सोहनलाल द्विवेदी का बाल साहित्य सृजन

Dr. Mulla Adam Ali
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Sohanlal Dwivedi is regarded as one of the pioneers of Hindi children’s literature, who dedicated his entire creative journey to young minds. His poems beautifully blend simplicity, playfulness, patriotism, and moral values, making him a timeless favorite among generations of children.

Sohanlal Dwivedi: The Evergreen Poet of Hindi Children’s Literature

सोहनलाल द्विवेदी का बाल साहित्य सृजन

 हिंदी बालसाहित्य के अमर रचनाकार : सोहनलाल द्विवेदी

सोहनलाल द्विवेदी हिंदी बालसाहित्य के ऐसे स्तंभ हैं जिन्होंने बच्चों को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन को अपनी जीवन साधना बनाया। उनकी बालकविताएँ जहाँ सरल, सरस और मनोरंजक हैं, वहीं उनमें राष्ट्रीयता, नैतिकता और जीवन मूल्यों की प्रेरणा भी समाई हुई है।

सोहनलाल द्विवेदी का बाल साहित्य सृजन

     जनता के द्वारा राष्ट्रकवि कहे जाने वाले सोहनलाल द्विवेदी सही अर्थों में बच्चों के चहेते कवि थे। जहाँ एक ओर हजारीप्रसाद द्विवेदी उन्हें बच्चों के माई-बाप की संज्ञा से विभूषित करते हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आचार्य द्विवेदी से भी एक कदम और आगे बढ़कर उन्हें बाल साहित्य के जनक के रूप में देखते हैं। हिंदी बालसाहित्य के प्रथम शोधकर्ता डॉ. हरिकृष्ण देवसरे सोहनलाल द्विवेदी की तुलना आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से करते हुए कहते हैं-

   "सोहनलाल द्विवेदी बालसाहित्य के 'महावीर प्रसाद द्विवेदी' हैं। आपने बालसाहित्य को उसी तरह सजाया-सँवारा है, जिस प्रकार उन द्विवेदी जी ने हिंदी के खड़ी बोली साहित्य को बनाया था। अपनी अनेक रचनाओं, बालसाहित्य के लेखकों तथा प्रकाशकों को प्रोत्साहन एवं उन्हें साहित्य जगत में प्रतिष्ठा दिलाने के पुनीत आंदोलन द्वारा आपने जो कुछ किया है, उससे बालसाहित्य धन्य हुआ है।" - हिंदी बाल साहित्य : एक अध्ययन : पृष्ठ 169

    आज से आठ-नौ दशक पूर्व जब बच्चों के लिए साहित्य लिखने में तथाकथित साहित्यकार अपना अपमान महसूस करते थे, उस समय बालसाहित्य को ही अपने लेखन का उद्देश्य बनाने वाले सोहनलाल द्विवेदी ने कहा था- "सभी तो बड़ों के लिए लिख रहे हैं, किसी को तो नन्हें-मुन्नों के लिए, बालकों के लिए, किशोरों के लिए तथा तरुणों के लिए लिखना चाहिए। इसी उद्देश्य को सामने रखकर मैंने बालसाहित्य में ही विशेष रुप से अपने ध्यान को केंद्रित किया था, और मैं मानता हूँ जो कुछ भी लिखा है मैंने वह सभी बालसाहित्य है।"

    अपने संपूर्ण लेखन को बालसाहित्य के गौरव से जोड़ने वाले द्विवेदी जी अपनी एक कविता 'युगावतार' की चर्चा करते हुए कहते हैं- "'युगावतार' कविता सातवीं-आठवीं कक्षा के छात्रों की पाठ्यपुस्तकों में है, तब सभी कविताएँ बालकों के लिए ही तो हैं" - नर्मदा प्रसाद खरे : बच्चों के महाकवि : एक कवि : एक देश (अभिनंदन ग्रंथ) पृष्ठ 245

    आज से चार दशक पूर्व सन् 1980 में लखनऊ प्रवास के दौरान बातचीत में द्विवेदी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि बालसाहित्य देखने में जितना सहज और सरल लगता है, सर्जना के स्तर पर वह उतना ही कठिन होता है। बालसाहित्य लेखन के खतरे से पं. सोहनलाल द्विवेदी जी पूरी तरह परिचित थे, तभी तो उनका यह कहना था -

