पुस्तक समीक्षा: ग्रामीण परिवेश का सजीव मूल्यांकन है - सोंधी महक

Dr. Mulla Adam Ali
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ग्रामीण परिवेश का सजीव मूल्यांकन है

'सोंधी महक'

काव्य संग्रह: सोंधी महक (ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित)
रचनाकार: अशोक श्रीवास्तव "कुमुद", प्रयागराज
पेज-128, पेपर बैक
संस्करण : प्रथम संस्करण
ISBN: 978-81-925218-10-9
मूल्य: ₹175/- 
प्रकाशक: गुफ्तगू पब्लिकेशन, 123A/1, हरवारा, धूमनगंज, प्रयागराज- 211015
उपलब्धता (ऑनलाइन): फ्लिपकार्ट पर जल्द ही उपलब्ध होगी।
संपर्क सूत्र : 9452322287

जब कोई साहित्य-शिल्पी हृदय-रत्नाकर से शब्द-सीपियाँ निकाल, अर्थ-संपुट खोल भाव-मोतियों की सुंदर लड़ियाँ गूँथता है तो एक मनभावन काव्यालंकार रूप लेने लगता है। शब्द, अर्थ, भाव, लय, और उद्देश्य के सहज गुम्फन से की गई सर्जना उसके जीवन की अमूल्य-निधि होती है।

             (समरांगण से)

कवि-कर्म की सार्थकता तभी जान पड़ती है जब वह समाज के हाशिये पर खड़े आखरी व्यक्ति की पीड़ा,वेदना को महसूस कर उसे लेखनी से संबल प्रदान करें।

अपने जीवन के हर एक लम्हें को जो उसने अनुभव किया या कर रहा है उसे शब्द दें। शहरी जिन्दगी की चकाचौँध से दूर गाँव की हर कसक को महसूस कर उसे दूर करने का उपाय सुझाएँ।

समाज को नई सोच, नई उम्मीद,नई उमंग से भरकर उसकी विसंगतियों को दूर कर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की वकालात कर आदर्श समाज का निर्माण करें।

निश्चित ही ऐसा कवि समाज का सच्चा पथ-प्रदर्शक , समाज सुधारक होता है। आदरणीय दादा (अग्रज) अशोक श्रीवास्तव 'कुमुद' साहब की कविताएँ इन सब विशेषताओं पर शत प्रतिशत खरी उतर रही हैं। कविता संग्रह ' सोंधी महक ' जैसा नाम वैसी ही कविताएं। मिट्टी की बात मिट्टी से करती। महकती मिट्टी की सोंधी महक को यहां-वहां सर्वत्र फैलाती। मन को हरती-सी जान पड़ती हैं।

गणेश वंदना, शारदे वंदना से अागे बढ़ता हुआ जब मैं ' बुधिया' पर आया तो पढ़कर कुछ देर तक मौन हो गया। बेबसी, बेकारी, लाचारी ये सारे शब्द जी उठे इन सबके नीचे दब गया बेचारा गरीब किसान बुधिया यह बुधिया कोई एक बुधिया नहीं है ये तो हर गाँव में अपने जीवन के लिए संघर्ष करता दिखाई दे जाता है।

बढ़ती मँहगाई की मार झेलता बुधिया - पंक्तियाँ देखे।

बिजली, डीजल दिन-दिन बढ़ता,

भैंस गई अब पानी में।

कर्जदार हो बुधिया रौवे,

माँझा ढील किसानी में।

किसान की स्थिति का मार्मिक चित्रण हर किसी की आँखें नम कर सकता है।

साँप-छछुंदर गति सी बुधिया,

फँसा हुआ अमराई में।

समझ न पावै जाय कहाँ अब,

गिरै कुआँ अरु खाई में।

'कुमुद' साहब की कविताएँ हर उस ग्रामीण का जीवन्त चित्रण है जो थका-हारा, बेकस, लाचार है।

वह कभी ईश्वर की मार का शिकार बनता है तो कभी निजाम की मार का; कभी अदालत की चक्करघनी बन घुमता है तो कभी रिश्वतखोर का निवाला बन जाता है।

कोर्ट कचहरी खेल निराला,

करता गिटपिट बाबू बा।

रुपये के पहिए पर चलती,

ना फाइल पर काबू बा।

'बुधिया और दीवाली ' कविता में मँहगाई की मार सहता ग्रामीण जीवन दीन-हीन हो गया है।

दीवाली जैसा त्योहार मानना भी उसके वश में नहीं है।

आटा,चावल,दाल,मँहग बा,

जेब मुकद्दर सा खाली।

घर में भूँजी भाँग नहीं बा,

सून गरीबन दीवाली।

आदरणीय 'कुमुद'साहब की एक एक कविता गाँव की हर परत को खोलकर वास्तविकता से रुबरू करती हैं।

