हिन्दी साहित्य का गद्य काल : हिन्दी साहित्य का इतिहास

Dr. Mulla Adam Ali
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Modern Period of Hindi Literature : Hindi Sahitya

Modern Period of Hindi Literature

हिन्दी साहित्य का गद्य काल

हिन्दी साहित्य में गद्य का व्यवस्थित रूप 19 वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। पाश्चात्य जगत के संपर्क से हमारे ज्ञान क्षेत्र में नए साहित्य विकसित हुए, जहा नए क्षितिज का विकास हुआ। सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना के परिणामस्वरूप जीवन तथा साहित्य के क्षेत्र में अभिनव परिवर्तन हुए।

आवागमन, यातायात की सुविधा, डाक-तार व्यवस्था ने समाज को एक दूसरे के अधिक समीप ला दिया। अतः अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में गद्य का विकास हुआ। हिन्दी गद्य को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है।

1. उन्मेष काल

2. प्रारंभ काल

3. द्विवेदी युग

4. शुक्ल-युग

5. शुक्लोत्तर युग

1. उन्मेष काल :

हिन्दी गद्य का उन्मेषकाल, प्रारंभिक समय में राज दरबारों द्वारा जारी आदेशों, दानपत्रों के रूप में देखा जा सकता है। किन्तु इनसे भाषा के स्वरूप का सही आकलन नहीं किया जा सकता है। गद्य का स्वरूप काव्यमय प्रतीत होता है, जिसमें ब्रज भाषा के शब्दों की बहुलता विद्यमान है। गद्य का कुछ व्यवस्थित रूप फोर्ट-विलियम कॉलेज, कलकत्ता के शिक्षक लल्लू लाल और सदलमिश्र की कृतियों में पाया जाता है। इसी समय सदासुखलाल तथा इंशा अल्ला खां भी हिन्दी गद्य की रचना कर रहे थे । राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने कई पाठ्यपुस्तकें उर्दू व फारसी मिश्रित गद्य शैली में लिखीं। राजा लक्ष्मण सिंह ने संस्कृत-शब्द-बहुला गद्य की रचना की। स्वामी दयानंद सरस्वती व उनके अनुयायियों ने हिन्दी में कई ग्रन्थ लिखे।

2. प्रारंभ काल :

हिन्दी गद्य का उद्गम भारतेन्दु युग की प्रधान विशेषता है । भारतेन्दु ने बोलचाल की भाषा के आधार पर हिन्दी गद्य को व्यावहारिक रूप प्रदान किया। भारतेन्दु ने नाटक, निबन्ध, आलोचना, उपन्यास, आदि विधाओं में गद्य-साहित्य की रचना की। इस युग में प्रकाशित कवि वचनसुधा, बाह्मण, हिन्दी प्रदीप नामक पत्रिकाओं ने साहित्य के प्रकाशन, प्रचार एवं प्रसार के द्वार खोल दिए। इस समय के निबंधों में समाज सुधार की भावना, राजनीतिक चेतना एवं हास्य-व्यंग्य की प्रधानता मिलती है। निबन्धकारों में भारतेन्दु के बाद पं. बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र तथा बालमुकुन्द गुप्त का योगदान सराहनीय है । नाटकों के क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने स्वयं नाटक लिखकर स्वस्थ रंगमंच की स्थापना की। उन्होंने स्वयं नाटक भी लिखे तथा अपने सहयोगियों से भी नाटक, प्रहसन, एकांकी लिखवाए। इस युग में 'सत्य हरिश्चन्द्र नाटक सर्वाधिक लोकप्रिय रहा। भारतेन्दु युग की रचनाओं ने समाज-सुधार, देश-भक्ति, अतीत-प्रेम, राष्ट्रीय- चेतना, विदेशी शासन के प्रति आक्रोश तथा राष्ट्रीय- एकता का शंखनाद किया। सजीवता, हास्य- व्यंग्य, जिन्दादिली, स्वच्छंदता इस युग की शैलीगत विशेषताएँ हैं।

3. द्विवेदी युग :

पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी गद्य के परिमार्जन एवं विकास में विशिष्ट स्थान है सरस्वती तथा नागरी प्रचारिणी पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही इस युग का प्रारंभ माना जाता है। द्विवेदी जी भाषा को व्याकरण-सम्मत बनाने में निरंतर तत्पर रहे। भाषा को सुगठित तथा प्रांजल स्वरूप देने में द्विवेदी ने अथक प्रयास किया। भाषा में कसावट लाने के लिए उन्होंने व्याकरण के नियमों को स्थिर किया। द्विवेदी जी ने कविताओं का भी सृजन किया, किन्तु वे मूलतः निबंधकार ही माने जाते हैं। इस युग के निबंधकारों में पं. पद्मसिंह शर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पं. माधव प्रसाद, बाबू गोपालराम, अध्यापक पूर्णसिन्हा तथा बाबू श्यामसुन्दरदास विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि द्विवेदी युग भाषा के संस्कार का काल रहा है। इस युग में निबंध, उपन्यास, आलोचना तथा आत्मकथा लेखन द्वारा हिन्दी गद्य को समृद्ध करने में रचनाकारों ने सराहनीय योगदान दिया।

4. शुक्ल युग (1920-1940)

हिन्दी गद्य की विधाओं के विकास में शुक्ल युग उत्कर्ष काल माना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस युग के साहित्य के अनुशासन की बागडोर स्वयं सम्भाली। इनके निबंधों में गम्भीर भाव, उदात्त भाव एवं हास्य-व्यंग्य मिलते हैं। इनके निबंधों में विश्लेषणात्मकता, साहित्यिक भाव तथा विचारों का भरपूर पुट मिलता है। इस युग के निबंधकारों में बाबू गुलाबराय, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, जयशंकर प्रसाद एवं सियारामशरण गुप्त उल्लेखनीय हैं। इनमें गुलाबराय और बक्शी आत्मपरक निबंधों की रचना करते, जब कि प्रसाद जी ने पांडित्यपूर्ण एवं मौलिक निबंधों की रचना की है। सियारामशरण गुप्त के निबंधों में गाँधीवादी आदर्शों की गहराई मिलती है। नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का उदय युगान्तकारी घटना है। उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर सजीव पात्रों के माध्यम से वर्तमान को प्राणवान् बनाया। उनके अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, महत्वपूर्ण नाटक हैं। नाटक के क्षेत्र में जो कार्य प्रसाद जी ने किया, वही उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में प्रेमचंद द्वारा किया गया। प्रेमचंद के प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, गबन तथा गोदान आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं। प्रेमचंद के समकालीन निबंधकारों में विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, पान्डेय बेचन शर्मा उग्र, जयशंकर प्रसाद आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं। ऐतिहासिक उपन्यासकारों में वृन्दावनलाल वर्मा का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। प्रेमचंद ने जिस सशक्त लेखनी से उपन्यास जगत् को समृद्ध किया, उसी लेखनी से उन्होंने कथा साहित्य के भंडार को भी भरा। प्रेमचंद की कहानियों में ग्राम जीवन की समस्याओं का निदान आदर्शोन्मुख रहा, जैसे-पंच परमेश्वर, बूढ़ी काकी, कफ़न, पूस की रात। ममता और पुरस्कार प्रसाद की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। प्रसाद की कहानियाँ भावप्रधान रहीं इस युग के अन्य कहानीकारों में पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' प्रतिनिधि रचना है।

हिन्दी में समालोचना की विधा का वास्तविक अभ्युदय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के द्वारा माना जाता है। हिन्दी साहित्य का इतिहास और त्रिवेणी जैसी रचनाओं ने जहाँ व्यावहारिक समीक्षा को जन्म दिया, वहीं चिन्तामणि के निबन्धों द्वारा सैद्धांतिक समीक्षा को आचार्य शुक्ल ने व्यवस्थित रूप दिया । इस युग के समीक्षकों में बाबू गुलाबराय का नाम विशेष महत्वपूर्ण है। हिन्दी में प्रसाद के 'एक घूंट' को ही प्रथम एकांकी होने का गौरव प्राप्त हुआ है। हिन्दी एकांकी - साहित्य विधा को प्रौढ़ता प्रदान करने में डॉ. रामकुमार वर्मा का योगदान सराहनीय है। उनके रेशमी टाई, पृथ्वीराज की आँखें उल्लेखनीय हैं। आत्मकथा के लेखकों में वियोगी हरी का मेरा जीवन प्रवाह, गुलाब राय की मेरी असफलताएँ, धीरेन्द्र वर्मा की मेरी कालेज डायरी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। जीवनी लेखकों में बनारसीदास चतुर्वेदी ने स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों की सफल जीवनी प्रकाशित कराई। महादेवी वर्मा का पथ के साथी एवं रामवृक्ष बेनीपुरी का मील के पत्थर सजीव रोचक संस्मरण हैं। हिन्दी के रेखाचित्रों में महादेवी वर्मा की अतीत के चलचित्र, रामवृक्ष बेनीपुरी की माटी की मूरतें महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। संक्षेप में कहा जाए तो यह युग समस्त साहित्यिक विधाओं पर गंभीर लेखन युग है।