   "भाषा क्लिष्ट हो जाए तो लेखक को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़े। भावों में स्वाभाविक सारल्य न हो, अभिव्यंजना में भोलापन न झलक पड़े तो- तो लेखक केवल कलाकार ही नहीं घसियारा बन जाएगा। इन दोनों गुणों में पारंगत होने पर भी यदि कथन में नई पौध के नव-निर्माण की भावना न हुई तो भी लेखक का प्रयास सर्वथा सफल और चिरस्थाई न होकर कालांतर में तीन कौड़ी का बन जाता है।"

     बालसाहित्य लेखन के इन सारे खतरों को जानते हुए भी सोहनलाल द्विवेदी जी ने बालसाहित्य को पूरे मन से न केवल अंगीकार किया, बल्कि उसमें एक मानक भी स्थापित किया। द्विवेदी युग की महत्त्वपूर्ण बालपत्रिका 'बालसखा' का सन् 1957 से लेकर सन् 1967 तक पं. लल्ली प्रसाद पांडेय के साथ संपादन करके भी उन्होंने हिंदी बालसाहित्यकारों की एक लंबी फौज खड़ी की। इस फौज के अनेक सिपाही लंबे समय तक बालसाहित्य की सेवा करते रहे। उनमें से कुछ आज भी बालसाहित्य सृजन कर रहे हैं। बालसखा में निरंतर छपने वाले अनेक बालसाहित्यकार अब इस संसार से चले गए हैं परंतु उनकी रचनाएँ आज भी अमर हैं।

    दिवेदी जी उस समय बालसाहित्य की डगमगाती नौका लेकर आगे बढ़े, जिस समय उसका कोई खेवनहार नहीं था। अनेक आँधी-तूफान और भयंकर झंझावातों को झेलते हुए उन्होंने बालसाहित्य को हिंदी साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ा। बीसवीं शताब्दी के दूसरे, तीसरे और चौथे दशक में उनकी शताधिक बालकविताएँ - बालसखा, लल्ला, मनमोहन, मनोविनोद, तितली, मदारी आदि बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।

    द्विवेदी जी की पहली बालकविता कब प्रकाशित हुई, यह तो कहना कठिन है, परंतु उनकी बालोपयोगी कविताओं का पहला संग्रह - 'दूधबताशा' सन् 1930 में भारती भंडार, लीडर प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित हुआ था। दूधबताशा की कविताएँ वास्तव में बच्चों के लिए दूधबताशा ही थीं। उनमें इतनी मिठास थी कि बच्चों में सहज ही लोकप्रिय हो गए। द्विवेदी जी ने अपने जीवन के अंतिम समय तक बालसाहित्य की दो दर्जन से अधिक कृतियाँ बच्चों को भेंट की। उनकी बालसाहित्य की अब तक प्रकाशित निम्नलिखित पुस्तकें उल्लेखनीय हैं : दूध बताशा (सन् 1930), मोदक (सन् 1940), पाँच कहानियाँ (सन् 1940), सात कहानियाँ (सन् 1940), किसान (सन् 1940), बिगुल (सन् 1944), शिशु भारती ( सन् 1949), बालभारती (सन् 1953), झरना( सन् 1953), बच्चों के बापू (सन् 1956), बाँसुरी (सन् 1957), हँसो हँसाओ (सन् 1963), शिशु गीत (सन् 1969), यह मेरा हिंदुस्तान है (सन् 1972), तितली रानी (सन् 1974), हुआ सवेरा उठो उठो (सन् 1976), एक गुलाब (सन् 1976), गीत भारती (सन् 1979), सुनो कहानी (सन् 1983), रामू की बिल्ली (सन् 1984), फूल हमेशा मुस्काता (सन् 1984), शिशु गीतिका (सन् 1985) तथा प्यारे-प्यारे तारे चमको (सन् 1985) आदि।

