चांदपुर की चंदा पुस्तक समीक्षा : Chandpur Ki Chanda by Atul Kumar Rai Book Review

Dr. Mulla Adam Ali
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Chandpur Ki Chanda by Rai Atul Kumar 

Chandpur Ki Chanda by Rai Atul Kumar

Chandpur Ki Chanda by Atul Kumar Rai Book Review

अतुल कुमार राय का उपन्यास चांदपुर की चंदा : पुस्तक समीक्षा

पढ़ने पर पता चलता हैं कि यह एक आंचलिक उपन्यास हैं। इसकी भाषा शैली इसे एक आंचलिक उपन्यास का दर्जा देती हैं। यह कहानी हैं "चांदपुर"की। 'चांदपुर' बलिया जिले का आखिरी गांव हैं। चांदपुर एक ऐसा गांव हैं जहां हर साल बाढ़ आती हैं इसलिए लेखक लिखता हैं कि "चांद पर पानी हैं कि नहीं यह तो शोध का विषय हैं लेकिन चांदपुर की किस्मत में पानी हीं पानी हैं। चांदपुर चलता पानी में हैं, जीता हैं पानी में और टुटता भी हैं पानी में।" इस उपन्यास में बाढ़ की समस्या को बहुत हीं संजीदगी और सूक्ष्मता से उठाया गया हैं। बाढ़ से होने वाला नुकसान और इन गंवई इलाकों के प्रति सरकार की उदासीनता, सब पर लेखक अपनी धारदार क़लम चलाता हैं। किस तरह हर साल गांव बाढ़ में डूब जाता हैं लेकिन उसके रोकथाम के लिए किसी साल व्यवस्था नहीं कि जाती, लोग ऊपर पूल पर अपने प्लास्टिक के घर बनाकर दो महीना रहते हैं, राहत के नाम पर जो राशन सरकार की तरफ से भेजा जाता हैं उसे भी दुकान वाले लेकर पैसे पर बेचते हैं जिसमें कंकड़ अधिक होता हैं और अनाज कम होता हैं। मंत्री आते हैं बाढ़ के पानी के साथ फोटो खिंचवाते हैं साक्षात्कार देते हैं और चले जाते हैं। यहीं काम समाजसेवी करते हैं जो समाज की सेवा के नाम पर बस मंत्रियों के आगे पीछे घूमते रहते हैं। लेखक एक - एक करके सबकी खबर लेता है जो बाढ़ के पानी पर अपनी रोटियां सेंकते हैं, ये भ्रष्ट तंत्र इस तरह के आपदा को अपना अवसर बना लेती है। एक और बात जो दिखाई गई है कि सरकार से ज्यादा तंत्र को सुधरना जरूरी है क्योंकि जबतक ये निचले तबके के लोग ईमानदार नहीं होंगे सरकार कोई भी हों आम जनता इनके हाथों से लूटती रहेगी। कोई भी मदद भेजें सरकार ये जनता तक आने से पहले हीं उसे गायब कर देते हैं। लेखक ने अपने उपन्यास में गांव की हर समस्या पर खुल कर चर्चा की है और साथ में ये भी बताया है कि क्या है और क्या होना चाहिए? लेखक कहता है कि देश में सड़कों का जाल बिछा हुआ हैं लेकिन गांव में आज भी सड़कें अपनी सबसे बुरी स्थिति में है लेखक लिखता हैं कि "इस देश में ड्राइविंग लाइसेंस लेने से आसान हैं ठेकेदारी का लाइसेंस लेना और खैनी बनाने से आसान हैं सड़क बनाना।" लेखक लिखता हैं लोकतंत्र के नाम पर आम जनता पंक्ति में खड़ी सिर्फ वोट देने की मशीन है और वोट लेने वाला नेता विकास के नाम पर करता है तो सिर्फ झूठे वादे जो कभी पूरे नहीं होते अगर पूरे हो गए तो वो अगली बार कौन से झूठे वादे करके वोट मांगेगा। इस तरह लेखक बिजली की समस्या उठाता है, आज तक गांवों में बिजली की समस्या खत्म नहीं हुई है और ना ही रोड लाइट है। मुझे दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आ रही है "कहा तो तय था चिराग हर घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्सर नहीं अब शहर के लिए।"

यहीं हाल 'चांदपुर' और चांदपुर जैसे भारत के हर गांव का है। उपन्यास की शुरुआत नकल से होती है। शिक्षा में हो रहा नकल का गोरखधंधा किस तरह एक पढ़ें लिखे अनपढ़ों की फौज तैयार कर रहा है। ये डिग्रीधारी अनपढ़ युवा देश के भविष्य को किस तरफ लेकर जाएंगे यह लेखक की चिंता है और लेखक इन समस्याओं के माध्यम से सुप्तावस्था में पड़े सरकार और अपने पाठकों को भी जगाता हैं। लेखक लिखता हैं कि किस तरह नकल के नाम पर सेवा शुल्क के रूप में ये विद्यालय विद्यार्थियों से मोटी रकम वसूलते हैं । उससे भी बड़ा दुःख की खुद माता पिता अपने बच्चों को नकल करवा कर पास करने के लिए मोटी रकम देने को तैयार हैं। 

