बच्चों में मूल्य निर्माण और अभिभावकों के उत्तरदायित्व

Dr. Mulla Adam Ali
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Role Of Parents In Inculcating Values

Role Of Parents In Inculcating Values

Role of Parents in Education of Their Children

बच्चों में मूल्य निर्माण और अभिभावकों के उत्तरदायित्व 

बच्चा जब संसार में जन्म लेता है, तब उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक एवं नैसर्गिक होती हैं। जन्म के समय उसका मस्तिष्क कोरी स्लेट के समान होता है। जो कुछ उसके मस्तिष्क पर लिखा जाता है, वह सदा के लिए रह जाता है। उसकी प्राथमिक पाठशाला परिवार ही है। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में मुख्यतः भावनात्मक एवं गत्यात्मक क्रियाओं का उपयुक्त विकास ही उसके व्यक्तित्व का आधार स्तम्भ बनता है। इन्हीं आधार स्तम्भों पर मानवीय जीवन का ढांचा अलग-अलग रूपों में निर्मित होता है। इन आधार स्तम्भों को खड़ा करने में अभिभावक की अहम भूमिका होती है, जहाँ से वह प्रारंभिक संस्कार रूपी जीवन मूल्यों को अपने में समाहित करता है।

जन्म के समय बच्चा गीली मिट्टी के समान होता है, यह बात शिक्षा विदों के द्वारा सिद्ध हो चुकी है। उसके लायक एवं नालायक होने का प्रश्न सीधे परिवार से जुड़ता है। परिवार ही उसकी प्राथमिक पाठशाला है, जहाँ उसका निर्माण होता है। प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का अवलोकन करें तो गर्भधारण के समय से ही उसको संस्कारों में बाँधने की व्यवस्था मिलती है। धर्मशास्त्रों में वर्णित सोलह संस्कारों में से उपनयन से पहले के दस संस्कार पारिवारिक वातावरण में ही सम्पन्न होते हैं, जो बच्चों में सामाजिक मूल्यों का निर्माण करते हैं। इन संस्कारों को संपन्न कराने की जिम्मेदारी अभिभावक की होती थी। शास्त्रों में वर्णित एक उदाहरण जो अभिभावक के दायित्व निर्धारित करता है -

लालयेत पंचवर्षाणि दसवर्षाणि ताडयेत्।

प्राप्ते तु षोडसे वर्षे पुत्रे मित्रवत आचरेत्।।

अर्थात् पाँचवर्ष तक बालक को लालन-पालन करें, बाद के दस वर्ष तक उसका ताड़न करें और सोलह वर्ष का होने पर उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार करें। रामचरित मानस में तुलसीदास जी अभिभावकों के उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए लिखते हैं - 'बाढहिं पुत्र पिता के धर्मे, खेती उपजहिं अपने कर्मे' - यहाँ पिता का धर्म अभिभावकों की जिम्मेदारियों की ओर संकेत करता है। अर्थात् बच्चे में संस्कार देना पिता का धर्म है।

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अभिभावकों के मन में बालक के जीवन को धन सम्पन्न बनाने की कल्पना रहती है। यह आम धारणा है। जबकि इसके विपरीत अभिभावकों को चाहिए कि उसे गुण सम्पन्न बनाने की कामना करे। माता-पिता बालकों के सफल सुखद भविष्य के लिए सुख-सुविधा एवं संसाधनों का ढेर लगाते रहते हैं, यह सब उतना महत्वपूर्ण नहीं है । महत्वपूर्ण तो यह है कि बालक शुद्ध, स्वस्थ्य एवं आदर्श संस्कारों का निर्माण कर सके इसके लिए अभिभावक मानवीय गुणों की प्रस्तुति बालकों के समक्ष प्रस्तुत करे, जिससे बालक गुणवत्ता ग्रहण कर सकें और गुण सम्पन्न बन सके। शैशव अवस्था में पड़े संस्कारों से कलांतर में वह अपने चरित्र एवं राष्ट्रीय चरित्र की स्वयं पहरेदारी करने की क्षमता विकसित कर लेता है। संस्कार एवं मूल्यों के महत्व की बात करें तो इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाकाव्य काल में देखने को मिलता है। कौरव एवं पांडव को गुरु द्रोण के द्वारा समान शिक्षा की व्यवस्था थी, परन्तु संस्कार रूपी बीज अभिभावक के द्वारा ही निर्मित होता है और उसका निर्धारण बच्चे में गर्भधारण के समय से ही शुरू हो जाता है और इसका प्रभाव समान शिक्षा के बाद भी कौरव एवं पांडव पर अलग- अलग देखा जा सकता है। इस ओर प्राचीन काल से ही ध्यान दिया जाता रहा है। सीता जी के गर्भधारण के समय वाल्मीकि स्वयं सीता जी को संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी थी।

