Dronaveer Kohli’s selected children’s stories beautifully blend imagination, wisdom, and moral values. These tales, drawn from folklore and real-life experiences, not only entertain but also nurture sensitivity and ethics in young minds.
Dronveer Kohli ki Chuninda Bal Kahaniyan
द्रोणवीर कोहली की बाल कहानियाँ: कल्पना और संस्कार का अनूठा संगम
द्रोणवीर कोहली की चुनिंदा बाल कहानियाँ कल्पनाशीलता, हास्य और जीवन मूल्यों का सुंदर संगम प्रस्तुत करती हैं। इनमें लोककथाओं की सरलता, बाल मनोविज्ञान की गहराई और नैतिक शिक्षा की सहज झलक मिलती है। प्रो. सुरेन्द्र विक्रम जी का द्वारा लिखी गई समीक्षा पढ़िए।
द्रोणवीर कोहली की चुनिंदा बाल कहानियाँ
आठवें दशक के अंत में जब सन् 1979 में अंतरराष्ट्रीय बालवर्ष मनाया गया तो उस समय सही अर्थों में बालसाहित्य की धूम थी। इसका प्रभाव यह हुआ कि बीसवीं शताब्दी के आखिरी दोनों दशकों में बालसाहित्य के क्षेत्र में खूब काम हुआ। उस समय बच्चों की पत्रिकाएँ भी थीं और लगभग सभी प्रमुख समाचार -पत्र अपने साप्ताहिक परिशिष्ट में बच्चों के लिए पूरा एक पृष्ठ अवश्य प्रकाशित करते थे। इन समाचार -पत्रों की एक विशेषता और थी कि इस परिशिष्ट में बच्चों के लिए लिखने वाले रचनाकारों की रचनाएँ तो छपती ही थीं, बच्चों की भी लिखी हुई रचनाएँ भी उनके चित्रों के साथ प्रकाशित होती थीं। यह बच्चों को लेखन के क्षेत्र में प्रोत्साहित करने का एक अनूठा प्रयास था। उस समय इन्हीं परिशिष्टों में छपकर आगे बढ़े कई रचनाकार आज हिन्दी बालसाहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।
सन् 1948 से लगातार भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से छपकर आज अपने प्रकाशन का अमृत महोत्सव मनाने वाली बाल पत्रिका बाल भारती में केन्द्रीय सूचना सेवा के अंतर्गत काम करने वाले कई संपादकों ने बाल भारती में अपनी सेवाएँ दी हैं। द्रोणवीर कोहली उन्हीं में से एक ऐसे संपादक रहे हैं,जिनके कार्यकाल में बालभारती अपने उत्कर्ष पर थी। इसका कारण यह था कि द्रोणवीर कोहली जी सरकारी अधिकारी होने के साथ-साथ बच्चों के एक सजग, सतर्क और सफल रचनाकार भी थे। बालसाहित्य की उन्हें गहरी समझ थी, इसीलिए उन्होंने अपने लेखन में बच्चों के मनोविज्ञान और उनके परिवेश को विशेष रूप से स्थान दिया था। उनकी लिखी हुई कहानियाँ और उपन्यास उस समय की पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होते थे।
समय-समय पर प्रकाशित द्रोणवीर कोहली की बाल कहानियों में से कुछ रचनाओं का चयन करके राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने सन् 2019 में “द्रोणवीर कोहली की चुनिंदा बालकहानियाँ” शीर्षक से एक संकलन प्रकाशित किया था। इस संकलन की कहानियों में अलग रंग और अलग ढंग दोनों ही देखने को मिलते हैं। संकलन की पहली कहानी ‘धोबिन सवा सेर’ में विकट नामक भूत के पास ऐसा वशीकरण मंत्र था, जिसके प्रभाव से इस संसार में गुस्सा करने वाला हर आदमी उसके वश में हो जाता था। उसने अपने प्रभाव से अपने किले में सैकड़ों मनुष्यों को कैद कर रखा था। विकट का इतना आतंक था कि कोई भी कैदी चूँ नहीं कर सकता था। वह कैदियों से दिन-रात खूब काम कराता था और बदले में एक-एक रोटी और एक-एक कटोरा पानी देता था।
