हिन्दी को समृद्ध करती गुजराती की काव्य - संपदा

Dr. Mulla Adam Ali
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पुस्तक का नाम - गुजराती की काव्य संपदा

अनुवादक - क्रांति कनाटे

प्रकाशक - उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष - 2021

मूल्य - ₹170/-

हिन्दी को समृद्ध करती 'गुजराती की काव्य - संपदा'

बी. एल. आच्छा

     किसी भी भारतीय भाषा के सृजन का हिन्दी में आना न केवल हिन्दी बल्कि भारतीयता की धरोहर है। क्रांति कनाटे ने 'गुजराती काव्य संपदा' के अनुवाद के बहाने पन्द्रहवी शती के नरसिंह मेहता से लेकर इक्कीसवीं सदी तक के नामचीन गुजराती कवियों की चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद कर हिन्दी को समृद्ध किया है। भारतीयता का अंतरंग स्वर इस देश की प्रकृति, देशानुराग, भक्ति का अध्यात्म, राष्ट्रीय जागरण, संवेदनाओं के कोमलतम वैयक्तिक पार्श्व, विरह और एकाकीपन की अनुभूतियों जैसे अंतरंग स्वर इन कविताओं में प्रस्फुटित हुए हैं। इसके बावजूद ये कविताएँ गुजरात का अपना मानस-बिम्ब रचती हैं।

   हिन्दी की काव्यधारा में अनेक आन्दोलनों की छा‌या मौजूद है। वादों वाली काव्यधाराएँ अपनी पहचान बनाती हैं। उनमें छायावादी कल्पनाशीलता है और युगीन यथार्थ का चित्रण भी। गुजराती काव्यधारा इन आन्दोलनों से मुक्त नजर आती है। गाँधी की इस छवि से अनुप्राणित काव्य संपदा में राष्ट्रीय जागरण की एक अन्त: प्रवाही साबरमती बिन कोलाहल और झंडाबरदारी समाई हुई है। यह वैसी ही है, जैसे छायावाद को प्रकृति काव्य की कल्पनाशीलता में पलायनवादी कह दिया गया था, मगर उसके भीतर सांस्कृतिक जागरण के ताप को बहुत बाद में पहचान मिली। कई आलोचकों ने छायावाद को शक्ति का काव्य कहा। गुजराती की इस काव्यधारा मे भक्ति का सरल-तरल स्वर है, तो राष्ट्रीय जागरण की मूर्त मुखरता भी। इसमें प्रकृति के नये नये बिम्ब छायावादी आमास देते हैं, पर समूची काव्य यात्रा में आजादी का घोष सुना जा सकता है। और आधुनिकता के इस युग में विस्थापन और एकाकीपन की व्यथा को भी। इसलिए सम‌काल इन कविताओं के उत्तरार्द्ध काल में जितना ध्वनित है, उतना ही प्रारंभिक काल रागानुगा भक्ति में | पर इनमें आन्दोलनों की हलचल नहीं है, युग की छाया अवश्य प्रतिबिम्बित है।

       संपादिका- अनुवादिका ने प्रत्येक कवि का कृति परिचय तो दिया ही है, पर उनके अवदान और समीक्षा के आलोचकीय उद्धरण भी दिये हैं, ताकि गुजराती कविता में उनके मूल्यांकन और महत्व की पड़ताल हो सके। सुखद यह है कि गुजराती और हिन्दी एक ही मूल की भाषा है, इसलिए अनुवाद में गुजराती की स्थानीयता या आँचलिकता की झलक हिन्दी पाठक के लिए आसान है। निश्चय ही यह श्रम साध्य कार्य है, पर गुजराती में इन कवियों के मुकाम को रेखांकित करता है। अनुवादित होकर ये कविताएँ कुछ शब्दों को छोड़कर हिन्दी की लगती है, यह अनुवाद की सहजता है। दरअसल कविता भावसंपदा को जीती है और अन्य भाषा में उसका रूपांतरण हो जाए तो यह अनुवाद की सरसता है