वर्तमान समाज में नैतिक मूल्यों को हाशिए पर ढकेला जा रहा है। अगर इस पर गहराई से विचार किया जाए तो हम पाएँगे कि इसके लिए कहीं न कहीं अभिभावक ही जिम्मेदार है। आज लोगों में ऐसी धारणा विकसित हो गई है कि मूल्यों और सिद्धांतों पर न चलने वाले व्यक्ति ही प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, जिसके परिणाम स्वरूप वर्तमान समाज में श्रम के प्रति उपेक्षा, कर्तव्यों के प्रति उदासीनता आदि भावनाएँ अभिभावकों के मानस पटल पर अंकित हो चुकी है। अभिभावक कभी भी बच्चों के सामने वह चरित्र प्रस्तुत नहीं कर पाता जिस चरित्र की वह बच्चों से अपेक्षा रखता है। बच्चों से वह कहता है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए स्वयं बीमारी का झूठ बोलकर अपने दफ्तर से छुट्टी लेता है। बच्चों से कहता है चोरी नहीं करनी चाहिए, स्वयं आयकर बचाने की चोरी की चर्चा परिवार में खुलेआम करता है। वह कहता है कि बड़ों के साथ अच्छे व्यवहार करने चाहिए, लेकिन स्वयं बड़ों को गाली देते मिलता है। ऐसे संस्कार बालक परिवार से ही सीखता है और जब वह अभिभावक को दोहरे व्यवहार करते पाता है, तब उसमें नकारात्मक मूल्य विकसित होने शुरू हो जाते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि बालक के व्यक्तित्व के विकास की लगभग 89 प्रतिशत प्रक्रिया छ: वर्ष की आयु तक पूरी हो जाती है और इस अवस्था का अधिकांश समय वह माता- पिता एवं अभिभावक के संसर्ग में व्यतीत करता है, इसलिए नैतिक मूल्यों का उत्तरदायित्व अभिभावक पर ही जाता है।

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भारतीय सामाजिक व्यवस्था पर अगर ध्यान दें तो अधिकतर तीन तरह के अभिभावक देखने को मिलते हैं। प्रथम अति अधिकार वादी अभिभावक अर्थात् वह अपने बच्चों पर आवश्यकता से ज्यादा अधिकार रखते हैं। इस तरह के अभिभावक अच्छे पढ़े-लिखे होते हैं और अपने विचारों को बच्चों पर थोपते हैं। कभी भी उनकी रुचि और मानसिक स्तर को ध्यान में न रखते हुए अपनी मानसिकता को बच्चों पर लादना चाहते हैं । द्वितीय अति शक्तिशाली अभिभावक होते हैं अर्थात् अपनी शक्तियों का बच्चों पर इस तरह से प्रयोग करते हैं कि बच्चा घोर अनुशासन में जकड़ कर अपना बचपना खो देता है और अपनी जिज्ञासाओं को व्यक्त न कर सकने के कारण संवेदना शून्य हो जाता है। तृतीय तरह के अभिभावक दोनों से अलग तरह के होते हैं, जो या तो बच्चों पर कभी ध्यान नहीं दे पाते या स्वत: शिक्षा के अभाव में बच्चों के साथ उस तरह का व्यवहार नहीं कर पाते जैसा होना चाहिए। तीनों तरह के अभिभावकों से बच्चों में मानव मूल्यों एवं जीवन मूल्यों का संतुलित विकास नहीं हो पाता है।