विकट के कैदियों में एक धोबी भी था। थोड़ा पहरा ढीला होते ही कैदी धोबी विकट के चंगुल से निकल भागा। विकट ने उसकी बहुत खोज की, लेकिन उसका कोई सुराग नहीं मिला। एक दिन धोबी की तलाश में विकट ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक गाँव में पहुँच गया। उसे पास में ही साफ-सुथरे धुले हुए सूखते कपड़े दिखाई दिए। वह घर एक धोबिन का था। विकट ने मन ही मन फैसला किया कि वह इस धोबिन को अपने वश में करके किले में ले जाएगा। लेकिन विकट को मिले वशीकरण मंत्र का प्रभाव तभी हो सकता था जब धोबिन को गुस्सा आ जाए। धोबिन को गुस्सा दिलाने के लिए विकट अदृश्य होकर उसके घर के बाहर सूखते हुए कपड़ों को कीचड़ से सने हुए पैरों से बुरी तरह रौंद दिया। उसने सोचा था कि ऐसे रौंदे हुए कपड़ों को देखकर धोबिन को अवश्य गुस्सा आएगा, लेकिन गुस्सा न करना धोबिन के स्वभाव में था। इसीलिए उसने कीचड़ सने गंदे कपड़ों को देखकर उन्हें दुबारा धोने का निर्णय ले लिया। हारकर विकट अपने किले में वापस आ गया। उसे वरदान के साथ -साथ अभिशाप भी झेलना पड़ता था कि वह जब भी क्रोध करता था, उसके शरीर से एक परत झड़ जाती थी।
विकट आसानी से हार मानने वाला नहीं था। अगले दिन वह फिर धोबिन की झोपड़ी के पास गया। धोबिन उस समय अपनी गाय का दूध निकाल रही थी। बस, विकट को मौका मिल गया। उसके अपने मंत्र के प्रभाव से दूध फट गया। उसने सोचा था कि अब तो धोबिन गुस्सा करेगी ही, लेकिन बिना गुस्सा हुए धोबिन ने फटे हुए दूध से पनीर बनाने का निर्णय ले लिया। उधर विकट आगबबूला हुआ, इधर उसके शरीर से एक परत फिर उधड़कर गिर गई।
विकट भी बहुत जिद्दी स्वभाव का था। वह अगले दिन ऐसे समय में पहुँचा जब धोबिन सिर पर पानी का घड़ा लिए हुए कुएँ से लौट रही थी। उसने धोबिन के पानी में कौए की बीट डाल दी। धोबिन को तब भी गुस्सा नहीं आया, वह दुबारा साफ पानी भर लाई। अब विकट का गुस्सा सातवें आसमान पर था— “यह धोबिन किस मिट्टी की बनी है! इसे गुस्सा आता ही नहीं। कल ऐसा उपाय करूँगा कि यह जल-भुन कर राख हो जाएगी।” (पृष्ठ 8)
अगले दिन जाकर विकट ने धोबिन की झोपड़ी में आग लगा दी। विकट सोच रहा था कि अब तो धोबिन का धैर्य जवाब दे ही जाएगा, लेकिन वाह री धोबिन वह तो चुपचाप इसे भी यह कहते हुए बर्दाश्त कर गई कि—“शायद इसमें भी मेरे लिए कोई अच्छी बात हो।”
धोबिन के पड़ोसी भरसक उसकी मदद करने के लिए तैयार थे। अब विकट का जैसे -जैसे गुस्सा बढ़ता जा रहा था, वैसे -वैसे उसके शरीर की परतें झड़ती जा रही थीं। यही परतें ही उसकी सुरक्षा कवच थीं। उसने गुस्से में देखा ही नहीं कि वह आग के कितने निकट आ गया था। थोड़ी देर में ही धधकती आग ने उसे अपने आगोश में ले लिया। और देखते-ही-देखते विकट का अंत हो गया।
दूसरी कहानी ‘उल्लू भी बुद्धिमान होते हैं’ असम की एक लोककथा पर आधारित है। आँधी में गिरे हुए पेड़ को जब उल्लू के कहने पर हाथी ने उठाकर खड़ा कर दिया, बस तभी से उल्लू और हाथी की दोस्ती हो गई। हुआ यह कि एक दिन पार्वती के बाघ ने एक बड़ा विचित्र सपना देखा। उसने सबसे पहले उठकर शिवजी के पास जाकर यह बात बताई—-“महाराज! रात को मैंने यह सपना देखा कि नदी पर जो हाथी पानी पीने आता है, मैंने उसका सिर खा लिया है। अब महाराज! शिवजी भगवान! आप बताओ कि सपने का क्या मतलब है?”
