डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की चुनिंदा बाल कहानियाँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Dr. Harikrishna Devsare was a pioneer of Hindi children’s literature, who enriched young minds with hundreds of stories filled with imagination, sensitivity, and social values. The collection “Selected Children’s Stories” brings together his finest works that not only entertain but also inspire children with meaningful life lessons.

Selected Stories of Harikrishna Devsare

हरिकृष्ण देवसरे की चुनिंदा बालकहानियाँ

Harikrashn Devsare ki Chuninda Bal Kahaniyan

डॉ. हरिकृष्ण देवसरे हिन्दी बालसाहित्य के ऐसे स्तंभ रहे हैं जिन्होंने अपनी सैकड़ों रचनाओं से बच्चों की कल्पनाशक्ति, संवेदनाओं और सामाजिक चेतना को नई दिशा दी। प्रस्तुत संग्रह ‘चुनिंदा बालकहानियाँ’ उनकी चुनिंदा कहानियों का संकलन है, जो न केवल मनोरंजन करती हैं बल्कि जीवन-मूल्यों और अनुभवों से भी बच्चों को समृद्ध बनाती हैं।

डॉ. हरिकृष्ण देवसरे की चुनिंदा बालकहानियाँ

      हिन्दी बालसाहित्य में कुछ ऐसे नाम हैं जिनके उल्लेख के बिना इतिहास की पूर्णता की बात ही नहीं की जा सकती है। उन्हीं में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे एक ऐसा ही नाम है जिनके साथ क‌ई रिकॉर्ड दर्ज़ हैं, जिनमें हिन्दी बालसाहित्य के प्रथम शोधकर्ता, बच्चों की पत्रिका पराग के यशस्वी संपादक, बच्चों के लिए 250 से अधिक पुस्तकों के लेखक, हिन्दी बालसाहित्य की ऐतिहासिक परंपरा के संवाहक आदि आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मेरा मानना है कि संक्षेप में वे हिन्दी बालसाहित्य के जीवंत दस्तावेज थे। उन्होंने अपनी पुस्तकों में बच्चों के लिए ऐसे-ऐसे विषय उठाए हैं जिनमें पूरी परंपरा का जीता-जागता स्वरूप देखने को मिलता है।

     पुस्तक ‘हरिकृष्ण देवसरे की चुनिंदा बालकहानियाँ’ में कुल ऐसी 15 रचनाएँ हैं जिनका प्रकाशन बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं यथा-बालभारती, पराग, नंदन तथा धर्मयुग, साहित्य अमृत के बालपृष्ठों के साथ -साथ हिन्दुस्तान तथा अमर उजाला में भी हो चुका है। संग्रह की एक बाल कहानी का प्रसारण आकाशवाणी भोपाल से भी हो चुका है। सन् 1962 से लेकर सन् 2012 तक इन पाँच दशकों के अंतराल में प्रकाशित/प्रसारित ये सभी कहानियाँ सही अर्थों में चुनिंदा ही हैं।

     संग्रह की पहली कहानी साहसी रतन आज से 63 वर्षों पूर्व सन् 1962 में प्रकाशित हुई थी। यह ऐसी साहस कथा है जिसमें रतन अपनी जान की परवाह किए बिना डाकुओं की सूचना पुलिस तक पहुँचाता है। पुलिस की मुस्तैदी से बिन्दा गिरोह के पाँचों डाकू मारे जाते हैं। जब गाँव के मुखिया पुलिस सुपरिटेंडेंट को धन्यवाद देते हैं तो वे इसका श्रेय रतन को देते हुए कहते हैं —-

    “मुखिया जी धन्यवाद हमें नहीं अपने रतन को दीजिए। रतन ने ही आपके गाँव की रक्षा की है। अगर रतन ने हमारी मदद न की होती तो शायद हमें इस डाकू दल का अंत करने में इतनी आसानी न होती। इसने अपनी जान पर खेलकर गाँव को डाकुओं से बचाया है। आप लोगों का सौभाग्य है कि इतना साहसी लड़का आपके गाँव में है।” (पृष्ठ 8)

