समकालीन हिन्दी कहानियों में नैतिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Samkaleen Hindi Kahani : Hindi Stories

Morality in Contemporary Hindi Stories

समकालीन हिन्दी कहानियों में नैतिकता

Morality in Contemporary Hindi Stories

नैतिकता एक ऐसा मूल्य है, जिसका एक छोर व्यक्ति से जुडता है तो दूसरा छोर समाज से जुडता है। व्यक्ति की सारी नैतिक अवधारणा सदैव समाज सापेक्ष होती है। यही समाज अपनी व्यवस्था में हर व्यक्ति से यही उम्मीद करता है कि वह इन अवधारणाओं को समूचा सम्मान दे तथा उसका पालन भी करें। मगर युग बदलने के साथ-साथ नैतिकता के मानदंड भी परिवर्तित हो जाते हैं। जैसे आचरण नैतिक मूल्य के अंतर्गत है लेकिन व्यक्ति के भीतर जैसे-जैसे वैयक्तिक एवं सामाजिक बदलाव आते रहेंगे, वैसे- वैसे आचरण संबंधी उसकी नैतिकता भी नवीनता की सर्जना करेगी। अतः नैतिक मूल्यों के संदर्भ में सबसे पहले हमें इस तथ्य को समझना है कि परिवर्तित परिस्थिति के अनुरुप नैतिकता की नित-नवीन परिभाषा उभरकर हमारे सामने अवश्य आती रहेंगी। इन्हीं बदलाओं को समकालीन महिला कहानीकारों ने खूब समझा है साथ ही जीवनानुभवों के रुप में खुद भोगा भी है। नतीजा आज के समसामयिक युग को सही दस्तावेज उनकी कहानियों में हमें मिलता है जो प्रासंगिक बनकर वर्तमान मनुष्य के जीवन-मूल्यों का आकलन नए सिरे से करने की अपनी सार्थकता रखती है।

प्रत्येक इंसान के जीवन का विकास मुख्यतः परिवार से होने लगता है। इसी इकाई के बलबूते पर ही वह धीरे-धीरे समाज की कड़ी के साथ जुड़ने की परिपक्व अवस्था में आ पहुंचता है। जिस परिवार में बच्चों को नैतिकता जैसे प्रेम, सेवाभाव, आदर्श, सद्भाव, आत्मीयता, परोपकार, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा, दायित्वबोध, बड़ों के प्रति आदर, त्याग समर्पण आदि मूल्यों की उचित सीख दी जाती है वे बच्चे आगे चलकर समाज में भी उन्हीं मूल्यों को आचरण में लाने की पूरी कोशिश करते हैं। लेकिन वर्तमान परिवारों का माहौल कुछ और ही दीक्षित होता है जहाँ परिवार के हर सदस्य पर पश्चिमी सभ्यता की चमक-दमक संस्कृति का इतना असर छा गया है कि अस्तित्ववादी धारणा, व्यक्ति स्वातंत्र्य की विचारप्रणाली, उन्मुक्त आचरण आदि को अपने जीवन में बहुत गहराई तक उतारकर इसी के सदृश्य जीने की अभिलाषा मन में लिए हुए हैं। खास तौर पर युवा पीढी का ऐसा अपरिचित जैसा बर्ताव अपने माता-पिता के लिए किसी सदमें से कम नहीं है। औद्योगीकरण की प्रवृत्ति के चलते युवा पीढी व्यवसायिक बनकर अमेरीका जैसे शहरों में जाकर वहाँ के तौर तरीके तथा आदतों में आकंठ डूबती जा रही है। उसे अपने भारतीय संस्कृति तथा खूनी रिश्ते-नातों की भी कोई फिक्र नहीं रहती। भौतिक सुविधा को पाने की लालसा के कारण वे अपने मां-बाप को अलग देखते हैं। मृदुला जी की कहानी 'छत पर दस्तक' का बेटा सुधीर अमेरीकन जीवनप्रणाली का इतना आदी हो चला है कि उसे किसी चीजों का शोर बिल्कुल पसंद नहीं है। सिर्फ उसे प्राइवेसी अधिक भाती है। खुद की माँ को भी उसके कमरे में आने की इजाजत नहीं देता। उसका इस तरह का बेगानापन माँ के अकेलेपन को बढावा देता है। बेटा इतने करीब होकर भी वह उसके लिए कोसों दूर लगने लगता है। लेखिका इस माँ बेटे के बीच अमेरिकन जीवन शैली का आकर्षण किस कदर मानवीय संबंधों के मूल्य को कम कर देता है इसी पक्ष का उद्घाटन कराना चाहती है।