    युगबोध द्विवेदी जी के बालगीतों का वैशिष्ट्य है। उन्होंने खद्दर, ध्रुवतारा, चाॅबी का गुच्छा तथा मेरा देश से लेकर तकली, मछली, तितली और कबूतर जैसे विषयों पर एक से एक मज़ेदार और रोचक बालगीत लिखे हैं। उनके साहित्य पर शोध करने वाले डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा ने सोहनलाल द्विवेदी के बाल गीतों को मनोरंजन और ज्ञान-प्रेरणा का दिव्य संगम कहा है। द्विवेदी जी के बालगीतों में प्रकृति का साहचर्य, क्रीड़ा की मस्ती, राष्ट्रीयता, उद्बोधन, पर्वों की झाँकी, आगे बढ़ने की प्रेरणा तथा जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने का उत्साह सभी कुछ देखने को मिलता है। उन्होंने बड़ी सीधी और सरल भाषा में बच्चों का प्रकृति से सीधा प्रेरणादायक साक्षात्कार कराया है-

पर्वत कहता शीश उठाकर, तुम भी ऊँचे बन जाओ। 

सागर कहता है लहराकर, मन में गहराई लाओ। 

समझ रहे हो क्या कहती है, उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग 

भर-लो, भर-लो अपने मन में, मीठी-मीठी मृदुल उमंग।

धरती करते धैर्य न छोड़ो, कितना ही हो सिर पर भार। 

नभ कहता है फैलो इतना, ढँक लो तुम सारा संसार।

    आसमान में फहराते हुए तिरंगे को देखकर बच्चों के मन में नाना प्रकार की कल्पनाएं जन्म लेती हैं। वे मन ही मन संकल्प लेते हैं कि हम इसकी रक्षा करने में अपना तन-मन-धन सब कुछ अर्पण कर देंगे। यह देश हमारा है और हमें इस देश की रक्षा के लिए हर संकल्प को पूरा करना है। इसी भाव को द्विवेदी जी ने ने अपनी बाल कविता में में इस प्रकार व्यक्त किया है-

हम नन्हें-नन्हें बच्चे हैं, नादान उमर के कच्चे हैं। 

पर अपनी धुन के सच्चे हैं, हम नन्हें-नन्हें बच्चे हैं। 

जननी की जय-जय गाएँगे, भारत की ध्वजा उड़ाएँगे। 

अपना पथ कभी न छोड़ेंगे, अपना प्रण कभी न तोड़ेंगे। 

हिम्मत से नाता जोड़ेंगे, हम हिमगिरि पर चढ़ जाएंगे। 

भारत की ध्वजा उड़ाएंगे। - डाॅ. हरिकृष्ण देवसरे द्वारा संपादित :बच्चों की सौ कविताएँ : पृष्ठ 52

     महात्मा गाँधी और बच्चों के प्रिय चाचा पं. जवाहरलाल नेहरू दोनों द्विवेदी जी को बहुत प्रिय थे। उनके अंदर देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। भारत की शस्य श्यामला भूमि पर जन्म लेना बड़े सौभाग्य की बात है। 'गाँधी के भारत के प्रति बच्चों में नई राष्ट्रीय भावना जगे, वे उसके निर्माण में आगे बढ़ें।' (बिगुल :भूमिका पृष्ठ 1) इसी उद्देश्य से द्विवेदी जी ने यह आह्वान गीत लिखा था :-

जन्में जहाँ थे रघुपति, जन्मीं जहाँ थी सीता 

श्रीकृष्ण ने सुनाई , वंशी पुनीत गीता। 

गौतम ने जन्म लेकर जिसका सुयश बढ़ाया 

जग को दया दिखाई, जग को दिया दिखाया।  

वह युद्ध भूमि मेरी  

 वह बुद्ध भूमि मेरी 

वह जन्मभूमि मेरी 

वह मातृभूमि मेरी। - जयप्रकाश भारती द्वारा संपादित : हिन्दी के श्रेष्ठ बालगीत : पृष्ठ 126

    वैसे तो द्विवेदी जी का संपूर्ण बालसाहित्य समीक्षकों द्वारा सराहा गया है, तथा उनकी रचनाएँ नन्हें-मुन्नों से लेकर किशोरों तक के गले का कंठहार बनी हैं, परंतु उनकी प्रसिद्धि उनके राष्ट्रीय बालगीतों के कारण अधिक हुई है। उनके राष्ट्रीय बालगीत सहज ही चेतना का संचार कर देते हैं। नए हिंदुस्तान के निर्माण की भावना का बोध कराती हुई निम्नलिखित पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-

