बच्चों के मनचाहे कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Dr. Mulla Adam Ali
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Dwarka Prasad Maheshwari was one of the most celebrated poets of Hindi children's literature. His simple yet profound poems beautifully capture childhood innocence, values, and imagination. Even today, generations of children recite his verses with joy and inspiration.

Dwarka Prasad Maheshwari: The Beloved Poet of Hindi Children’s Literature

बच्चों के मनचाहे कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी: हिंदी बालसाहित्य के अमर कवि और बच्चों के प्रिय रचनाकार

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी हिंदी बालसाहित्य के ऐसे अनमोल रत्न थे जिन्होंने बच्चों की मासूमियत, जिज्ञासा और संवेदनाओं को अपनी कविताओं में जीवंत कर दिया। उनकी रचनाएँ केवल बालमन का मनोरंजन नहीं करतीं बल्कि उन्हें जीवन मूल्यों और संस्कारों से भी जोड़ती हैं। सहज, सरल और शिक्षाप्रद अभिव्यक्ति ने उन्हें बच्चों का प्रिय कवि और बालसाहित्य का मसीहा बना दिया।

बच्चों के मनचाहे कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

    बचपन में किताब पर थाप देकर हम लोग कक्षा में सस्वर निम्नलिखित कविता का जोर-जोर से पाठ किया करते थे-

सूरज निकला, चिड़ियाँ बोलीं

कलियों ने भी आँखे खोली। 

आसमान में छाई लाली 

हवा बही सुख देने सुख देने वाली। 

नन्हीं-नन्हीं किरणें आईं

फूल हँसे, कलियाँ मुस्काई।

    इस मनभावन नन्हीं कविता के कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की ऐसी ही अनेक कविताएँ लगभग पाँच दशक बाद आज भी बच्चों के गले का कंठहार बनी हुई है। सन् 1975 में प्रकाशित पहले वृहद् 294 पृष्ठों के बालकाव्य संकलन बालगीतायन में प्रकाशित यह पहली रचना है।प्राथमिक कक्षाओं से लेकर इण्टरमीडिएट तक की कक्षाओं में पढ़ने वाला हर कोई माहेश्वरी जी की रचनाओं को बखूबी पहचानता है। उनकी कविताओं को पढ़कर युवा होने और फिर वृद्ध होने वाली तीन पीढ़ियाँ आज एकसाथ सक्रिय हैं। 

     माहेश्वरी जी को बालकों से अगाध स्नेह था। उनका मानना था कि बालक वस्तुतः एक विराट व्यक्तित्व का धनी होता है। ऐसे में बालकों के लिए बालसाहित्य लिखना बहुत आसान नहीं है। वह तो बालक बनकर ही किया जा सकता है। बालक के बारे में माहेश्वरी जी की अवधारणा थी-

बालक सुमन-पराग, सरस रस गंध है 

बालक बाल्मीकि का पहला छंद है। 

बालक परमहंस, शिव-सुंदर-सत्य है 

बालक सरगम कला स्वयं साहित्य है।

    बालक को स्वयं साहित्य की संज्ञा से विभूषित करने वाले माहेश्वरी जी का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि - सबसे कठिन सरल लिखना होता है, और सरल वही लिख सकता है जिसका व्यक्तित्त्व बालक के व्यक्तित्त्व के समान ही सहज और सरल हो। यह एक बहुत बड़ी साधना है, तपस्या है।

       माहेश्वरी जी ने बालसाहित्य साधना में अपना पूरा जीवन खपा दिया था। वे इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहते थे कि हिंदी साहित्य के ग्रंथों में बालसाहित्य की चर्चा नहीं होती। सन् 1998 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'समकालीन बालसाहित्य: परख और पहचान' उन्हें समर्पित किया था। पुस्तक प्रकाशित होने के बाद मैंने उन्हें डाक से एक प्रति प्रेषित की तो उनका एक बड़ा लंबा पत्र अगले सप्ताह आ गया। उनका यही लंबा पत्र मेरे लिए अंतिम पत्र था। इस पत्र में उन्होंने बड़े भारी मन से लिखा था - हिंदी साहित्य के इतिहास में अभी तक बालसाहित्य की चर्चा नहीं होती, यह बड़ी विडंबना है। अपने साहित्य की समस्त सृजनशीलता व मौलिकता को समेटे हुए बालसाहित्य उपेक्षित ही रहता रहता आया है।