थोड़ी देर तक शिवजी भी सोचते रहे फिर बोले—- “ठीक है, अगर तूने यह सपना देखा है तो जाकर उस हाथी का सिर खा ही ले।” (पृष्ठ 9)
शिवजी की अनुमति मिलते ही बाघ हाथी के पास गया और उसे सपने वाली बात तथा शिवजी का आदेश सब बता दिया कि वह उसे खाने आया है। बाघ की बात सुनते ही हाथी की हालत खराब हो गई, लेकिन वह शिवजी की आज्ञा के सामने नतमस्तक हो गया। शिवजी से हुई उसकी बात की सच्चाई जानने के लिए बाघ और हाथी ने शिवजी से मिलने का फैसला किया। हाथी ने अपने दोस्त उल्लू को भी साथ ले लिया।
उल्लू जल्दी से उड़कर पहले ही शिवजी के पास पहुँचकर जैसे नींद लेते हुए अपना सिर हिलाने लगा। उल्लू को ऐसा करते हुए देखकर शिवजी ने पूछा — “अरे उल्लू! यह क्या कर रहा है?”
उल्लू तपाक से बोल पड़ा—”महाराज! अभी-अभी मैंने एक सपना देखा है कि पार्वती के साथ मेरा ब्याह हो गया है।।”
शिव जी ने कहा कि सपने की बात भी कहीं सच होती है।
अब उल्लू को मौका मिल गया और उसने झट से सवाल दाग दिया— महाराज! यदि सपने की बात सच नहीं होती तो आपने बाघ को हाथी का सिर खाने की कैसे आज्ञा दे दी?”
अब शिव जी को अपनी भूल का अहसास हुआ और कहा कि—बाघ भी हाथी का सिर नहीं खा सकता।
तभी बाघ और हाथी दोनों शिव जी के पास पहुँच गए। बाघ ने शिव जी की बात सुन ली। उसके सपने पर पानी फिर गया था। हाथी और उल्लू ने जल्दी -जल्दी वहाँ से भागने में ही अपनी भलाई समझी।
प्रस्तुत लोककथा यह आभास कराती है कि एक तो सपने सच नहीं होते हैं और दूसरे कोई भी निर्णय लेने से पहले सोच-विचार अवश्य करना चाहिए। जल्दबाजी में लिए गए निर्णय से प्रायः नुकसान होने का खतरा मँडराता रहता है। बाघ को हाथी का सिर खाने की अनुमति शिव जी ने बड़ी जल्दबाजी में दे दिया था, वो तो उल्लू ने सही समय पर अपने विवेक का इस्तेमाल किया और हाथी की जान बच गई। इस दृष्टि से कहानी का शीर्षक बिल्कुल उपयुक्त है कि उल्लू भी बुद्धिमान होते हैं।
दूधवाला कहानी में दूध में पानी मिलाने वाले को जनता ने ऐसा सबक सिखाया कि उसने भविष्य में दूध में पानी मिलाना ही छोड़ दिया। दूधवाला बहानेबाजी करके ग्राहकों की आँखों में बराबर धूल झोंक रहा था, टोकने पर वह लड़ाई-झगड़े पर आमादा हो जाता था। एक दिन ग्राहकों ने उसे रँगेहाथों पकड़ लिया और उसकी जमकर पिटाई कर दी। उसे बेइमानी करने की सजा मिल गई थी। उसने सबके सामने माफ़ी माँगकर अपनी ग़लती का पश्चाताप किया —--- “भाइयों , मैं गुनहगार हूँ, मुझे क्षमा कर दो, फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।”
