राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता की स्थापना में तुलनात्मक साहित्य का योगदान

Dr. Mulla Adam Ali
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Contribution of Comparative Literature in Establishing National Cultural Unity.

Contribution of Comparative Literature

राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता की स्थापना में तुलनात्मक साहित्य का योगदान

प्रत्येक भाषा की और उसके साहित्य की अपनी विभिन्न विशेषताएँ होती हैं, परन्तु भाषाओं में भावों की समानताएं अवश्य मिलती हैं। भारत जैसे बहुभाषी देश की भाषा और साहित्य भी इन विशेषताओं और समानताओं का उत्कृष्ट उदाहरण है। तुलनात्मक अध्ययन और अनुसंधान का उद्देश्य इन्हीं भिन भाषाओं और साहित्यों की समानताओं को अभिव्यक्त करना तथा इनकी साहित्यिक एकता को खोज निकालना है। तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार के ज्ञान के क्षेत्र को अत्यंत विस्तृत करता है। अपने क्षेत्र के साहित्य की विशेषताओं के साथ अन्य भाषा भाषी प्रदेशों की साहित्यिक विशेषताओं से परिचित होते हैं। एक प्रकार से अन्य प्रदेशों के मानसिक जगत से जुड़ने का अवसर मिलता है । जिससे ज्ञान वृद्धि होती है और राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और वैश्विक एकता का अवसर मिलता है। तुलनात्मक अध्ययन विश्व मानव एकता का अवसर प्रदान करता है।

भारत में साहित्य, शिक्षा तथा अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में इस प्रकार के अध्ययन की आवश्यकता महसूस की गई है और यह अध्ययन दशकों से सक्रिय है। क्यों कि भारत में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं, जिनकी अपनी विशेषता है तथा अपना समृद्ध साहित्य है । अतः भारतीय साहित्य को समग्र रूप से जानने के लिए भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य को जानना जरूरी है। इस साहित्य में भारतीय प्रदेशों की सांस्कृतिक विशेषताएँ निहित होती हैं। जिसे जानकर भारत की समस्त संस्कृति का ज्ञान होता है। जिससे सांस्कृतिक एकता को बहुत बड़ा आधार मिलता है।

तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन से यह तथ्य प्रकट हुआ है कि भारत में आये सूफी साहित्य और इस्लाम धर्म की विचारधाराएँ तथा भारतीय धर्म और दर्शन एक-दूसरे को प्रभावित करती रही हैं। इस्लाम जन्मान्तरवाद, विरक्त जीवन और फरिश्ता पूजन के विरुद्ध था। हिन्दू धर्म एवं इसाई धर्म के संपर्क के कारण ही इस्लाम इन सब पर विश्वास करने लगा। उनकी शरीयत, तरीकत, हकीकत एवं मारिफत तमिल शैव धर्म की चर्चा, क्रिया, सहमार्ग एवं सन्मार्ग के समान प्रतीत होता है। सूफियों का 'फना' बौद्ध मत के 'निर्वाण' हिन्दू धर्म की 'मुक्ति' के सदृश्य है। 'बका' वेदान्त के 'अहं ब्रह्मास्मि' के समान है। भारत में आने के पश्चात सूफी साधकों ने नाथ योगी संप्रदाय की अनेक यौगिक क्रियाओं को अपना लिया। भारतीय संत एवं सूफी साधक एक-दूसरे से प्रभावित हुए। निःस्वार्थ प्रेम ही सूफी मत का प्राण है। त्रस्त भारतीय जनता सूफियों के निर्मल प्रेम एवं पवित्र आचरण की ओर आकृष्ट हुई। इसी आदान-प्रदान से फारसी की मसनवी शैली में प्रेमाख्यान काव्यों की रचना होने लगी। इस प्रयास में मुस्लिम हृदय की भव्यता व्यक्त हुई। साथ ही उतरापथ की हिन्दू जनता की भक्ति साधना में युगान्तर स्थापित हुआ। इसी के फलस्वरूप, मुसलमानों के आक्रमण के कारण हिन्दू तथा इस्लाम धर्म की जनता के मध्य सदियों से चली आ रही घृणा, हिंसा, द्वेष की भावना मिटने लगी। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तत्कालीन साहित्य की विशेषता का वर्णन करते हुए कहा है कि 'मध्य युग के साधकों और कवियों ने जो भाव और रस का विस्तार किया है उसमें असामान्य विशेषता है। वह विशेषता यह कि उन रचनाओं में उच्च श्रेणी के कवियों का सम्मिलन है। इस प्रकार का मिलन सर्वत्र ही दुर्लभ है।' स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि संत एवं सूफी साहित्य ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृढ़ नींव स्थापित की है। जो कि भारत जैसे भिन्न-भिन्न विचारों वाले देश की एकता के लिए लाभदायक सिद्द हुई।

संत कवि ज्ञानी और भक्त थे। साधना जगत में व्यक्तिगत मोक्ष की कामना करते थे। परन्तु उसमें विश्व कल्याण और समष्टि हित की भावना अवश्य थी। संतों ने चाहे उत्तर के वह हिन्दी क्षेत्र के हों या दक्षिण के तमिल क्षेत्र के, दोनों ने जातिगत वैषम्य को समाज कल्याण के लिए घातक माना। समाज में मनुष्य के कर्म, ज्ञान, सेवा को महत्वपूर्ण माना। उसकी जाति को नहीं इसलिए कबीर कहते हैं-

'जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान

मोल करो तलवार की पड़ा रहन दो म्यान'

तमिल संत कवि शिव वाक्कियर ने भी जाति भेद नामक किसी भी भावना को स्वीकार नहीं किया है।

'जाति भेद मेन्पदन्डु चट्रमिलै इल्लैये'

तेलुगु क्षेत्र के संत वेमना ने भी जाति भेद की तीव्र निंदा की है -

'गुणमुलु कलवानि कुलमेंचगानेला

गुणमुकलिगेने कोटि सेयु

गुणमुलेक युत्र गुड्डि गव्वयु लेदु

विश्वदाभिराम विनुर वेमा'

इस प्रकार भारत में किसी भी प्रांत का संत कवि अपने समाज में मानवीय एकता चहता है। हिन्दू-मुसलमान, शैव-वैष्णव, ब्राह्मण-शूद्र का समस्त भेद मिटाकर सम-समाज की स्थापना करने का प्रयास किया है। संतों ने प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का अंश माना है। जो कि विश्व में समता स्थापित करने का आध्यात्मिक आधार है।

इन संतों की दृष्टि लोक कल्याण पर केन्द्रित थी। इन्होंने भाषा, जाति या देश की सीमाओं को तोड़ने का प्रयास किया। संतों ने वसुधैव कुटुंबकं की भावना का व्यापक प्रचार किया। धार्मिकता उदारता में और मानवीय मूल्यों की स्थापना करने में संतों ने अद्भुत कार्य किया इन संतों की जाति, भाषा, प्रांत भेद ही अलग हैं। परन्तु उनके साहित्य की समानताएँ विश्व को एकता के अनेक मूल्य प्रदान करती हैं। संभव है कि विभिन्न भाषा और देश के साहित्य में ऐसी ही कई एकता के तत्व मौजूद हो। जो कि तुलनात्मक साहित्य द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। वर्तमान युग में देश, राज्यों, जाति, प्रांतों के , मध्य जो द्वेष और प्रतिहिंसा की भावना पनप रही है, उसे साहित्यगत विशेषताओं से दूर किया जा सकता है। समता की स्थापना की जा सकती है। यह विश्व में कई सदियों से होता आया है।

- दर्शी. रमेश बाबू

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