     अपने पत्र में उन्होंने आगे लिखा था कि- "समकालीन बाल साहित्य परख और पहचान' बड़ी महत्त्वपूर्ण सामयिक कृति है। आपकी सशक्त लेखनी जब इस साहित्य को इतिहास के पन्नों से जोड़ेगी, तो निश्चय ही विद्वानों की आँखें खुलेंगी। आपसे मुझे ऐसे ही एक-दो ग्रंथ हिन्दी बालसाहित्य के इतिहास में अपेक्षित हैं। उनसे निश्चय ही बाल साहित्यकारों को भी दिशा मिलेगी। असलियत यह है कि हिन्दी बालसाहित्य को कोई आचार्य रामचंद्र शुक्ल चाहिए।"

   बालसाहित्य और बाल साहित्यकारों को उचित मान्यता दिलाने के लिए माहेश्वरी जी अपने जीवन के अंत तक प्राणप्रण से जुटे रहे। यह सच है कि पुरस्कार उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए कोई मापदंड नहीं है। ऐसे बहुत से साहित्यकार हैं जिन्होंने जीवनपर्यंत भरपूर मात्रा में साहित्य-सृजन किया परंतु उन्हें कोई भी बड़ा पुरस्कार नहीं मिला। फिर भी माहेश्वरी जी अपनी चिंता को पुरस्कार से जोड़कर देखते हुए उस समय उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा बालसाहित्य सृजन के लिए दिए जाने वाले बालसाहित्य भारती पुरस्कार के बारे में मुझे लिखा था- "आप तो हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश के सानिध्य में हैं। मैं समझता हूँ, जबकि हिंदी के अन्य विधाओं में सृजित साहित्य को पचास हजार रुपए की धनराशि से लेकर दो-ढाई लाख की सम्मान राशि से सम्मानित किया जाता है तो बालसाहित्य को ही अभी पच्चीस हजार पाँच सौ इक्यावन तक सीमित रखा रखा गया है अधिक नहीं तो कम से कम एक लाख रुपए तक की सम्मान राशि तो बालसाहित्य के लिए सक्षम साहित्यकार को देने पर विचार किया ही जाना चाहिए।"

      मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि लगभग 20 वर्षों पूर्व बालसाहित्य भारती पुरस्कार को लेकर शुरू की गई माहेश्वरी जी की यह मुहिम आगे चलकर रंग लाई। आज उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ से दिया जाने वाले इस पुरस्कार की राशि बढ़कर दो लाख रुपये हो गई है।

     मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि माहेश्वरी जी सही अर्थों में बालसाहित्य के मसीहा थे थे। उनमें अदम्य जिजीविषा की। कई गंभीर बीमारियों से जूझने के बाद भी उनकी फुर्ती देखते ही बनती थी। सन् 1997 की बात है। आगरा प्रवास के दौरान जब मैंने उन्हें फोन पर बताया कि मैं आपके शहर में आ गया हूँ, और जल्दी ही आपसे मिलने आ रहा हूँ, तो उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा- "नहीं, पहले मैं आपसे मिलने आऊँगा, आप हमारे शहर में मेहमान हैं। आप कहाँ रुके हैं, यह बता दीजिए" यह था उनका बड़प्पन। 

      मैंने पहले 'आप' की नजाकत और नफ़ासत अपने लखनऊ शहर में ही देखी सुनी थी, परंतु आगरा में माहेश्वरी जी ने मुझे विस्मय में डाल दिया था। फोन बातचीत के बाद कट गया। लगभग 2 घंटे बाद क्या देखता हूँ कि मेरे बताए हुए स्थान पर माहेश्वरी जी छड़ी टेकते हुए चले आ रहे हैं। सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मैंने उनकी पीड़ा महसूस की। राड पड़ने के कारण पैर पूरा नहीं मुड़ रहा था, फिर भी मुस्कुराते हुए माहेश्वरी जी सीढ़ियाँ चढ़ गए थे। ऊपर कमरे में आकर उन्होंने मुझे अंकपाश में आबद्ध कर लिया। मुझे उस वटवृक्ष की छाया में बड़ा सुकून मिला.... मिलता क्यों नहीं.... गंगा स्वयं चलकर भगीरथ से मिलने आई थी। मेरे साहित्यकार मित्र कमलेश भट्ट 'कमल' ने उस दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लिया था।

