तक लाहौर को शांत रखना असंभव हो गया। हुआ यह कि एक दिन “रेलवे वर्कशाप की एक बजे की छुट्टी में अचानक बड़ा जबरदस्त बम फटा। तीन मर गए और बाईस आपसी जख्मी हुए। वर्कशाप बंद हो गई मजदूर जिधर-जिधर गये, दंगा फैलता गया।“

‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही मासूम रज़ा दर्शाया हैं कि भारत विभाजन की विधिवत घोषणा कर दी गयी और पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो सांप्रदायिकता एवं अत्याचारों में बड़ी वृद्धि हुई। गंगौली का सफिरवा इस स्थिति से बड़ा परेशान है कि और वह अपनी परेशानी मिद दाद को बताता है- “आजकल मारकाट मची है पाकिस्तान बन जाय से त मार काट अउरों बढ़ गई है बड़ी आफत है साहब। अब त रेल रोक-रोक कर आदमी मारे जा रहे हैं लाख डेढ़ लाख से कम आदमी ना मारे गई।“

     अतः विभाजन के समय तरह-तरह के अत्याचार किये जा रहे थे। ट्रेन रोक-रोककर कत्ल किये जा रहे थे। मानव दैत्य बन गया था। दंगे-फासद, सांप्रदायिकता ने भीषण रूप धारण कर लिया था। मनुष्य इतना स्वार्थी बन गया था कि वह अपने हितों की के लिए अत्याचार करने से भी नहीं चूक रहा था।

     ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में उपन्यासकार कमलेश्वर ने विवेचना की है कि अत्याचार युद्धों के ही परिणाम है। युद्धों से ही अकाल मृत्यु होती है। मौत जिंदगी का सच है लेकिन आज मनुष्य ने प्राकृतिक विधि-विधानों से अलग होकर एक और मृत्यु की खोज कर ली है। व्यर्थ के युद्ध इस मौत के प्रतीक है “देखो! अदीब ब्रह्मांड की अमूर्त पराशक्ति ने अशक्त हो गए शरीर के आत्मा की स्वाभाविक मुक्ति का विधान बनाया था, लेकिन जब से मनुष्य ने मृत्यु का आविष्कार किया है, तब से युद्धों में अप्राकृतिक मृत्युएं होने लगी है..... नरसंहार होने लगे है..... मैं कुछ नहीं कर पाता..... बेबस हूँ..... इसलिए अदीब! अप्राकृतिक मृत्यु के साथ मैं मरता हूँ..... मैं एक ही समय में सहस्रों मृत्युएं स्वीकार करता हूँ.....।“ आज मनुष्य एक बार नहीं सैकड़ों बार मरता हैं वह अत्याचारों को सहन करता है।

     निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि देश-विभाजन के समय नारी तो मात्र भोग विलास की वस्तु बनकर रह गयी थी। हिन्दू मुस्लिम नारियों पर और मुस्लिम हिन्दू नारियों को अपनी हवस का शिकार बना रहे थे। इस नारी शोषण को करके कई स्त्रियों ने तो अपने प्राणों तक कि बलि दे दी। अपनी रक्षा के लिए कई तो जलती चिताओ में बैठकर सवाह हो गयी। इस प्रकार उस समय नारी शोषण सबसे अधिक हुआ।

3. भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी:

            स्वतंत्रता के मिलते ही जन सामान्य को विश्वास था कि देश के हर क्षेत्र में तीव्रगति से विकास की प्रक्रिया का प्रारंभ होगा किंतु वैसा हुआ नहीं। इसके विपरीत स्वतंत्रता के मिलते ही देश विभाजन की भीषण घटना घटी और भयानक नरसंहार तथा रक्तपात हुआ। इससे लोगों की शारीरिक क्षति तो हुई है, घर-बार उजड़ गये। लोग शरणार्थी बन गए। किन्तु इससे भी अधिक विनाश और क्षति आंतरिक-मानसिक स्तर पर हुई। भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति के कारण, भाई भतीजावाद तथा जातिवाद और रिश्वतखोरी जैसी नये रोग राष्ट्र में पनपने लगे। साम्राज्यवादी प्रवृत्तियाँ पनपने लगी। सत्ता और पद का लोभ तथा स्वार्थ की भावना उनमें तीव्र होने लगी। सभी ने ऐसी नीति अपनाई जिससे भ्रष्टाचार के द्वारा उनके निजी हित साधे जा सके। लोगों में भ्रष्टाचार की नीति इतनी प्रबल हो गयी कि लोगों के लिए राजनीतिक मूल्य की कोई महत्ता नहीं रही।

