अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी के प्रियप्रवास में कृष्ण जीवन

Dr. Mulla Adam Ali
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Priyapravas by Ayodhya Singh Upadhyaya 'Hariaudh'

Priyapravas by Ayodhya Singh Upadhyaya 'Hariaudh'

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी के प्रियप्रवास में कृष्ण जीवन

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी का जन्म आजमगढ़ जिले के एक ब्राम्हण परिवार में 15 अप्रैल सन 1865 को हुआ। इनके परिवार का निर्वाह पुरोहित से चलता था इस कारण घर में हमेशा आर्थिक-विवचना बनी रहती थी। इन्हें अपने गरीबी के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त न हो सकी। मिडल तक की शिक्षा पाने के बाद अयोध्यासिंह एक स्कूल में अध्यापक का कार्य करने लगे लेकिन वहाँ उनका मन न रमने के कारण वे अन्य स्थान पर कानूनगो की नौकरी करने लगे। इन्हें बचपन से ही कविता की अभिरुचि थी। ये गद्य भी अच्छा लिखते थे। इन्हें घर में ही संस्कृत भाषा का ज्ञान मिला था। सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद हरिऔधजी काशी चले गये और वहाँ पर हिन्दू विश्व- विद्यालय में हिन्दी के अध्यापक का अवैतनिक रूप से कार्य करने लगे। इन पर उर्दू का भी प्रभाव था, उनके पद्य-प्रसून, भारत-गीत, किसान आदि उर्दू कविता संग्रह प्रसिद्ध है। गद्य में उपाध्यायजी ने कुछ उपन्यास भी लिखे उनमें 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' और 'अधखिला फूल' चर्चित उपन्यास है जो की उनकी अलग पहचान बनाते हैं। इन्होंने गद्य एवं पद्य दोनों में अपनी प्रतिभा दिखाई लेकिन कवि के रूप में ही इन्हें विशेष ख्याती प्राप्त हुई। उपाध्यायजी पूर्व छायावादी काव्य क्षेत्र में भारतेन्दु के उपरान्त सबसे अधिक चर्चित कवि हैं, जिन्होंने नये विषयों की ओर अपनी प्रतिभा को मोड़ा। खड़ी बोली के लिए इन्होंने उर्दू के छन्दों और ठेठ बोली को उपयुक्त समझा। उपाध्यायजी भारतेन्दु के जीवन काल में ही कविता करने लगे थे मगर वे इस समय ब्रजभाषा में लिखा करते थे। इन्होंने अपनी सतह वर्ष की अवस्था में अर्थात् युवा अवस्था में ही कृष्ण-शतक की रचना कर दी थी जिसमें दो सौ दोहे हैं। अनेक भाषा-शैलियों में लिखना इनकी काव्य कला की विशेषता है।

द्विवेदीजी के प्रभाव से इन्होंने खड़ी बोली में संस्कृत छन्दों और संस्कृत की समस्त पदावली का सहारा लिया जिसका परिपक्व रूप अपने 'प्रिय-प्रवास' में दिखाया। 'प्रिय-प्रवास' हरिऔधजी का आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रथम सफल महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के वर्णवृत्तों का प्रयोग किया गया है। शैली वर्णनात्मक है जिसमें मानव-मन की अन्तर्दशाओं की अत्यंत सूक्ष्म और मार्मिक व्यंजना हुई है। आचार्य शुक्ल का प्रिय-प्रवास के सम्बन्ध में कहना है कि, 'इसकी कथावस्तु एक महाकाव्य क्या, अच्छे प्रबन्ध काव्य के लिए भी अपर्याप्त है। अतः प्रबन्ध काव्य के समस्त अवयव इसमें कहाँ आ सकते।' लेकिन आलोचकों के विचारानुसार इसकी महाकाव्यता अक्षुण्ण है। यह ठीक है कि महाकाव्य के लिए कथा की विशालता और उसमें जीवन का सर्वांगीण चित्रण आवश्यक है जब कि प्रिय-प्रवास की कथा-कृष्ण का ब्रज से मथुरा का प्रवास और फिर लौट आना मात्र है। उपाध्यायजी की विशेषता इस बात में है कि उन्होंने छोटी-सी कहानी के भीतर कृष्ण जीवन का सम्पूर्ण वृत्त और उसके माध्यम से समाज के विविध अंगों और समस्याओं का सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है। इस छोटे से वृत्त के भीतर मानव मन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण और भी प्रशंसनीय बन पड़ा है। उपाध्यायजी ने वैज्ञानिक और बुद्धि-प्रधान युग में एक नये कृष्ण और नयी राधिका पाठकों को दी है। हाँ कृष्ण एक शुद्ध मानव रूप में हैं और उन्हें विश्व-मंगल में संलग्न एक जन-नेता के रंग में रंगी है। वास्तव में हरिऔधजी ने राधा के माध्यम से राष्ट्रीय जीवन की एक केन्द्रीय समस्या का उद्घाटन किया है और उसका एक स्थूल-सा समाधान भी उपस्थित किया है। राधा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से उपर उठकर राष्ट्र के लिए अपना सब कुछ अर्पण करनेवाली नारी है जो कि उस समय के राष्ट्रीय आन्दोलन में नारी को सक्रिय करने की सबल प्रेरणा है। वह मानवता के लिए अपने आपको न्यौछावर करती है। इस प्रकार स्वच्छन्दतावाद का यह पहला स्वरूप है। राधा की निम्न उपमा बहुत मार्मिक दिखाई देती है- "प्यारे जीवें जगहित करें, गेह चाहे न आवै।" उपाध्यायजी के 'वैदेही-वनवास' में लोक-संग्रह की भावना की प्रधानता है, मगर इसमें कोई विशेष नवीनता नहीं झलक पाई। उपाध्यायजी ने 'प्रिय-प्रवास' में प्रकृति का वर्णन स्वतंत्रता से किया है, इस महाकाव्य का प्रारम्भ ही प्रकृति वर्णन से हुआ है।

इस प्रकार से उपाध्यायजी ने 'प्रिय-प्रवास' में कृष्ण- राधा को आधुनिक रूप में पाठकों के सम्मुख लाने का सफल प्रयत्न किया है। 'प्रिय-प्रवास' की सफलता की ओर देखने के बाद उपाध्यायजी के साहित्य-प्रतिभा का अंदाजा होता है।

- विट्ठल वजीर

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