इस उपन्यास में बाढ़ के साथ जो दुसरी सबसे बड़ी समस्या है वह है दहेज़ प्रथा। लेखक ने एक ऐसे कड़वे सच को उठाया है जो समाज में सबसे बड़ी और खतरनाक बुराई होने पर भी बहुत गिनती के लेखकों ने इस समस्या पर अपनी क़लम चलाईं है। पूरा उपन्यास बाढ़ और दहेज़ को लेकर एक गहरी संवेदना और भावुकता पैदा करता है। लेखक अपने पाठकों से एक प्रश्न पुछता है - "दहेज़ देने से लड़की ससुराल में ख़ुश रहतीं तो शहर के अखबार लड़कियों की आत्महत्याओं से भरें नहीं होते।" 

लेखक लिखता हैं कि एक किसान के लिए 'खेत बेचना और बेटी बेचना एक बराबर है, इससे बड़ा पाप कुछ नहीं ' 

लेकिन वो किसान करें तो क्या करें, दहेज़ के लोभ में डूबा यह समाज जब अपने बेटे को बिना बेचें विवाह नहीं करेगा तो किसान को अपने बेटी के लिए बेटी समान खेत को बेचना ही पड़ेगा। पूरे उपन्यास में ऐसे अनेक उदाहरण दिए गए हैं जिसमें दहेज़ देने के बाद भी बेटियां ससुराल में ख़ुश नहीं है। उपन्यास की मुख्य पात्र चंदा उर्फ पिंकी उसकी बहन को ससुराल वाले ये कहकर निकाल देते हैं कि वह सुंदर नहीं है और उसे वापस तभी रखेंगे जब वह वापस दहेज़ लाएगी अपने साथ।एक गरीब किसान कहां से लाएगा इतने पैसे इन लोभियों के लिए।

वहीं दूसरी तरफ "गुड़िया" उपन्यास के मुख्य पात्र मंटू उर्फ शशि की बहन जो ससुराल में प्रताड़ित होने की वजह से मिट्टी का तेल डालकर जल जाती हैं। क्या करें वो गरीब पिता जो अपनी औकात से बाहर जा कर बेटी के लिए करता है लेकिन फिर भी ये लालची समाज दहेज़ के नाम पर बेटियों को जलाता और मारता रहता है। लेखक लिखता है कि सबसे बड़ा दुःख है गरीब के घर में बेटी होना।

"मौत दे दे मगर बदनसीबी न देना, ए विधाता गरीबों को बेटी न देना।"

सबके चेहरे पर एक ही सवाल - " क्या होगा भगवान? हम खेत बेचकर, कर्ज लेकर बेटी की शादी कर भी दें, तो क्या गारंटी है कि बेटी खुश रहेगी?" 

ये प्रश्न हर उस पिता के दिमाग में हैं जिसके घर में विवाह योग्य बेटियां हैं। ऐसा दहेज़ लोभी समाज क्या बेटियों के लिए सुरक्षित है? ये प्रश्न मैं आप लोगों के लिए छोड़ती हूं।

लेखक उपन्यास में गांव की राजनीति पर भी करारा व्यंग करता है। किस तरह से गांव के वो स्वार्थी और लालची लोग जो गांव में हर तरह का भ्रष्टाचार करते हैं तथा उसके जरिए राजनीति में घुसना चाहते है वो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए गांव के मासूम तथा निष्कपट लोगों को अपना शिकार बनाते तथा स्वार्थ की चरम सीमा तक उनका फायदा उठाने की कोशिश करते हैं।

लेखक लिखता है कि - "नवीन विद्युतीकरण का शंखनाद करता एक खंभा दिखता है। खंभे पर छोटे बड़े, नाटे, मझोले नेताओं के पोस्टर जोंक की तरह चिपकें हैं। एक मिनट बिजली के खंभे और दुसरे मिनट इन पोस्टरों को देखने के बाद यकीन हो जाता है कि खंभे के तार में बिजली दौड़े या न दौड़े गांव की रगों में राजनीति की बिजली बहुत तेजी से दौड़ रही है।"

यकीन मानिए कुछ किताबें वाकई खूबसूरत होती है और ऐसी किताबों की महक हाथ से जानी नहीं चाहिए। इस उपन्यास में एक बहुत ही प्यारी और मासूम सी प्रेम कहानी है पिंकी और मंटू की , उपन्यासकार अतुल जी प्रेम की एक उदात्त परिभाषा लिखते हैं - "जहां शरीर का आकर्षण खत्म होता हैं वहां प्रेम का सौंदर्य शुरू होता है। फिर प्रेमी करीब रहें या दूर रहें। वो मिलें या बिछड़ जाए। बिना इसकी परवाह किए वहां प्रेम किया जा रहा होता हैं। एक ऐसा बेशर्त प्रेम! जहां प्रेम मांगना नहीं देना ही प्रमुख कार्य बन जाता है।" 