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने भ्रष्टाचार की नीति को उजागर किया है “जनता का अरबों रुपया करोड़पतियों और सरकारी अफसरों की जेब में चला जा रहा है। भाखड़ा नांगल जाकर तमाशा देख लें। जनता के खर्च पर इतना सीमेंट खरीदा गया है कि भाखड़ा के पचास-साठ मील चारों ओर सब मकान सीमेंट के बन गए हैं। सीमेंट फ़ैक्टरियों की चांदी है, ठेकेदारों की चांदी है, सरकारी अफसरों की चांदी है।“ अतः जितना भी पैसा होता है वह भ्रष्टाचार द्वारा ऐंठ लिया जाता।

     चन्दन के माध्यम से भ्रष्टाचार की नीति को उजागर किया गया है “सरकार मेरे तो आप अन्नदाता है। मालिक, सिर्फ तीन बोरी आटे का परमिट मिला है। घर में तीन बच्चे हैं। बाजार में आग लगी हुई है। पैंतीस रुपये मन आटा बिक रहा है। गिरधारी, सौनसिंह, मूल सब को पाँच-पाँच बोरियों का परमिट मिला है। गरीब पखर, गुलाम को भी पाँच बोरी मिलनी चाहिए।“ इस प्रकार भ्रष्टाचार की नीति का पर्दाफाश किया गया है। हर व्यक्ति अपना उल्लू साधने में लगा हुआ था।

     विभाजन के समय लोग भ्रष्टाचार का सहारा लेकर अपनी स्थिति को सुधारने का प्रयत्न कर रहे थे क्योंकि उस समय धन, रोटी, कपड़ा और मकान एक सबसे बड़ी समस्या थी। भ्रष्टाचार का सहारा लेकर इस समस्या से निजात पाने का प्रयास था। वैसा ही साहित्य में संकेतित हुआ जिसका स्पष्ट उदाहरण इन उपन्यासों में, कहानियों में है।

     समाज में रिश्वत लेना और देना दोनों ही अपराध माने जाते हैं लेकिन विभाजन के समय में इस समस्या ने बड़ा जोर पकड़ा। रिश्वत द्वारा लोग अपने कार्य साध रहे थे। जिसने समाज में कई प्रकार की परेशानियां उत्पन्न कर दी। नैतिकता का अवमूल्यन हुआ।

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल से रिखीराम के माध्यम से रिश्वतखोरी की समस्या को उजागर किया है जिस समय विभाजन हो चुका था और व्यक्ति शरणार्थी होने के बावजूद भी इधर-उधर काम कर रहे थे। रिखीराम हिसाब लिखाते समय पार्सल ऑफिस में काम जल्दी कराने के लिए दुअन्नी-चुवन्नी या अठन्नी चपरासी को देने का खर्च बताता था इस पर मास्टर को आपत्ति ही होती थी क्योंकि उन्हें रिश्वतखोरी से नफरत थी। मास्टर जी एतराज करते हुए कहते हैं- “रिश्वत तो रिश्वत है चाहे पैसे की हो, चाहे हजार रुपए की हो।“ इस प्रकार समाज (society) में व्यक्ति भी जो रिश्वतखोरी (corruption) के खिलाफ थे।

     यहां लेखक ने धांधली और रिश्वत करनेवालों के खिलाफ आवाज उठाई है मास्टर जी पुरी को कहते है कि तुम्ही ने अखबार में लिखा है “सरकार का रुपया जनता का रुपया है। लोटा धोती चुरा लेने वालों को जेल होती है तो पूरे देश और जनता का धन चुराने वालों को फाँसी होनी चाहिए।“