           नरसिंह मेहता पन्द्रहवी सदी के भक्त कवि हैं । प्रकृति, जीवन और देह में श्रीहरि को ही देखते हैं, बिल्कुल अद्वय रूप में- "वृक्ष में बीज तू, बीज में वृक्ष तू।" यह भक्ति आत्म तत्व को परखती है, बाह्य कर्मकांडों को नहीं। न शास्त्रों की रटन को ही लक्ष्य मानती है। बल्कि रसखान की तरह श्रीहरि और ब्रज-धूलि में रम जाती है। 'दयाराम अठारहवीं सदी के कवि हैं, जिन्हें ब्रजमंडल इतना प्रिय है कि बैकुंठ तक नहीं जाना चाहते। प्रयोगी तौर पर उन्होंने भी हिंदी महाकाव्यों के बारहमासा की तरह एक ही कविता में राधिका की

 बारहमासा अनुभूतियों को व्यक्त किया है। उन्नीसवीं सदी की कवयित्री गंगासती की भजन संपदा की धुरी है-' मेरु तो डोले, पर जिसका मन ना डोले। भले ही टूट पड़े ब्रह्मांड जी।" सद्‌गुरु के शब्दों की अधिकारी और व्यक्ति के भीतर के मान से रहित यह निष्ठा प्रभु प्राप्ति की राह बना देती है। इसी काल के हरिहर भट्ट की 'एक ही दे चिंगारी, महानल!' तो गाँधी की प्रार्थना सभा और पाठशालाओं में गाई जाती थी। इस अकेली कविता से वे जीवन्त हैं।

"गुजराती की काव्य संपदा" पुस्तक
अनुवादक - क्रांति कनाटे

         पद्मश्री दुला भाया काग बीसवीं सदी के कवि हैं। यद्यपि संकलित कविता में राम भक्ति का दर्शन है। केवट प्रसंग में 'उतराई' के लिए राम पूछते हैं, तो केवट का उत्तर समर्पण की चातुर्यभरी निष्ठा का उदाहरण है- "नाई से कभी नाई ना ले, हम तो धंधा भाई जी का ग ना ले कभी ख‌लासी से खलासी उतराई जी।" अन्य कविताओं में अनुवादिकाने प्रकृति वर्णन के इन्द्रधनुषी रंगों, शोषितों की पीड़ा, राष्ट्र की अखंडता, और भूदान आंदोलन में दान का उल्लेख किया है। झवेरचन्द मेघाणी स्वतंत्रता- पूर्व के कवि हैं। इसलिए परतंत्रता और शोषितों की पीड़ा का स्वर मुखर है। केसरिया रंग में पगी उनकी राष्ट्रभक्ति, दलित-राज की नवशक्ति, पिंजरे के पंछी की राष्ट्रवादी व्यथा- कथा,सर्वमंगल की आकांक्षा और गाँधी के साथ सकर्मक जुड़ाव कली कविताओं का आर्तस्वर उन्हें नवजागरण से मंडित करता है। प्रकृति बिम्बों में भी जागरण के युगीन स्वर झंकृत करते हैं। कारावास से वापसी पर गांधी को समर्पित ये पंक्तियाँ-" पराजित को अक्षत-कुंकुम लगाओ। पराजित के छत्र-चंवर डुलाओ। पराजित का मुख देखो योद्धाओं ! सब रुके, न रोको ! एक बेताला राग" ऊर्जस्वित स्वर का प्रयाण है। जनोन्मुखी सोच और गाँधी का सकर्मक अहिंसा का संदेश उनकी कविताओं का आन्तर-पक्ष है।

          भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कृत उमाशंकर जोशी का प्रदेय सुविख्यात है। उनकी कविताओं में भारतीय आत्मा का जितना अंतर्नाद है, उतनी ही लयात्मक अनुगूंज। नये सादृश्यों का प्रयोग तो 'जीवन -धूप' के रूप में खिला है, मगर इस बिम्ब में कितना कुछ समाया है-'कवि बोला, "यह कपड़े धो रहा। उनमें से उड़ते जलबिन्दु / हृदय नाचता, इन्द्रधनु देखकर/ जो जन्मता यह शत वर्ष पूर्व / तो पाता वर्डस्वर्थ का पद।" 'धोबी' शीर्षक कविता में कवि, वैज्ञानिक आदि इन स्वप्निल से रंगों' को निहार रहे हैं, पर 'शूद्रत्व' संज्ञा से जड़ित धोबी इस सौंदर्यबोध से अनजान ।प्रकृति का वैभव इन कविताओं में भरपूर है, मगर तिजोरी, और हँसिया का द्वंद्व पेट की आग और शोषण को मुखर कर जाते हैं। हिन्दी में चाहे इसे प्रगतिशील कविता कह दें या गुजराती कविता में जीवन का यथार्थ, पर ये कविताएँ इसतरह की चेतना में की जागृति तो लाती है, पर 'वाद' से नामित नहीं है।

              राजेन्द्र शाह भी ज्ञानपीठ से सम्मानित हैं। छायावाद सी दार्शनिकता, चिरंतन सत्य, प्रणय और विरह की अनुभूतियाँ, शब्दों का मंत्रत्व,जाति से परे का निर्मल कबीरत्व, शोषित की चिंता और चेतनामय दृष्टि एक विशेषण- विपर्यय (Transferred Epithet) गढ़ती है-"उज्ज्वल अंधियार "।इसमें जितनी दर्शन की 'चिति' है, उतना ही शोषण रहित मानवता की जीवन- आकांक्षा बीसवीं सदी के कवि जयंत पाठक अपने लघु प्रकृति चित्रों में जीवन को गहराई से संजोते हैं-' बटेर की सीटी और चिड़ि‌या का चीख। 'जन्मदिन पर' कविता में-" इस धरा का दुख अपार" पर उसे भी उस पार ले जाने की. प्राणवत्ता।' जी गया होता' कविता में रिश्तों की दरकार भरे चाहत के शब्दों की संवादी आकांक्षा। हसित बूच के काव्य में इस पार- उस पार की रहस्य भावना बहुत कुछ छायावादी है।पर' मेरे गरबे में कविता से जीवन का उल्लास गीत की लय में सधा है। 'समझ गयी मैं नाथ' कविता में प्राकृतिक उपमानों के माध्यम से ईश्वर और आत्मा की अद्वयता हिन्दी की छायावादी कविता का ही पाठ बन जाती है। 

         जगदीश जोशी की कविताओं में ईश्वर-प्रकृति- कवि का भावकत्व त्रैक्य बनाता है। जीवन की गहरी चाह उनकी कविताओं का स्पन्दन है - "मैंने मौत से भी चाल चली है। अपने बेचैन आकाश में मैंने सूर्य-चन्द्र को एकसाथ प्रकटाया है।" विकास की दौड़ में सभ्यता का संकट और प्रकृति का बेशुमार दोहन उनकी चिंता है। पौराणिक कथा में उन्होंने समकाल को सहेजते हुए गीतों की लय का साधा है। 'सूरज का तकिया', दूज के चाँद की नाव, केले के पत्ते सी मखमली हवा, निर्वसन पवन, समुद्र की इन्द्रधनु मुद्रा, पेड़ के झरोखे, नदी में मछलियों के प्रतिबिम्ब जैसे उपमान चौंकाते हैं। पर अतीत और वर्तमान, समृतियों और सपनों में जीवनानुभूतियो को संजो देते हैं। छायावाद-सी मूर्त-अमूर्त रूपकों की प्रयोगधर्मिता का कला पक्ष जीवन की अनदेखी नहीं करता -"तुम्हारे सभ्य समाज में/विचरते वनपशुओं को/दावानल बन जला दूं/ भस्म कर दूँ?"