इस उपन्यास में प्रेम को इतने खूबसूरत ढ़ंग से उकेरा गया है। इतना मासूम सा प्यार है जहां एक दूसरे को देखकर दोनों की नजरें नीचे झुक जाती है। यहां मुझे निराला की पंक्तियां याद आ रही है - "पलकों का नव पलकों पर प्रथमों उत्थान पतन"

इस प्रेम में वहीं लज्जा और शर्म है जो प्रेम को और भी खूबसूरत बनाता है। लेखक ने मंटू के माध्यम से फिल्मी गीतों को खूब उकेरा है। इसमें नब्बे के दशक का प्यार दिखाया गया है, जब गांव में मोबाइल का प्रचलन नहीं था, बस कहीं - कहीं पीसीओ दिख जाता था तब लोग एक दूसरे को पत्र लिखते थे। पिंकी और मंटू भी एक दूसरे को खूब प्रेम पत्र लिखते हैं। इसमें सीडी कैसेट का जिक्र हैं, विवाह की रस्में, उनके गाए जाने वाले गीत को भी उपन्यासकार ने लिखा है। तीज - त्यौहार सबका वर्णन लेखक ने खूबसूरती से किया है। एक विदाई का गीत है- 

"कोठवा ऊपर बाबा मोरवा रे बोलुए

बोलियां रे सुहावन लगुवे

आज के रतिया हो बाबा जागल रहीहा

आज घरवा चोरियां हो जइहें

सब रे संपत्तियां बांची जइहें

गुड़िया रे बेटी चोरियां हो जइहें।"

इस तरह विवाह में गाए जाने वाले बहुत से गीतों को लेखक ने लिखा है।

बाढ़ की भयावहता और वीभत्सता के बाद भी गांव खड़ा हैं लोग अभी भी उम्मीदों से भरें है भोर की हवाएं सरजू को किनारे से पीतांबरी धारण किए बहती हैं। शीतल , मंद, सुवासित और स्निग्ध।अब रामलीला का समय आ गया है लोग वापस उत्सवों को जीने के लिए तैयार है, उसी विश्वास के साथ उजड़े घरों को बसाया जा रहा है। गांव में रामलीला सिर्फ एक नाटक नहीं है बल्कि वो उनकी इज्जत, मर्यादा है बिल्कुल भगवान राम की तरह। लेखक लिखता हैं कि गांव में रामलीला उसकी जीवंतता का प्रतीक है। कितनी भी समस्या हो रामलीला होगी , ये गांव के इज्जत का प्रश्न बन जाता है । रामलीला होते ही ऐसा लगता है गांव पावन हो गया - "मंगल भवन अमंगल हारी….."

इतने दुःखों के बाद यह सुनते ही दिव्य माहौल हो गया है। सब बाबा तुलसी की चौपाई गा रहें हैं - 

"उभय बीच सीय सोहती ऐसे

ब्रम्ह जीव बीच माया जैसे…." 

हर भारतीय त्योहार का जिक्र हैं। एक त्यौहार हो या दुःख सब एक हो जाते हैं ऐसे मौकों पर। एक का दुःख सामुहिक दुःख है और किसी एक सुख सामुहिक सुख है।

महादेवी वर्मा की कविताओं के माध्यम से स्त्री चेतना को दिखाया गया है । स्त्रियों में पढ़ने की ललक को दिखाया गया है। गांव में लड़कियों को अच्छे से पढ़ाते नहीं है, कम उम्र में उनका विवाह हो जाता है, इनके दुष्परिणामों को दिखाया गया है तथा स्त्री शिक्षा जैसे विषय को मजबूती से उठाया गया है। 

उपन्यास में जहां प्रेम का वर्णन है, वहां उपमाओं का बहुत ही खूबसूरत प्रयोग किया गया है। एक बानगी देखिए - "जानतीं हो रात को जबरदस्ती पढ़ने बैठते हैं तो अड़हुल के फूल जैसी तुम्हारी आंखें याद आती है। खाने बैठते हैं तो याद आती है तुम्हारी मिठकी बोली। सोने जाते हैं तो तुम्हारा सुग्गी जैसा चेहरा सोने नहीं देता हैं। नाव चलाते हैं तो तुम्हारा मखमल जैसा दुपट्टा हाथों को बांध लेता हैं।"

ऐसे अनेकों खूबसूरत उपमाएं लिखीं गईं हैं। मुझे जो सबसे अच्छी चीज लगीं की सारी विसंगतियों और त्रासदियों के साथ भी प्रेम का और उपन्यास का अंत सुखद होता है। उनके दुःख में भी एक जिंदादिल है, जिसके साथ वो बड़ी से बड़ी त्रासदी झेल जाते हैं।

पुस्तक : चांदपुर की चंदा

लेखक : अतुल कुमार राय

प्रकाशक : हिंद युग्म, नोएडा

मूल्य : 299

 स्तुति राय
शोध छात्रा,
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी

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