    अक़्ल बड़ी या भैंस यह मुहावरा तो हम बचपन से पढ़ने के साथ -साथ सुनते भी आए हैं, लेकिन यह मुहावरा कहाँ से और कैसे आया, यह जानना बड़ा दिलचस्प है। अकलू बंदर अपने नाम के अनुरूप बहुत अक़्लमंद था। एक दिन वह पेड़ पर बैठा हुआ था कि उसने देखा एक भैंस तालाब से नहाकर निकली तो उसकी देह पर मिट्टी और कीचड़ लगा हुआ था। भैंस को देखकर बंदर को हँसी आ गई। बंदर को इस तरह हँसते हुए देखकर भैंस लाल-पीली होने लगी। नौबत लड़ाई-झगड़े तक आ पहुँची।

    झगड़ा यहाँ तक बढ़ गया कि बीच में शेर को हस्तक्षेप करना पड़ा। तय यह हुआ कि दोनों में से जो तालाब को बीच से तैरकर पार कर जाएगा, वही बड़ा है। कालू बंदर बड़ा अक़्लमंद बनता था लेकिन उसे तैरना नहीं आता था। उसकी परेशान बढ़ गई, लेकिन उसने हिम्मत से काम लिया। भैंस तैरने में मास्टर, उसने तालाब में तैरना शुरू कर दिया। बंदर थोड़ी देर डाल पर इधर-उधर उछलता रहा, बाद में तालाब की ओर झुकी हुई एक बार पर जाकर बैठ गया। जैसेहि भैंस डाल के पास से गुजरी, वह धम्म से कूदकर उसकी पीठ पर बैठ गया।

   भैंस अभी तैरकर तालाब पार करने ही वाली थी कि कालू बंदर को अक़्ल आ गई और वह बड़ी जोर से उछलकर किनारे खड़ा हो गया। कहानी का समापन देखिए—

   “इधर बेचारी भैंस धीरे-धीरे पानी से बाहर निकली। तभी शेर ने फैसला किया कि कालू बड़ा है भैंस नहीं।

और उस दिन से लोग कहने लगे कि आखिर अक़्ल बड़ी या भैंस!” (पृष्ठ 11)

     यह कहानी सन् 1963 में अपने समय की प्रतिष्ठित पत्रिका पराग में प्रकाशित हुई थी और पाठकों द्वारा खूब प्रशंसित भी हुई थी। बाद में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने इस कहानी के साथ -साथ मुहावरों की कहानियाँ शीर्षक से पूरी पुस्तक ही लिख डाली।

    थिरकते फूल कहानी सही अर्थों में गुलाब की अपनी दास्तान है। इतना खूबसूरत फूल किन झंझावातों से जूझता हुआ आज अपनी खुशबू और सौन्दर्य से पृथ्वी पर शोभायमान है, यह जानने के लिए पूरी कहानी पढ़ना इसलिए जरूरी है कि विषम परिस्थितियों से निकलकर अपनी पहचान बनाने वाले आगे चलकर गौरवान्वित होते हैं।

     जगदीश चन्द्र बसु ने पेड़-पौधों में जीवन की जो प्रस्तावना दी थी, उसे इस कहानी में बड़े सार्थक ढंग से उजागर किया गया है _” ये पेड़-पौधे भी इंसानों जैसा ही जीवन बिताते हैं। इन्हें भी गर्मी लगती है, सर्दी लगती है। बीमार हो जाते हैं और खुश भी होते हैं। कड़ी धूप में ये सूखकर प्राण दे देते हैं। सर्दी में झुलस जाते हैं, बीमार हो जाते हैं। कभी पाला लग जाता है तो कभी सड़ने की बीमारी हो जाती है। इसके अलावा अगर ठीक से खाना- पीना मिलता है तो खुश भी रहते हैं।” (पृष्ठ 15)

   पेड़-पौधों की इस विचित्र दुनिया को सिलसिलेवार बड़े तार्किक ढंग से इस कहानी को रेडियो के माध्यम से बताया गया है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे लंबे समय तक आकाशवाणी से जुड़े रहे हैं, उनके विशिष्ट अनुभव से बुनी हुई यह कहानी पढ़ते हुए वह दौर याद आता है जब लोगों में रेडियो सुनने के लिए एक खास तरह का ‘क्रेज़’ हुआ करता था। तरह-तरह की जानकारियाँ बड़ी आसानी से पाठकों को इसीलिए परोस दी जाती थीं। बाद में सन् 1963 में यह कहानी देवसरे जी के संग्रह न‌ए परीलोक में भी संग्रहीत हुई, जिसके क‌ई संस्करण छपकर पाठकों में खूब लोकप्रिय हुए।

