हिंदी व्यंग्य : मेरा मुण्डा सुधरा जाए - बीएल आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
0

मेरा मुण्डा सुधरा जाए हिंदी व्यंग्य : बी. एल. आच्छा

हिंदी व्यंग्य लेख

मेरा मुण्डा सुधरा जाए

      तब मैं 'पप्पू' तक नहीं हो पाया था। अपने काका-दादा की नजर में महज 'टाबर' था। लोगों की जबान पर 'छोकरा'। मालवी काका की जुबान पर 'नाना' बुंदेली में 'मोड़ा' और पंजाबी में 'मुंडा'। पच्चीस बरस तक तो काका मुझे 'गधा पच्चीसी' में ही शामिल करते थे। उनकी नजरों में कभी बड़े हो ही नहीं पाते थे। कितनी सख्त नजरें हुआ करती थीं काकाओं की भी। कभी पान खाते देख लिया तो बिगड़ पड़े। मास्टरजी बाजार में दिख गये, तो हम गली में छिप गये। काका ने दूर से आवाज दी। पहली दूसरी पुकार अनसुनी रही तो उनकी गुस्सैल पुकार में 'मोहन' ठेठ 'मोवन्या' हो गया। सामने पड़े तो न सुन पाने की थप्पड़ रसीद हुई। कभी फिल्म का गाना गुनगुना दिया, तो चरित्र ही बिगड़ गया और फिल्म देखकर चोरी-छिपे घर में घुस गया, तो पिटाई के बाद ही चरित्र सुधर पाया।

      कैसे दिन थे। उन दिनों के 'नाना उर्फ मुण्डा' के जीजाजी ट्रांजिस्टर ले आए थे। मन में ललक थी, अपने हाथ में लेकर बजाने की। तभी बजते हुए ट्रांजिस्टर का बटन दबा दिया। जीजाजी की आँखों में उनकी तीखी मूँछें खड़ी हो गईं और पिताजी ने तपाक से चाँटा रसीद कर दिया।

     तब का यह 'नाना' उर्फ 'छोकरा' उर्फ 'मोड़ा' उर्फ 'मुंडा' आज का 'पप्पू' तक नहीं हो पाया था। लेकिन आज के मुंडे उर्फ पप्पू अब इलेक्ट्रॉनिक हो चले हैं। टी.वी. की तरह रंगीन, मगर बुद्धि से बटनबाज। मूड तो चैनल्स पर खटखटाता है। वादियों में सैर पर निकले, मूड नहीं जमा, चैनल बदला और समंदर की लहरों पर थिरक गए। कभी चित्रहार में घुस गए, तो कभी फिल्मों में थम गए। चैनल पर पियानों की तरह थिरकती हुई 'पप्पू' की अंगलियाँ 'पापा' के दिल को खटखटा जाती हैं। पहले काका से डरते थे और अब अपने पप्पू से सहमते हैं। पहले मास्टर का डंडा भी दनदनाता था और अब लड़के भी हाथ दिखाते हैं। तब डंडे खाकर भी गुरुजी को चरण स्पर्श करते थे और उनके शिष्य अब सीधे चमड़ी का स्पर्श करते हैं।

      बड़े होते हुए इन पप्पुओं के अंदाज भी निराले हैं। बाथरूम के फव्वारे के साथ टेप से फूटता म्युजिक मुझे हिला देता है। 'शो-रूम' की प्रतिमा की तरह उसे सजते देखकर दिल सिकुड़ता है। सर्दीले मौसम में उसे 'ठंडा' पीते देखकर मुझे जुकाम होने लगता है। कई बार टोकने की इच्छा होती है। मगर 'पापा' को अपने 'पप्पू' से डर लगता है। लेकिन चिरती हुई जेब का असर जब चमड़ी पर होता है, तो रहा नहीं जाता।

     इस बार भी रहा न गया। पप्पूजी ने अलमारी खोली। ड्रेस निकाली, कुछ जमी नहीं। दूसरी को टटोला, सल पड़े थे, खूंटी पर लटका दिया। फिर तीसरी ड्रेस खोली, पहले, स्प्रे किया और फिर ऐसे निकले जैसे किसी खूबसूरत आदमी की जेब से निकला खूबसूरत विजिटिंग कार्ड हो। लौटने पर मैंने टोका धीरे से समझाया, 'बेटे अपनी जेब बहुत छोटी है। न भी हो तो दिखाने से क्या होता है ?' पप्पू उर्फ मुंडा नाराज नहीं हुआ। धीरे से बोला, 'पापा, जमाना कहता है कि ' 'होना ही काफी नहीं है, 'दिखना' भी चाहिए। इम्प्रेशन बड़ी चीज है।'

        मैंने कहा, 'सादगी के बावजूद भी लोग पूजे गये हैं?' वह बोला, 'हाँ पापा, लोग सादगी की प्रतिमाओं को पूजते पूजते धनवान हो जाते हैं और पापा, धनवान की सादगी उसका बड़प्पन बन जाती है और गरीब की सादगी उसकी बेबसी और मैं तो समाजवाद की नहीं, 'मल्टी' की फसल हूँ।' 'पर बेटे अपने पास कुछ ...ज्यादा तो है नहीं, फिर ये खर्च कैसे निभेंगे ?'-मैंने पूछा। वह बोला- 'पापा यह जमाना ही दूसरा है। बाहर-बाहर से 'शो-रूम' नजर आते रहो तो जमाना घास डालता है और तिजोरी में कैद किये घूमते रहो तो जमाना हल्की नजर से देखता है।'  

     "पर बेटे, कभी तुम कारखाना डालो। शो-बाजी करो और घाटा बढ़ता चला जाए तो फिर लोग हाथ नहीं खींचने लगेंगे?" मैंने सवाल किया। वह बोला- "नहीं पापा, कम्पनी जब घाटे में जाने लगे और लोग हाथ खींचने लगे, तो ऐसे में कम्पनी के लिए एयर कंडीशन्ड कार और खरीद लो। लोगों को लगेगा कि जब एयर कंडीशन्ड कार खरीदी जा रही है तो घाटा काहे का? तब फिर, पैसा मिलेगा और अपनी छवि बदल जाएगी।" अपने पप्पू उर्फ मुंडे की बातों को सुनकर मैं सकते में आ गया। निरुत्तर सा हो गया। मुझे तो लगता था कि इन सार हरकतों से मुंडा बिगड़ा जा रहा है। मगर उसकी बातों से लगता है कि मुंडे के पापा तो नहीं सुधर पाए। अलबत्ता मुंडा सुधरा जा रहा है।

ये भी पढ़ें; व्यंग्य के पुरोधा परसाई जी | Harishankar Parsai

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top