Mahasamar By Narendra kohli : Life Philosophy And Values
नरेंद्र कोहली के महासमर 'बंधन' में जीवन दर्शन एवं मूल्य
हिन्दी साहित्य में पौराणिक आख्यानों के कथानक को आधार बनाकर कई महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों का सृजन होता रहा है। 'रामायण' एवं 'महाभारत' ये दोनों महाकाव्य आरंभ से ही भारतीय- साधना के प्रेरणा श्रोत रहे हैं। इन दो महाकाव्यों की कथा को आधार बनाकर युगानुरूप बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में उल्लेखनीय गद्य एवं पद्य साहित्य का सृजन किया गया। हिन्दी के प्राचीन एवं नए युग के लेखकों ने 'महाभारत' की कथाओं के चरित्रों में अपना युग का स्वर भरा है।
वर्तमान समय में महाभारत की कथा को नया स्वर प्रदान करने वाले हिन्दी साहित्य जगत के प्रसिद्ध यशस्वी साहित्यकार नरेंद्र कोहली का नाम उल्लेखनीय है। 'महासमर' के नाम से आठ भागों में उन्होंने इस सुप्रसिद्ध औपन्यासिक कृति का सृजन किया है। 'महासमर' के प्रथम भाग 'बंधन' में शान्तनु, भीष्म एवं सत्यवती के कर्म बंधनों में बंधने से लेकर संपूर्ण कथा का विस्तार एवं विकास होता चला जाता है। मानव जीवन सदा ही कर्म के बंधनों से बंधा हुआ है। जब मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, स्वार्थ, ईर्ष्या जैसे सहज मानवीय दुर्बलताओं से मुक्ति पाने के लिए चिंतन-मनन करता है, तब वह जीवन के सत्यों की खोज एवं उन सत्यों में से मूल्यों की खोज की जिज्ञासा पनपने लगती है।
बंधन के प्रारंभ में ही देवव्रत के मन में उठते प्रश्नों का संकेत मानव जीवन-दर्शन एवं मूल्यों की ओर संकेत करती हैं- “परिवार क्या है ? स्त्री पुरुष विवाह क्यों करते हैं? वात्सल्य क्या है ? सुख क्या है ?"........ "व्यक्ति का जीवन क्या है ? व्यक्ति जीवित रहना क्यों चाहता है? क्यों डरता है वह मृत्यु से?..... “धर्म क्या है ? अधिकार क्या है ? स्थापित अधिकार को चुपचाप मान लेना धर्म है या अधिकार के अस्तित्व का प्रश्न उठाना धर्म है?"
संपूर्ण बंधन जीवन के इन्हीं सत्यों की खोज में लगा है जो जीवन-दर्शन एवं मानव जीवन मूल्यों से कर्तव्य, संबंधित है। ईश्वर, प्रकृति, सत्य, जन्म-मृत्यु आदि दार्शनिक तत्वों एवं धर्म, अधिकार, उत्तरदायित्व, प्रेम आदि मानवीय मूल्यों के हनन एवं पतन की महागाथा है- 'बंधन'।
युवराज देवव्रत को न पिता का वात्सल्य मिलता हैन माता की ममता। बाल्यावस्था से युवावस्था तक का काल ऋषि-मुनियों के सान्निध्य में विभिन्न आश्रमों में बीतता है। इस वातावरण की उनके व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाता है। वृद्धावस्था में पिता के विवाह की असामयिक इच्छा ने उनके मानस पटल को झकझोरकर रख दिया। यही संदर्भ उन्हें जीवन, परिवार, समाज, वंशवृद्धि, विवाह, स्त्री-पुरुष संबंधों, प्रकृति तथा वास्तविक सत्य से संबंधित उनके चिंतन मनन की दिशा अग्रसर हुई। वस्तुतः देवव्रत के चिंतन मनन की प्रक्रिया में ही जीवन मूल्यों का प्रकाश मिलता है। समय के साथ निरंतर चिंतन में ही इन प्रश्नों का समाधान संभव हो पाता है। व्यक्ति, समाज एवं विश्व के समस्त ये प्रश्न आज भी उतने ही ज्वलंत हैं। समय बदला, युग बदले, परिस्थितयाँ बदली, लेकिन संदर्भ वही हैं और प्रश्न भी वही हैं।
