आंध्र प्रदेश में हिन्दी : पठन-पाठन की स्थिति

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi in Andhra Pradesh: Status of teaching and learning, Problem of teaching and learning of Hindi in Andhra Pradesh

आंध्र प्रदेश में हिंदी के पठन-पाठन की समस्याएँ

आंध्र प्रदेश में हिन्दी : पठन-पाठन की स्थिति

आंध्र प्रदेश में हिन्दी : पठन-पाठन की समस्याएँ

हिन्दी तीव्र गति से विकासमान भारत की राजभाषा है जो आज 150 से अधिक विदेशी विश्वविद्यालयों में, भारत के लगभग 350 विश्वविद्यालयों में, 10 हजार से अधिक महाविद्यालयों में लगभग सभी पाठशालाओं में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जा रही है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर भी आज हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली व समझी जानेवाली भाषा है।

सन् 1918 मार्च में इंदौर में संपन्न, साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में महात्मा गाँधी ने 'हिन्दी' को राष्ट्रभाषा का स्थान प्रदान करते हुए दक्षिण में उसके प्रचार पर बल दिया। फलस्वरूप 'दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा' की स्थापना हुई और उसके द्वारा हिन्दी प्रचार का काम शुरु हुआ। दक्षिण के शिक्षाविदों ने भी यह अनुभव किया कि 'हिन्दी' विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में अवश्य पढ़ाई जाए। विद्यालयों के पाठ्क्रमों में हिन्दी का अध्ययन सर्वप्रथम आन्ध्र के नेल्लूर जिले में हुआ। सन् 1922 में म्युनिसिपालिटी की पाठशालाओं में भी हिन्दी पढाई जाने लगी। अंग्रेज सरकार ने नेल्लूर की नगरपालिका की इस हिन्दी नीति का विरोध किया। अतः हिन्दी की पढाई रोकनी पड़ी, फिर सन् 1928 में नगरपालिका के हिन्दी प्रेमी सदस्य श्री वेन्नलकांटे राघवय्या जी के अथक प्रयत्न से नगरपालिका के स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई की व्यवस्था की गई। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी के प्रचार-प्रसार ने जोर पकड़ा। दक्षिण के अन्य प्रांतों की तरह आंध्र में भी हिन्दी को 'एच्छिक भाषा' के रूप में पढाने का निर्णय लिया। इस प्रकार प्रायः सभी विद्यालयों में हिन्दी का प्रवेश हुआ। तीन वर्षों के पश्चात् हिन्दी नितांत ऐच्छिक विषय बनी। परंतु आंध्र राज्य स्थापित होने के पाश्चात उसके विद्यालयों में छठीं से लेकर दसवीं कक्षा तक द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी अनिवार्य रूप से पढाने की नीति आंध्र सरकार ने अपनायी।