आधुनिक पीढी के हाथों पुरानी पीढी का अनादर होते हुए दीप्ति खंडेलवाल जी की कहानी 'एक और कब्र' में दिखाया है। कहानी में छोटा बेटा अपने दायित्वबोध के प्रति तनिक भी सजग नहीं है। उसकी माँ कृष्णा जब उसे पारिवारिक जिम्मेदारियों को बांटने के बारे में आगाह होने की सलाह देती है तब वह उल्टे शब्दों में माँ के विचारों को उस पर लागू करते सवाल उपस्थित कर देता है कि “पैदा करना आपकी जिम्मेदारी थी, पैदा होना हमारी जिम्मेदारी थी क्या....?" इस कथन से जाहिर होता है कि ऐसे संस्कारहीन बेटे ने रिश्तों की मर्यादा को लांघने का दुःसाहस दिखाया है वह जरुर एक माँ के लिए बेटे के नाम पर कलंक बना है। जो माँ के ममत्व को उखाड़ने का संकेत देता है।

पारिवारिक जीवन में दो पीढी के बीच पनपी संस्कारगत दूरियाँ किस तरह उदासीन संबंधों को जन्म दे रही है इस बात को मृदुला जी ने 'अलग-अलग कमरे' कहानी में सूक्ष्मता से उकेरा है। आज के युवा बेटे जो अस्तित्ववादी विचारधारा में खुद को पूर्णतः ढालते हुए मूल्यों से संदर्भित नवीन मान्यताओं में जीने की ओर उन्मुख है वे पिता सदृश्य पुराने मूल्यों जैसे परोपकार, सेवाभाव, करुणा आदि को लथाड़कर धन, प्रसिद्धि जैसे भौतिक सुखों की खोज में नए नैतिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। पिता नरेंद्र अपने जमाने में आदर्श डॉक्टर बनकर नैतिक मूल्यों के अनुरुप निरंतर खुद को ढालते रहे। वे इस तरह की अपेक्षा अपने बेटे सुरेंद्र देव, जो कि डॉक्टर है उसके प्रति रखते हैं। मगर सुरेंद्रदेव अपने ढंग से नवीन मूल्यों का हिमायती बनकर स्वार्थ को साधने में लगा है। इन्हीं विरोधी मूल्यों की वजह से दोनों के बीच कटुता आ जाती है। इंसानी रिश्तों के प्रति किया जानेवला व्यवहार बाजारु लगने लगा है जिसमें उपभोक्ता के रुप में नई पीढी ने अपने सगे रिस्ते- संबंधों को दांव पर लगाया है। आज के युवा पीढी के संदर्भ में धीरेंद्र आस्थाना ने आधुनिक तकनीक वाली बात सबके सामने इस प्रकार खोल दी है कि- "यह साहित्य और संस्कृति के बीच पल-बढकर जवान हुई पीढी नहीं है, यह इंटरनेट-ई-मेल और सफिंग के समय की सरगम है।"

उक्त समकालीन कहानियों में आए मूल्यगत परिवर्तनों की तफतीश करने के उपरांत यह तथ्य सामने आता है कि वर्तमान युवा पीढी के भीतर अपने पारिवारिक रिश्ते-नातों के प्रति कोई भावनात्मक, संवेदनात्मक स्वर की अनुगूंज सुनाई नहीं देती।