      मैं लगभग दस दिन आगरा प्रवास पर रहा। इन दस दिनों में मैं माहेश्वरी जी की दिनचर्या का एक हिस्सा हो गया था। अगर मुझे ज़रा सी भी देरी होती तो माहेश्वरी जी खुद ही फोन कर हालचाल ले लेते थे। दिनभर आगरा विश्वविद्यालय के केंद्रीय मूल्यांकन में व्यस्त होने के बावजूद शाम को माहेश्वरी जी के निर्देशन में आयोजित संगोष्ठी में जाना और विचार-विमर्श में भागीदारी करना मुझे अच्छा लगता था। लगभग प्रतिदिन आगरा शहर में कहीं न कहीं गोष्ठी हो जाती थी। कभी बालसाहित्य, कभी हिंदी कविता कभी ग़ज़ल गोष्ठी...... नए-नए विषयों पर हम लोग खुलकर बोलते थे। बाद में माहेश्वरी जी जब पीठ ठोंकते थे तो ऐसा लगता था मानों मुझे अमूल्य निधि मिल गई। 

     माहेश्वरी जी ने अपने आखिरी पत्र में मुझे लिखा था- "मैं तो आजकल पुनः बीमार ही चल रहा हूँ। 82वें साल के उत्तरार्ध में तो हूँ ही। फिर भी....

जितनी साँसें मिलीं मुझे वे खोई नहीं, न अब खोऊँगा। 

बुझते-बुझते भी पूनम के बीज अमावस में बोऊँगा।

जीवन के अंतिम पड़ाव तक यह विश्वास लिए आया हूँ ।

     बच्चों के चहेते कवि माहेश्वरी जी का जन्म आगरा के एक सामान्य गाँव, रोहता में 1 दिसंबर 1916 को हुआ था। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। बिलकुल सामान्य परिवार में जन्म लेने के कारण माहेश्वरी जी को आर्थिक कठिनाइयों से जूझना पड़ा। घर का कामकाज करने के अतिरिक्त माहेश्वरी जी को नियमित ट्यूशन पढ़ाने जाना पड़ता था। अथक परिश्रम करके उन्होंने एम.ए., की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद एल.टी., की ट्रेनिंग करने इलाहाबाद आ गए। 

       एल.टी., करने के पश्चात माहेश्वरी जी को शिक्षा विभाग में नौकरी मिल गई, जहाँ आपने सहायक अध्यापक से लेकर उप शिक्षा निदेशक तक के पद का उत्तरदायित्वपूर्ण निर्वहन किया। अवकाश प्राप्त करने के पश्चात आपने अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्था साक्षरता निकेतन, लखनऊ में निदेशक के रूप में भी कार्य किया। वहाँ रहते हुए माहेश्वरी जी ने प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में मानक स्थापित किया। नवसाक्षरों के लिए स्वयं विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन किया तथा संगोष्ठियों, सेमिनारों, पुस्तकों और आम सभाओं के माध्यम से प्रौढों में शिक्षा के प्रति रुचि जागृत की की।

     माहेश्वरी जी मूलत: बच्चों के कवि थे। उन्होंने बच्चों के लिए खूब जमकर लिखा तथा ऐसा कोई विषय नहीं छोड़ा जो बच्चों के लिए छुपा। उनकी स्पष्ट अवधारणा थी कि- "बच्चे परिवार का अंग हैं, समाज का अंग हैं, देश का अंग हैं और दुनिया का अंग हैं। अतः जरूरी तौर पर उनमें रचना प्रक्रिया के जरिए ऐसे मूल्यों की चेतना आरंभिक स्तर पर ही जागृत की जानी चाहिए जो उन्हें आगे चलकर नागरिकता, सामाजिकता से कहीं अधिक जिम्मेदारी से जोड़ सके। दरअसल जब तक ऐसा साहित्य नहीं लिखा जाएगा तब तक वह श्रेष्ठ बालसाहित्य का दर्जा नहीं पा सकेगा।"