आंध्र प्रदेश के विद्यालयों में प्रादेशिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ सी बी एस ई, आई सी एस ई जैसे कई पाठ्यक्रम पढाए जाते हैं, वैसे तो हम जानते हैं प्रादेशिक पाठ्यक्रम, प्रादेशिक भाषा तेलुगु और अंग्रेजी माध्यम में पढाया जाता है। अंग्रेजी माध्यम की तुलना में प्रादेशिक भाषा में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होती ही है। उन अल्पसंख्यक विद्यार्थियों को छठीं कक्षा से हिन्दी की वर्णमाला सिखाई जाती है। छठीं कक्षा, यानी हाई स्कूल के विद्यार्थियों को इस अवस्था में वर्णमाला सीखने में उतनी रुचि नहीं होती। फिर भी अनिवार्यतः विद्यार्थी हिन्दी सीखते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि छठीं कक्षा में जिनको वर्णमाला सिखाई जाती है उनको उसी वर्ष, प्रश्नपत्र में लंबे-चौडे और वाक्यों में प्रयोग कीजिए जैसे प्रश्न दिये जाते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी अवश्य कठिनाई महसूस करते हैं और सिर्फ परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए पढ़ते हैं। सातवीं और आठवीं कक्षाओं के हिन्दी पाठ्यक्रम में लगभग 20 पाठ होते हैं, दिए गए कम समय में बीसों पाठ पढाने में अध्यापक के लिए भी थोडा कठिन होता है। अगर पाठों के बदले व्याकरण पर ध्यान दिया जाय तो विद्यार्थियों के लिए लाभप्रद होगा। नौवीं कक्षा के उपवाचक में साहस पूर्ण कहानियाँ जोड़ने से बेहतर होगा। दसवीं कक्षा में सामान्यतः उत्तीर्ण होने के लिए 35 अंक प्राप्त करना है, जबकि 'हिन्दी विषय' के लिए उत्तीर्णता अंक मात्र 20 हैं। हिन्दी की जो उपेक्षा की जा रही है, उसे तुरंत दूर करना चाहिए। अन्य विषय पढाने हेतु अध्यापक के लिए सप्ताह में सात पीरियड्स होते हैं, लेकिन हिन्दी के लिए मात्र तीन पीरियड्स होते हैं। हिन्दी के प्रति इस विषमता को समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए हमें छठीं कक्षा से हिन्दी पढने की पुरानी नीति को त्याग कर, पहली कक्षा से हिन्दी के पठन-पाठन की नई नीति अनिवार्यतः बनानी होगी क्योंकि आज जितनी भी गैर-सरकारी पाठशालाएँ हैं उनमें पहली कक्षा से हिन्दी और तेलुगु पढाने की सुविधा उपलब्ध है, तब केवल सरकारी पाठशालाओं में ही हिन्दी की उपेक्षा क्यों? सी.बी.एस.ई. पाठ्यक्रम में भी 'हिन्दी' प्रथम कक्षा से ऐच्छिक विषय' के रूप में पढाई जाती है। अंग्रेजी माध्यम के कुछ गैर-सरकारी और केंद्रीय विद्यालयों में हिन्दी प्रथम भाषा के रूप में पढाई जाती है। इन विद्यार्थियों को हिन्दी का ज्ञान प्रथम कक्षा से प्राप्त है फिर भी ये विद्यार्थी इंटर और स्नातक के पश्चात साहित्य के क्षेत्र में न आकर गणित, विज्ञान या कम्प्यूटर से संबंधित विषय चुनते हैं, क्योंकि सभी माँ-बाप अपने बच्चों को एक वैज्ञानिक या अभियंता के रूप में ही देखना चाहते हैं, न कि एक साहित्यकार के रूप में। विद्यार्थियों में हिन्दी के प्रति रूचि बढाने हेतु हर विद्यालय में जल्द से जल्द प्रशिक्षित अध्यापक की नियुक्ति स्थाई रूप से की जानी चाहिए। इससे विद्यार्थियों में हिन्दी भाषा के प्रति रूचि और ज्ञान अवश्य बढेगा, साथ ही साथ हिन्दी का अध्ययन करने वाले युवा पीढी को रोजगारी भी मिलेगी।

सरकारी जूनियर कालेजों में हिन्दी द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। यह पूर्ण रूप से ऐच्छिक है। विद्यार्थी इस अवस्था में हिन्दी, तेलुगु या संस्कृत तीनों भाषाओं में से किसी एक भाषा का अध्ययन द्वितीय भाषा के रूप में कर सकते हैं। सरकार का यह विकल्प ही समस्या की मूल जड़ है। इंटर के अधिकतर विद्यार्थी यहाँ तक कि हिन्दी भाषी विद्यार्थी भी द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी के बदले संस्कृत (भाषा) चुन रहे हैं, क्योंकि संस्कृत स्कोरिंग विषय है। संस्कृत के विद्यार्थी, परीक्षा में 90 या 90+ अंक अवश्य पाते हैं। जहाँ हिन्दी विषय चुने विद्यार्थी इतने अंक पाना लगभग असंभव है। ऊपर से संस्कृत परीक्षा, तेलुगु या अंग्रेजी माध्यम में लिखने का पूर्ण विकल्प है। इन्टर पढनेवालों के लिए यह एक ऑफर नहीं तो और क्या है ? कुछ विद्यार्थी जो हिन्दी में रूचि रखते हैं वे हिन्दी पढने का साहस करते हैं, लेकिन उनके सफल होने की संभावना कम होती है क्योंकि दसवीं कक्षा में हिन्दी परीक्षा में उत्तीर्णता के लिए 20 अंक काफी हैं जो विद्यार्थी आसानी से किसी भी तरह पा लेता है, लेकिन इन्टर में 35 अंक आना अनिवार्य है और इसके लिए विद्यार्थी को कठिन परिश्रम करना पडता है। इस प्रकार हिन्दी में रूचि रखनेवाले विद्यार्थियों को भी, इन्टर में द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी अध्ययन करने के लिए किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिलता। यहाँ तक की हिन्दी प्राध्यापक के बच्चे भी संस्कृत भाषा चुनते हैं। इस तरह जब विद्यार्थी इंटर में हिन्दी विषय नहीं अपनाता, अनायास ही स्नातक स्तर पर हिन्दी नहीं ले सकता और स्नातकोत्तर स्तर का तो सवाल हीं नहीं उठता। इस प्रकार विश्वविद्यालयों में दिन-ब-दिन हिन्दी पढनेवालों की संख्या घटती जा रही है। इस समस्या के निवारण हेतु या तो हिन्दी भाषा का अध्ययन इंटरमीडियट में अनिवार्य बनाया जाय, या संस्कृत पढने वाले विद्यार्थियों को संस्कृत में ही परीक्षा लिखने का आदेश जारी किया जाय। यह निर्णय सिर्फ बोर्ड ऑफ इंटरमीडियट ही ले सकता है। तभी इस समस्या का कुछ हल पा सकते हैं और यथानुपात इंटरमीडियट विद्यार्थियों से हिन्दी पढवा सकते हैं।

