जगदीश चंद्र उपन्यास धरती धन न अपना : Dharti Dhan Na Apna by Jagdish Chandra

Dr. Mulla Adam Ali
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Dharti Dhan Na Apna by Jagdish Chandra

Dharti Dhan Na Apna by Jagdish Chandra

जगदीश चंद्र उपन्यास 'धरती धन न अपना'

हिन्दी उपन्यास साहित्य का विकास गतिशील रहा है। पूर्व प्रेमचंद काल में भी उपन्यास लिखे गए। हालांकि कुछ कमजोरियाँ उनमें पायी जाती हैं। प्रेमचंद युग में उपन्यास कला की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई। इस काल में उपन्यास विधा का क्रमबद्ध विकास दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचंद जी के साथ- साथ अनेक उपन्यासकारों ने मौलिक उपन्यासों का सृजन किया। जयशंकर प्रसाद, चतुरसेनशास्त्री, वृंदावनलाल वर्मा, आदि ने यथार्थवादी, ऐतिहासिक तथा सामाजिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखे। प्रेमचंदोत्तर युग में उपन्यास के क्षेत्र में नवीन प्रवृत्तियाँ दृष्टिगत होती हैं। राजनीतिक पृष्ठभूमि केन्द्र में रखकर बौद्धिकता के साथ उपन्यास परंपरा आगे बढ़ाने में यशपाल अग्रणी रहे। तत्पश्चात् मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास लिखे गये। इनमें जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी का स्थान महत्वपूर्ण है। उपेन्द्रनाथ अश्क ने अपने उपन्यासों में सामाजिकता का आग्रह किया। इनके उपन्यास समाज का यथार्थ चित्रण स्पष्ट करते हैं। परंतु आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं देते। इनके अतिरिक्त उपन्यास विधा को विकसित करने का कार्य अमृतलाल नागर, प्रभाकर माचवे, रांगेय राघव, अमृतराय, नागार्जुन, रेणु आदि ने किया। 1960 ई. के बाद हिन्दी उपन्यासों में अनेक नई प्रवृत्तियों का अविर्भाव हुआ। इन उपन्यासों को हम उनके आधार पर चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं।

1. व्यक्ति चेतना से अनुप्राणित उपन्यास

2. समाज चेतना से अनुप्राणित उपन्यास

3. राजनीतिक चेतना से अनुप्राणित उपन्यास

4. सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित उपन्यास

यह वर्गीकरण प्रमुख प्रवृत्तियों को केन्द्र में रखकर किया गया है। साठोत्तरी उपन्यासकारों में निर्मल वर्मा, राजकमल चौधरी, श्रीकांत वर्मा, उषा प्रियवंदा आदि उपन्यासकारों ने व्यक्ति चेतना को महत्व दिया है। रामदरश मिश्र, जगदीशचंद्र, भीष्म साहनी, श्रीलाल शुक्ल आदि ने समाज चेतना को महत्व दिया है। राही मासूम रजा, बदी उज्जमा आदि ने राजनीतिक चेतना को तथा नरेंद्र कोहली, वीरेंद्र कुमार जैन आदि ने सांस्कृतिक चेतना को केंद्र में रखा है। हम जगदीशचंद्रजी के 'धरती धन न अपना' उपन्यास की चर्चा करते हैं।

जगदीशचंद्र के सात उपन्यास प्रकाशित हुए है-

'यादों का पहाड़' (1966), 'धरती धन न अपना' (1972), 'आधा पुल' (1973), मुट्ठी भर कांकर (1976), 'कभी न छोडे खेत' (1976), 'टुण्डा लाट (1978), 'घास गोदाम' (1985), जगदीशचंद्र ने प्रायः सामान्यजनों के दुःख-दर्दों को सामने रखकर वर्तमान संदर्भों में उनके संघर्ष और जिजीविषा को पूरी सहानुभूति के साथ चित्रित किया है। डॉ. रामचंद्र तिवारी के अनुसार, 'जगदीशचंद्र के उपन्यास जीवन के यथार्थ को उसके अर्न्तविरोधों के साथ सही संदर्भ में मूर्त करने के प्रयत्न में रचे गए हैं। इसलिए वे हमें विशेष रूप से प्रभावित करते है।' (डॉ. रामचंद्र तिवारी हिन्दी का गद्य साहित्य-तृ.स. 1992, पृ. 168) जगदीशचंद्र ने अपने उपन्यासों में सामंती उतपीड़न, पूंजीवादी शोषण (धरती धन न अपना), युद्ध की विभिषिका का जीवंत तथा यथार्थ चित्रण (आधा पुल), शरणार्थियों का दुःख (मुट्ठी भर कांकर), संपन्न जाटों की सामंती ठसक (कभीन छोडे खेत) और दिल्ली विस्तार के परिणाम स्वरूप उसके आसपास के किसानों का भूमिहीन होना (घास गोदाम) आदि बातों को स्थान दिया है। उन्होंने 'धरती धन न अपना' उपन्यास में किसानों का जीवन, उनका संघर्ष, भूमिहीन किसानों की मानसिकता आदि का चित्रण किया है।