    घंटियाँ कहानी पूरी तरह बालमनोविज्ञान पर आधारित है। बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं। कभी-कभी किसी-किसी चीज से वे इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि उसकी आवाज़ भी सुनना पसंद नहीं करते हैं। प्रकाश के साथ भी यही हुआ। उसे किसी भी घंटी की आवाज़ से ऐसी ‘एलर्जी’ हुई कि टाइमपीस, दीवालघड़ी, साइकिल की घंटी यहाँ तक की स्कूल की घंटी से भी उसे उलझन होने लगी।

हरिकृष्ण देवसरे की चुनिंदा बालकहानियाँ

     प्रकाश एक दिन ऐसा बीमार हुआ कि अपनी सुध-बुध ही खो बैठा। वह अचेतन अवस्था में – घंटी….घंटी…..घंटी बजती…..बंद करो…..बंद करो दीदी……अलार्म…..मनीराम….. भटनागर साहब…..घंटी……घंटी बड़बड़ाने लगा। डॉक्टर ने उसे स्थान परिवर्तन की सलाह दी। डॉक्टर की सलाह पर प्रकाश को उसके पिताजी उसे शिमला ले गए। एक सप्ताह एकांत में रहने पर उसका मानसिक परिवर्तन हुआ। उसने अपने पिताजी से खुशी-खुशी घर वापस चलने का अनुरोध किया। उस पर पिताजी की इस सलाह का भी भरपूर असर हुआ कि—-”आदमी ने अपने समय का हिसाब रखने के लिए घड़ियाँ बनाईं हैं और समय से सजग रहने के लिए घंटी बजती है। जो, सजग बनाए, तुम्हें चेतावनी दे, उससे चिढ़ना कैसा? अगर तुम नहीं चाहते, तो तुम उसे मिटा सकते हो, पर यह तो सोच लो कि क्या तुम उसके बिना रह सकते हो?”

     कहानी का अंत सुखद है कि अब घंटियाँ बजती रहती थीं, लेकिन प्रकाश उनसे चिढ़ता नहीं था, बल्कि खुश होता था।

     बंदर का कलेजा पंचतंत्र की प्रसिद्ध कथा का आधार है, लेकिन उसे बदलते परिवेश में ढालकर प्रस्तुत किया गया है। पंचतंत्र की कथा में बंदर मगर को चकमा देकर वापस अपनी डाल पर आ गया था। धीरे-धीरे समय बीतता गया, और बंदर की मगर से फिर दोस्ती हो गई । एक दिन बंदर ने मगर से कहा कि मैं अपना दिल बदलवाने शहर जा रहा हूँ। उस दिन भाभी को कलेजा नहीं खिला पाया था।

     उधर बंदर शहर चला गया इधर मगर और मगरनी में उसके कलेजे को खाने को लेकर खूब झगड़ा हुआ। कुछ समय बाद बंदर शहर से दो प्लास्टिक के नकली कलेजे ले आया। मगर के पूछने पर उसने बड़ा प्यारा बहाना बनाया —”भई, आज की दुनिया का निराला ठाठ है। अब तो दिल बदल देते हैं। मैंने भी सोचा कि क्यों न अपने दोस्त के लिए अपना दिल बदलवा लें। जिंदा रहूँगा तो और सेवा कर लूँगा, इसलिए जब डॉक्टर से दिल बदलवाए तो मेरे पेट में दो-दो दिल निकल आए।”

 बंदर ने मगर को कहा–’ये दोनों दिल तुम ले जाओ। एक तुम्हारे लिए एक भाभी के लिए।’

‘पर भैया, तुम जिन्दा कैसे हो?’ मगर ने पूछा।

‘मैंने तो नकली दिल लगवा लिया है।’ (पृष्ठ 24)

     मगर एक बार फिर बंदर की चिकनी - चुपड़ी बातों में आ गया। दोनों नकली दिल लेकर पानी के अंदर गायब हो गया। नकली दिल को तो असर दिखाना ही था। थोड़ी देर बाद मगर और मगरनी की लाश तालाब में तैरती हुई दिखाई दी।

     सीख न दूँगा बानरा भी पंचतंत्र की परंपरागत कथा का परिवर्तित रूप है। पानी में भीग रहे बंदर से बया ने इतना ही तो कहा था कि तुम भी अपना कोई घर क्यों नहीं बना लेते? बया की यह बात बंदर को इतनी बुरी लगी कि उसने बया का घोंसला ही नोंचकर फेंक दिया था। बंदर से छुटकारा पाने के लिए बया वह जगह छोड़कर शहर में पहुँच गया।