हिंदी बाल कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

      माहेश्वरी जी ने बच्चों के मन और मनोभावों को परखकर उनके लिए उत्कृष्ट बालसाहित्य का सृजन किया है। सन् 1975 में प्रकाशित उनका अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'बालगीतायन' आज भी बालसाहित्य के क्षेत्र में मील का पत्थर बना हुआ है। तब से लेकर अब तक इस ग्रंथ पर अनेक उत्कृष्ट समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। बालसाहित्य पर हुए शोध-प्रबंधों में भी इस ग्रंथ की विस्तार से चर्चा हुई है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें हर आयु वर्ग के बच्चों के लिए लिखी गई माहेश्वरी जी की 193 कविताएँ संकलित की गई हैं। किसी भी एक बाल साहित्यकार का यह सबसे बड़ा संकलन है।

   माहेश्वरी जी के बालसाहित्य सृजन पर पहली आलोचनात्मक पुस्तक लिखने वाले डॉ. ओम निश्चल का कहना है कि- "तमाम मानसिक उलझावों और अभावों की दुनिया में भटकते बच्चों के लिए 'बालगीतायन' एक ऐसी जगह है, जहाँ पहुँचकर वे एक शाश्वत सुख का का अनुभव कर सकते हैं। 'बालगीतायन' में खिलखिलाहटों का अंबार है, फूल, पत्तियों, फसलों और दरख़्तों का परिवेश है साथ ही सूरज, चंदा, तारों, तितलियों, चिड़ियों, बादलों, नदियों, हवाओं, और गाँवों के कितने ही रूपाकार हैं, जो खालिस बच्चों के अपने हैं और उनके मनोभावों से उनका बहुत करीबी रिश्ता है।"

   माहेश्वरी जी की अब तक प्रकाशित बालसाहित्य की महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं :- लहरें (1952), बढ़े चलो (1958), अपने काम से काम (1959, बुद्धि बड़ी या बल (1959), माखन-मिसरी (1959), हाथी घोड़ा पालकी (1963), सोने की कुल्हाड़ी (1970), अंजन-खंजन (1964) सोच समझकर दोस्ती करो (1965), सूरज सा चमकूँ मैं (1970), हम सब सुमन एक उपवन के (1970), सतरंगा पुल (1973), प्यारे गुब्बारे (1974), हाथी आया झूम के (1975), बालगीतायन (1975), आई रेल आई रेल (1975), हम सब एक हैं(1975), सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते हैं (1976), हम हैं सूरज चाँद सितारे (1981), जल्दी सोना जल्दी जगना (1981), मेरा वंदन है (1981), नीम और गिलहरी (1984), बगुला: कुशल मछुआ (1984), चाँदी की डोरी (1990) ना मौसी ना (1991), चरखे और चूहे (1991) तथा (धरती के सुमन) 1994 आदि। 

       द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी अकेले ऐसे बालसाहित्यकार हैं जिनके हिस्से में बालसाहित्य के लिए अनेक उपलब्धियाँ हैं:-

  1. पहली बार सन् 1975 में उनकी बाल कविताओं का बृहद्संकलन 'बालगीतायन' शीर्षक से प्रकाशित हुआ जिसमें 193 बालोपयोगी कविताएँ संकलित की गई हैं।
  2. पहली बार सन् 1985 में किसी बाल साहित्यकार पर कोई आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसका श्रेय पुस्तक 'द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी : सृजन और मूल्यांकन / डाॅ. ओम निश्चल' को जाता है। 
  3. पहली बार सन् 1996 में किसी बालसाहित्यकार की रचनावली प्रकाशित होती है। डॉ. ओम निश्चल और डॉ. विनोद माहेश्वरी के संपादन में 'द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी रचनावली' (तीन भागों में) छपकर चर्चा में आती है।
  4. पहली बार सन् 2000 में किसी बाल साहित्यकार की आत्मकथा पुस्तकाकार प्रकाशित होकर समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। 'सीधी राह चलता रहा' शीर्षक से प्रकाशित द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की आत्मकथा इस अर्थ में भी महत्त्वपूर्ण है कि इसका प्राक्कथन सुप्रसिद्ध साहित्यकार, पद्मविभूषण डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने लिखकर हमें चौंका दिया था कि पुस्तक का नामकरण उन्हीं की सलाह पर किया गया है।
  5. पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जिनकी सर्वाधिक रचनाएँ बच्चों तक पहुँचकर लोकप्रिय हुईं, उसका श्रेय भी द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी को ही है। 