सन् 1930 में श्री सी.आर. रेड्डी, आन्ध्र विश्वविद्यालय के उपकुलपति बनने के बाद उन्होंने बी.कॉम. में हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य बनाकर हिन्दी के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया। यह कालांतर में लुप्त हो गया, लेकिन स्नातक और इंटर के पाठ्यक्रमों में हिन्दी ने 'ऐच्छिक द्वितीय भाषा' के रूप में स्थान ग्रहण किया। सरकारी महाविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रम में प्रथम दो वर्षों में ही हिन्दी पढ़ने का प्रावधान है और तृतीय वर्ष में साधारणतः हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था नहीं है। 'विशेष विषय' के रूप में हिन्दी चुनी जाने पर तीनों वर्षों में हिन्दी का अध्ययन कर सकते हैं, जो कुछ ही विद्यार्थी करते हैं। इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए आवश्यक पाठ्य पुस्तक भी प्राप्त नहीं होती। महाविद्यालयों के ग्रंथालयों में भी हिन्दी किताबों की कमी होती है। पाठ्यक्रम से संबंधित किताबें उपलब्ध नहीं होती। ग्रंथालयों में अन्य विषयों से संबंधित किताबों की अलमारियाँ चार पाँच होती हैं लेकिन हिन्दी किताबों की अलमारियाँ सिर्फ एक आध होती हैं। स्नातक स्तर पर विद्यार्थियों को सामूहिक चर्चा में भाग लेना, भाषण देना आवश्क है, लेकिन हिन्दी विद्यार्थी ने प्रत्यय तथा लिंग निर्धारण के विषय में दुविधा में पड़ जाते हैं क्योंकि हिन्दी की प्रकृति अलग है और विद्यार्थियों के लिए हिन्दी का माहौल सिर्फ कक्षा तक ही सीमित होता है, वह भी एक घण्टे के लिए। शेष समय में विद्यार्थी अपनी मातृभाषा या अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। इसी कारण जो विद्यार्थी इन्टर में हिन्दी पढ़नेवालों पर आधारित है। स्नातक स्तर पर भी वही स्कोरिंग समस्या होती है। इसीलिए विद्यार्थी हिन्दी के बदले संस्कृत लेते हैं। सरकारी महाविद्यालय हो या जूनियर कॉलेज, हिन्दी के अध्यापन के लिए प्राध्यापकों की नियुक्ति ठीक से नहीं होती। हिन्दी के प्रति सरकार की इस लापरवाही से हिन्दी के पठन-पाठन में बड़ा आघात पहुँच रहा है।