      पास के पेड़ पर बैठे हुए बया ने देखा कि जिस तरह बंदर ने उसका घोंसला उजाड़कर फेंक दिया था, उसी तरह खाकी वर्दी वाले ने मजदूर की झोपड़ी उखाड़कर फेंक दी। बाद में आपस में मजदूरों में कानाफूसी होने लगी। एक मजदूर बोला —-’ जब सेर को सवा सेर मिल जाता है, तो अच्छे-अच्छे लोगों के दिमाग ठिकाने लग जाते हैं।’

     मजदूर ने हार नहीं मानी। उसने फिर से झोपड़ी बना ली। अब उसने खाकी वर्दी वाले जमादार को सबक सिखाने का मन बना लिया था। जमादार वसूली करने फिर पहुँच गया। मजदूर ने बिना हीला-हवाली किए उसे नोट पकड़ा दिया। तभी इंस्पेक्टर और म्युनिसिपल कमिश्नर आकर उसे रँगेहाथों पकड़ लेते हैं।

    इस घटनाक्रम से बया का साहस बढ़ गया, उसे भी बंदर को सबक सिखाने का आइडिया मिल गया था। वह फिर जंगल में आया और अपना घोंसला बना लिया। बंदर को सबक सिखाने के लिए उसने बगीचे से एक अमरूद तोड़कर उसमें छेद किया और उसके अंदर एक लाल मिर्च दबाकर ऊपर से गूदा भर दिया। जैसेहि बंदर आया बया ने उसका स्वागत इस प्रकार किया —-’आप मुझसे बेकार ही नाराज हैं। यह लीजिए, आज मैं आपके लिए कितना बढ़िया अमरुद लाया हूँ। अब मुझ पर दया कीजिए और घोंसले नोचना बंद कर दीजिए।’ (पृष्ठ 28)

     अमरूद देखकर बंदर को लालच आ गया। वह जल्दी -जल्दी अमरूद खाने लगा। उसे ऐसी तीखी मिर्ची लगी कि उसे नानी याद आ गई। वह बया के घोंसले को तोड़ने के लिए जैसे हि आगे बढ़ा, पूरी डाल ही चरमराकर गिर पड़ी। अचानक हुए इस हादसे में बंदर का काम तमाम हो गया।

     इस कहानी का उद्देश्य स्पष्ट है कि जो जैसा करता है उसे उसकी सजा अवश्य मिलती है। इसका प्रकाशन सन् 1972 में नंदन पत्रिका में हुआ था।

      बेगुनाह पेड़ों की हत्या शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें पेड़ों को बचाने की बात कही गई है। कहानी में उस लकड़हारे का संदर्भ लिया गया है जिसमें जलदेवता ने लकड़हारे को उसकी लोहे की कुल्हाड़ी के साथ -साथ सोने और चाँदी की कुल्हाड़ी भी सौंप दी थी। आज के परिवेश में जलदेवता यह पश्चाताप करते हैं कि —--” मुझे तो यही अफसोस है कि तुम्हारे पूर्वज को मैंने चाँदी-सोने की कुल्हाड़ी के साथ, उसकी लोहे वाली कुल्हाड़ी भी लौटा दी थी। मैं सोचता था कि चाँदी-सोने पाकर वह लकड़ी काटना छोड़ देगा। किंतु मेरा अनुमान गलत निकला। सच पूछो तो तुम्हारी पूरी पीढ़ी पर ‘बेगुनाह पेड़ों की हत्या’ का मुकदमा चलाना चाहिए। पेड़ों में भी जीवन होता है, तुम उस हत्या के अपराधी हो।”

     इसीलिए लकड़हारे की वर्तमान पीढ़ी को जलदेवता सोने और चाँदी की कुल्हाड़ी तो दे देते हैं , लेकिन फिर से लोहे की कुल्हाड़ी देने की ग़लती नही करते हैं ताकि वह पेड़ों का भक्षक नहीं रक्षक बन सके। यह कहानी सन् 1974 में पराग पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।

      दीनू काका कहानी आपसी रिश्तों की बुनियाद पर बुनी ग‌ई है। शशिन दीनू काका से जब उनका अतीत जानने की बार -बार ज़िद करता रहा तो एक दिन उन्होंने अपनी वो मजबूरी बताई थी, जिसके चलते वे जमींदार साहब के यहाँ नौकर की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त थे। बाद में शशिन और रश्मि ने दीनू काका की दुखभरी कहानी अपने मित्र राजन के डैडी को सुना दी। वकालत के प्रोफेशन से जुड़े राजन के डैडी ने बताया कि अब तो गरीबों के कर्जे माफ कर दिए गए हैं। कोई किसी को गुलाम बनाकर मज़दूरी नहीं करा सकता।