 हम स्वतंत्र भारत के बच्चे, हम स्वतंत्र माँ की संतान। 

हम सब मिल निर्माण करेंगे, आज नया यह हिंदुस्तान। - गीत भारती: पृष्ठ 7

धन्य हमारे भाग्य ,हुए जो हम इस भारत में उत्पन्न।

रामकृष्ण जिस की गोदी में, खेले निसदिन परम प्रसन्न। - बाँसुरी : पृष्ठ 8

    द्विवेदी जी ने अपनी छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से बच्चों के मन की बात कही है। उन्हें बात-बात में चुपके से सीख भी दी है परंतु उपदेश देकर नहीं, बल्कि बड़े ही सहज रूप में दृष्टांत देकर बुराई को छोड़कर अच्छाई को अपनाने पर बल दिया है। उनकी दृष्टि में भाग्य के भरोसे रहना ठीक नहीं है, तभी तो वे कहते हैं-

देखो नहीं हाथ की रेखा, पलटो मत पन्ना-पोथी।

मीन-मेष कुछ कर न सकेगा, ये सारी बातें थोथी।

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नहीं भाग्य का मुख देखो तुम, अपने बनो विधाता आप। 

चलो बढ़ो अपने पाँवों से, लो सारी दुनिया को नाप। 

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फूल-फूल कर हँसते रहते, नित सुगंध फैलाते हैं। 

जो आते हैं बस उन्हीं के, मन को सुख पहुँचाते हैं

काँटे नोक निकाले रहते, बिल्कुल नहीं लजाते हैं

जो आते हैं पास उन्हीं के, तन में झट छिद जाते हैं 

फूलों को सब चुन लेते हैं, लगा हृदय से करते प्यार 

काँटो का कुछ मान न होता, सब देते उनको दुत्कार। - तितली रानी: पृष्ठ 20,21

    शिशु गीत छोटे बच्चों को इतना अधिक आकर्षित करते हैं कि वे उन्हें सहज ही कंठस्थ कर लेते हैं, परंतु शिशु गीतों की रचना अत्यंत कठिन होती है। इस कठिनाई का उल्लेख सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार निरंकार देव सेवक ने इस प्रकार किया है- "बहुत छोटे बच्चों के लिए मनोरंजक कविता लिख लेना बड़े बच्चों के लिए कविता लिखने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है। छोटे बच्चों का स्वभाव इतना चंचल और मनोभावनाएँ इतनी उलझी हुई होती हैं कि बड़े उन्हें प्राय: आसानी से समझ भी नहीं पाते।" - बालगीत साहित्य :पृष्ठ 30

  यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि द्विवेदी जी ने शिशुओं के मनोभावों का बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है। उनके अनेक शिशु गीत बहुत लोकप्रिय हैं। उदाहरण के लिए उनके कुछ शिशु गीत प्रस्तुत है-

 नटखट पांडे आए आए

 पकड़ किसी का घोड़ा लाए

घोड़े पर हो गए सवार 

घोड़ा चला कदम दो-चार

 नटखट थे पूरे शैतान

 जमा दिए दो कोड़े तान

घोड़ा भगा छोड़ मैदान 

नटखट पानी गिरे उतान। - शिशु भारती : पृष्ठ 24


सर सर सर सर उड़ी पतंग

फर फर फर फर उड़ी पतंग। 

इसको काटा उसको काटा

खूब लगाया सैर सपाटा। 

खूब लगाया सैर सपाटा

अब लड़ने में जुटी पतंग। 

अरे, कट गई लुटी पतंग। - हँसो- हँसाओ: पृष्ठ 1


मीठा-मीठा होता खाजा 

मीठा होता हलवा ताजा। 

मीठे रसगुल्ले अनमोल 

सबसे मीठे मीठे बोल। 

मीठा होता दाख-छुहारा 

मीठा होता शक्करपारा। 

मीठा होता रस का घोल

सबसे मीठे-मीठे बोल। 

    द्विवेदी जी अपनी एक कविता में बच्चे के माध्यम से सुंदरता की कामना करते हैं, उनकी सुंदरता चतुर्दिक जगत की सुंदरता है। वह सुंदरता ऐसी है जिसमें सब कुछ सुंदर ही सुंदर दिखता है। उनकी दृष्टि में यह संसार, यहाँ की चीजें, यहाँ का वातावरण सब कुछ सुंदर होगा, तो निश्चित रूप से बच्चों का मन और मस्तिष्क दोनों सुंदर होंगे। ईश्वर से यही प्रार्थना करता हुआ बच्चा अपने सुंदर बचपन की भी माँग करता है-