सुख-दुख, इच्छाओं, आकांक्षाओं और कामनाओं के बवण्डर में फंसा मनुष्य केवल सुख की चाह रखता है। इसी कामना के वशीभूत होकर शान्तनु ने सत्यवती से विवाह किया। उनके लिए सत्यवती मात्र काम-सुख का पर्याय थी। उसे उन्होंने पत्नी के रूप में नहीं, वरन् केवल वस्तु और भोग के रूप में चाहा। जीवन में पति-पत्नी के संबंधों का सर्वकालिक प्रश्न देवव्रत के मन में उठे। उन्हें ज्ञात हुआ कि अगर वैवाहिक संबंधों का आधार मात्र कामसुख हो तो उसका प्रतिफल भी निश्चित रूप से वैसा ही प्राप्त होगा। जहाँ सात्विकता नहीं, समानता नहीं, एक दूसरे के लिए सम्मान नहीं, वह संबंध केवल विनाश एवं पतन का ही कारण बनता है। व्यक्ति जीवन भर जिस सुख की कामना करता है, वस्तुतः वही उसे दुख प्रदान करता है। ऋषि व्यास ने सुख के संदर्भ में अपनी माता सत्यवती को यही बातें समझाते हैं और कहते हैं - "सुख और दुख दोनों एक ही सत्य के दो पक्ष हैं। दोनों की जननी कामना है और दोनों का परिणाम मानसिक अशांति है। सुख की कामना ही दुख का कारण है।" अर्थात् शांति तो दोनों से निरपेक्ष रहने में है।
धर्म, अति मूल्यवान है। उसे जानना और समझना भी उतना ही आवश्यक है। पितृ धर्म, मातृ धर्म, पुत्र धर्म, भातृ धर्म, व्यक्ति धर्म, समाज धर्म, राज्य धर्म आदि भी मानव को विचलित करते रहते हैं। कौन-सा धर्म उत्तम है, कौन-सा उचित ? इस उचित-अनुचित का विचार भी देवव्रत के मस्तिष्क में सर्वदा चलता रहता है। उन्होंने तो पुत्र धर्म का पालन किया और पिता की इच्छा पूरी की। एक व्यक्ति के रूप में तो उन्होंने अपने धर्म का पालन किया किन्तु वे सोचते हैं कि राज्य के प्रति क्या उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं ? समाज के प्रति उनका कोई धर्म नहीं ? व्यक्ति समाज से सदैव ऊपर होता है। जिस धर्म के पालन में बहुन का हित न हो वह कल्याणकारी कैसे हो सकता है ? समिष्टि का हित ही मानवता का प्रथम धर्म होना चाहिए। विवाह के पश्चात अगले ही दिन पांडु जब कुंती को छोड़कर युद्ध अभियान पर निकल पड़ता है, तब कुन्ती भी यही सोचती है।
"करने हैं कि वे धर्मात्मा हैं। पर कैसे धर्मात्मा हैं भीष्म ? केवल अपनी टेक पर अड़े रहना ही तो धर्म नहीं हो सकता। सृष्टि में इतने जीवन हैं, सबको यहीं रहना हैं। उन सबकी सुविधाओं के बीच सामंजस्य खोजना ही तो धर्म है, न्याय है, नीति है।"
राजा हो या रंक, आचरण से ही व्यक्ति स्वयं का एवं जगत का कल्याण करता है। सत्यवती अपनी हीनता की कुंठा से मुक्त नहीं हो पाती। वह शान्तनु से कहती है- "हम निर्धन हैं इसलिए हीन हैं। निर्धन हीन नहीं होते।".. '....."निर्धन तो ऋषि -मुनि-तपस्वी भी हैं। मैं तो जीवन-मूल्यों की बात कर रहा हूँ। मानव के रूप में व्यक्ति धन से हीन या श्रेष्ठ नहीं होता। व्यक्ति अपने आचरण और आचरण की पृष्ठभूमि में होते हैं उसके मूल्य!"