स्नातकोत्तर हिन्दी का अध्ययन सर्वप्रथम हैदराबाद के उस्मानियाँ विश्वविद्यालय में, तत्पश्चात तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय तथा विशाखपट्टणम के आंध्र विश्वविद्यालय में हुआ। कालक्रम में इन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान विभाग भी खोले गए, जिनमें आज उच्च स्तरीय हिन्दी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन हो रहा है। आन्द्रा विश्वविद्यालय में 'प्रयोजन मूलक हिन्दी और अनुवाद विज्ञान' के साथ-साथ 'राजभाषा हिन्दी' डिप्लोमा कोर्स भी चलाई जा रही है। दो वर्षों के एम. ए. कोर्स में हर वर्ष लगभग 50 विद्यार्थी भर्ती हो सकते हैं, लेकिन आज विद्यार्थियों की कमी के कारण यह संख्या ही घट रही है। इसका उचित कारण भी है। एम.ए हिन्दी के अध्ययन के पश्चात रोजगार मिलने की संभावना बहुत कम है, अन्य विषयों में स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को प्राध्यापक के रूप में इन्टर कालेजों में नौकरी मिल सकती है जबकि हिन्दी अध्ययन करने वालों को नौकरी मिलना लगभग असंभव सा हो गया है क्योंकि इन्टर के विद्यार्थी हिन्दी भाषा नहीं अपनाते । जाहिर है कि जब पढनेवाले नहीं होते, तो पढाने वालों का सवाल ही नहीं उठता। इस तरह स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी का अध्ययन करने पर भी विद्यार्थी बेकार ही रहते हैं। इसी कारण आज विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या काफी कम है। इसका जीता जागता उदाहरण इस प्रकार है विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी का अध्ययन करने हेतु पहले AUCET प्रवेश परीक्षा होती थी, विद्यार्थियों की कमी के कारण जो आज निकाल दी गई है, यह एक कडुवा सच है। आंध्र विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एम.ए. हिन्दी के साथ- साथ 'प्रयोजनमूलक हिन्दी और अनुवाद विज्ञान' तथा 'राजभाषा हिन्दी' डिप्लोमा के भी पाठ्यक्रम हैं। प्रयोजनमूलक हिन्दी और अनुवाद विज्ञान डिप्लोमा एक वर्ष का कोर्स है। इस कोर्स की पूर्ति के बाद विद्यार्थी अनुवादक के रूप में नौकरी पाने के योग्य होता है। लेकिन सरकारी कार्यालयों में अनुवादक की नौकरी पाने के लिए विद्यार्थी को अथक परिश्रम करना पडता है, क्योंकि अनुवाद डिप्लोमा सायंकालीन पाठ्यक्रम है और निरंतर अभ्यास के बिना अच्छा अनुवादक बनना असंभव है। इस कारण एकाध ही अनुवादक के रूप में नियमित हो पाते हैं। 'राजभाषा हिन्दी' डिप्लोमा दो वर्षों का कोर्स है, जो हिन्दी अफसर बनने के लिए एक अच्छा मौका है। लेकिन विद्यार्थियों की कमी के कारण इस पाठ्यक्रम को सुचारु रूप से नहीं चला पा रहे हैं। राजभाषा हिन्दी के प्रति आखिर इतनी उपेक्षा क्यों?

शोध छात्रों की मुख्य समस्या छात्रवृत्ति की है। आंध्र विश्वविद्यालय में अन्य विषयों में शोध कार्य करनेवाले विद्यार्थियों को 'राजीवगांधी फेलोशिप' के अंतर्गत महीने में लगभग रु. ४,०००/- मिलते हैं, जबकि हिन्दी में शोध कार्य करने वाले विद्यार्थियों को कोई पैसा नहीं मिलता। जब छात्रवृत्ति ही नहीं मिलती तो शोधार्थी शोधकार्य करे तो कैसे ? इस उम्र में शोधार्थी को अपने माँ- बाप पर निर्भर होना पडता है जो एक शोधार्थी के लिए शर्मानेवाली बात है। विश्वविद्यालयों के नियमों के अनुसार पूर्णकालिक शोध छात्र कहीं अल्पकालिक नौकरी भी नहीं कर सकता, जो सरासर अन्याय की बात है। फलतः जिन शोधार्थियों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है, वे ही पूर्ण रूप से शोध कार्य कर सकते हैं, बाकी विद्यार्थी बीच में ही लौट जाते हैं। इस स्थिति में विश्वविद्यालय में शोध कार्य करना एक साहसपूर्ण कार्य बन जाता है, जो कुछ ही विद्यार्थी कर पाते हैं। इस समस्या के निवारण हेतु 'विश्वविद्यालय अनुदान आयोग' द्वारा शोध छात्रों को अनिवार्यतः छात्रवृत्ति दिलानी चाहिए और जिन विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग अब तक नहीं खोले गए उनमें तुरन्त 'हिन्दी विभाग' खोलना चाहिए तथा ग्रंथालयों का संरक्षण अवश्य करना चाहिए तभी विश्वविद्यालयों में क्रमानुसार, छात्र शोध कार्य कर सकते हैं।

इस प्रकार दक्षिण में खास करके आंध्र में हिन्दी का पठन-पाठन पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक हो रहा है। लेकिन आज अंग्रेजी के प्रति मोह इतना अधिक बढ़ गया कि लोग अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बातचीत करने में गौरव का अनुभव करते हैं। अंग्रेजी की शिक्षा- दीक्षा भारत में लाकर, लॉर्ड मेकाले ने सन् 1883 से भारतीय जन समुदाय को मानसिक दास्य मनोवृत्ति के गर्त में डाल दिया। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा का प्रभाव भारत के जनजीवन के सभी पहलुओं पर पड़ा है। हिन्दी में भारतीय आत्मा और संस्कृति को अभिव्यक्त करने की क्षमता है। आज दुनिया जिस रफ्तार से प्रगति कर रही है, उसी रफ्तार में हिन्दी का भी पठन-पाठन होना अनिवार्य है, तभी हिन्दी विश्व में उस मुकाम तक पहुँच पाएगी, जिसकी वह असली हकदार है।

- डॉ. जे. के. एन. नाथन

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