तन हो सुंदर, मन हो सुंदर 

प्रभु मेरा जीवन हो सुंदर। 

जगना सुंदर, सोना सुंदर 

घर का कोना-कोना सुंदर। 

प्रभु मेरा आँगन हो सुंदर 

तन सुंदर मन हो सुंदर ।

कपड़े सुंदर गाना सुंदर 

वाणी सुंदर गाना सुंदर। 

प्रभु मेरा बचपन हो सुंदर

 तन हो सुंदर मन हो सुंदर।

    हमारे आसपास पाए जाने वाले जानवर बच्चों को सदैव अपनी ओर आकर्षित करते है। सुबह-सुबह बच्चे चिड़ियों की चीं-चीं और चूँ-चूँ से अपने दिन की शुरुआत करते हैं। पंचतंत्र के रचनाकार विष्णु शर्मा ने राजा के बिगड़े हुए बच्चों को सुधारने के लिए जानवरों को ही प्रतीक के रूप में चुना और उन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई। पंचतंत्र आज भी बच्चों के लिए रोचक कथाओं का ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें सभी जगह कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। द्विवेदी जी ने भी बच्चों को वर्णमाला सिखाने के लिए विभिन्न जानवरों की आवाजों का बड़ा रोचक प्रयोग किया है-

रामू बोला - - गदहे से

गदहे पढ़ क ख ग घ यों। 

गदहा पोथी लेकर बोला-

चीपों चीपों चीपों चीपों।

रामू बोला- - चूहे से

चूहे पढ़ अ आ इ ई। 

चूहा पोथी लेकर बोला- 

चीं चीं चीं, चीं चीं चीं ।

रामू बोला-- कुत्ते से

कुत्ते पढ़ उ ऊ ए ऐ । 

कुत्ता पोथी लेकर बोला - 

भों भों भों, भों भों भों। - हँसो हँसाओ: पृष्ठ 8

   नैतिक शिक्षा जीवन के लिए बहुत आवश्यक है, इसीलिए प्राइमरी स्तर पर नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य कर दिया गया है। यही नैतिक शिक्षा अगर रोचक बालगीतों के माध्यम से दी जाए तो बच्चे उसे आसानी से ग्रहण कर लेंगे। द्विवेदी जी जी के अनेक रोचक बालगीतों में नैतिकता का समावेश है। ये बालगीत कहीं मनोरंजन की चाशनी में पगे हुए हैं, तो कहीं इनमें उत्साह का सागर हिलोरे ले रहा है-

खेलोगे तुम अगर फूल से, तो सुगंध फैलाओगे। 

खेलोगे तुम अगर धूल से, तो गंदे बन जाओगे। 

कौवे का यदि साथ करोगे, तो बोलोगे कड़वे बोल। 

कोयल का यदि साथ करोगे, तो तुम दोगे मिसरी घोल। 

जैसा भी रंग रँगना चाहो, घोलो ले वैसा ही रंग। 

अगर बड़े तुम बनना चाहो, तो तुम रहो बड़ों के संग। - नवीन रश्मि द्वारा संपादित :हिंदी के श्रेष्ठ बालगीत: पृष्ठ 35, 36

    सोहनलाल द्विवेदी जी की एक और बड़ी मजेदार कविता है- चाॅबी का गुच्छा। इस कविता में आगे लटक रहा चाॅबी का गुच्छा चलने के साथ-साथ, जो-जो क्रियाएँ करता है, उसका बड़ा रोचक वर्णन किया गया है। इस विषय पर मैंने कोई दूसरी बच्चों की कविता नहीं पढ़ी है। कुछ पंक्तियों का आप भी आनंद लीजिए-