महात्मा विदुर भी पत्नी पारंसवी से नीति-अनीति की चर्चा के बीच यही कहते हैं। "आदर न धन से मिलता है न ज्ञान से, न यश से, न कुल से-आदर तो केवल आचरण से मिलता है।" विनय और नम्रता आचरण के उत्तम गुण हैं। मनुष्य निरंतर प्रकृति, गुरु आदि से सीखता ही रहता है। परंतु सीखने के लिए विनय और नम्रता जैसे गुण होने चाहिए जो सत्यवती के कनिष्ट पुत्र चित्रांगद में नहीं थे। उसके जीवन में अनुशासन का नितांत अभाव था। राजगुरु भीष्म से कहते हैं- “बालक पहले अपने अभिभावक के नियंत्रण को चुनौती देता है, बाद अध्यापक को। विचित्रवीर्य पहले राजमाता के हाथों में निकल गया, मेरे हाथों से तो बहुत बाद में निकला।” माता-पिता अगर बाल्यपन से ही संतान को प्रेम एवं अनुशासन का संतुलन न बनायें और उन्हें उचित संस्कारों की शिक्षा न दें, तो संतानका भविष्य इसी प्रकार अंधकारमय हो जाता है।
मानव की प्रथम गुरु एवं शिक्षिका प्रकृति होती है। प्रकृति ने मानव जीवन के भी नियम निर्धारित किए हैं। मानव का कल्याण प्रकृति के अनुकूल होकर कर्म करने तथा उसके अनुसरण में ही है। सत्यवती अपने पौत्रों- प्रपौत्रों का मुँह देखने के पश्चात भी साम्राज्य का मोह नहीं त्याग पाती, वानप्रस्थ आश्रम के लिए प्रस्थान नहीं कर पाती तो ऋषि व्यास उन्हें प्रकृति का यही रहस्य समझाते हुए कहते हैं-"तुम अपने पिछली कामनाओं में बँधी दुख पा रही हो। यह वृद्धावस्था और बुद्ध जीव कभी सुखी नहीं होते। स्वयं को इन बंधनों से मुक्त करो।”..... "प्रकृति चाहती है कि मनुष्य पहले अपने मन और शरीर का विकास करे, फिर जीवन के सुख-भोग की कामना करे, उसका अर्जन करे, उसका भोग करे.... और इससे पूर्व की प्रकृति उसे दी गयी भोग की क्षमताएँ उससे छीनकर उसे अक्षम बना दें, व्यक्ति स्वयं ही भोग की कामना त्यागने लगे।"
व्यास ऋषि सत्यवती को उनके जीवन की इसी अवस्था को प्रकृति की नियमों के द्वारा समझा रहे हैं। “जब काल किसी का आह्वान करता है, तो वह व्यवस्था का समय नहीं देता। जो पीछे रह जाते हैं, वे व्यवस्था करते हैं। अपने संवाद तुम बोल चुकी, अब मंच से हट जाओ।"
प्रकृति का यह अटल नियम है। यहाँ सभी प्राणी नश्वर हैं। जिस प्रकार वृक्षों में जब नए पत्ते आने के पहले पुराने पत्ते झड़ जाते हैं, उसी प्रकार मानव को भी अपनी भूमिका समाप्त हो जाने के पश्चात नई पीढ़ी के लिए स्थान छोड़ देना चाहिए।
जिन आदर्शों पर चलकर समाज एवं व्यक्ति का कल्याण हो, वही मार्ग श्रेयस्कर है। प्रकृति, ईश्वर, माया, जीवन, सत्य आदि जीवन के दर्शन हैं। उच्च जीवन मूल्यों का अनुसरण कर ही व्यक्ति जीवन में शांति, समरसता की स्थापना कर सकता है। ईर्ष्या, मोह, स्वार्थ, काम, कामनाएँ आदि पतन के रास्ते हैं। अतिभोगवाद की कामना व्यक्ति ही नहीं समाज का भी समूल विनाश कर देता है। क्या आज का समाज भी इन्हीं बंधनों में नहीं बचा हुआ है? क्या मानवता आज भी इन्हीं प्रश्नों के समाधान नहीं ढूँढ रहा ? चिंतन और चिंतन...क्योंकि जीवन दर्शन और कल्याणकारी जीवन मूल्य इसी में ही निहित है। स्वयं विचार कीजिए....।
- ए. सुषमा कुमारी
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