      शशिन और रश्मि के प्रयास और वकील साहब की तत्परता से दीनू काका को न केवल मजदूरी करने से आजादी मिली, बल्कि उन्हें उनकी जमीन -जायदाद के सारे कागजात भी मिल ग‌ए। इस तरह दीनू काका आजाद होकर हँसी-खुशी अपनी जिन्दगी बिताने लगे। यह कहानी पराग पत्रिका के जुलाई 1977 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

     घुन कहानी अनैतिक रूप से धन कमाने की दास्तान है, जिसमें सुनील के पिता सक्सेना साहब एक सेल्स टैक्स आफीसर होते हुए भी रिश्वत की कमाई के आदी हो गए थे। सुनील ने बड़ी बुद्धिमानी से उन्हें रास्ते पर लाने के लिए एक कहानी लिखी और इस शर्त पर उसे पढ़ने के लिए अपने पिताजी को दे दी कि अगर कहानी उन्हें पसंद आएगी तभी वह उसे प्रकाशित होने के लिए पत्रिका में भेजेगा।

         कहानी ने असर दिखाया और उसे पढ़ते-पढ़ते सक्सेना साहब की आँखों में आँसू आ गए। कहानी का यह वाक्य बार-बार उन्हें हथौड़े की तरह चोट कर रहा था—--”-क्या वह (पिताजी) पसंद करेंगे कि उनकी वजह से उनका बेटा अपमानित हो? मेरी यह व्यथा, उन तमाम बच्चों के जैसी ही है, जिनके पिता चोरी-तस्करी, जूआ-शराब जैसे कुकर्मों में लगे हैं। इसीलिए कभी-कभी मैं अपने को घुन की तरह पाता हूँ जो गेहूँ के साथ अकारण ही पिस जाता है।” (पृष्ठ 42)

   कहानी का सुखद पहलू यह है कि सक्सेना साहब ने प्रायश्चित्त के रूप में कहानी को प्रकाशित करने की अनुमति देकर अपने को बोझ से मुक्त कर लिया। इस कहानी का प्रकाशन भी पराग पत्रिका के जनवरी 1982 अंक में हुआ था।

    पुरस्कार कहानी जहाँ बच्चों की प्रतिभा को आगे आने का एक अवसर प्रदान करती है, वहीं सभाओं में नेताओं द्वारा की गई पुरस्कार देने की झूठी घोषणाओं का पर्दाफाश करती है। कार्यक्रमों में नेता लोग अपनी वाहवाही लूटने के लिए घोषणाएँ तो कर देते हैं, परंतु हकीकत में यह सब हवा-हवाई ही होती हैं। कहानी में सेवाराम द्वारा की गई ऐसी ही घोषणा की कल‌ई अद्भुत ढंग से खोली गई है।यह कहानी सन् 2000 में अमर उजाला में बच्चों के स्तंभ में प्रकाशित हुई थी।

     अवसर कहानी में कंचन की चित्रकला ने प्रिंसिपल सहित अतिथि मंत्री महोदया सुभद्रा देवी को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उसे अपना आशीर्वाद देते हुए कहा कि—-’ तुम एक दिन जरूर बड़ी आर्टिस्ट बनोगी।’

     अगले दिन सुभद्रा देवी की इच्छा के अनुरूप प्रिंसिपल ने कंचन को कम से कम 50 चित्रों को बनाने का काम सौंप दिया। शाम को जब कंचन की माँ ने अपने पति नंदकिशोर से चित्र बनाने के लिए सामग्री का प्रबंध करने के लिए कहा तो उन्होंने आनाकानी करते हुए कहा कि मेरे पास फालतू पैसा नहीं है जो इन कामों में बर्बाद करूँ। अपने पिता द्वारा मना करने पर अगले दिन कंचन ने सारी बात अपनी प्रिंसिपल को बता दी। प्रिंसिपल ने जरूरत का सारा सामान खुद मँगवाकर रोज लाइब्रेरी पीरियड में चित्र बनाने का सुझाव दिया।