     रिश्वतखोरी एक अपराध है लेकिन आज समाज में इसके बिना किसी की काम नहीं चलता। रिश्वत देने वाला रिश्वत देकर अपना काम निकलवाता है और रिश्वत लेने वाला रिश्वत के जरिये अपने आप को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है। विभाजन के समय लोगों को परिस्थितियाँ ने मजबूत कर दिया था कि वे रिश्वत लेकर अपने आप को और ऊँचे उठा सके।

4. गरीबी:

            स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व समाज में गरीबी की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। निम्न वर्ग का व्यक्ति ही सबसे अधिक आर्थिक संकट झेल रहा था। पेट की भूख, रोजी-रोटी, भविष्य की चिंता इस वर्ग पर हर समय छाई हुई थी। इस प्रकार रोजगार का छीन जाना, शरणार्थी हो जाना इन समस्याओं ने गरीबी को बढ़ावा दिया।

     ‘तमस’ उपन्यास में भीष्म साहनी ने अपने पात्र देवदत्त के माध्यम से व्यक्त किया है कि दंगों के उपरांत पूंजीपति वर्ग सुरक्षित है व नुकसान हुआ मजदूरों का गरीबों का इसी कारण तहसीन के आंकड़े बाबू से पूछता है “गरीब कितने मारे और अमीर कितने।”

     द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारत में खाद्य सामग्री तथा कपड़े का नितांत अभाव हो गया था। गरीब लोग बाजार में से वस्तुये खरीदने का सामर्थ्य नहीं रखते थे। दूसरी ओर राशन की लाइनों में घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने जयदेव की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है। “जयदेव पुरी को एक रुपये की चीनी के लिए पौने दो घंटे तक क्यू में खड़ा होना असह्य व्यथा जान पड़ी। कहां दे देश की स्वतंत्रता के लिए जूझ जाने का विचार और सेर भर चीनी के लिए संघर्ष। परन्तु इससे बचाव न था।“

     प्रगतिवाद भीष्म साहनी ने साधारण तबके की मानसिकता को उभारा है। यह वर्ग जो किसी राजनीतिक विचारधारा से या कांग्रेस, लीग विभाजन आदि से कोई मतलब नहीं रखता। अपनी छोटी-छोटी रोजमर्रा की समस्या या जीवनयापन की समस्याओं से जूझता नजर आता है। उदाहरण- बाबू ने कहा- “आजादी आनेवाली है, मैंने कहा “आए आजादी पर हमें क्या? हम पहले भी बोझ ढ़ोते थे आजादी के बाद भी ढोएंगे।“ इस प्रकार गरीब लोगों की मानसिकता का वर्णन भीष्म साहनी ने किया है।

     देश विभाजन के समय लोगों ने जो दंश झेला उसका वर्णन भीष्म साहनी ने किया है कि अपना पेट भरने के लिए मानवीय रिश्ते भी किस प्रकार खोखले सिद्ध हो रहे थे। नत्थू सिंह सरदार अपने गाँव वापस जाने को तैयार नहीं, उसके मन में एक ख़ौफ बैठ गया है, जिसके तहत वह कैम्प में ही बना रहना चाहता है। शरणार्थी पंडित को अपनी बेटी का पता लग जाने पर भी उसको लेने नहीं जाता। “हमसे अपनी जान नहीं संभाली जाती, बाबूजी दो पैसे जेब में नहीं है, उसे कहां से खिलाएंगे, खुद क्या खाएंगे।“ शरणार्थियों में ऐसे लोग भी थे जो अपनी मरी घरवाली की लाश पर से सोने के कड़े उतारना चाहते थे। भीष्म साहनी ने निष्कर्ष निकाला कि इन दंगों में भी जान-माल का नुकसान गरीब व्यक्ति को अधिक उठाना पड़ा। ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने उजागर किया है कि कुछ व्यक्ति ऐसे थे जो अपने परिवार के लिए पेट भर भोजन भी उपलब्ध नहीं करवा पा रहे थे। शरणार्थी के लिए राशन की मात्रा नियत कर दी थी। उस मात्रा से अधिक मांगने पर कैम्प में राशन बांटने वाले अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहते हैं, “भाई, फी आदमी डेढ़ पाव आटा और छटांक भर दाल का ही ऑर्डर है। जो यह आएगा, उसी को मिलेगा।“ यहाँ पर शरणार्थियों की बेबसी का वर्णन किया गया है।