जगदीशचंद्र का 'धरती धन न अपना' बहुचर्चित उपन्यास है। उपन्यास में पंजाब के ग्रामीण जीवन में स्थित निम्नवर्ग की दारुण दशा का अंकन हुआ है। उपन्यास के केंद्र में होशियारपुर जिले का घोडवाहा गाँव है। उपन्यास में सदियों से जुल्म की चक्की में पिस रहे ग्रामीण हरिजनों और भूमिहीन मजदूरों की समस्याओं को रेखांकित किया है। सवर्णों और हरिजनों के सामाजिक संबंधों, सड़ीगली प्रथाओं, रूढियों को पूरी निर्ममता से प्रस्तुत किया है। इसमें कृषक जीवन का कोई भी ऐसा पक्ष नहीं जो इसके कथा फलक से अछूता रह गया हों।

प्रस्तुत उपन्यास में जगदीशचंद्र ने पंजाब के साधनहीन पराश्रित, अनपढ़, भाग्यवादी ओर शताब्दियों से अनेक प्रकारों के अभावों से जूझते रहे हरिजन किसानों के उत्पीड़न की कथा लिखी है। हम इस बात से परिचित है कि भारत के लगभग सभी गाँवों की स्थिति स्वतंत्रतापूर्व काल में भी वही रही है और वर्तमान काल में भी लगभग वैसी ही है। आजादी के बाद भी गाँवों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आ पाया है। उनका शोषण निरंतर हो रहा है।

उपन्यासकार ने स्वयं कहा है, "यह उपन्यास मेरी किशोरावस्था की कुछ अविस्मरणीय स्मृतियों और दामन में छिपी एक अदम्य वेदना की उपज है।" (जगदीशचंद्र- 'धरती धनन अपना' - मेरी ओर से, -स. 1996, पृ. 7) इनका बचपन ननिहाल के गाँव रल्हन (पंजाब) में बीता। अपने बचपन में ही उन्होंने हरिजनों तथा भूमिहीन कृषकों को नजदीकी से देखा था। बड़े होकर जगदीशचंद्र जी को शहर से जब गाँव जाने का अवसर मिलता तो वे वही स्थिति देखते। आज भी हरिजन मजदूरों के जीवन में मर्यादाओं की सीमाएँ टूटनी तो दूर रही, उनकी जकड़न दिनों-दिन सख्त होती जा रही हैं। अर्थशास्त्र का छात्र होने के कारण उन्हें इस सामाजिक दुरावस्था के पीछे छिपे आर्थिक कारणों का भी परिचय हुआ।

स्वतंत्रता के बाद कृषकों ने भी अपनी स्थितियों में परिवर्तन होने का स्वप्न देखा था। लेकिन आज भी कृषकों के जीवन में परिवर्तन नहीं हुआ है। उपन्यास का पात्र काली जब अपने गाँव लौटता है तो वह आँखें फाड़-फाड़कर पेड़ों की ओट में छिपे मकानों को देखता है। कुत्तों के भौंकने की आवाजे आने लगती हैं। थोडी देर बाद सभी ओर खामोशी छा जाती है। काली भयभीत सा होता है। उसके दिल में छः साल के पश्चात गाँव लौटने की खुशी खत्म होती है और उसका जी चाहता है कि वह उल्टे पाँव ही कानपुर वापस चला जाए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आज भी किसानों के जीवन में परिवर्तन नहीं है। आज भी वह अभावों में अपना जीवन व्यतीत कर रहा है और काली का भयभीत होना सभी हरिजनों का भयभीत होना है जो अपने जीवन में परिवर्तन की चाहत लिए हुए है।