 गाँव का बुजुर्ग बुढ़े बरगद के समान हो गया है।

बहुत ही मार्मिक चित्रण करती यह रचना ' बरगद और बुजुर्ग' हर उस बुजुर्ग की परिभाषा है जो जीवन की तरुणाई के संगी साथियों की दूरी को सहता हुआ एकाकी जीवन जीने पर विवश है।

 कोई ना अब साथी संगी,

साथ बचा अमराई में।

कटे बुढ़ापा कैसे पूछे,

बरगद अब तनहाई में।


नीम आम वटवृक्ष कभी थे,

साथी सब तरुणाई में।

आज अकेला बरगद बूढ़ा,

बचा हुआ अमराई में।

लोकसंस्कृति लोकभाषा की सजीवता प्रदान करती आदरणीय 'कुमुद' साहब की कविताएँ गाँव, खेत खलियान के गीत गाती हुई मचलती अल्हड़ नव तरुणी सी जान पड़ती है तो कभी दुखियारी औरत की पीड़ा को महसूस कर बिलखती सी। तो कभी कन्या वध पर करारी चोट कर उसे गृहलक्ष्मी की संज्ञा से परिचय करवाते है।

बोझ लगे क्यों कन्या सब को,

शोक जनम पर काहे का।

गृहलक्ष्मी कुलवधू कहावै,

फिर सब क्यों मिलि डाहे का।

कविताएँ ज्यों ज्यों उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। नई ऊँचाइयाँ प्रदान करती है। गाँव की हर एक चीज स्थान को उनके शीर्षक जीवन्त करते हैं।

'ग्रामीण अस्पताल' कविता में आदरणीय 'कुमुद' साहब सरकारी व्यवस्था पर करारा प्रहार करते है।

अस्पताल में बोर्ड टँगा बा,

दवा यहाँ लिखवावै बा।

दवा दुकाने दवा मिलेगी,

पट्टी आपन लावै बा।

सरकारी तनख्वाह पर मजे करते डॉक्टर की खींचाई करती यह पंक्तियाँ।

डॉक्टर साहब दूर शहर में,

नर्सिंग हॉम चलावै का।

सरकारी तनखाह मिलती है,

मक्खन रोज चटावै का।

इसी तरह की कई कविताएं जो सभी एक से बढ़कर एक है।

हर कविता का अपना परिवेश है। अपना विषय है जिसे वह पूरी तरह सार्थक करती है।

कोरोना के हालात पर भी आपकी लेखनी अलग अलग मत को निरुपित करती है।

पंक्तियाँ देखे।

रोज रोज बदले दुनियाँ,

फँसी काल-पाश में।

दूर से सलाम ठोकैं,

आवे नाहीं पास में।

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मजनूँ की लैला भी,

खिचड़ी पे आय रही।

सुबह शाम रोज रोज,

नैना लड़ाय रही।

इस तरह की अठखेलियाँ करती हँसती,हँसाती तो कभी रोती रुलाती आदरणीय 'कुमुद' साहब की कविताएँ। मानवीय संवेदना के धरातल पर देहाती दुनियाँ से एकाकार कराती हुई। आगे बढ़ती हैं।

आपकी कविताएं आपके अनुभव, सोच परिवेश पर पकड़ और कल्पना लोक की विचरण शक्ति को उजागर करती है।

लोक जीवन के विविध-रूप रंग को सुगंध से भरती आपकी कविताएं पाठक को बाँधे रखने में समर्थ है। लोकभाषा पर आपकी पकड़ मजबूत है। 

आपके इस कविता संग्रह को पढ़कर मैंने बहुत कुछ नया अनुभव किया, नया पाया और नये शब्दों को अपने कोश में भरा।

मैं आपके इस साहित्य योगदान के लिए आपको नतमस्तक होकर प्रणाम् करता हूँ। आपका यह साहित्यिक योगदान मेरे जैसे नौसिखियों का मार्गदर्शन करेगा। 

मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप इसी तरह साहित्य सेवा करते रहे और मेरे जैसे नौसिखियों का मार्गदर्शन करते रहे। आपके स्वस्थ जीवन की मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ।

समीक्षक
हेमराज सिंह 'हेम' 
कोटा, राजस्थान

26 दिसंबर को काव्य कृति "सोंधी महक" के विमोचन का एक मनोहर दृश्य

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