चलने में देता है बहार 

चाॅबी का गुच्छा मजेदार। 

जब दादा चलते झूम-झूम

तब गुच्छा बजता घूम-घूम। 

पग-पग पर खनखन झनकदार

चलने में देता है बहार

चाॅबी का गुच्छा मजेदार।

    इस मज़ेदार गुच्छे की एक और मज़ेदार बात है कि वह पूरा अजायबघर है। उससे कितनी सारी और चीज़ें जुड़ी हैं जो बच्चों का सहज मनोरंजन करती हैं-

चाॅबियाँ, अँगूठी, दँतखुदनी

छल्ले में सब हैं, गुथी बनीं। 

लो देखो इसको फेर-फार

चलने में देता है बहार

चाॅबी का गुच्छा मज़ेदार। - हँसो-हँसाओ: पृष्ठ 25

    ऊपर दिए गए बालगीतों के अतिरिक्त भी द्विवेदी जी के एक से एक मज़ेदार बालगीत हैं, परंतु इस छोटे से आलेख में उन सभी को समेट पाना संभव नहीं है। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे लखनऊ में उनके मुख से अनेक बार उनके बालगीतों को सुनने का अवसर मिला है। उनका कविताएँ सुनाने का ढंग बिल्कुल निराला था। वे आँख मूँदकर और तन्मय होकर बालगीतों का सस्वर पाठ करते थे। उनसे जब भी बालसाहित्य की चर्चा होती थी, तो वे अपना अनुभव बताते-बताते भावुक हो जाते थे। उसमें इतनी सघनता होती थी कि कभी-कभी सामने रखी हुई गरम चाय बिल्कुल ठंडी हो जाती थी। उनका अनुभव इतना व्यापक था की आज से 30-35 वर्षों पूर्व के उस समय के हम युवा बालसाहित्यकार उनको सुनते हुए उसी में डूब जाते थे। 

    द्विवेदी जी को उत्कृष्ट बालसाहित्य लेखन के लिए अनेक प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार प्राप्त हुए थे। उत्तर प्रदेश शासन द्वारा सन् 1974 में उन्हें बालसाहित्य की विशिष्ट सेवाओं के लिए पुरस्कृत किया गया था। द्विवेदी जी को कानपुर विश्वविद्यालय ने 'डॉक्टरेट' की मानद उपाधि से भी भी सम्मानित किया था। भारत सरकार द्वारा उन्हें 'पद्मश्री' से भी विभूषित किया गया था। उन्हें राजस्थान विद्यापीठ द्वारा सर्वोच्च उपाधि 'साहित्य चूड़ामणि' से भी अलंकृत किया गया था। 

   आज द्विवेदी जी सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनका विपुल साहित्य हमें लंबे समय तक प्रेरणा देता रहेगा। अपनी स्मरणीय बालकविताओं के माध्यम से वे हमेशा पीढ़ी दर पीढ़ी याद किए जाएंगे। आज भी हिंदी और अहिन्दी भाषी प्रदेशों के पाठ्यक्रमों में बच्चे उनकी कविताएँ पढ़ रहे हैं। द्विवेदी जी के साहित्य पर शोध करने वाले डॉ० विजय कुमार मल्होत्रा के इन उद्गारों के साथ इस लेख का का समापन करना मैं उचित समझता हूँ-

    "द्विवेदी जी के बालगीतों ने अनेक पड़ाव पार किए हैं, अनेक प्राकृतिक रूपों का साक्षात्कार किया है, विभिन्न पुरुषों के दर्शन किए हैं तथा जीवन और जगत के विभिन्न पक्षों का अवलोकन किया है। उनके बालगीत आधी शताब्दी से भी अधिक समय से असंख्य बच्चों को गुदगुदाने, खिलखिलाने, हँसाने, झुमाने के साथ-साथ राष्ट्रीयता, देशभक्ति और मानव सेवा का पाठ भी पढ़ा रहे हैं, साथ ही जीवन में आगे बढ़ने का संबल भी प्रदान कर रहे हैं।" - सोहनलाल द्विवेदी और उनका काव्य : पृष्ठ 243

© प्रो. सुरेन्द्र विक्रम

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