     इस आलेख में ऊपर चर्चा की गई है कि माहेश्वरी जी ने हर आयु वर्ग के बच्चों के लिए गीतों का सृजन किया है। शिशुओं के लिए उन्होंने परंपरागत शीर्षकों - हाथी घोड़ा पालकी, चंदा मामा दूर के, अटकन बटकन और हाथी आता झूम के जैसे गीत लिखे हैं। शिक्षा अभियान से जुड़े विषयों पर बालकों के लिए लिखे गए उनके अनेक गीत प्रचलित रहै हैं। बालिकाओं को संबोधित माहेश्वरी जी का यह बेमिसाल गीत अपने अनूठेपन के कारण उनकी जुबान पर चढ़ा हुआ था :-

मुन्नी-मुन्नी, ओढ़े चुन्नी 

गुड़िया खूब सजाई। 

किस गुड्डे के साथ हुई तय

इसकी आज सगाई। 

मुन्नी-मुन्नी, ओढ़े चुन्नी 

कौन खुशी की बात है ? 

आज तुम्हारी गुड़िया प्यारी

की क्या चढ़ी बरात है। 

मुन्नी-मुन्नी, ओढ़े चुन्नी 

गुड़िया गले लगाए। 

आँखों से यों, आँसू ये क्यों 

रह- रह, बह- बह आए। 

मुन्नी-मुन्नी, ओढ़े चुन्नी

क्यों ऐसा यह हाल है?

आज तुम्हारी गुड़िया प्यारी

जाती क्या ससुराल है?

     माहेश्वरी जी ने बहुतायत में प्रार्थना-गीत लिखे हैं। उनकी प्रभातियाँ, जागरण-गीत, प्रयाण-गीत, पर्व एवं त्योहार गीत तथा शिक्षात्मक गीत बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी बहुत लोकप्रिय हैं। यह सच है कि बच्चों को सीधे-सीधे उपदेश देना उन्हें नागवार गुजरता है। वे उपदेशात्मक रचनाओं को नकारने में कतई नहीं हिचकते हैं, परंतु माहेश्वरी जी ने अपने बालगीतों में चुपचाप ऐसी सीख दी है, जिन्हें बच्चे कविता के साथ ही आसानी से कंठस्थ कर लेते हैं-

कौआ किसका धन हर लेता, कोयल किसको दे देती है।

केवल मीठे बोल सुनाकर, बस में सबको कर लेती है। 

हम उन फल वाले पेड़ों को, पत्थर से मारा करते हैं

लेकिन वे मीठे फल देकर, हम सबकी झोली भरते हैं

सूरज आता देख दीप, अपना प्रकाश धीमा करता है

अपने से जो बड़ा सामने, उसका वह आदर करता है

पर्वत कहता है हम सबसे, कभी न अपना शीश झुकाओ

अडिग रहो अपने प्रण पर तुम,सदा गर्व से सीस उठाओ।

   माहेश्वरी जी ने जहाँ पंचतंत्र तथा हितोपदेश की अनेक रचनाओं का पद्यानुवाद बच्चों के लिए उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत किया है, वहीं अनेक लोककथाओं तथा विदेशी कथाओं की भावभूमि से बच्चों को जोड़ने का सफल प्रयास किया है। चूहों की सभा, सूरज की जीत, अंगूर खट्टे हैं, चंद्रमा का कुर्ता, धरती उलट रही है, सोने की कुल्हाड़ी, लालची कबूतर तथा बीज का सपना आदि रचनाएँ इसका प्रमाण हैं। इनमें कवि ने अपनी कल्पना का पुट डालकर उन्हें स्थायित्व प्रदान किया है। 'यदि होता किन्नर नरेश मैं' कविता माहेश्वरी जी की कल्पना का उत्कृष्ट उदाहरण है-

यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता।

सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।

बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे 

प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे। 

मेरे वन में सिंह घूमते, मोर नाचते आँगन 

मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण। 

-------------

 सूरज के रथ सा मेरा रथ, आगे बढ़ता जाता 

बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता। 

 तब लगता मेरी ही हैं ये, शीतल मंद हवाएँ

झरते हुए दूधिया झरने, इठलाती सरिताएँ।

    धूप, गर्मी, बादल, बरसात, चिड़ियाँ, फूल, हवा, तारे, चाँद, सूरज, वसंत, जाड़ा, वर्षा आदि मौसम व प्रकृति से जुड़े कोई भी विषय माहेश्वरी जी की लेखनी से नहीं छूटे हैं। इन सभी विषयों पर आपने उद्बोधक और प्रेरक बाल कविताएँ लिखी हैं। इनके साथ ही संस्कृत साहित्य की कई सूक्तियों और श्लोकों को भी उन्होंने बच्चों तक काव्यमय एवं अत्यंत सरल भाषा में पहुँचाया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित यह कविता देखिए-

खिलो फूल -से क्योंकि कभी वे, अपने लिए नहीं खिलते हैं।

फलो वृक्ष- से क्योंकि अभी वे, अपने लिए नहीं खिलते हैं।

प्यासे जग की प्यास बुझाने, बादल जल भर-भर लाते हैं।

सीखो उनसे वे कैसे औरों के हित में मिट जाते हैं। 

पर हित के ही लिए देह, धारण करते हैं सज्जन प्राणी

वृक्ष स्वयं न कभी फल खाते, नदियाँ स्वयं न पीतीं पानी।

    जीवन में चरित्र का बड़ा महत्त्व है। इसके माध्यम से बच्चों को संस्कार प्राप्त होता है, इसीलिए माहेश्वरी जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से बच्चों को चरित्र-निर्माण पर विशेष रूप से बल दिया दिया है। जीवन में धन का महत्त्व है लेकिन इससे भी ऊपर है चरित्र :- 

अगर खो गया धन तो समझो, कुछ भी बहुत नहीं खोया है।

अगर तंदुरुस्ती खोई तो, समझो काफी कुछ खोया है। 

किंतु खो दिया यदि चरित्र तो, समझो सब कुछ ही खोया है।

धन का अर्जन करना हमको, है आवश्यक, बहुत जरूरी।

रखना भी है ठीक स्वास्थ्य को, तब ही होगी मंजिल पूरी।

     माहेश्वरी जी सही अर्थों में बच्चों के कवि मित्र थे। स्वभाव से संकोची और मिलनसार माहेश्वरी जी का कवि हृदय छल-कपट से कोसों दूर था। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बराबर उनकी निकटता प्राप्त हुई। उनसे बातचीत करते हुए मैंने उनके हृदय की गहराइयों में जब-जब झाँकने का प्रयास किया तो पाया कि उसमें बालसाहित्य हिलोरें ले रहा है। वे बालसाहित्य को बहुत ऊँचाइयों पर देखना चाहते थे। आज माहेश्वरी जी सशरीर हमारे बीच नहीं हैं परंतु उनका साहित्य, उनकी सदाशयता, उनके विचार बालसाहित्य का युगों तक मार्गदर्शन करते रहेंगे।अंत में उन्हीं की पंक्तियों के साथ इस आलेख का समापन कर रहा हूँ जिसमें 

वे बड़ी विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि- मेरी कविता का हर बोल तुम्हारा है :-

मैं न रहा जब मैं, तुम आए और स्वयं 

उठा लेखनी तुमने मेरे गीत लिखे।

तुम ही आँसू की मुस्कान बने मेरे 

इसीलिए आँसू मोती के भाव बिके। 

जिसने, जितना, जो कुछ आँका है मुझको

मेरा मोल नहीं, वह मोल तुम्हारा है। 

मेरी कविता का हर बोल तुम्हारा है।

- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज
लखनऊ (उ.प्र)-226018
मो.नं.- 08960285470

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