‘एकलौता बेटा’ भोलू और किशना के अंतर्संबंधों की कहानी है। भोलू के एकलौते बेटे रामू का हत्यारा किशना जब वर्षों बाद बदले हुए भेष में शरणागत के रूप में पुलिस से बचते हुए भोलू की झोपड़ी में दाखिल होता है तो उसे अपना परिचय इस प्रकार देता है ---भैया मैं किशना हूँ, पापी किशना.. पर भैया मुझे बचा लो। पुलिस मेरा पीछा कर रही है। मैं पकड़ा जाऊँगा।
किशना नाम सुनते ही भोलू का खून खौल गया। उसके मस्तिष्क में चलचित्र की भाँति वह घटना घूम गई जब किशना ने उसके बेटे की निर्ममता से हत्या कर दी थी। किशना गिड़गिड़ाते हुए भोलू के चरणों में गिर पड़ा—-- “मुझे क्षमा कर दो भैया, मैंने आवेश में आकर तुम्हारे एकलौते पुत्र की हत्या की। मेरे जैसा नीच कोई नहीं, परंतु मैं तुम्हारी शरण में हूँ, मुझे बचाओ।” (पृष्ठ 21)
भोलू अपने दिल पर पत्थर रखकर किशना को पुलिस की गिरफ्तारी से यह सोचकर बचाता है कि—- शरणागत, शरणागत ही है। चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो, उसकी रक्षा होनी चाहिए।
कहानी में भोलू द्वारा उदारता का परिचय देकर किशना को बचाना उस ऐतिहासिक तथ्य को भी पुष्ट करता है जिसमें शरणागत की हमेशा रक्षा होती रही है।
अगली कहानी ‘ढेला न कहो, पत्थर बोलो’ सैनेगाल की एक लोककथा पर आधारित है। इसमें उमर को काँटेदार झाड़ी में एक तुंबा मिलता है जिसकी सारी देह में चुभे काँटों से पीड़ा हो रही है। तुंबा को जैसे ही उमर ने झाड़ी से बाहर निकाला वह बोल उठा–अब मुझे अपने घर ले चलो। वहाँ जाकर मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा।
घर पहुँचकर उमर ने तुंबा से जैसेहि खाने की चीजें माँगी, तुंबा भाँति-भाँति के पकवानों से भर गया। अब तो उमर की मौज हो गई थी, तुंबा से जो भी माँगता उसे झट से वह चीज मिल जाती। उसने अपने घरवालों को आगाह किया कि –”देखो, यह करामाती चीज़ हमारे हाथ लग गई है। अब किसी को इसके बारे में कानों- कान खबर नहीं होनी चाहिए। यदि राजा को पता चल गया, तो वह तुंबा हमसे छिन जाएगा। (पृष्ठ 25)
हुआ यह कि एक दिन उमर की मूर्खता से ही यह बात निकल गई और न चाहते हुए भी राजा तक पहुँच गई। राजा बहुत बड़ा लालची था। वह तुरन्त उमर के घर पहुँच गया। उसने पुष्टि के लिए तुंबे से सोना माँग लिया, फिर क्या था तुंबा सोने से भर गया। अब राजा ने अपने विशेषाधिकार और बल का प्रयोग करते हुए वह तुंबा अपने महल में ले गया और रंगरेलियाँ मनाने में जुट गया।
एक दिन दुखी होकर उमर फिर उसी झाड़ी के पास गया जहाँ उसे तुंबा मिला था। उसने देखा कि झाड़ी के अंदर काँटों के बीच एक ढेला पड़ा था, जो चाँदी की तरह चमक रहा था। उसने मन ही मन सोचा —बड़ी अजीब बात है! ढेला और चाँदी का सा रंग। वह सोच ही रहा था कि उसके सिर पर कोई चीज़ चटाक् से लगी। झाड़ी के अंदर पड़ा ढेला बोल पड़ा—” मुझे फिर ढेला कहा तो इसी तरह तेरी खबर लूँगा। मैं ढेला नहीं हूँ, बढ़िया पत्थर हूँ। एक बहुत बड़ी चट्टान से टूटकर यहाँ आ गिरा हूँ, समझे। ढेला न कहो पत्थर बोलो।” (पृष्ठ 27)