     कंचन की मेहनत रंग लाई। प्रदर्शनी में कंचन के बनाए चित्रों में से एक चित्र उसके पिता नंदकिशोर भी खरीदकर ले आए। उन्होंने कंचन के पूछने पर बताया कि पूरे पचास रुपए देकर प्रदर्शनी से यह चित्र खरीदा है। कंचन ने हँसते हुए बताया कि यह चित्र तो मेरा बनाया हुआ है। बाद में प्रिंसिपल मैडम ने प्रदर्शनी से वापस आकर बताया कि चित्रों से साढ़े तीन हजार रुपयों की आमदनी हुई है। अब नंदकिशोर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उन्होंने पश्चाताप के स्वर में कहा कि–’मैं वादा करता हूँ कि कंचन को उच्च शिक्षा पाने का बड़ा अवसर दूँगा। मुझे क्या पता था कि मेरी बेटी में इतनी प्रतिभा छिपी है।’ (पृष्ठ 52)

     सवाल का जवाब कहानी में तन्मय दीवाली के अवसर पर पटाखे न खरीद पाने वाले बच्चों को अपनी गुल्लक तोड़कर पैसे इसलिए देता है कि उनकी भी दीवाली अच्छे से मने। इस काम के लिए उसने अपने दादाजी से भी मदद ली। बाद में दादाजी को तन्मय के इस नेक काम का पता चलता है तो उन्होंने भावुक होकर उसे गले से लगा लिया। यह कहानी साहित्य अमृत पत्रिका के नवंबर 2002 अंक में प्रकाशित हुई थी।

    इसी प्रकार पापा, मम्मी को मत मारो कहानी पारिवारिक कलह पर केन्द्रित है जिसमें अजय अपने पापा के विरुद्ध खड़े होकर अपनी मम्मी की रक्षा करता है बल्कि अपने पापा को सबक भी सिखाता है। कहानीकार ने बड़े मनोवैज्ञानिक तरीके से इस कहानी का ताना-बाना बुना है जिसमें निशा मैडम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

    मैं पढ़ नहीं सका कहानी उस संजय की दास्तान है जो पढ़ाई तो नहीं कर सका, लेकिन उसने अपने परिश्रम और सूझबूझ से संजय आयरन वर्क्स खोलकर अपनी अलग पहचान बनाई। मास्टर बलदेव जब उसकी दुकान पर खिड़की में लोहे की जाली बनवाने केलिए जाते हैं तो वह मास्टर जी को पहचान लेता है, जबकि मास्टर बलदेव उसे नहीं पहचान पाते हैं। वह अपनी पूरी कहानी सिलसिलेवार मास्टर साहब को सुनाता है कि वह पढ़ क्यों नहीं पाया? इस कहानी के केन्द्र में रहे मास्टर साहब की आवाज गले में ही अटक जाती है और चश्मे के मोटे काँच के पीछे आँखों में आँसू भर आते हैं। यह कहानी नंदन पत्रिका में जून 2005 के अंक में प्रकाशित हुई थी।             

     अंतिम कहानी पॉटर चिप्स मिलावट का धंधा करने वाले मुनाफाखोरों को अच्छा सबक सिखाती है, जो चिप्स में नशीली दवाओं का इस्तेमाल करके उसे और स्वादिष्ट बना देते हैं ताकि उनकी और अधिक बिक्री हो सके। स्कूल के बच्चे पॉटर चिप्स खाने से जब बीमार पड़ने लगे तो इसका पर्दाफाश हुआ। ढेर सारे शहरों में पॉटर चिप्स की बिक्री पर रोक लगा दी गई और जहाँ-जहाँ भी माल मिला उसे जब्त कर लिया गया। यह कहानी दैनिक हिन्दुस्तान में सन् 2005 में प्रकाशित हुई थी।

      इस प्रकार संग्रह की सभी कहानियाँ एक से बढ़कर एक हैं। ये कहानियाँ कहीं समाज में चेतना लौटाने का काम करती हैं, तो कहीं बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने का संदेश देती हैं। कहीं -कहीं प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण भी इनके केन्द्र में है। इन कहानियों की भाषा- शैली का ही प्रभाव है कि पढ़ने के बाद एक-एक कर मानस पटल पर इनकी छवि अंकित होती चली जाती है। उत्तम कुमार बाला के बनाए रंगीन चित्रों ने भी कहानियों के विस्तार को उजागर करने में भरपूर मदद की है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने इसे आकर्षक साज-सज्जा और मनमोहक मुखपृष्ठ के साथ प्रकाशित करके बाल पाठकों को एक अनमोल उपहार दिया है।

© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम

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