5. शुक्लोत्तर युग (सन् 1940 से वर्तमान तक)

इस युग को समृद्धि काल भी कहा जाता है। इस काल में निबंधों की विषयवस्तु में विविधता एवं व्यापकता आई, जिस कारण इसे 'निबंध काल' भी कहा जाता है। निबंध परम्परा में पं.नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. रामविलास शर्मा, महादेवी वर्मा महत्वपूर्ण हैं। आत्मपरक निबंधों की परम्परा में माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. रघुवीर सिंह, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, वियोगी हरी जी आते हैं। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी एवं रवीन्द्र त्यागी व्यग्यात्मक निबंधकारों की कोटि में आते हैं। प्रसाद के समसामयिक नाटककारों में लक्ष्मी नारायण मिश्र ने अनेक नाटक लिखे। भुवनेश्वर प्रसाद, उपेन्द्रनाथ अश्क, डॉ. धर्मवीर भारती भी अग्रगण्य नाटककार हैं । इस युग के हिन्दी उपन्यास पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद तथा मार्क्सवाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल के उपन्यासों में मनोविज्ञान एवं साम्यवादी विचारों का स्पष्ट रूप दिखाई पड़ता है। 20वीं शताब्दी के छठे दशक में आँचलिक नाम से उपन्यासों में एक प्रवृत्ति आई, जिसमें क्षेत्र विशेष या जीवन- खंड को उसकी समग्रता में चित्रित करने की चेष्टा होती है। फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आंचल एवं परती परकथा, अमृतलाल नागर का बूंद और समुद्र, उदयशंकर भट्ट का सागर, लहरें और मनुष्य तथा नागार्जुन का वरुण के बेटे ऐसे ही उपन्यास हैं। उपन्यास के ही समान हिन्दी कहानियों में भी मार्क्सवाद या मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव दिखाई देता है। जैनेन्द्र, अश्क, इलाचन्द्र जोशी तथा यशपाल इस धारा के विशिष्ट कथाकार है।

अन्य कहानीकारों में मार्कण्डेय ने गाँव के जीवन से संबंधित कहानियाँ लिखीं। कमलेश्वर ने करबे और महानगरीय जीवन को कहानियों में साकार किया। 20 वीं शताब्दी के चौथे दशक में मनोविज्ञान एवं मार्क्सवाद का प्रभाव हिन्दी आलोचना पर भी पड़ा। डॉ. नागेन्द्र, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, विश्वनाथप्रसाद मिश्र आदि ने समालोचना जगत् को समृद्ध किया। आत्मकथा के क्षेत्र में हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित आत्मकथा क्या भूलूँ क्या याद करूँ, फिर-फिर उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। हिन्दी में यात्रा - साहित्य का प्रारंभ राहुल सांस्कृत्यायन की रचनाओं से होता है। यात्रावृत्तों में वर्णित स्थानों के भौगोलिक और ऐतिहासिक तथ्य राहुल जी ने उद्घाटित किया। यहाँ सत्यदेव शिवप्रसाद गुप्त, अमृतराय, यशपाल, भगवतीशरण उपाध्याय आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार यात्रा साहित्य, मात्रा एवं गुण की दृष्टि से काफी सम्पन्न है। रिपोर्ताज का जन्म वास्तव में पत्रकारिता के साथ साहित्यिकता के संयोग से हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इस नई विधा को स्वरूप मिला। इस क्षेत्र में रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे, धर्मवीर भारती का नाम उल्लेखनीय हैं। जीवनी और आत्मकथा के क्षेत्र में निराला की साहित्य-साधना जीवनी विधा के गौरव-ग्रन्थ हैं।

अन्त में हिन्दी गद्य पर विहंगम दृष्टि डालने पर स्पष्ट होता है कि 20 वीं शताब्दी के चौथे दशक के पश्चात् हिन्दी गद्य विधाओं में जितना लिखा गया है, इसके पूर्व कभी भी नहीं लिखा गया। हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं में नित्य नूतन प्रयोग हो रहे हैं। यह किसी भी भाषा, साहित्य के लिए गौरव की बात है।

- वी. तारा नायर

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