यह सुनकर उमर ने अचानक राजा से मन ही मन बदला लेने की योजना बना ली। वह झटपट पत्थर को कपड़े में लपेटकर राजा के महल की ओर दौड़ पड़ा। उमर ने कपड़े से निकालकर पत्थर को राजा के सामने रख दिया। राजा गुस्साकर बोला—छि:! हटाओ यहाँ से इस ढेले को…..
पर ये शब्द राजा के मुँह में थे कि चटाक् से उसके मुँह पर चोट पड़ी।
ऊई…..मारे दर्द के राजा चिल्लाया –’यह मरदूद ढेला कहाँ से आ गया?’
चटाक्! अब के राजा की ठोड़ी पर चोट पड़ी।
राजा जितनी बार ढेला कहता उसे चटाक् से चोट पड़ती। हालात यहाँ तक पहुँच गई कि इस घटनाक्रम में राजा के सिपाहियों की तो शामत आ गई। कुछ भाग-दौड़ में आपस में टकराकर चोटिल हो गए। दरबार पूरी तरह खाली हो गया। मौका पाकर उमर ने तुंबा उठाया और अपने घर की ओर भाग लिया। यही नहीं सुकून के लिए उसने राजा का वह देश भी छोड़ दिया।
इस कहानी में यह तथ्य छिपा हुआ है कि राजा को लालची नहीं होना चाहिए। प्रजावत्सल राजा ही राज्य का संचालन अच्छी तरह कर सकता है। उसे प्रजा को निश्चिंत जीवन जीने के लिए खुली छूट देनी चाहिए।
अगली कहानी ‘मिट्टी के दीए’ में मँगलू और उसकी बूढ़ी माँ भिखमंगों की बस्ती में रहकर अपना जीवनयापन करते थे। दिवाली के अवसर पर शहर से दिए लाने की मँगलू की ज़िद के आगे बूढ़ी माँ हार गई, और उसने अपनी जमापूँजी ताँबे के पूरे तीन लाल पैसे मँगलू को सौंप दिए। मँगलू दिए लाने शहर चला गया, इधर उसकी माँ अपने अतीत को याद करती हुई सोचने लगी–
‘आज अगर मँगलू के पिताजी होते तो हम कितने सुखी होते।’
शहर जाकर मँगलू ने दिए खरीदे और अपने कुर्ते की झोली में बाँधकर वापस चल पड़ा। मँगलू मारे खुशी के दौड़ा चला आ रहा था कि वह उलझकर झाड़ी में गिर पड़ा। नीचे गिरते ही उसे किसी नर्म चीज का अहसास हुआ और फिर पैर के नीचे काँटों जैसी चुभन महसूस हुई। थोड़ी देर बाद वहाँ से सर-सर की आवाज़ के साथ कोई चीज़ दूर चली गई।
जैसे -तैसे मँगलू ने अपने को सँभाला और घर की ओर बेतहाशा दौड़ पड़ा, लेकिन थोड़ी दूर चलने के बाद उसके पैरों ने साथ देना बंद कर दिया। मँगलू की हालत बिगड़ती जा रही थी। उसका शरीर काँप रहा था। घर पहुँचकर उसने माँ को आवाज लगाई – माँ, मैं दिए ले आया।
यह कहते हुए वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा और थोड़ी देर में ही उसके प्राणपखेरू उड़ गए। कहानी का अंत हृदय को दहला देता है —-” दूर सारा शहर दिवाली की रोशनी में दमक रहा था। पर इस बस्ती में चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। झोपड़ी का एक दिया जल रहा था, दूसरा बुझ चुका था।” (पृष्ठ 34)