     उपन्यासकार यशपाल एक छोटी सी लड़की के माध्यम से उनकी आर्थिक तंगी का वर्णन किया है। कांता ने एक छोटी सी पंजाबी लड़की को अखबार का बोझ लिए देखा। लड़की ने कहा आप अखबार तो लेती होगी। अखबार बेचने के लिए वह रही थी। “लड़की ने अखबार कनक को थमा दिया अब किसी दूसरे से लेने की जरूरत नहीं है। रोज दे जाया करूंगी। उदार नहीं दे सकूंगी।“ इस प्रकार आर्थिक मजबूरी का वर्णन किया गया है कि गरीबी के कारण छोटी सी लड़की अखबार बेचने का काम करती है।

     गरीबी व्यक्ति के लिए समाज, राजनीति, विभाजन कोई भी चीज महत्व नहीं रखती। गरीब व्यक्ति अपने परिवार के भरण पोषण के बारे में सोचता है। जहां स्थानांतरण हुआ तो लोग धन आदि की परवाह ना करके अपनी जान बचाकर भागे, जिससे उन्हें हालातों का सामना करना पड़ा। वे खाने के लिए तरसते रहे। छोटे-छोटे बच्चे भरण-पोषण के ख्याल से परेशान होने लगे। पुनर्वास की समस्या गरीबी की समस्या को साथ लेकर आई।

5. सीमा समस्या:

         विभाजन के मुद्दे ने बहुत बड़ी समस्या को जन्म दिया वह थी सीमा समस्या। देश के बंटवारा हो चुका था। उत्तर, पश्चिम सीमा प्रान्त बलूचिस्तान और सिंध तो पूरे के पूरे पाकिस्तान में मान लिए गए, परंतु पंजाब, बंगाल और कुछ सीमा तक असम का भी प्रत्यक्ष विभाजन हुआ। कुछ हिस्सा पाकिस्तान में गया और कुछ हिस्सा भारत में रहा, इसलिए पंजाब और बंगाल में विपरीत दिशाओं में विस्थापन भी हुआ इस विस्थापन का दर्द दोनों देशों में विद्यमान है जिसने सीमा समस्या को जन्म दिया।

     ‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने सीमा समस्या का एक उदाहरण उजागर किया है। जब रेडक्लिफ कमेटी ने लाहौर के उत्तर और दक्षिण में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे की सीमा निश्चित कर दी थी। लाहौर का प्रश्न अभी तय नहीं हुआ था, पर रावी पार का जिला शेखपुरा पाकिस्तान का भाग घोषित कर दिया था। इस घोषणा से पाकिस्तान की सीमा में आने वाले क्षेत्रों के हिन्दू लोग घबरा गए और सुरक्षित स्थान के लिए हाथ-पैर मारने लगे। “पेशावर से शेखपुरा तक के बहुत से हिन्दू भागे चले आ रहे थे। इन शरणार्थियों के लिए राय बहादुर बद्रीदास की कोठी में, शाहालमी के बाहर रतन लाल के तालाब पर, मवाराम के शिवालय में, किले के पास गुरुद्वारा शहीद गंज में और गुरुदत्त भवन के समीप कैम्प बना दिये गये थे।“

     ‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही मासूम रज़ा सीमा समस्या का उदाहरण काली शेरवानियां पहने दो अजनबी लड़कों के माध्यम से दे रहे हैं। एक गंवार स्त्री उनसे पूछती है कि अलीगढ़ पाकिस्तान में जायेगा अथवा नहीं? तब ये लीगी प्रचारक कहते हैं “हम लोगों की कोशिश तो यही है कि अलीगढ़ पाकिस्तान में शामिल हो जाए। क्योंकि इस्लामी तहज़ीब का एक रोशन मीनार है।“ लोगों की समझ में यह नहीं आ रहा था कि विभाजन के बाद कौन सा हिस्सा पाकिस्तान में जायेगा और कौन सा हिस्सा हिन्दुस्तान में रहेगा वे तो मात्र कपास लगा रहे थे।

     ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में कमलेश्वर ने युद्धों का वर्णन किया है, वहीं युद्धों का प्रभाव कैसे हर प्रान्त पर पड़ा कि उसका वर्णन किया है “और उसी समय ऊपर आसमान से गिद्धों की झुंड उतरने लगे, जिससे अंधियारा छा गया... और करोड़ों लाशें जश्न मनाते हुए पैशाची नृत्य करने लगी।“ युद्धों के प्रभाव ने किसी भी जगह को अछूता नहीं छोड़ा था।

     लेखक यहाँ युद्धों का बर्बादी कर रहे हैं। जिसने किसी सीमा को नहीं छोड़ा। “अफगानिस्तान की पथरीली नदियों और चट्टानों पठारों पर कालिशफनोश बंदूकों की आवाज तड़तड़ाने लगी। मासूम बंशीदें, तड़फने, कराहने और चीखने लगे.... वही चीखें मध्य एशिया की छाती को चीरती हुई तुर्की तक पहुँची और अफ्रीका से सूडान सेमिस्त्र होती हुई सऊदी अरब को हिलाने लगी.... और पाकिस्तान की सरजमीं से होती हुई कश्मीर तक पहुँचकर और अधिक तबाही ढाने लगी।“

     निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि देश विभाजन की त्रासदी और सांप्रदायिकता द्वारा प्रतिफलित पूरे समस्याओं को इस अध्याय में बताया गया है। परिवार, समाज, राजनीति से लोगों का मोहभंग हो गया था। मानव मूल्यों का पूरी तरह से विघटन हो चुका था, ना तो वे अब परिवार की, समाज की चिंता कर रहे थे। इस प्रकार नैतिक मूल्य बदलते तथा खंडित होते हुए नजर आ रहे थे। प्रेम, स्नेह, दया, सेवा आदि मूल्यों में कृत्रिमता आ गई थी। अपने स्थानों को छोड़कर विस्थापित हुआ लोग शरणार्थी कहलाये। उन्हें बेरोजगारी, अत्याचार, शोषण आदि अनेक चीजों का सामना करना पड़ा। हिन्दू-मुस्लिम विभेद की जड़े मजबूत हो चुकी थी। विभाजन अपरिहार्य था। शरणार्थियों को पुनर्वास की समस्याएं आयी। कितना-कितना समय उन्हें कैम्पों में गुजरना पड़ा। जहाँ उनकी संख्या अधिक होने पर भी पूरी सुविधाएं भी उन्हें नहीं दे पा रहे थे। अपनी जान बचाकर भागे ऐसे जन समूह के पास खाने-पीने, रहने की दृष्टि से कुछ भी नहीं था। उन्हें बरसों कैम्पों और यहाँ-वहाँ कर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा। वे लोग खाली हाथ लौटे थे इसलिए वे गरीबी का शिकार हो गए थे। चाहे वे अमीर वर्ग था या गरीब वर्ग सबकी जीवन दृष्टि में परिवर्तन आ गए थे। अब व्यक्ति में समाज के प्रति, राजनीतिक हित या परिवार में हित से ऊपर उठकर अपने हित की चिंता कर रहे थे।

संदर्भ;

राही मासूम रज़ा- आधा गाँव

यशपाल- झूठा-सच

कमलेश्वर- कितने पाकिस्तान

एल. मोसले- द लॉस्ट डेज ऑफ ब्रिटिश राज

सूर्यनारायण रणसुभे- देश विभाजन और हिंदी कथा साहित्य

भीष्म साहनी- तमस

राही मासूम रज़ा- आधा गाँव

कमलेश्वर- कितने पाकिस्तान

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