प्राचीन सामाजिक व्यवस्था एवं आधुनिक समाज का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पहले का समाज नैतिक मूल्यों को महत्व देता था भले ही व्यक्ति धनाभाव एवं संसाधन के अभाव में रहा हो लेकिन समाज परक मूल्य जीवित थे। समाज में बुजुर्गों के प्रति आदर भाव व्याप्त था । बच्चा दादी की गोद में परियों की कहानियों से संवेदना ग्रहण करता था, लेकिन आज तो दादी ही हाशिए पर हैं और अपनी ही संवेदना खो चुकी हैं। वर्तमान पारिवारिक संरचना में वह मूल्य विलुप्त हो गये हैं, जो हमें अपनी जमीन से है जोड़ सकें, इसका एकमात्र कारण है कि अभिभावकों के द्वारा बच्चों को वह संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं, जिनकी उन्हें जरूरत है। बच्चों के लिए हमारे पास समय नहीं है। उनकी भावनाओं को समझ सकने के लिए हमारे पास बाल संवेदना तो है, पर धन सम्पन्नता एवं उच्च प्रतिष्ठा का मोह बच्चों को मशीन बनाता जा रहा है। हम बच्चों के सामने सिर्फ उपदेश तो देते हैं लेकिन उपदेश के अनुरूप चरित्र प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं।

भूमण्डलीकरण के इस दौर में हम अपने मूल्य खोते जा रहे हैं और बदले में पाश्चात्य संस्कृति की बुराइयों को ग्रहण करते जा रहे हैं। इसका एकमात्र कारण है अभिभावकों की उदासीनता या धन के पीछे भागने की मानसिकता। आज हम बच्चों के लिए समय नहीं दे पा रहे हैं या तो वह ट्यूटर के सहारे जी रहा है या दूरदर्शन अथवा वीडियोगेम पर समय बिता रहा है। वह माँ की गोद में बैठना चाहता है माँ या तो व्यस्त है या थकी है। पिता से कुछ पूछ कर जिज्ञासाएँ शांत करना चाहता है तो पिता घर पर नहीं है। ऐसे में वह अपनी संवेदनाएँ खो देता है। बच्चों को हम अभिभावक होटल, सिनेमा और पार्टियों में तो ले जाते हैं, लेकिन अनाथालय, वृद्धालय एवं अपंगालय कभी नहीं ले जाना चाहते जिसके कारण उसके अंदर सामाजिक सद्भाव एवं सहानुभूति का संतुलित स्वरूप विकसित नहीं हो पाता है।

आज भारतीय समाज नैतिक पतन के चरम पर है। मूल्यों का ह्रास दिन प्रतिदिन होता जा रहा है। समाज ज्ञान की ओर बढ़ तो रहा है, लेकिन चरित्र पतन भी तीव्रगति से हो रहा है। ऐसे में व्यक्ति सही गलत का विवेक खोता जा रहा है। गांधी जी के विचारों को यदि ध्यान दे तो - 'ज्ञान चरित्र के बिना मूल्य हीन है।' तो पाएँगे कि आज का समाज पूरी तरह से मूल्यहीनता की ओर अग्रसर है। ऐसे में अभिभावकों की जिम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं कि हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उस दौर से अपने बच्चों को बचाएँ। इसके लिए उनमें मूल्य विकसित करने पड़ेंगे और यह तभी संभव है, जब हम बच्चों के बचपन के साथ खिलवाड़ न करें। अपने विचारों को उन पर न थोपें, उन्हें धनवान की अपेक्षा संस्कारवान बनाने का प्रयास करें। डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के कथन पर विचार करें तो समाज को सही दिशा माता-पिता एवं शिक्षाक ही दे सकते हैं, इससे स्पष्ट होता है कि अभिभावक का उत्तरदायित्व प्रमुख है। इसके लिए अभिभावकों को सर्वप्रथम अपने अंदर जीवन मूल्यों का विकास करना पड़ेगा और बच्चों की छोटी-छोटी बाल सुलभ संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए अनुभव से सीखने का माहौल उपलब्ध कराना पड़ेगा। इस संदर्भ में किसी कविता की दो पंक्तियाँ चरित्रार्थ हो जाती है -

बच्चों के छोटे हाथों, चांद सितारे छूने दो।

वरना चार किताबें पढ़ कर हम जैसे हो जाएँगे।।

- अरुण कुमार वर्मा

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