अगली कहानी ‘जब खरगोश की नानी मर गई’ कांगो की एक लोककथा पर आधारित है। सूखा पड़ने पर एक खरगोश और हिरण ने मिलकर कुँआ खोलने की योजना बनाई। हिरण ने कहा कि पहले कुछ खा-पी लेते हैं फिर काम शुरू करेंगे, लेकिन खरगोश ने पहले काम शुरू करने के बाद बीच में रुककर खा-पी लेने की सलाह दी । आपस में दोनों की बात बन गई और खाने-पीने की चीज कहीं छिपाकर रख दी गई।
हिरण और खरगोश दोनों कुँआ खोदने में जुट गए। खरगोश के मन में बेइमानी आ गई। उसने बहाना बनाया कि मेरी बीवी बच्चे देनेवाली है, इसलिए मुझे जाना पड़ेगा। खरगोश भागकर उस स्थान पर गया जहाँ खाने-पीने की चीजें छिपाकर रखी थीं। वह जल्दी -जल्दी थोड़ा-थोड़ा खाकर वापस काम पर लौट आया।
उसे वापस आया देखकर हिरण ने उत्सुकता से पूछा कि तुमने अपने पहले बच्चे का क्या नाम रखा है?
खरगोश ने कहा—थोड़ा।
हिरण ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की—-बड़ा विचित्र नाम है भाई।
दोनों फिर काम पर लग गए। थोड़ी देर बाद ही खरगोश फिर से कहने लगा—-शायद मेरे घर वाले मुझे फिर बुला रहे हैं। मुझे तुरंत जाना चाहिए।
खरगोश फिर से उसी जगह पर पहुँच गया जहाँ खाने-पीने की चीजें रखी थीं। उसने पेटभर खाया और बचा-खुचा ढककर वापस आ गया।
हिरण ने फिर पूछा -अब दूसरे बच्चे का क्या नाम रखा है?
खरगोश ने बताया —अधूरा।
दोनों फिर काम में जुट गए। कभी कुछ ही समय बीता था कि खरगोश ने फिर वही बहाना बनाया और निकलकर उसी जगह पर पहुँच गया। अब उसने बचा-खुचा माल भी हज़म करके वापस लौट गया। हिरण के पूछने पर उसने अपने तीसरे बच्चे का नाम पूरा बता दिया।
काम करते -करते बेचारे हिरण का भूख के मारे बुरा हाल हो गया। अब उसने खरगोश से छिपाकर रखी गई चीजों को निकालकर लाने के लिए कहा ताकि पेट-पूजा की जा सके। खरगोश ने वहाँ जाकर बहाना बनाया कि कोई चुड़ैल बिल्ली सारा माल उड़ा ले गई है।
अगले दिन भी खरगोश ने यही बहाना बनाया। अब हिरण को खरगोश पर शक हो गया। हिरण ने उसे बुरा-भला कहा, लेकिन खरगोश मानने के लिए तैयार नहीं था। हिरण ने शर्त रखी कि– हम दोनों जुलाब लेते हैं। जिसकी पूँछ पहले गीली हो जाएगी, वही दोषी समझा जाएगा। जुलाब ने अपना असर दिखाया और खरगोश की चोरी पकड़ी गई। इसके साथ ही दोनों की दोस्ती खत्म हो गई।
खरगोश चोरी करने से कहाँ बाज आने वाला था। वह हिरण के कुएँ से चोरी-चोरी पानी पीने लगा। एक दिन हिरण ने उसे सबक सिखाने के लिए लकड़ी का जानवर बनाकर उस पर लासा लगा दिया। खरगोश जब पानी पीने आया तो लासा लगे उस लकड़ी के जानवर से चिपक गया। उसकी चीख-पुकार सुनकर हिरण भागा-भागा आया। हिरण को देखते ही खरगोश की नानी मर गई।