समाज में विवाह को सामाजिक संस्कार का दर्जा दिया जाता है जिसके पीछे समाज का यही मकसद रहा है कि स्त्री-पुरुष दोनों में नैतिक बंधन स्थापित हो सके। लेकिन आज की परिस्थिति ऐसी नहीं रही क्योंकि माहौल बदलने से लोगों की सोच भी हर युग के साथ नवीन नैतिकता को प्रतिस्थापित करने लगी है। परिणाम स्वरुप विवाह जैसे पवित्र संस्कार मानने से स्त्री-पुरुष दोनों इन्कार दर्शा रहे हैं। वर्तमान स्त्री भी पाश्चात्य नारीवादी विचारधारा का अनुकरण करके समाज द्वारा लादी गई इस नैतिक मान्यताओं को पैरों तले कुचलने में कृतसंकल्प है। मृदुला जी के 'एक और विवाह' की कोमल भी विवाह के विषय में अपनी विचारधारा निम्न तरह से रखती हुइ स्पष्ट शब्दों में कहती है कि - "मैं व्यवस्थित विवाह में विश्वास नहीं करती। वह विवाह नहीं जबरदस्ती किसी का पल्लू पकड़ लेना होता है। दो कारणों से इसकी आवश्यकता पड़ सकती है, आर्थिक अवलंबन की खोज या शारीरीक भूख।" अबकी नारी रोमांस को महत्व देती है जिन्हे जीवन में सेक्स से भी अधिक रोमांस की तलाश होती है। अतः विवाह को लेकर इनका स्पष्ट विचार है कि तयशुदा विवाह का सीधा अर्थ रोमांस को तिलांजलि देने जैसा है। इसी कारण कोमल जैसी कई रोमानीस्वभाव की लड़कियाँ है जो स्वयं को इस बंधन में हरगिज नहीं डालना चाहती। वे तो उन्मुक्त आचरण की बनने के लिए लालायित नजर आती है।

दीप्ति खंडेलवाल जी की 'निर्बंध' कहानी की अनीता भी खुद को किसी नियमों के दायरे में कैद नहीं करना चाहती। वह तो हवा के झोके की तरह बिल्कुल निबंध जीवन जीना पसंद करती है। वह अपने जीवन में खुलेपन के साथ जीने की ललक रखती है। वह भले ही पारंपरिक तथा रुढिवादी अपनी नानी तथा माँ के साथ पली-बढी है फिर भी उन ढाँचों को तोड़ती है जो उसके वैयक्तिक विकास में बाधक है। पुरातन मूल्यों के खांचों में रहकर उन मान्यताओं का खोना उसे कतई मंजूर नहीं है। लेकिन इस अनीता की ऐसी उन्मुक्त सोच समूची नारी जाति की नैतिकता पर सवाल उपस्थित करती है। उसके द्वारा नैतिकता का उल्लंघन उसके जीवन में खतरे का संकेत बन सकता है।

परिवर्तित स्थिति में स्त्री-पुरुष दोनों 'लिव इन रिलेशनशिप' की फिलॉसफी को अपने जीवन में संपूर्ण रुप में उतारने लगे हैं। उन्हें 'शादी' जैसे सामाजिक बंधन में कसना उचित नहीं लगता। बिना शादी के भी वर्तमान प्रेमी युगल पति-पत्नी की तरह बनकर उन्हीं के जैसा जीवन गुजारते परिलक्षित होता है। उसी नई नैतिकता को ममता कालिया ने 'साथ' कहानी का विषय बनाया है जिसके नायक और नायिका भी हुबहू ऐसी ही जीवनशैली में ढले हैं। कहानी का नायक अशोक जो नायिका सुनंदा का बॉस है। लेकिन वे दोनों शादी किये बिना दाम्पत्य जीवनसूत्र में बंध जाते हैं। ऐसा रिस्ता बनाने में उन्हें कोई अनैतिक नहीं लगता। उसके संबंधों में नए जीवन मूल्यों की अभिव्यक्ति हो जाती है।