'धरती धन न अपना' का किसान जमींदारों की चंगुल से छूट नहीं पा रहा है। उनके अत्याचारों को वह सहता है। संतू का कोई कसूर ना होते हुए भी चौधरी हरनामसिंह उसकी गर्दन मरोड़ते हैं। उसकों मोर बना देते है और जूते मारते हैं। चौधरी का मानना था कि संतू ने ही जानवारों को खेत में हाँका था। आर्थिक अभाव के कारण ये हरिजन मजदूर अपना अपराध न होते हुए भी साहूकारों के अन्याय और अत्याचारों को सहते हैं। चौधरी का धान जब किसी ने उखाड़ दिया तो चौधरी हरनाम सिंह सभी भूमिहीन मजदूरों को चौगान में गाली-गलौज करता है, धमकियाँ देता है। गाँव के लोग अपना कसूर न होते हुए भी इत्मीनान से गालियाँ सुनते हैं और मार खाते हैं। हरिजन तथा भूमिहीन किसानों की यह अपराध भावना आर्थिक अभावों के कारण ही दिखाई देती हैं। किसानों में साहूकार का विरोध करने की ताकत नहीं हैं। ज्यादातर लोग साहूकारों से आतंकित दिखाई देते हैं। मगर कहीं-कहीं विरोध शब्दों में न सही आचरण से स्पष्ट हुआ है। चौधरी हरनामसिंह जब जीतू से मारते-मारते पूछते हैं कि तुम ने जानवरों को मेरे खेत में क्यों हाका था ? लेकिन जीतू कुछ कहता नहीं। सिर्फ क्रोधभरी नजरों से चौधरी की तरफ देखता है। चौधरी जब उसके सिर पर जूता मारने के लिए हाथ उठाते है तो जीतू उनका हाथ पकड़ने की कोशिश करता है। इस तरह से एकाध किसान अपना रोष व्यक्त करता है। इससे स्पष्ट होता है कि शोषित किसानों में भी विरोध करने की प्रवृत्ति जागृत होती है। उपन्यास की स्त्री पात्र ज्ञानों को भी लगता है कि चौधरी नाजायज मारपीट ना करें। इसीलिए वह घृणा से उन लोगों की तरफ देखती है जो चौधरी की हाँ में हाँ मिलाते हैं और सोचने लगती है कि इनमें से किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं है कि चौधरी को केवल इतना ही कह दे कि वह नाजायज मारपीट कर रहा है। आगे बढ़कर हाथ पकड़ लेना तो दूर की बात है। चौधरी हानामसिंह के सामने सब किसान खुद को मजबूर पाते हैं।

गाँव में लोग अर्थात सभी सवर्ण तथा हरिजन किसान भाईचारे से रहते नहीं। दुश्मनी पर उतर आते हैं। लोग बिना वजह बाते करते रहते हैं। उपन्यास में एक स्थान पर दुकानदार छज्जू शाह काली से कहता हे कि बाबू कालीदास इस गाँव का हाल मत पूछों। चोरी, यारी, निंदा, चुगली बहुत बढ़ गयी है। भलमनसी का जमाना खत्म हो गया है और लुच्चों का राज आ गया है। इससे स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के बाद भी गाँवों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ है।

ये लोग आपसी मतभेद में जी रहे हैं। पूँजीवादियों से तो इनका शोषण होता ही रहता है। परंतु आपसी तंटों-बखेड़ों से भी उनका जीवन सुखकर नहीं है। इन किसानों के जीवन में जीवनावश्यक चीजों की कमी हमेशा रहती है। काली जब चौधरी की मार से घायल जीतू को देखने उसके घर जाता है तब ताई निहाली से कहता है कि जीतू को दो घूँट चाय मिल जाये तो उसे अच्छा लगेगा। तब ताई निहाली सोच में डूब जाती है और कहती है, “घर में गुड़ तो है। चाह की पत्ती भी मिल जाएगी, लेकिन दूध कहाँ से आयेगा?" (धरती धन न अपना पृ. 30) इन बातों से स्पष्ट हो जाताहै कि भूमिहीन किसानों को हमेशा अर्थाभाव से जूझना पडता है। उनके पास इतने पैसे भी नहीं होते कि कोई मेहमान घर आ जाये तो उसे चाय पिलाये।

अपना घर बनाने की इच्छा भूमिहीन मजदूरों का एक सपना बनकर रह जाता है। वे अपने घर के बारे में कितना भी सोचें उनका वह स्वप्न अधूरा ही रह जाता है। वे औरों के घर तो बनाते है मगर वे अपना घर बना नहीं पाते। बाबे फत्तू का घर बनाने का स्वप्न भी पैसों की कमी के कारण अधूरा ही रह जाता है। वे अपनी जिंदगी में कोशिश तो बहुत करते हैं। दिन-रात मेहनत करते हैं। दिन में रस्सियाँ बनाते है। शाम को घास खोदकर बेचते हैं फिर भी पक्का मकान बनाने का उनका अरमान पूरा नहीं होता। वे काली को कहते है कि गाँव में मेहनत-मजदूरी तो है लेकिन कमाई नहीं। यहाँ यह दृष्टिगत होता है कि इन लोगों में मेहनत करने की बहुत इच्छा है। ये करते भी है। परतु उन्हें जिंदगी में सफलता नहीं मिलती क्यों कि वे हमेशा पूँजीपतियों द्वारा शोषित ही होते रहे हैं। परंतु जब काली पक्का मकान बनाने लगता है तो बाबे फत्तू गर्व से पीठ थपथपाते हुए कहते है कि यह तो बहुत ही अच्छी बात है, सारे मुहल्ले में एक भी पक्का मकान नहीं है, तुम्हारा पक्का मकान बनने से मुहल्ले का सिर ऊँचा हो जायेगा। बाबे फत्तू को तो ऐसा लगता है कि मानों वे खुद ही नए घर का निर्माण कर रहे हो। काली अपना घर बनाने का श्रेय बुजुर्गों को ही देता है। उपन्यासकार ने काली को आदर्श पात्र के रूपमें प्रस्तुत किया है। वह बड़ों के साथ सम्मान से बातें करता है। इसलिए तो मंग का बाबे का साथ व्यवहार उसे अच्छा नहीं लगता। उसे वह समझा देता है कि तुम तो मेरे साथ बात कर रहे थे बीच में ही बाब को क्यों घसीट लाया। वह तो तुम्हारे बाप के समान है। तुम्हे उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए। तात्पर्य, ये भूमिहीन हरिजन मजदूर गरीब तथा जाति-पाँति के स्तर पर शोषित होने के बावजूद भी बड़ों का आदर करते है।