लँगड़ा खरगोश और भालू कहानी में एक तीसरा पात्र मगर भी है, जो खरगोश को चित्र बनाने की सलाह देता है ताकि जंगल में लिख-लिखकर तख्तियाँ टाँग दी जाएँ। खरगोश को मगर की सलाह पसंद आई और वह बाजार से रँग, कूँचियाँ और एक सीढ़ी खरीद लाया। खरगोश ने जो तख्तियाँ बनाईं, उनमें अधिकांश सलाह दी गई थी—
‘किसी का दिल न दुखाओ’
‘बड़ों का आदर करो’
‘छोटे भाई- बहन से प्यार करो’
‘मिलकर रहो’ (पृष्ठ 42)
इन चित्रों को खूब पसंद किया गया और जंगल में लँगड़े खरगोश को खूब इनाम मिला।
एक दिन खरगोश पेड़ पर चढ़कर तख्ती टांँग रहा था कि उस पर भालू की नजर पड़ गई। उसने पेड़ के नीचे रखी खरगोश की बैसाखी उठाकर तालाब में फेंक दिया। उधर तालाब में मगर ने उस बैसाखी को पकड़ लिया। भालू सीढ़ी से खरगोश को पकड़ने ही वाला था कि मगर ने खरगोश को धक्का देकर भालू को पानी में गिराने की सलाह दे दी। खरगोश ने ऐसा ही किया। भालू के पानी में गिरते ही मगर ने उसका काम तमाम कर दिया। मगर ने बैसाखी खरगोश को सौंप दी, फिर दोनों अपने-अपने ठिकाने पर चले गए।
‘मोती’ कहानी में उन लोगों को विशेष रूप से पढ़नी चाहिए तो घर में कुत्ते पालना तो चाहते हैं, लेकिन न तो पड़ोसियों का ख्याल रखते हैं और न ही कुत्ते की साफ - सफाई और अन्य चीजों की परवाह करते हैं। खुला छोड़ने पर कुत्ते राहगीरों को काट लेते हैं, इससे आपस में खूब लड़ाई -झगड़े होते हैं। कहीं -कहीं कुत्तों की वजह से हमेशा के लिए संबंध भी खराब हो जाते हैं।
कहानी में जगदीश को अपने कुत्ते मोती की वजह से परिवार का कोपभाजन तो सहना ही पड़ता है, मित्रों की भी नाराजगी झेलनी पड़ती है।अंत में उसके ही दोस्त द्वारा जहरीली रोटी खिलाने से मोती की मौत हो जाती है।
अंतिम छोटी सी कथा ‘सयाना कौवा’ में मिली रोटी के टुकड़े को कौवा पानी से भरे घड़े में डुबोकर उसे गीली करके खा लेता है। प्रायः कौवे की कहानी में उसे कंकड़-पत्थर डालकर पानी पीने वाला दिखाया जाता है या आधुनिक परिवेश में उसे घड़े में स्ट्रा डालकर पानी पीते दिखाया गया है, लेकिन कहानीकार ने इसमें नया पुट डालकर कौवे को पानी में रोटी भिगोकर खाते हुए दिखाकर नई सोच का प्रमाण दिया है।
कुल मिलाकर इन कहानियों को जिस कल्पना से प्रस्तुत किया गया है, उसी कल्पना और सोच को सुप्रसिद्ध चित्रकार पार्थ सेनगुप्ता ने हर कहानी में चित्रों के माध्यम से बोलता हुआ दिखाकर इनमें चार चाँद लगा दिया है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने इसे बड़े आकर्षक ढंग से प्रकाशित भी किया है।
© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम
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