स्त्री-पुरुष का दाम्पत्य स्तर का रिश्ता स्नेह, विश्वास, समर्पण की धूरी पर अधिक मजबूत बनता है परंतु आजकल भावात्मक कारणों से रिश्ते की पवित्रता तिरोहित हो चली है। जिसे ढूँढने वह प्रेमी के पास निकल पड़ती है। कई बार पति-पत्नी के बीच काम संबंधों के होते हुए भी रोमांस का अभाव खलता है। उसी क्षण की पूर्ति पत्नी प्रेमी द्वारा करती हुई 'अगर यों होता' जैसी कहानी में मृदुला जी मधुर जैसी विवाहित स्त्री के रुप में नारी की दबी भावना को खोल देना चाहती है। खुद स्त्री के हाथों ही पवित्रता का विश्वासघात हो जाता है इस बात का उसे पूरा अहसास भी है फिर भी वह अनैतिक रास्ते पर कदमताल करती रुबरु होती है। प्रायः स्त्री के मामले में यह अनुभव होता है कि वह न चाहते हुए भी अपनी आंतरिक इच्छाओं को वश में नहीं कर पाती। परिणाम नये रिश्ते के रुप में सामने आता है।

विवाह के पूर्व भी स्त्री-पुरुष के मध्य जो प्रेम संबंध बन जाता है। वह भी शारीरिक आकर्षण का ही केंद्र बिंदु है। इसी रिश्ते में मन की पवित्रता उतनी अहमियत नहीं रखती जितनी तन की पवित्रता रखती है। आज प्रेम ने भोग की जगह ले ली है और स्त्री वस्तु बन रही है। इस समय का प्रेम शरीर को ही पाकर से परिपूर्ण की अवस्था पार कर रहा है। अब तो प्रेम संबंध में शरीर का समर्पण अधिक मायने रखता है। उसे हम अपने इर्दगिर्द बन रहे ऐसे प्रेम संबंधों को अनुभूत कर सकते हैं। इसी कारण लडके-लडकी के बीच प्यार के नाम पर सेक्स की चाहत बढी है। ममता जी के 'पिछले दिनों का अंधेरा' कहानी के प्रेमी युगल भी अपने प्यार को पूर्णतः पाना चाहता है। उसकी यह प्रत्याशा एक दिन ब्लंक आऊट के अंधेरे में पूरी हो जाती है। वास्तव जीवन में बाजारवाद के बढते प्रभाव के कारण आम तौर पर प्रेम जैसे संबंधों में सब समर्पण की मांग अत्यंत आवश्यक महसूस हुई है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति इसी अनुभव से गुजरने की मंशा रखता है।

अंततः सार रूप में कहा जा सकता है कि समकालीन महिला रचनाकारों द्वारा रची गई उक्त सभी कहानियों का निरुपण करने से ज्ञात रुप में जो नवीन नैतिकता की परिभाषाएँ विविध मुद्दों की बुनियाद पर पिरोई गई है। उसमें क्रमशः भौतिकता, पीढीगत वैचारिकता में अंतर, दाम्पत्य जीवन में भावनात्मक चोट, प्रेम संबंधों में नैतिकता की नई व्याख्या नारी का स्वेच्छारी वर्तन, पति-पत्नी के रिश्ते में पुरातन मूल्यों की अवहेलना, रिश्ते में पनपी उदारवादी नैतिकता, बदलते आर्थिक मूल्यों का पारिवारिक संबंधों पर प्रभाव, पति द्वारा पत्नी की पवित्रता की अनैतिकता, पति की उपयोगी वृत्ति का संचार, बेईमानी का आचरण, सिनेमाई संस्कृति के असर से बिगड़ती युवा पीढी, नैतिक पतन से लोभी वृत्ति, पुलिस व्यवस्था की दिरंगाई से उत्पन्न मूल्य संकट का प्रश्न आदि कारणों को ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, दीप्ति खंडेलवाल इन चारों लेखिकाओं ने अपनी कहानियों में उल्लेखित पात्रों के समकालीन हिन्दी कहानियों पृष्ठ 18 का शेष भाग जीवनानुभव से जोडकर इसे बडी सूक्ष्मता से विशद करने की नई कोशिश की है।

- डॉ. ईश्वर पवार

संदर्भ :

1. मृदुला गर्ग छत पर दस्तक

2. दीप्ति खंडेलवाल एक और कब्र

3. ममता कालिया - साथ

4. चित्रा मुद्गल - अढ़ाई गज की ओढ़नी

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