प्रस्तुत उपन्यास में बहुत सी बातें ऐसी भी चित्रित की है कि ये किसान धार्मिक क्षेत्र में भी ब्राह्मण, पंडे-पुरोहितों से शोषित होते रहे हैं। ये लोग इन बातों से परे होकर जी नहीं सकते। पीड़ित होंगे, व्यथाओं को भोगेंगे परंतु लाचारी की वजह से वे स्वयं इन बातों का विरोध नहीं कर पाते हैं।

'धरती धन न अपना' का किसान निम्न-वर्णिय है। दलित है। वह हरिजन जाति का है। जगदीशचंद्र ने बाल्यावस्था से ही इन्ही हरिजन किसानों को दूसरों की जमीन में श्रम करते हुए देखा है। जगदीशचंद्र के मन में प्राय: यह बात 'बैठ गयी कि ये लोग जाति के स्तर पर, वर्ग के स्तर पर शोषित हो रहे हैं। इनके पास अर्थाभाव की वजह से इनकी सामाजिक स्थिति में किसी तरह के परिवर्तन की गुंजाइश ही नहीं है। स्वयं लेखक ने अर्थशास्त्र विषय से जुडे होने के कारण इन हरिजन भूमिहीन किसानों की सामाजिक दुरावस्था के पीछे के आर्थिक कारणों को ढूंढने का प्रयास कियाहै। इतना ही नहीं तो भारत के देहातों में वर्ण तथा जाति-पाति के स्तर पर होने वाला भेदभाव देखकर जगदीश चंद्र का व्यक्तित्व विद्रोही होता गया। 'धरती धन न अपना' के सृजन प्रेरणा संकेत जगदीशचंद्र को बाल्यावस्था से ही मिले थे। उनका मन प्रायः उदविग्न रहता था। आर्थिक अभावों की चक्की में पीढी दर पीढी पिसते रहे हरिजन किसान आज भी मध्यकालीन यातनाओं को भोग रहे हैं। ये किसान जिस भूमि पर रहते हैं, जिस जमीन को जोतते हैं और जिन छप्परों में वे रहते हैं, इनमें में से कुछ भी उनका नहीं है। स्वतंत्र भारत में ये हरिजन किसान हर तरह से उपेक्षित है। इन्हीं के संघर्षों का चित्रण जगदीशचंद्र ने प्रस्तुत उपन्यास में बख़ूबी किया हैं।

यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि जगदीशचंद्र स्वयं सवर्ण है। परंतु बाल्यावस्था से ही उन्होंने दलितों-शोषितों- पीडितों पर होने वाले अत्याचार स्वयं देखे थे। अत्याचार करने वाले सवर्ण ही थे फिर भी जगदीशचंद्र ने इन बातों को देखकर अपनी कृतियों के माध्यम से अत्याचार करने वालों का विरोध किया है। शोषितों पीडितों का प्रायः पक्ष लिया है। चाहे वह शोषित महानगरीय समस्याओं से जूझनेवाला मजदूर हो, चाहे भूमिहीन किसान हो अथवा अन्य कोई। इन सभी बातों से स्पष्ट होता है कि जगदीशचंद्र मानवता के परिपेक्ष में समाज को देखते हैं। किसी भी अच्छे सृजनकर्ता के लिए मानवतावादी होना जरूरी है। हमारी संस्कृति में इस तरह के अनेक संदर्भ उपलब्ध है ही। जगदीश चंद्र के कृतियों के केंद्र में भी यही विचारधारा प्रमुख रही है।

- रविन्द्र भोरे

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