        चिनू मोदी अभिव्यक्ति- सहज कवि हैं। जीवन की दर्दीली अनुभूतियों को वे भारी भरकम शब्दों से चमकाते नहीं हैं। संवादीपन और मिथकों के हल्के से संकेतों से इसतरह छिटका देते हैं कि आहत मन, एकाकीपन, प्रीत के भाव, भागते जीवन का दैन्य- विषाद, आकांक्षाओं के सम्मुख अवरोध पाठकीय सहचार का हिस्सा बन जाते हैं। 'कैसे हो, अच्छे हो ? ' कविता के भीतर एक खोखली सी व्यंजना खारे जल का स्वाद चखाती है। ऐसे ही कुछ उपमान बहुत व्यंजक हैं-

'डामर का यह काला रस्ता नाग बनकर डसता', या कि 'पानी का रे जीव ,रेत में तैरने तड़पे!'. ..या कि 'जरा से सुख का ये तूफान देखो / ग़ज़ल नाम का गाँव बसने न दे।" 

         मनोज खंडेरिया की कविताओं में सांस्कृतिक राग और लोक-जीवन की तन्मयता बहुत गहरी है। कहीं कहीं भक्ति का उदात्त छोर भी करताल बजा जाता है शाब्दिक व्यंजना में । मिथकीय जुड़ाव से ये कविताएँ पुराने कालक्रम को आधुनिक व्यंजना तक ले आती है। आसान अदायगी और वास्तविकताओं का प्रतिबिम्बन अंतरंग रूपर्शों की छाया है- "आज तो भावहीन अंधेरे में खड़ी हूँ।" ग़ज़लों में भी शब्दों का चयन दृश्यानुभूतियों की लड़ी को असरदार बना देता है-" हजारों मिलेंगे मयूरासन के सिंहासन / नयन के अश्रुजड़ित तख्त का कोई विकल्प नहीं।" 

        महेन्द्रसिंह जड़ेजा के लिए कविता तो कवि से सीधे पाठक में संप्रेषण है - एक हृदय से दूसरे हृदय तक पहुँचे/ वह कविता ।" उनके भीतर की दर्शन की गहराइ‌याँ हैं, जो प्रतीकात्मक रूप से सार्वकालिक सत्ता का बोध कराती है- ''ईश' कहाँ विलीन होगी चेतना | तेज को प्रकटाता अंधियार हूँ।" जिन्दगी सदैव हरी कच्च नहीं होती, न हर पल प्रफुल्लता का। यही जीवन है और जीवन की नियति भी। इसलिए मृत्यु के अवसाद को भी कितने उजले चेतस के साथ व्यक्त कर जाते हैं- "मेरे लिए हुए समय के फूल पर /मेरी मृत्यु की तितली आकर बैठेगी।" सृष्टि- चेतना और उसमें अपनी सत्ता के वितान से उनकी कविताएँ शाश्वती नजर आती हैं। जीवन की आकांक्षा इस सारे दर्शन में केन्द्रीय है-" खेत की खड़ी फसल जैसा | हरियाला गीत/ तुम फिर से गाना / पक्षी उड़ आएँगे।" 

     गुजराती की इन कविताओं में भक्ति और संस्कृति के राग जितने गहरे हैं, समकाल के संघर्षों की व्यथा भी उतनी ही मुखर| मगर सजल जीवनानुभूतियाँ समकाल के इन अवसादों में भी मृत्यु की छाया के बावजूद चिरंतन जीवन की चिन्मयी आस्था है। भक्ति आंदोलन और स्वतंत्रता संग्राम की प्रतिध्वनियां तो भारतीय भाषाओं के साहित्य में हमारे सांस्कृतिक भूगोल को एकाकार करते हैं।पर मनुष्य, प्रकृति और बदलते जीवन के संघर्ष अब साहित्य का केंद्रीय स्वर बनते जा रहे हैं। गुजराती की यह काव्य संपदा अपनी प्रादेशिक अभिव्यक्ति में विशिष्ट होकर भी अपने समय और भारतीय जनजीवन की मुख्य धारा की पहचान करवाती है।

समीक्षा - बी. एल. आच्छा

बी. एल. आच्छा

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